Friday, November 2, 2018


यू टू कर्म मी टू उसका फल

  कर्मवाद भारतीय संस्‍कृति का महत्‍वपूर्ण सिद्धांत है। कर्मवाद के अनुसार प्रत्‍येक कर्म का एक फल निश्‍चित है और प्राप्‍ति भी सुनिश्‍चित है। इस विषय में कोई किन्‍तु-परन्‍तु नहीं। गीता में तो कर्मवाद का प्रमुखता से वर्णन किया गया है। गीता कहती है, कर्म कर फल की चिंता मत कर, फल प्राप्‍ति तो अवश्‍यंभावी है। इतना अवश्‍य है कि कुछ कर्मों के फल खाप पंचायती फैसलों की तर्ज पर इस हाथ दे, उस हाथ ले के आधार पर साथ-साथ मिल जाते हैं। उदाहरण के रूप में दीवार में सर मारोगे तो सर हाथ के हाथ ही फूटेगा। सभी जानते हैं, फिर भी लोग दीवार से सर टकारते ही हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, अदालती फैसले की तरह जिनकी फल प्राप्‍ति में वर्षों लग जाते हैं। कभी-कभी तो अगले जन्‍म में। भारतीय संस्‍कृति के अनुसार उन्‍हें प्रारब्‍ध कहते हैं।
मीटू भी एक कर्म फल ही है। युवावस्‍था में किए किए गए यूटू कर्म का फल। कुछ विचारकों को फल प्राप्‍ति पर नहीं, प्राप्‍ति की अवधि पर आपत्‍ति है। उनकी शिकायत है कि कर्म तो युवावस्‍था में किया था। फल मिलने में इतनी देरी क्‍यों? हाथ के हाथ ही क्‍यों नहीं मिल। संभवतया ऐसे विचारक कर्मवाद के पूर्ण रहस्‍य से अनभिज्ञ हैं। दरअसल अल्‍पकालिक कर्मफल और दीर्घकालिक कर्मफल का संबंध कर्म के घनत्‍व पर आधारित है। खेले गए यूटू का घनत्‍व यदि छिछली प्रकृति का है, सांसारिक भाषा में जिसे छेड़खानी कहते हैं। तो ऐसे कर्मों का फल जूते-चप्‍पलों के रूप में इस हाथ दे, उस हाथ ले के आधार पर साथ के साथ प्राप्‍त हो जाता है। यूटू कर्म यदि गंभीर घनत्‍व वाला है। अर्थात गंभीर प्रकृति का है, तो ऐसी स्‍थिति में सकारात्‍मक फल प्राप्‍ति की संभावना प्राय: प्रबल रहती हैं। ऐसे अनेक यूटू कर्मी देखने में आए हैं, जो एक-दूजे के साथ संपूर्ण जीवन यू-टू, यू-टू खेलते-खेलते व्‍यतीत कर देते हैं। भारतीय संस्‍कृति में ऐसे महानुभाव सद्-कर्मी कहलाते हैं। 
एक यूटू खेल मध्‍यमार्गी प्रकृति का भी पाया जाता है। अर्थात पूर्णतया मन पर आधारित। जब तक मन चाहा खेल लिया, जब नहीं चाहा कपड़े-लत्‍ते झाड़ अपने-अपने घर चले गए। ऐसे यूटू कर्मों की फल प्राप्‍ति में प्राय: अदालती फैसले के समान थोड़ा समय लगता है। किन्‍तु, फल देर-सबेर मिलता ही है। मीटू ऐसे ही मध्‍यमार्गी यूटू कर्मों का फल है। कर्म किया है तो फल मिलेगा ही। अवधि को लेकर दुख का कारण क्‍या?       
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यू-टू से मी-टू तक


ब्रह्म मुहूर्त था। हम युवावस्था की मधुर स्मृतियों के चर्वण में तल्ली़न थे। सहसा ही श्रवणेंद्रियों में मी-टू, मी-टूकी मधुर ध्वनि गूंजने लगी। विचार करने लगा संभवतया अतीत की पर्त के नीचे दबी कोई स्मृति कह रही है, ‘मैं भी, मैं भी। सुखद आश्चर्य के साथ श्वान मुद्रा में दोनों कान इधर -उधर घुमाए। तत्पश्चात उठकर बैठ गया, कक्ष के चारों कोनों का अवलोकन किया, कोई नहीं था। बिस्तर से खड़ा हुआ। किवाड़ों की बिवाइयों से बाहर की ओर झांका। बाहर भी कोई नहीं था, लेकिन मी-टू, मी-टूकी मधुर ध्‍वनि बारबार गुदगुदी-सी कर रही थी। 
भोर हुई, पत्नी चाय लेकर प्रस्तुत हुईं और बोली, ‘ पामेरियन पिल्ले के समान आंखें लाल-लाल! क्या रात भर जागते रहे? होले- होले आंखें सहलाई, मगर लज्जा की मारी आंखें पत्नी की आंखों के साथ दो-चार करने की स्थि‍ति में नहीं आई। झुकी-झुकी गरदन, हमने कहा- नहीं-नहीं, हम तो निद्रालीन थे, इस मी-टू, मी-टूकी ध्वनि ने सोने नहीं दिया। आश्चर्य के साथ पत्नी जी ने मी-टू, मी-टूदोहराया और इसके साथ ही कद्दू-से उनके मुखमंडल पर चिंता की लकीरें उतर आईं। पत्नी जी की दशा देख प्रेम और सहानुभति से पगी वाणी में हमने कहा- अरे! आपके मुखमंडल पर सूखे रेत पर पानी की-सी लकीरें! …चिंता का कारण,  प्रिय? धिक्कारने के लहजे में पत्नी बोली- कितना समझाया था, शदीशुदा हो, बाज आ जाओ बचकाना हरकतों से! मगर, बाज नहीं आए, अब भुगतो! इतना कहकर समृद्ध वृक्ष के तने-सी कमर को झटका देकर पत्नी जी खड़ी हुईं और बड़बड़ाती हुई चली गईं। चाय की चुस्की  के साथ हम विचार मुद्रा में चले गए। विचार करने लगे- इस मी-टू, मी-टूका अतीत की हमारी हरकतों से क्या संबंध?  अतीत में यू-टू, यू-टू  तो सुना था। वर्तमान में न जाने उल्‍का की भांति यह नया शब्‍द मी-टू, मी-टू कहां से टपक आया। कमज़र्फ़ ने पत्‍नी जी को परेशान कर दिया, हमारे अतीत का स्‍मरण करा दिया। राख में दबी चिंगारियां पुन: सुलगा गया!     
विचारों की गठरी लादे हम रसोई घर में पहुंचे। पत्‍नी जी को मक्‍खन लगाया और मी-टू रहस्‍य के प्रति जिज्ञासा व्‍यक्‍त की। चिकित्‍सक की मुद्रा में पत्‍नी जी ने कहना शुरू किया, सुनों जी! यह एक भयानक वायरस है। भयानक इतनी कि अच्‍छे-अच्‍छे अक्‍बर भी इससे नहीं बच पाए। विशेष रूप से जीवन के अंतिम पड़ाव में विचरण करने वाले तुम्‍हारे जैसे पुरुषों को अधिक लपेटती है। इसका काटा पानी भी नहीं मांगता, जी। श्रीमती जी के वचन सुन मस्‍तिष्‍क कुल्‍फी-सा जम गया। तन तुषार पीड़ित लता के समान कांपने लगा। तन-मन पर नियंत्रण कर हमने जिज्ञासा व्‍यक्‍त की- ऊर्जा दायक यू-टू, यू-टू तो सुना था। मी-टू, मी-टू कहां से प्रकट हो गया कमबख्‍त? पत्‍नी जी बोली- धैर्य धारण करो स्‍वामी। वही बताने जा रही हूं। युवावस्‍था में जिन पुरुषों ने यू-टू- यू-टू का खेल खेला था, उन्‍हीं को अपनी चपेट में ले रही है, मी-टू, मी-टू वायरस। तुम तो काम से गए स्‍वामी। पत्‍नी जी तो हमारे अतीत और वर्तमान को झकझोर कर अपने काम में व्‍यस्‍त हो गईं। और, हम अतीत पर जमी काई की एक-एक पर्त उखाड़ कर संभावित अपने वर्तमान की दलदल से उबरने की चेष्‍टा में व्‍यस्‍त हो गए।
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Wednesday, July 18, 2018



असत्‍य ही सत्‍य है

जहां सत्‍य है, वहां सुशासन नहीं! और, जहां सुशासन है, वहां सत्‍य नहीं! अत: हे, सत्‍यान्‍वेषकों ! हे, सत्‍यानुगामियों सत्‍य से पल्‍ला झाड़, असत्‍य का अनुगमन करो। असत्‍य पर आरूढ़ होकर सुशासन आ रहा है। सुशासन का स्‍वागत करो। 
असत्य ही विकास-मार्ग प्रशस्‍त करता है। असत्‍य ही प्रगति का वाहक है। असत्‍य अनुगामी ही शिखर का स्‍पर्श करते हैं। सत्‍यगामी तलहटी में पकौड़े ही तलते रह जाते हैं। असत्‍य पानी में तेल की उस बूंद के समान है, जो सदैव ही पानी के ऊपर तैरती रहती है। पात्र में कितना भी पानी भरो, तेल की बूंद ऊपर ही रहेगी। उसी प्रकार असत्‍य पर जितनी चाहे सत्‍यरूपी कीचड़ फेंकों, वह मणिकणिका की भांति सदैव ही देदीप्‍यामान रहेगा। असत्‍य दूध के ऊपर तैरती मलाई है, क्रीमी लेयर है।  अत:  असत्‍य का अनुगमन करो।    
असत्य सर्वत्र है। सार्वभौम है। आदि है अनादि है अनन्‍त है। असत्य मर्यादा है। युगधर्म है। राजधर्म है। असत्‍य ही जीवन्‍त है, जीवन है। असत्य बिन सब व्यर्थ है। बिनु पग चलइ, सुनइ बिन काना। कर बिन कर्म करहिं विधि नाना।। यथार्थ में अस्‍तित्‍व के लिए असत्‍य को किसी नश्‍वर शरीर के नश्‍वर अंगों की आवश्‍यकता नहीं है। अफवाह उसका वाहन है। अफवाह पर सवार हो कर वह वायु गति से संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड में व्‍याप्‍त हो जाता है। यही सत्य है।
सत्‍य पीड़ादायक है। सदैव ही कटु होता है। और, कटु वचन निषेध है। 'सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् , न ब्रुयात् सत्‍यं अप्रियं।' वस्‍तुत: सत्‍य सदैव ही अप्रिय होता है। अप्रिय सत्‍य हिंसा है। भारत गांधी का देश है। अहिंसा परमोधर्म के मूल मंत्र का समर्थक है। यहां हिंसा के लिए कोई स्‍थान नहीं है। मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा वर्जित है। सत्‍य मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों ही प्रकार से हिंसा वृत्‍ति है। सत्य वचन हमेशा ही दूसरों के मन को व्यथित करते हैं,  कष्ट पहुंचाते हैं। आचार-विचार में सत्य का सहारा लेने वाले व्यक्ति 'परिचित्तानुरंजन' प्रवृति के जीव होते हैं। 'परिचित्तानुरंजन' हिंसा है और हम हिंसावादी नहीं हैं। क्योंकि हम गांधी- मार्ग का अनुसरण करते हैंहम स्वभाव ही से उदारवादी हैं, अहिंसावादी हैं।  अत: सत्यवादी मार्ग का त्‍याग कर। असत्‍य मार्ग का अनुसरण करो।  क्‍योंकि,  असत्‍य पीड़ा रहित होता है। असत्‍य सदैव ही प्रिय होता है। राजभोग के समान माधुर्यपूर्ण होता है। तभी तो असत्‍यानुगामी राज- भोग करते हैं। अत: असत्‍य का अनुगमन करो। स्‍वयं भी प्रसन्‍न रहो दूसरों को भी प्रसन्‍न रखो। असत्‍य दिव्‍य आकर्षण शक्‍ति से ओतप्रोत होता है। क्‍योंकि, श्रुतिप्रिय होता है। असत्‍य जन- जन को उसी प्रकार आकर्षित करता है। जिस प्रकार पुष्‍पगंध भंवरे को। जिस प्रकार मक़नातीस लोहे को। असत्‍य जिस ओर भी चल पड़ता है, कोटि-कोटि पग उसी ओर विचरने लगते हैं। असत्‍य जिस ओर भी दृष्‍टिपात करने लगता है, कोटि-कोटि दृष्‍टि उसी और तुषरपात-सा करने लगती हैं। वस्‍तुत: असत्‍य ही सत्‍य है। केवल असत्‍य ही सत्‍य है। और, यही सत्‍य है।


Thursday, August 10, 2017

आनन्‍द
स्‍मृतियां !
दीवार पर चस्‍पा,
काई की परतें।
कल्‍पनाएं !
बंद किवाड़ों की बिवाइयों
से झांकता आंगन ।
स्‍मृतियां/ कल्‍पनाएं
अतीत/ भविष्‍य
और, वर्तमान ?
मुरझा गया है,
बंद किवाड़ों के आंगन में
खड़े शजर की तरह।
अतीत मृत्‍यु  है,
स्‍मृतियां मृत्‍यु का आलिंगन।
भविष्‍य अज्ञात है,
कल्‍पनाएं अरण्‍य में भटकना
अतीत और भविष्‍य से परे
स्‍मृति और कल्‍पनाओं से विलग
वर्तमान ही जीवन है।
वहीं आनन्‍द है।
वही आनन्‍द है।


Wednesday, November 4, 2015

मूंग की दाल


 
बॉस की झाड़ और राह की धूल, दोनों झाड़ने के बाद मुन्नालाल खाना खाने बैठ गया। रोटी का टुकड़ा तोड़ा और सब्जी की कटोरी में भिगोया। टुकड़ा कटोरी में ऐसे डूब गया जैसे बिना पतवार की नाव नदी में। मुन्नालाल का जायका बे-जायका हो गया। उसने चिल्लाकर पत्नी से पूछा, ''भागवान! आज यह क्या बना लाई?''
पत्नी ने रसोई से ही सहज भाव से जवाब दिया, ''दाल!''
पत्नी का जवाब सुन मुन्नालाल आसन से खड़े हो कर बदन के कपड़े उतारने लगा। तभी दूसरी रोटी लेकर पत्नी रसोई से बाहर आई और पति की हरकत देख अवाक रह गई। आश्चर्य व्यक्त करते हुए उसने पूछा, ''क्यों जी! खाना खाते-खाते यह क्या?''
मुन्नालाल ने जवाब दिया, ''कुछ नहीं! बस कपड़े उतार कर कटोरी में डुबकी लगाने की सोच रहा हूँ।''
पत्नी ने पूछा, ''क्यूं जी?''
मुन्नालाल ने जवाब दिया, ''कुछ नहीं! तुम्हारी बनाई दाल में दाल के दाने खोजने के लिए।'' 
पत्नी पहले तो खिल-खिला कर हँस दी और फिर खिन्न भाव से बोली, ''दस हजार रुपल्ली की तनख्वाह में दाल मक्खनी के ख्वाब देखते हो!'' 
निरीह भाव से मुन्नालाल बोला, ''मक्खनी दाल मैने कब माँगी है। मूंग-मसूर जिसकी भी दाल बनानी थी, दो-चार दाल के दाने तो गरम पानी में डाल देती।''
महंगाई की तरह पत्नी ने नाक-भौं सिकोड़ी और फिर कटाक्ष किया, ''यह मुंह और मसूर की दाल। महंगाई के आइने में थोपड़ा देखे कितने दिन हो गए हैं? कभी-कभी घर के पिछवाड़े जाकर दुकानदार का आइना भी झाँक आया करो। पता है, मूंग की दाल भी अंतरिक्ष की सैर पर निकली है। दाल के दो-चार दाने ही डिब्बे में बचे हैं, उन्हें हारी-बिमारी में खिचड़ी बनाने के लिए बचा कर रखा हैं।'' 
झड़-बेरी के बेर की तरह मुन्नालाल का चेहरा महंगाई पुराण की कथा सुन सिकुड़ कर रह गया। बदन के कपड़ों पर से पकड़ ढीली पड़ गई। वह अनमने मन से रोटी का टुकड़ा सटकने बैठ गया। तभी पत्नी ने फिर कटाक्ष किया, ''जल्दी करो, कहीं म्यूनिसपैल्टी ने भी पानी के दाम बढ़ा दिए तो सूखी कटोरी से ही टुकड़ा रगड़ना पड़ जाएगा।''
टुकड़े सटकते-सटकते वह सोचने लगा, 'कैसा जमाना आ गया है, टमाटर गरीब के पथरी करने लगा है। गरीब की रोटी छोड़ प्याज राजनीति में चला गया है। उसकी रुचि सरकार गिराने बनाने में है। नेताओं की तरह गरीब की थाली में कभी-कभी दिखलाई पड़ती है। एक बचा था आलू, उसे भी अब सब्जियों का राजा होने का अहसास हो गया है। उसने भी आम आदमी से मुंह फेर लिया है। शुक्र है! जैसी भी है, हथेली पर रोटी बरकरार है। पता नहीं कितने दिन।'' उसने फटाफट वजन पेट में डाला और चारपाई पकड़ ली। आँख लगी ही थी कि सपने में एक सुंदरी ने प्रवेश किया। मंद-मंद मुसकराते हुए उसने अपने मुख पर हाथ फेरा और उसकी तुलना मसूर की दाल से करते हुए पूछा, ''भद्रे! आप कौन हैं? कौन सी दाल का प्रतिनिधित्व करती हैं?'' 
सुंदरी मुसकरा कर बोली, ''प्रिय मुन्नालाल, ठीक पहचाना! मैं दाल ही हूँ, मगर मूंग की दाल..।'' मुन्नालाल बीच ही में बोला, '' ..किंतु, भद्रे! तुम्हें तो पत्नी ने हारी-बीमारी में खिचड़ी के लिए डिब्बे में बंद कर रखा है!'' 
''चिंता मत करो, प्रिय! भोग के लिए मैं यहाँ उपस्थित नहीं हुई हूँ। जब तुम बीमार पड़ोगे तो खिचड़ी में अवश्य दर्शन दूंगी!''
''.. फिर अब यहाँ क्यों?'' ''तुम्हारी चिंता, तुम्हारी शंका निवारण करने के लिए उपस्थित हुई हूँ, प्रिय!'' 
''कहो, शीघ्र कहो, जो भी कहना है! देश के कर्णधारों को यदि पता चल गया कि तुम मुन्नालाल के सपनों में आती हो तो उस पर भी पाबंदी लगा देंगे।'' 
''चिंता न करो, प्रिय! दिवास्वप्न पर पाबंदी लग सकती है। रात्रि-स्वप्न देखने से तुम्हें कोई वंचित नहीं कर पाएगा।''
स्‍वप्‍न-सुंदरी का चेहरा ठण्डे पानी में भीगी दाल की तरह यकायक सिकुड़ गया और ठिठुरे मुंह से वह आगे बोली, ''प्रिय! सरकार ने तुम्हें गरीबी रेखा से ऊपर खींचने का भरसक प्रयास किया, किंतु तुम फैवीकोल के जोड़ की तरह वहीं चिपके रहे। जब अहसास हुआ कि लक्ष्मण रेखा पार न करने के लिए तुम प्रतिज्ञाबद्ध हो, तो सरकार ने लक्ष्मण रेखा का दायरा सीमित करने का प्रयास किया, किंतु खेद कि तुम फिर भी सीमा रेखा से बाहर नहीं आए। सरकार दिन-रात तुम्हारी ही बेहतरी की चिंता में दुबली हो रही है। जब भी अवसर प्राप्त होता है, अच्‍छे दिन आएं या न आएं किंतु तुम्हें अच्‍छे दिन' का अहसास करने के प्रयास में लगी रहती है, किंतु खेद कि तुम्हारे भाग्य का सूर्य हमेशा बादलों में ही छिपा रहता है,चमक ही नहीं पाता।''
सुंदरी ने ठिठुरे अपने चेहरे पर हाथ फेर कर झुर्रीयां मिटाने का प्रयास किया और फिर आगे बोली, ''बताओ, प्रिय तुम्ही बताओ! मैं या प्याज, आलू या टमाटर, कब तक तुम्हारे साथ चिपके रहते। अपना-अपना मुकद्दर प्रिय! तुम गरीबी की लक्ष्मण रेखा लांघ न सके, इंतजार के बाद हम रेखा लांघ ऊपर वालों की जमात में शामिल हो गए। प्रिय! मैं भी कब तक घर की मुर्गी के भाव तुलती रहती, आखिर मेरे भी तो अपने अरमान है, सपने हैं।''
इतना कह कर मूंग की दाल मुन्नालाल के सपने से भी गायब हो गई। उसने करवट बदली और गहरी नींद लेने का महंगा प्रयास किया। तभी दूसरा सपने ने उसे आ घेरा, ''घास की रोटी का एक टुकड़ा उसके हाथ में था, जिसे वह डिब्बे में छिपाने जा रहा था, तभी एक ऊदबिलाऊ उसकी ओर झपटा और उसके हाथ से टुकड़ा छीन कर भाग गया!''
भयभीत मुन्नालाल के मुंह से चीख निकली। चीख सुनकर उसकी पत्नी भी जाग गई। सपने की बात उसने पत्नी को बताई। पत्नी ने उसे सांत्वना दी, ''डरो मत, सो जाओ। ऊदबिलाऊ नहीं था, महंगाई थी।''

††††

Wednesday, September 2, 2015

चरण कमल बंदौ..!



उन्हें आज शर्मा जी के विद्यालय का उद्ंघाटन करने आना है। समारोह का उदघोषक बार-बार घोषणा कर रहा है- मंत्रीजी के चरण कमल शीघ्र ही पड़ने वाले हैं।
उदघोषक मंत्रीजी के आने में विलंब का कारण बता रहा है, मंत्रीजी किसी आवश्यक मीटिंग में व्यस्त हैं। वह शाश्वत सत्य का उच्चारण कर रहा है। नेता मीटिंग, चीटिंग, डेटिंग में ही व्यस्त रहा करते हैं!
मंत्रीजी अपने जीवन में पहली बार ही किसी विद्यालय में प्रवेश करेंगे। इससे पूर्व उन्होंने कभी निगम की प्राइमरी पाठशाला में भी प्रवेश प्राप्त करने की जहमत नहीं उठाई। अब विद्यालयों में आना-जाना उनकी मजबूरी है, क्योंकि वे शिक्षामंत्री हैं। शिक्षामंत्री न भी होते तो भी शर्मा जी के उद्घाटन समारोह में तो उन्हें आना ही था, क्योंकि शर्मा जी इलाके के बड़े इंडस्ट्रियलिस्ट हैं। यह भी एक शाश्वत सत्य है कि नेता के इंडस्ट्रियलिस्ट, जर्नलिस्ट, पामिस्ट्रों से ही प्रगाढ़ संबंध होते हैं। 
मंत्रीजी पधार चुके हैं। उदघोषक बता रहा है, मंत्रीजी अब अपने करकमलों से फीता काट कर विद्यालय का उदघाटन करेंगे। मंत्रीजी ने चांदी की थाली में रखी चांदी की कैंची उठाई, चांदी का रिबन काटा और विद्यालय छात्रों को समर्पित कर दिया। वे जब से राजनीति में आए हैं, तब से उनकी चांदी ही चांदी है। थाली भी चांदी की, कैंची भी चांदी की ही, रिबन भी चांदी का ! मंत्रीजी चांदी से चांदी काट रहे हैं!
उदघोषक बता रहा है, मंत्रीजी अब अपने कमल मुख से शिक्षा के महत्व पर प्रकाश डालेंगे! इसके साथ ही उदघोषक महोदय आज के इस शुभ दिन का महत्व का बखान करते हुए एक रहस्योदघाटन भी करता है। वह बता रहा है कि मंत्रीजी की कृपा से आज ही के दिन शर्माजी को पुत्र-रत्‍‌न की प्राप्ति हुई थी।
मंत्रीजी कमल नयनों से छात्रों को निहारते हैं और फिर कमल मुख से शिक्षा के महत्व पर बोलना शुरू करते हैं। मंत्रीजी बोलना शुरू करते हैं और हम विचार करना, 'निरक्षर रहकर शिक्षामंत्री बनना लाभप्रद है अथवा साक्षर हो कर शिक्षामंत्री का दरबारी बनना?' शर्माजी को पुत्ररत्‍‌न प्राप्ति में मंत्रीजी की कृपा का योगदान हमारे विचार-मंथन का दूसरा विषय था। हमारे लिए विचारणीय तीसरा प्रश्न था, 'मंत्रीजी का यकायक कमल-कमल हो जाना।'
वास्तव में जब से वे राजनीति में आए हैं, उनके शरीर में कुछ जैविक परिवर्तन होने लगे हैं। इंसान तो वे पहले भी नहीं थे। इंसान के रूप में कुछ और ही थे, मगर अब तो उनका संपूर्ण शरीर ही कमल हो गया है। वे कमल स्वरूप हो गए हैं। हां, उनके चरण कमल हो गए हैं। कर कमल हो गए हैं। नयन भी कमल हो गए हैं और मुख भी कमल!
चरण कमल, कर कमल, नयन कमल, मुख कमल। कुल जमा वे 'चरण कमल बंदौ रघुराई' हो गए हैं। हमारा मन भगवान राम का स्तुति-गान करने लगता है, 'श्रीरामचंद्र कृपालु भज मन हरण भवभय दारुणं। नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज पद कंजारूणं॥'
हम आश्चर्यचकित हैं कि कल तक जिनका स्वरूप कैक्टस के माफिक था, यकायक वे कोमलांग कैसे हो गए, कमल कैसे हो गए? कल तक जो हाथ बबूल की लकड़ी से कर्कश थे, वे यकायक कमल-ककड़ी हो गए, जिन पैरों की आहट से बस्ती कांपती थी, वे अब कमल-शाख हो गए हैं, भय का प्रतीक मुख मंडल, भवभय दारुणं हो गया है और ज्वाला उगलते नयन कमल से निर्मल किस प्रकार हो गए!
आश्चर्य-घोर आश्चर्य, कैक्टस से गुलाब हो जाते तो भी गनीमत थी, फूल के साथ कम से कम कांटे तो होते। बस समानता इतनी शेष बची है कि कल तक वे हाथ में खंजर लिए समारोह का समापन करते थे। आज हाथ में कैंची लिए घूमते हैं, लाल-लाल फीते काटते हैं, उदघाटन करते हैं।
हम सोच रहे हैं कि क्या राजनीति क्षीर सागर हो गई है? उसमें जो भी गोता लगाता है, विष्णु भगवान का अवतार हो जाता है! नीर- क्षीर विवेक का लेक्टोमीटर हो जाता है!
हमने जीव विज्ञानी अपने एक मित्र से जैविक इस परिवर्तन का कारण पूछा। वे बोले, दोष उस चित्रकार का है जिसने श्रद्धावश भगवान विष्णु को कमल पर बिठा दिया। भगवान को कमल सदृश्य बना दिया। पता नहीं उसे कीचड़ में उगने वाले कमल से क्या प्रेम था कि अपने इष्ट को उसी पर बिठा दिया? वह दूरदर्शी नहीं था!
उसने नहीं सोचा कलियुग में उसी का अनुसरण किया जाएगा। जब लोकतंत्र आएगा तो नेता आदमी न होकर जलचर हो जाएगा। कीचड़ में पैदा होगा, उसमें ही वृद्धि को प्राप्त होगा, उसी में फले-फूलेगा, कमल हो जाएगा!
चित्रकार ने विष्णु को कमल पर केवल बैठाया ही था। शायद उसे मालूम नहीं था, नेता स्वयं ही कमल बन जाएगा, संपूर्ण कीचड़ में धंस जाएगा!
हमारे मित्र बोले, लोकतंत्र में नेताओं ने विष्णु और गणेश दो ही देवताओं को तो स्वीकारा है। विष्णु को स्वीकार कर कमल हो गए और गणेश को स्वीकार कर लंबोदर हो गए हैं। कलियुग अंतिम चरण में है, सतयुग का स्वागत करना है। अत: शंकर के अवतार की आवश्यकता है!