Tuesday, March 31, 2015

'आप' से 'खाप' बनने की क़वायद


लोकतांत्रिक राजनीति में प्राय: दो प्रकार के जीव पाए जाते हैं, बुद्धूजीवी और बुद्धिजीवी। बुद्धूजीवी जीवों की प्रकृत्ति दीमक मार रसायन के समान होती है। अर्थात जिस प्रकार दीमक मार रसायन लकड़ी की रक्षा करता रहता है। उसी प्रकार बुद्धूजीवी जीव लोकतंत्र की रक्षा में सर्वस्व त्याग की भावना से उसके साथ चिपके रहते हैं। इसके विपरीत बुद्धिजीवी जीव बुद्धूजीवियों द्वारा रक्षित लोकतंत्र को चटकारे ले लेकर खाते हैं। अर्थात धीरे-धीरे लकड़ी में घुन वाली आस्था के समान खाते हैं। दरअसल वे लोकतंत्र को जीवकोपर्जन के रूप में देखते हैं। वे न खाते हुए भी खाते हैं। अपने लिए नहीं, देश के लिए खाते हैं! लोकतंत्र के लिए खाते हैं! 'भूखे भजन न होई गोपाला' यह उनका आदर्श वाक्य है! इसलिए ही वे बुद्धिजीवी कहलाते हैं। 
बुद्धूजीवी उपवासी प्ऱकति के नहीं हैं। वे भी चाटते हैं, किन्तु लोकतंत्र को नहीं, लोकतंत्र से चिपकी नैतिकता व आदर्श को चाटते हैं। अर्थात लोकतंत्र का आवरण चाटते हैं। उनका आदर्श लोकतंत्र को दीर्घजीवी बनाए रखना है। महत्वपूर्ण एक तथ्य यह भी है कि बुद्धिजीवी अपेक्षाकृत प्रगतिशील किस्म के जीव होते हैं। तानाशाही व्यवस्था में बुद्धूजीवियों के लिए कोई स्थान नहीं है। उस व्यवस्था में केवल बुद्धिजीवी ही होते हैं। तानाशाही प्रवृत्ति में बुद्धूजीवी मानसिकता दकियानूसी मानी जाती है! 
जिस किसी भी व्यवस्था में बुद्धूजीवी पाए जाते हैं। मजबूरन पाए जाते हैं, क्योंकि दिल भले ही किसी भी रंग का हो, चेहरा सभी साफ-सुथरा रखना चाहते हैं। ऐसा नहीं है कि बुद्धिजीवी ही उग्र स्वभाव के होते हैं। दरअसल उग्रता उनका जन्मजात स्वभाव है। कभी-कभी बुद्धूजीवी भी उग्र हो जाते हैं और जब वे उग्र होते हैं, तब वे आदर्श व नैतिकता की चादर को ठिठुरते इनसान की तरह चारों ओर से लपेटकर पूरी ताकत के साथ लोकतंत्र से चिपक जाते हैं। ऐसी स्थिति तब आती है, जब उन्हें बुद्धिजीवियों की चटाई से लोकतंत्र ख़्ातरे में नजर आने लगता है। और, तब वे 'धर्मो रक्षति रक्षित:' -धर्म रक्षकों की रक्षा धर्म करता है!' के सिद्धांत का पालन करते हुए लोकतंत्र की रक्षा के लिए संघर्ष पर उतारू हो जाते हैं।  यही सिद्धांत उन्हें बुद्धूजीवी बनाता है। वास्तत्व में वे नहीं जानते हैं कि आदर्श व नैतिकता जैसे जुमले केवल चेहरा चमकाने के लिए होते हैं। जीवन में उतारने के लिए नहीं! बुद्धिजीवियों के लाख समझाने पर भी बुद्धूजीवी जब यथार्थ से अनभिज्ञ रहते हैं, तब बुद्धिजीवी बनाम बुद्धूजीवी संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवियों के पास केवल 'लातमार' रास्ता ही शेष रह जाता है! और, वे बुद्धूजीवियों को लतियाने की जुगत में लग जाते हैं। यद्यपि राजनैतिक विचारक लतियाने की इस प्रवृत्ति को तानाशाही प्रवृत्ति बताते हैं, किन्तु इसे विशुद्ध  तानाशाही कहना उचित नहीं होगा। दरअसल इसे लोकतांत्रिक-तानाशाही प्रवृत्ति कहना अधिक उचित होगा। क्योंकि, इसमें लोकतंत्र को ढाल बनाकर तानाशाही सिद्धांतों का अनुगमन किया जाता है। लोकतंत्र की रक्षा के लिए तानाशाही का सदुपयोग करने का हवाला दिया जाता है।
आम आदमी पार्टी (आाप) का संघर्ष ऐसे ही दो विरोधी मानसिकता व विरोधी सिद्धांतों का परिणाम हैं। समझाया बहुत समझाया, 'अरे भाई रास्ते पर आ जाओ!' बुद्धूजीवी थे कि समझने का नाम ही नहीं ले रहे थे। बुद्धिजीवी आखिर कब तक धैर्य रखते। आखिर एक दिन लतिया दिया बुद्धूजीवियों को! अच्छा किया! आम से खास बनने की इच्छा किसको नहीं होती! वैसे भी 'आप' कब तक आम आदमी पार्टी बनी रहती।  एक न एक दिन तो उसे भी खास आदमी पार्टी (खाप) बनना ही था। अत: आप से खाप बनने के लिए बुद्धूजीवियों को लतियाना आवश्यक था। ऐसा किया और 'आप' से 'खाप' बन गए। जहाँ तक बुद्धूजीवियों का प्रश्न है, एक खोजो हजार मिलते हैं! चिन्ता किस बात की है। कल और बहुतेरे मिल जाएंगे।
संपर्क- 8860423256

Wednesday, March 4, 2015

दो पाटन के बीच में 'होली'



रंग न रंगोली इस बार अपनी होली बैरंग ही होले-होले आगे-आगे होली। अट्ठाइस को अच्छे दिन का बजट था, पाँच की होली,  आठ को महिला दिवस! हमारा पाँच न आठ हो पाया न अट्ठाइस, बस तीन-तेरह हो कर रह गया। दो पाटों के बीच फंसी हमारी स्थिति संत कबीर समान थी। गनीमत बस इतनी थी कि हम साबुत बच गए। दरअसल हमारे फागुन का नास तो बजट आते-आते ही हो गया था। थोड़ी बहुत जो कसर बाकी थी, वह महिल दिवस ने पूरी कर दी। हमारे सूर्यमुख पर ग्रहण-सी उदासी थी और चंद्रमुखी पत्नी के चंद्रमुख पर महिला दिवस की खुमारी। होली को आना था वह आई, उसने न राहू ग्रसित हमारे मुख की परवाह की और न ही पत्नी दिवस की खुमारी की।
बावजूद तमाम विषम परिस्थितियों के फगुन की बयार ने हमारे अंतर्मन को झकझोरा, उसने करवट बदली, अंगड़ाई ली और हमें समझाया, ‘उदासी छोड़ मनुआ, होली है। बजट की उदासी कब तक ओढ़े रहोगे, उतार फेंको, होली है। अच्छे दिन आए या न आए, इससे फर्क क्या पड़ता है! फील गुड के समान अच्छे दिन फील तो कर ही सकते हो! कुछ न होते हुए भी सम्राट होने का अहसास तो किया ही जा सकता है! बचुआ, अहसास मन का भाव है, अहसास करो! अंतर्मन की बात हमारे बाह्य उदास मन को नहीं भायी।  बजट ने अपना बजट बिगाड़ दिया है, होली का रंग फीक पड़ गया है  उसने अपनी बात बताई। अंतरमन हँस दिया, अरे इसमें नया क्या है? बजट अच्‍छे दिन का हो या बुरे दिन का आता ही बिगाड़ने के लिए है। बजट का अर्थ ही बिगाड़ना है। तू उदासी छोड़ होली खेल। अंतर्मन की बात सुन कमबख्त बाह्य मन बहकने लगा, होली के रंग में रंगने लगा।
उदासी त्याग, हमने पत्नी संग चिरोरी करने का मन बनाया। होली 'गुलाल और गाल' का त्यौहार है, अत: हाथों में गुलाल लिए हम पत्नी के गालों की तरफ अग्रसर हुए और बोले, ''प्रिय होली है!'' पत्नी ने आँखें तरेरी, आँखों ही आँखों में अखियन ते क्रोध की पिचकारी छोड़ी। हम सहम गए, सहसा ही अतीत के रंग में डूब गए। अरे, यह क्या! पिछली होली पर तो पत्नी ने  'मोरी रंग दे अंगिया, कर दे धानी चुनरिया' फाग का राग सुनाया था। इस बार क्यों ऊंगली छुआते ही चारसो चालीस का करंट मारने लगी। होली पर भी क्यों आँखें दिखने लगी। हमने फिर साहस किया, हाथ आगे बढ़ाया, विरह और मिलन के मिश्रित रस में पगी पक्तियां गुनगुनाई, ''गुल हैं, चिराग रोशन कर दो। उदास फि़ज़ाओं में फागुन भर दो। कट न जाए यह रात यूं ही तन्हा, तन्हा रातों में यौवन भर दो।''
पत्नी ने फिर धमकाया, '' देखो जी! महिला दिवस है अब शोषण नहीं चलेगा। महिलाएं जागृत हो गई हैं, अब हमारा हुकुम चलेगा। तुम्‍हारा नहीं।''
भूखे श्वान-समान हमने पत्नी के मुख की ओर निहारा। पिछली होली तक पलास के खिले फूलों के समान लगने वाले पत्नी के गाल हमे दहकते अँगारों के समान प्रतीत हुए। हमारा सिर चकराया। सावधान की मुद्रा में स्तब्ध-से खड़े-खड़े हम सोचने लगे, 'अरे, महिला दिवस आता तो प्रत्येक वर्ष था, किन्तु, हमारा आशियाना उसके वॉयरस से प्राय: अछूता ही रहता था। किन्तु, इस बार स्वाइन फ्ल्यू वॉयरस के समान उसके वॉयरस हमारे घर में भी प्रवेश कर गए।'
सोचते-सोचते माथे पर उतर आई चिन्ता और विषाद की लकीरें पौंछी और अल्पमत की सरकार की तरह हम समझौते पर उतर आऐ और मिम्याते सुर में बोले, ''झगड़ा किस बात का, प्रिय! हम न सही, तुम ही हमारा शोषण कर लो, किन्तु जैसे भी हो होली के इस पावन पर्व पर हमारा जीवन धन्य कर दो!'' पत्नी जवाब में हमें खरबूजे और छुरी की कहावत सुनाने लगी। फिर घरेलू हिंसा विरोधी कानून के पहाड़े पढ़ाने लगी। हमें अचानक ही महिला दिवस त्रिया दिवस-सा नज़र आने लगा। धीरे-धीरे होली का बुखार भी उतरने लगा।
बुझे मन से हम पत्नी से कहने लगे, प्रिये! महिला दिवस आज ही क्यों, जब से तुमने हमारी कुण्डली में प्रवेश किया है, हमारे जीवन में तो उसी पुण्‍य दिवस से महिला दिवस छाया है। कभी दहेज विरोधी कानून तो कभी घरेलू हिंसा कानून। प्रत्‍येक कानून हमारे वैवाहिक जीवन में राहू की मानिन्‍द छाया है। तुम समान अधिकार की मांग करती हो, कंधे से कंधा मिलाकर चलने का दंभ भरती हो। भूले से भी कंधे से कंधा छू जाए तो ईव टीजिंग का आरोप लगाती हो। अरे, पुरुष-पुरुष का दुशमन हो गया है। पुरुष प्रधान समाज में पुरुष हो कर स्त्री प्रधान कानून बनाता है! अरे, विश्व के पुरुषों एक हो जाओ, भ्रुण हत्या रोको, महिलाओं की संख्या बढ़ाओ। खुद अल्पमत हो जाओ और फिर अल्पमत होने का लाभ उठाओ, प्रतिदिन होली मनाओ।


फोन- 8860423256