Friday, May 23, 2014

नैकिता के मायने



                    डॉक्टर वात्स्यायन से महर्षि अरविन्द-दर्शन पर टिप्स लेने के लिए मेरठ आया था। 'अरविन्द-दर्शन में मानववाद' मेरे शोध-प्रबन्ध का विषय था। विचार कुछ बदला, सोचा पहले कुछ समय कॉलेज की लाइब्रेरी में ही बैठकर अरविन्द दर्शन पर नोट ले लिए जाएं और मैं लाइब्रेरी की ओर मुड़ गया। कॉलेज लाइब्रेरी वृत्ताकार एक हॉल में थी और उसके एक हिस्से में अ‌र्द्धवृत्ताकार बैल्कनि स्थित थी। जिसमें शोधछात्रों के लिए अध्ययन की विशेष व्यवस्था थी। मैं बैल्कनि में जाकर बैठा ही था कि मेरी नजर सुनीता पर पड़ी। सुनीता वहाँ पहले ही से बैठी थी। उसका चेहरा मुझे कुछ-कुछ उदास-सा लगा। वह शंकर-भाष्य-ब्रह्मंसूत्र के पन्ने कुछ इस प्रकार उलट-पलट रही थी, मानो कहीं कुछ खो गया है और उसे ब्रह्मंसूत्र के पन्नों में खोज रही है। मन उदास होने के कारण उसका ध्यान ब्रह्मंसूत्र-अध्ययन में नहीं था। शंकराचार्य का दर्शन उसके शोध प्रबन्ध का विषय था। मैं उसके पास गया और उसका मन उदासी के आवरण से मुक्त करने के उद्देश्य से हलकी-सी चुटकी ली, ''ओ ऐऽऽऽ! ..ये दीपावली के बुझे दिए का सा चेहरा क्यों बना रखा है?''
  सुनीता मेरी तरफ कुछ इस अन्दाज में घूरी, मानो भगवान शिव कामदेव को भस्म करने के लिए उस पर दृष्टिंपात कर रहे हों। उसी तेवर में वह बोली, ''कुछ पता है..!'' आधे-अधूरे इस वाक्य के साथ ही उसकी आँखें नम हो गई।
  ''अरे, कुछ हुआ भी..! बताओ तो सही..!'' नम आँखें और 'कुछ पता है' का अनुभव कर मेरा मन विभिन्न शंका-आशंकाओं से घिर गया था।
  उसने अपने आप को थोड़ा संयत किया और साहस-सा बटोर कर बोली, ''शोभा! ..लौट आई है..!''
  ''शोभा लौट आई है..!''  मैने आश्चर्य व्यक्त करते हुए आगे कहा, '' एक महीने की छुट्टी बिताकर चार-पाँच दिन पहले ही तो बनारस गई थी!''
  ''हाँ!'' उसने कहा।
  ''क्यों?'' मैने पूछा।
  ''बता न पाऊंगी! ..उसी से पूछ लेना! उसके घर हो आना..! उसे कुछ..!''
  ''तुम भी चलो।''
  ''नहीं, मैं वहीं से आ रही हूँ!'' फिर उसने हिदायत देते हुए कहा, ''देखो! वह बेचारी बहुत परेशान है। ..उसके चेहरे को बुझा..!'' आँखों से नमी बाहर आ गई थी।
  ''ठीक है..!'' स्थिति की भयावहता का अनुमान कर मैं तुरन्त ही शोभा के घर की ओर रवाना हो गया था।
              शोभा, सुनीता और मैने एक साथ ही दर्शनशास्त्र में एमए किया था। शोभा यूनिवर्सिटी की गोल्ड मेडलिस्ट थी। एमए करने के बाद मै विभागाध्यक्ष डॉ. वात्स्यायन के निर्देशन में शोध कार्य करने लगा था। डॉ. वात्स्यायन ने ही डॉ. दिनेश के निर्देशन में शोभा का रजिस्ट्रशन बनारस करा दिया था। और, सुनीता कॉलेज के ही प्रोफेसर डॉ. गर्ग के निर्देशन में शोध कार्य करने लगी थी। जिस समय मैं शोभा के घर पहुँचा वह उदास मन लिए वीणा के तार सहला रही थी। मुझे देखकर उसने निगाह वीणा से हटाकर मेरी ओर की और इस के साथ ही पलकों में छिपी ओस की सी दो बूँदें उसके गाल गीले कर गई। तभी उसकी माँ चाय के बहाने मुझे अलग कमरे में ले गई। वीणा के तार पुन: झनझना ने लगे थे। 
  चाय का कप मेरे हाथ में थमाने के बाद शोभा की माँ कहने लगीं, ''बेटा! तुम्हीं इसे समझाओ! ..जो कुछ हुआ उसे भूल जाए! ..रास्ते तो और भी बहुत हैं..!'' वह इतना कहकर कमरे से बाहर चली गई। सम्भवतया नेत्रों के रास्ते बहती भावनाओं पर नियंत्रण करने के उद्देश्य से।
  एक क्षण के बाद ही वे फिर लौट आई और मैने पूछ लिया, ''आखिर हुआ क्या? मम्मी..!'' हम सभी शोभा की माँ को मम्मी कह कर सम्बोधित करते थे। उन्होंने जो दु:खद वृतान्त बताया उसके अनुसार डॉ. दिनेश ने धीरे-धीरे शोभा के साथ आत्मीय सम्बन्ध स्थापित करने शुरू कर दिए थे। यूनिवर्सिटी के स्थान पर उसे वे अपने निवास पर बुलाने लगे और फिर एक दिन डॉ. दिनेश ने शोभा के सामने पुत्र के साथ शादी का प्रस्ताव रख दिया। शोभ ने प्रस्ताव ठुकरा दिया तो डॉ. दिनेश तरह-तरह से परेशान कर उस पर दबाव बनाने लगे।
  वृतान्त सुनने के बाद मैने पूछा, ''मगर इसमें परेशान होने की क्या बात थी! ..डॉ. दिनेश प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। घर-बाहर भी अच्छा ही होगा, फिर शोभा की शादी तो करनी ही है!''
  आँखों में छलकते आँसू पोंछ कर वे केवल इतना ही बोली, ''लड़का हॉफ मैड था..!''
  लड़के की मानसिक स्थिति सुनकर मेरा तन सिहर उठा और अनैच्छिक क्रिया के समान मेरे मुँह से निकला, ''अफ़्सोस! ..निहित स्वार्थ के लिए होनहार एक लड़की के भविष्य पर प्रश्न चिह्नं!'' इसके बाद शोभा के पास जाने के लिए मेरे पास हिम्मत शेष नहीं थी। हालाँकि उसकी माँ ने कह था कि बेटा तुम भी शोभा को समझाने का प्रयास करो।
  ''अभी उसका मन ठीक नहीं है! कल आऊंगा!'' बहाना बनाकर मैं उसके घर से निकल कर सड़क पर आ गया था।
  डॉ. दिनेश नीतिशास्त्र व तर्कशास्त्र के ख्याति प्राप्त व्याख्याता थे। नैतिकता विषय पर उनके व्याख्यान मैं सुन चुका था। डॉ. दिनेश के नैतिक प्रवचन और शोभा के प्रति स्वार्थपूर्ण व्यवहार की तुलनात्मक समीक्षा करते हुए मैं डॉ. वात्स्यायन के बंगले की और जा रहा था। अब डॉ. वत्स्यायन से अरविन्द-दर्शन टिप्स लेना मेरा उद्देश्य नहीं था। विचार-विमर्श का विषय अब शोभा के साथ डॉ. दिनेश का अमानवीय व्यवहार था। डॉ. वात्स्यायन ही ने शोभा का परिचय डॉ. दिनेश से कराया था।
                 दोपहर के लगभग 12 बजे होंगे। धूप धीरे-धीरे तेज होने लगी थी। मैं 'वात्स्यायन निवास' की लॉबी  में बैठा उनका इन्तजार कर रहा था। पहली मीटिंग के दौरान उन्होंने अवश्य ही ड्राइंग रूम में बैठा कर मुझे कृतार्थ किया था और जिसे मैने अपना सौभाग्य मान था। हैड आफॅ दा डिपार्टमेंट के बंगले के एसी ड्राइंगरूम में बैठनामेरे जैसे व्यक्ति के लिए सौभाग्य का विषय होना स्वाभाविक ही था। थोड़ी देर के इन्तजार के बाद उनका घरेलू नौकर डॉ. वात्स्यायन के बाहर आने का संदेश लेकर आया और संदेश देने के साथ ही लॉबी के पंखें का स्विच भी ऑन कर गया। एक क्षण के उपरान्त सिल्क का कुर्ता सफेद पायजामा और पाँव में सफेद रंग के ही स्लीपर पहने डॉ. वात्स्यायन  बाहर आए। अभिवादन के आदान-प्रदान के साथ ही भूजल स्रोत के समान मन की पीड़ा उनके समक्ष फूटने लगी, ''सर! पता है, शोभा के साथ क्या हुआ!''
  ''क्या हुआ?'' डॉ. वात्स्यायन ने आश्चर्य के साथ पूछा।
  ''सर! डॉ. दिनेश ने अपने लड़के के साथ शादी करने के लिए उस पर दबाव डाला था!''
  ''तो क्या हुआ! शादी कर लेनी चाहिए थी!''
  ''सर! वह पागल है!''
  ''तो क्या हुआ! ..इलाज तो चल रहा था। कल ठीक भी हो जाता। शादी के बाद तो वैसे भी ठीक हो जाना था!'' इतना कहकर डॉ. वात्स्यायन के मुखमंडल पर एक कुटिल मुस्कान व्याप्त हो गई थी। और उसके बाद मुस्कराते हुए पुन: बोले, ''..और, इतनी-सी बात पर वह डॉक्टर साहब का अपमान कर चली आई!'' अब मुझे पता चला कि डॉ. वात्स्यायन इस घटना से अनभिज्ञ नहीं थे। शायद मेरे मन की बात लेने के लिए ही वे अनजान बने हुए थे।
   ''सर! डॉ. दिनेश जैसे विद्वान व्यक्ति से ऐसे अनैतिक व्यवहार की आशा नहीं थी!''
  ''क्या होता है, नैतिक-अनैतिक?'' डॉ. वात्स्यायन ने बडे़ ही सहज अन्दाज से प्रश्न मेरे सामने फैंक-सा दिया था। 
  संवेदनहीन उनके व्यवहार का अनुभव कर मेरे चेहरे पर जुगुप्सा-भाव उतर आए थे। और, मेरे मुख से अचानक ही टीस भरी 'ओह!' निकल गई थी। उसके बाद आश्चर्य से मैं उनका मुँह ताकने लगा था।
  डॉ. वात्स्यायन ने सम्भवतया मेरे चेहरे पर उतर आए जुगुप्सा के भावों को नजर-अन्दाज कर दिया था और पूर्व भाव से ही उन्होंने कहना जारी रखा, ''..तुम्हारे लिए जो अनैतिक है, वही कृत्य नैतिकता की मेरी कसौटी पर खरा उतर सकता है! नैतिक और अनैतिक के बीच बस झीनी-सी अर्थहीन एक रेखा ही तो है!''
   नैतिक और अनैतिक के बीच की रेखा को अर्थहीन बता कर डॉ. वात्स्यायन मुस्करा दिए और होठों पर उसी कुटिलता को कायम रखते हुए बोले,  ''..नैतिक-ता! नीतिशास्त्र के पन्नों में ही खूबसूरत लगती है। पढ़ने-पढ़ाने तक तो ठीक है, जीवन में उतारने के लिए नहीं होती।'' ..नीति वाक्य सुना कर डा. शर्मा पुन: मुस्करा दिये थे। ..एक कुटिल मुस्कान!
  ..शोभा की पीड़ा विचारों के घने जंगल में कहीं गुम-सी हो गई थी और मैं नैतिकता के नए मायनो के साथ अब भविष्य की अंधेरी गलियों में विचरण करने लगा था। ..उनके नीति वाक्य और विषाक्त मुस्कान ने मेरा अन्तरमन घायल कर दिया था। मैं घायल किसी परिंदे की तरह बस तड़प  कर रह गया। ..बहेलिये के जाल में फँसे पँछी की गति और हो भी क्या सकती थी!
  डॉ. वात्स्यायन के निर्देशन में शोध कार्य करते हुए दूसरा वर्ष शुरू हो गया था। मगर इस तरह का व्यवहार पहले कभी नहीं दिखालाई दिया था। जब कभी दोस्तों के बीच डॉ. वात्स्यायन का जिक्र चलता तो दोस्त इतना जरूर कहते, ''यार, तेरा गाइड लालची-सा लगता है।'' मगर श्रद्धा व भक्ति के पाग में पगा मैं डॉ. वात्स्यायन को कभी खुली आँख से देखने का विचार भी मन में न ला सका। लेकिन उस दिन डॉ. वात्स्यायन ने ही आंखों पर बंधी श्रद्धा-भक्ति की पट्टंी तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। लगा कि जैसे भाषण पिलाने के लिए वे पहले ही से तैयार बैठे थे। ''..सुनो, मेरे साथ काम करते-करते तुम्हें दो साल तो हो गए हैं, है ना।''
 स्वीकारोक्ति में मैंने आज्ञाकारी किसी शिष्य की तरह बस गरदन हिला दी थी।
  ''..इन दो साल के अन्दर तुम्हारे आचरण में एक बार भी व्यवहारिकता नजर नहीं आई।'' चिकनी चांद से पसीने पौंछते-पौंछते डॉ. वात्स्यायन बोले।
 ''..जानते हो तुम्हारे डॉ. गर्ग ने भी मेरे अंडर में ही डाक्ट्रेट की है।''
 ''जी, सर!''
 ''..गर्ग मेरे बच्चों को पढ़ाया करता था। जब कभी जरूरत पड़ती थी तो दूध-सब्जी भी ला दिया करता था। तुम्हारे साथ विनायक भी मेरे ही अंडर रिसर्च कर रहा है, ना!'' विनायक का जिक्र करते हुए उनके चेहरे पर कृतज्ञता के कृत्रिम भाव उतर आए थे। स्वार्थ से प्रेरित व्यक्ति क्या कभी किसी के प्रति यथार्थ में कृतज्ञ होता होगा, मुझे असम्भव-सा लगा।
 पूर्व भाव चेहरे पर चिपकाए हुए उन्होंने आगे कहा, ''..जानते हो! कितनी सेवा करता है, विनायक। बहुत व्यवहारिक लड़का है। ..और तुम..?''
  मैंने अपने आप को संभाला और बोलने की हिम्मत जुटाई।  ''सर, मेरी निष्ठ में कहीं कुछ कमी रह गई क्या? सेवा के लिए मैं हमेशा तैयार रहता हूँ। ..मैं समझ नहीं पा रहा हूँ , सर! ..श्रद्धा, सम्मान में मुझ से कहाँ चूक हुई?'' मैं लगभग गिड़गिड़ाने के स्थिति में सफाई दे रहा था।
  इसी बीच नौकर एक गिलास शीतल पेय लाया। डॉ.वात्स्यायन ने ट्रे से गिलास उठाया और घूँट-घूँट अपनी प्यास बुझाने लगे। मारे गरमी के प्यास मुझे भी सता रही थी और उनके प्रत्येक घूँट के साथ मैं अपने सूखे होंठों पर जीभ फेर कर प्यास बुझाने की चेष्टा कर रहा था। घँूट भरते-भरते डॉ. वात्स्यायन ने आगे कहा, ''..एमरजेंसी के चक्कर में मैं एक हफ्ता जेल में रहा, तुम एक दिन भी मुझ से मिलने आए? ..नहीं ना! ..विनायक रोज आता था।''
 ''जी, सर! गलती हो गई।'' बोलने की हिम्मत तो जुटाई, मगर हिम्मत में आत्मविश्वास नहीं था। मैं बता नहीं पाया कि उस दौरान मैं जब-जब आपके बंगले पर आया मुझे बाहर से बाहर ही लौटा दिया गया। मुझ से यह भी नहीं पूछा गया कि मैं क्यों और किस लिए आया हूँ।
  ''गलती नहीं..!'' इतना कहकर उन्होंने अपनी दृष्टिं मेरे चेहरे पर केन्द्रित की। सम्भवतया चेहरे पर उतरते-चढ़ते भाव पढ़ने की मंशा से। अगले ही क्षण बोले, ''..थोड़ा व्यावहारिक बनो। व्यावहारिक नहीं हो इसलिए ही बार-बार गलती करते हो।''
 क्षणिक विचार करने के उपरान्त डॉ. वात्स्यायन आगे बोले, ''..अच्छा सुनो, जिला कांग्रेस अध्यक्ष तुम्हारे रिश्तेदार हैं, ना। उनसे कह कर मेरे मामले खत्म कराओ।''
 ''जी, सर।'' गरदन झुकाए-झुकाए मैंने कहा।
 डॉ. वात्स्यायन फिर बोले, ''तुम्हारे यहाँ तो खेती होती है? गेंहू भी होते होंगे! मेरे यहां साल भर में पाँच बोरी गेंहू लगता है। ..देखो, चमचागीरी का जमाना है। कामयाब होना है, तो कुछ सीखो जमाने से।''
  डॉ. वात्स्यायन के ताने और तानों के सहारे मंशा व्यक्त करने का तरीका देख-सुन अब मेरा धैर्य और श्रद्धा दोनों ही चूर-चूर होने लगी थे। शीशे की तरह चूर-चूर होते विश्वास के बीच से मेरे अन्तरमन से अनायास ही आवाज निकली,  ''सर, चमचागीरी करना मेरे बस की बात नहीं है। श्रद्धा-भक्ति में कमी नहीं आएगी।''
  ''श्रद्धा-भक्ति और चमचागीरी में अन्तर क्या है? बस शब्द ही तो अलग-अलग हैं।'' डॉ. वात्स्यायन ने अपना पक्ष रखते हुए कहा।
साहस और आत्मविश्वास दोनों ही अब मेरे डरपोक मन पर काबिज हो गए थे और अब डर नहीं वे ही दोनों मेरी जिह्वा पर बैठे थे।
मेरे मुँह से निकला, ''चमचागीरी में नैतिकता नहीं होती, इसलिए चमचागीरी करने वाले कभी भी निष्ठवान नहीं हो सकते।''
 डॉ. वात्स्यायन आश्चर्य भाव से बोले, ''नैतिक-ता..! चमचागीरी नहीं करोगे तो जिंदगी में कभी कामयाब नहीं हो पाओगे।'' कहते-कहते डॉ. वात्स्यायन घर के अन्दर चले गए।
मैं, बंगले की लॉबी में खड़ा पसीना पोंछता रह गया। पैर लड़खड़ाने लगे। मुझे अहसास हुआ कि मन पर काबिज साहस और आत्मविश्वास एक अस्थाई भाव था, मियादी बुखार की तरह जो धीरे-धीरे अब स्वयं ही उतरने लगा था। किंकर्तव्य विमूढ़-सा, लड़खड़ाते पैरों से मैं बंगले के बाहर आया। ..दिशा विहीन-सा हो गया था। तैय नहीं कर पा रहा था, किधर जाना है। तभी पास से एक रिक्शा गुजरी। रोकने का इशारा करने के लिए जैसे हाथ स्वयं ही उठ गया और मैं रिक्शा पर सवार हो गया। रिक्शा वाले ने भी मंजिल का पता पूछे बिना ही पैडल घुमाने शुरू कर दिए। आगे तिराहा था, जहां उसने पूछा, ''किधर जाना है, बाउजी?''
अनायास ही मुँह से निकल, ''मेरठ कॉलेज'' और रिक्शा वाले ने रिक्शा का रुख कॉलेज की तरफ मोड़ दिया।
 जब-जब मन उदास होता था, तब-तब मुझे कॉलेज लाइब्रेरी का शान्त वातावरण अच्छा लगता था। शैल्फ से निकाल कर एक-दो पुस्तके पलटने का प्रयास किया मगर मन नहीं लगा। मन तो अतीत के वे काले पन्ने पलट रहा था। डॉ. वात्स्यायन ने जिन पर अपने बंगले पर आकर भेंट करने का आमंत्रण छाप दिया था।
        एम. ए. फाइनल परीक्षा का परिणाम आया था, उस दिन। डॉ. वात्स्यायन सहित तीनों प्रोफेसरों ने उज्ज्वल भविष्य के लिए छात्रों को अपने-अपने तरीके से शुभकामनाएं दी थी। डॉ. वात्स्यायन ने शुभकामना देते हुए मुझ से कहा था, ''आगे क्या करने का इरादा है?''
 झिझकते हुए मैंने कहा था, ''अभी सोचा नहीं सर।''
  ''अभी सोचा नहीं..!'' आश्चर्य व्यक्त करते हुए डॉ. वात्स्यायन मुस्करा दिए थे और फिर बोले, ''अरे, कैसे लड़के हो! एमए कर लिया और भविष्य के बारे में सोचा नहीं! ठीक है, कल सुबह मुझ से घर पर मिलना।''
  मैंने फिर उसी लहजे में कहा था, ''जी सर! ..सर आपका घर..?''
  डॉ. शर्मा ने पुन: आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ''अपने हैड आफ दा डिपार्टमेंट का घर नहीं जानते!'' और, इसके साथ उन्होंने जेब से विजीटिंग कार्ड निकाल कर मेरी तरफ बढ़ा दिया था।
  मेरे लिए वह रंग-बिरंगे चंद अक्षरों से सुसज्जिात केवल विजीटिंग कार्ड ही नहीं था, गुरु का पर्ंम आशीर्वाद था। कल की सुबह के इन्तजार में उस दिन रात भर सोया नहीं था, मैं। रात के बाद उस दिन भी सुबह अपने वक्त पर ही आई थी, मगर मुझे लगा था आज की रात कुछ लंबी हो गई है या सुबह ने ही आने में देर कर दी है।
  बहरहाल सुबह हुई और फटाफट तैयार हो कर डॉ. वात्स्यायन के चरणों में मिष्ठान अर्पित करने के उद्देश्य से मैं उनके बंगले पर था। उन्होंने मुस्करा कर मेरा स्वागत किया था। श्रद्धा को चमचागीरी का पर्यायवाची बताने के समय भी वह मुस्कराए थे। मगर दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर था। पहले दिन की मुस्कराहट में स्वागत भाव था, सौम्यता थी और अपनत्व था। दूसरी मुस्कराहट में कुटिलता थी।
  मेरे शुभचिंतक कहते थे, ''तू पहचान नहीं पाया, कुटिलता पहले दिन की मुस्कराहट में भी रही होगी। सौम्यता की चादर तो उठा कर देखता, असलियत नजर आ जाती। मोटे-मोटे होठों के बीच से प्रत्येक अवसर पर निकली उसकी मुस्कराहट कुटिलता लिए ही होती है।''
  डॉ. वात्स्यायन ने उस दिन चाय भी पेश की थी, शायद पहली और अंतिम बार। चाय की चुस्कियों के बीच ही उन्होंने फिर वही सवाल दोहराया था, ''भविष्य के बारे में क्या सोचा है।''
 ''सर अभी तो कुछ सोचा नहीं।''
  ''खैर, कोई बात नहीं! ..अच्छा यह बताओ पीएचडी करोगे?'' मेरे चेहरे पर उतरते-चढ़ते भावों का आकलन करने के उपरान्त डॉ. वात्स्यायन बोले, ''तुम में काबलियत है, करलोगे।''
हैड आफ दॉ डिपार्टमेंट के मुंह से पीएचडी का आफर, किसी भी विद्यार्थी के लिए इससे बड़ा सौभाग्य और क्या हो सकता है।
जिस तरह नवजात परिंदा कोमल पंख उगते ही नीड़ त्याग आसमान की गहराई नापने की चेष्ठा करने लगता है। कुछ वैसी ही स्थिति मेरे भी थी। कार्ड पाते ही मुझे लगा कि मेरे शरीर में पँख उग आए हैं और आसमान की ऊँचाई छूने का ख़्वाब बस अब हकीकत में तब्दील होने जा रहा है। 
           पहली मुलाकात के पन्द्रह दिन बाद पुन: भेंट करना निश्चित हुआ था। उस मीटिंग में पाश्चात्य दर्शन से सम्बद्ध हिन्द-अंग्रेजी की कुछ पुस्तकें पकड़ा दी गई और साथ में दो पन्नों की एक रूपरेखा। मुझ से कहा गया कि 'समकालीन पाश्चात्य दर्शन' नाम की पुस्तक के कुछ अध्याय लिखने हैं। इससे तुम्हें शोध प्रबन्ध लिखने में मदद मिलेगी। पुस्तक के लेखक के रूप में अपने साथ तुम्हारा नाम भी दूँगा।
            मैं खुश था, डॉ. वात्स्यायन जैसी शख़्िसयत ने मुझे सेवा का अवसर प्रदान किया। गुरु का प्रसाद पाकर मैं खुशी-खुशी घर लौट आया। और, पुस्तक लिखने में जुट गया। पुस्तक का अध्याय लिख कर पूरा करता। डॉ. वात्स्यायन को दिखलाता कुछ संशोधन और प्रशंसा के साथ घर लौट आता। इस प्रकार धीरे-धीरे एक वर्ष गुजर गया।
 पुस्तक के सभी अध्याय पूरे होने के बाद एक दिन डॉ. वात्स्यायन ने मुझे मेरे शोध प्रबन्ध के विषय से सम्बन्धित चार पन्नों की एक सिनॉपसिस मेरे हाथ में पकड़ा दी और उसके आधार पर शोध प्रबन्ध लिखने के लिए कहा। मैं पहले से ज़्यादा प्रसन्न था। लेकिन प्रसन्नता का यह भाव ज़्यादा दिन न टिक सका। क्योंकि डॉ. वात्स्यायन शनै: शनै: अपने मूल कुटिल स्वरूप में आने लगे थे। आज भी जब कभी वह दिन याद करता हूँ तो सिहर उठता हूँ, जिस दिन डॉ. वात्स्यायन को मैं अपने शोध प्रबन्ध का पहला चैप्टर दिखलाने गया था। डॉ. वात्स्यायन ने मेरे चैप्टर पर सरसरी नजर डालकर मुझे इस प्रकार घूरना शुरू किया था, मानो कोई बड़ा अपराध कर बैठा हूँ। वे बोले थे, ''तुम अंग्रेजी तो जानते ही नहीं, हिन्दी भी ठीक तरह नहीं जानते! ..यह भी कोई लिखने का तरीका है!'' इतना कहकर उन्होंने सभी पन्ने घायल कबूतर के पँख की तरह उड़ा दिए थे। संतप्त मन से मैं सोच रहा था- डॉ. वात्स्यायन की पुस्तक पूरी करते ही मेरी योग्यता कहीं खो गई अथवा उनका व्यवहार परिवर्तित हो गया।
   एक ओर श्रद्धा, निष्ठा और सेवा और दूसरी ओर मनोबल ह्रंास की प्रक्रिया से गुजरते-गुजरते तीन वर्ष पूरे होने जा रहे थे। एक दिन डॉ. वात्स्यायन ने खुलकर कह ही दिया, ''देखो! आप कोई टयूशन फीस तो मुझे देते नहीं हो और न ही शोध कराने के लिए हमें यूनिवर्सिटी कुछ पे करती है! ..फिर फिजूल तुम्हारे साथ मेहनत क्यों की जाए!'' क्षणिक अन्तराल के बाद डॉ. वात्स्यायन ने बहुत ही आत्मविश्वास के साथ कहा था, ''देखा! तुम्हारे लिए थीसिस लगभग तैयार पड़ी है। तुम्हें उसके लिए ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़गी। आरडीसी की आगामी मीटिंग के लिए थीसिस सॅबमिट करा दूँगा। ..उसके लिए तुम्हें केवल बीस हजार रुपए देने होंगे!'' उस समय हमारे जैसे मध्यवर्गीय परिवार के लिए बीस हजार रुपए बहुत बड़ी रकम होती थी।
  मुझे प्रतीत हुआ कि निष्ठा, श्रद्धा और सेवा पर स्वार्थ भारी पड़ता जा रहा है। मगर, मांगी गई रकम का प्रबन्ध करना मेरी मजबूरी थी, क्योंकि जीवन के बहुमूल्य तीन वर्ष व्यर्थ ही मुझे मेरे हाथों से फिसलते नजर आ रहे थे। यही सोचकर मैं रुपयों का प्रबन्ध करने का ताना-बाना बुनता घर की ओर लौट रहा था। घर पहुँचा तो माँ ने मेरे हाथ में एक पत्र थमा दिया था। पत्र यूनिवर्सिटी से आया था। जिसमें लिखा था, ''आपके गाइड डॉ. वात्स्यायन की सलाह पर आपका रजिस्ट्रेशन रद्द किया जाता है।'' कभी मैं पत्र को देखता था, तो कभी आसमान की गहराइयों को। मुझे लगा कि जैसे आकाश की गहराई नापते हुए पंछी के पर कतर दिए गए हैं और फड़फड़ाता हुआ वह जमीन पर आ गिर है।
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