Sunday, March 9, 2008

आरक्षण की भीड़ में

बासी चेहरा उनका, आज कुछ ज्यादा ही चमक रहा था। बिलकुल घी चुपड़ी बासी रोटी जैसा। निगाह पड़ी और निगोड़ी भूखे स्वान की तरह अटक कर रह गई। लोक-लाज त्याग हम पर ऋतुसंहार हाबी हो गया। हम अपने को रोक नहीं पाए और श्रृंगार रस से ओतप्रोत ताऊ चिरंजीत की पैरोडी गुनगुने बैठ गए-
'प्रिय जला कर घास, घास के पास
बैठ कर कुछ गप-शप हो जाए।'
मगर ऋतुसंहार की अति संवेदनशील परिस्थितियों में श्रृंगार रस से ओतप्रोत इन पंक्तियों का श्रीमती जी पर तनिक भी असर दिखलाई नहीं दिया।
जवाब में उन्होंने गुनगुनाया, 'जरा ये मुन्ना सो जाए, जरा ये मुन्ना सो जाए'।
श्रीमती जी का अमानवीय यह रुख देख हम घबराए। पैंतरा बदला और लार टपकाते भूखे श्वान की तरह पूंछ हवा में लहराई, फिर बोले, ''क्या बात है, आज तो चेहरे से गजब का नूर टपक रहा है। सच मानो गौरवान्वित ऐसे दिव्य स्वरूप के दर्शन पहले कभी नहीं हुए। क्या किस फेयर एण्ड लवली का कमाल है?''
श्रीमती जी हमारी नीयत भांप गई और तपाक से बोली आज भूखे ही रहोगे।
हमने पालतू श्वान की पूंछ की तरह अपनी मूछें भी नीची की मगर फिर भी उनमें वामपंथी अकड़ बरकरार थी, समझौते की मेज तक आने के लिए तैयार न थी।
उनके हाव-भाव देख सूखे पत्ते की तरह खर-खराते हमने पूछा, भागवान! आम्रपाली से बोध भिक्षुणी बनने का कारण?
श्रीमती जी बोली- 'आज महिला दिवस है।'
काली बिल्ली की तरह आंखें चमकाती श्रीमती जी बोली- 'सुनो जी करवा चौथ पतियों का दिन होता है और उपवास बेचारी पत्नियां रखती हैं। महिला दिवस पर आज तुम उपवास रखोगे।'
श्रीमती जी हमारे हर दाव पर धोबी पाट मारे जा रही थी। हमें भी समझ आने लगा था कि श्रीमती जी आज हाथ आने वाली नहीं है। फिर भी इज्जात की खातिर हम पिटे पहलवान की तरह जमीन पर पड़े-पड़े ही हाथ पैर मारते रहे।
पिटा दांव फिर अजमाते हुए हम बोले- क्या महिला दिवस! आज क्या, पिछले तीस वर्ष से हमें तो हर दिवस महिला दिवस ही नजर आ रहा है। इस घर में आपके पांव पड़े नहीं थे कि कैलेंडर बदल गया था।
श्रीमती जी ने तोते की तरह निगाह बदली और कंधे से कंधा रगड़ते बोली-'महिलाएं अब हर क्षेत्र में पुरुष के कंधे से कंधा मिला कर समाज का छकड़ा प्रगति की राह पर खींच रही हैं। महिलाओं में अब जागृति आ गई है। अब शोषण नहीं चलेगा।'
अपना कंधा सहलाते हमें वह दिन याद आया जब अग्नि को हाजिर-नाजिर जान सात वचनों का कड़वा घूंट पीया था। सात गाली वचन दिलाने वाले पंडित को दी और दस अपने बाप को।
अपनी औकात के मुताबिक विनय भाव से हम बोले- हे, देवी! आज क्या, हमारे घर के लिए आपकी डोली ही जागृत अवस्था में ही उठी थी। डोली उठने के समय आपका विलाप और आपके करुण क्रंदन से उस दिन पड़ोसियों की नींद हराम होना इसकी स्पष्ट पुष्टि करता है।
तब सुषुप्त अवस्था में तो हम थे, आप नहीं। अत: हे, प्रिय! तुम्हारे आगमन से नींद तो हमारी हराम हुई है, तुम्हारी नहीं।
जागे हम है, तुम तो पहले ही से जागृत थी।
तुमने तब विलाप किया था, बस! हम तब से आज तक विलाप करते आ रहे है।
हमारा विलाप सुन श्रीमती जी का मुखमंडल तेज आंच में सिकी रोटी की तरह और भी लाल हो गया। लाल-लाल आंखें तरेर वे बोली, 'अब यह सब कुछ नहीं चलेगा। वे दिन गए जब खलील ़फाख्ता उड़ाया करता था। अब इस घर में मुझे भी तैंतीस प्रतिशत आरक्षण चाहिए।'
श्रीमती जी के आरक्षणवादी ऐसे विचार सुन हमारा ऋतुसंहार ऐसे गायब हुआ जैसे नये फार्मूला युक्त डिटरजेंट को देख कपड़ों से मैल।
धुले-धुले से हम सोचने लगे, अरे! ऋतुसंहार के चलते-चलते यह नरसंहार का एपीसोड! लेकिन श्रीमतीजी आज पूरे राजनैतिक जोश में थी। दार्शनिक लहजे का सफल प्रदर्शन करती श्रीमती जी ने फरमाया-'क्रांतिया नरसंहार से ही आती है, तुम्हारे ऋतुसंहार से नहीं।'
श्रीमती जी के शास्त्रीय ऐसे वचन सुन ऋतुसंहार का भूत भागा, दिमाग चकराया, जुबान सूखी और दिल घबराया। श्वान की जगह उसके अबोध शिशु की तरह मिमयाते हुए हम बोले- 'हे वंदनीय, हे स्मरणीय हे पठनीय! बाहर की दूषित राजनीति का अच्छे-भले घर में प्रवेश क्यों कराती हो। तुम तैंतीस परसेंट की बात करती हो, यह घर तो सेंट-पर-सेंट ही तुम्हारा है।
अपनी दशा तो बात-बात पर पूंछ हिलाने वाले किसी टोमी, रोमी से ज्यादा कभी नहीं रही। तुम्हारा ही तो एकाधिकार है इस घर- परिवार पर। अमर बेल की तरह बल खाती श्रीमती जी ने फिर दोहराया- 'चिकनी चुपड़ी इन बातों में अब हम नहीं आएंगे। तैंतीस परसेंट से कम पर बाज नहीं आएंगे।'
श्रीमती जी की जिद्द के कारण हम आंधी में घिरे गधे की तरह किंकर्तव्यविमूढ़ है।
बड़ा पुत्र मतभिन्नता के आधार पर आरक्षण मांग रहा है। छोटा पुत्र कहता है, मैं छोटा हूं, मेरा शोषण होता आया है। अत: मुझे भी आरक्षण चाहिए। पौत्र कहता है मैं अकेला हूं, अल्पसंख्यक हूं आरक्षण मुझे भी चाहिए।
आरक्षणवादियों की इस भीड़ में मैं अकेला पड़ गया हूं। मैं सोच रहा हूं-हरे-भरे इस घर को न जाने किस की नजर लग गई। घर का आंगन क्यों गृह युद्ध के मैदान में तब्दील होता जा रहा है? एक- एक कर अब और कितने पाले खिंचेंगे इस घर में?
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