Friday, November 2, 2018


यू टू कर्म मी टू उसका फल

  कर्मवाद भारतीय संस्‍कृति का महत्‍वपूर्ण सिद्धांत है। कर्मवाद के अनुसार प्रत्‍येक कर्म का एक फल निश्‍चित है और प्राप्‍ति भी सुनिश्‍चित है। इस विषय में कोई किन्‍तु-परन्‍तु नहीं। गीता में तो कर्मवाद का प्रमुखता से वर्णन किया गया है। गीता कहती है, कर्म कर फल की चिंता मत कर, फल प्राप्‍ति तो अवश्‍यंभावी है। इतना अवश्‍य है कि कुछ कर्मों के फल खाप पंचायती फैसलों की तर्ज पर इस हाथ दे, उस हाथ ले के आधार पर साथ-साथ मिल जाते हैं। उदाहरण के रूप में दीवार में सर मारोगे तो सर हाथ के हाथ ही फूटेगा। सभी जानते हैं, फिर भी लोग दीवार से सर टकारते ही हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं, अदालती फैसले की तरह जिनकी फल प्राप्‍ति में वर्षों लग जाते हैं। कभी-कभी तो अगले जन्‍म में। भारतीय संस्‍कृति के अनुसार उन्‍हें प्रारब्‍ध कहते हैं।
मीटू भी एक कर्म फल ही है। युवावस्‍था में किए किए गए यूटू कर्म का फल। कुछ विचारकों को फल प्राप्‍ति पर नहीं, प्राप्‍ति की अवधि पर आपत्‍ति है। उनकी शिकायत है कि कर्म तो युवावस्‍था में किया था। फल मिलने में इतनी देरी क्‍यों? हाथ के हाथ ही क्‍यों नहीं मिल। संभवतया ऐसे विचारक कर्मवाद के पूर्ण रहस्‍य से अनभिज्ञ हैं। दरअसल अल्‍पकालिक कर्मफल और दीर्घकालिक कर्मफल का संबंध कर्म के घनत्‍व पर आधारित है। खेले गए यूटू का घनत्‍व यदि छिछली प्रकृति का है, सांसारिक भाषा में जिसे छेड़खानी कहते हैं। तो ऐसे कर्मों का फल जूते-चप्‍पलों के रूप में इस हाथ दे, उस हाथ ले के आधार पर साथ के साथ प्राप्‍त हो जाता है। यूटू कर्म यदि गंभीर घनत्‍व वाला है। अर्थात गंभीर प्रकृति का है, तो ऐसी स्‍थिति में सकारात्‍मक फल प्राप्‍ति की संभावना प्राय: प्रबल रहती हैं। ऐसे अनेक यूटू कर्मी देखने में आए हैं, जो एक-दूजे के साथ संपूर्ण जीवन यू-टू, यू-टू खेलते-खेलते व्‍यतीत कर देते हैं। भारतीय संस्‍कृति में ऐसे महानुभाव सद्-कर्मी कहलाते हैं। 
एक यूटू खेल मध्‍यमार्गी प्रकृति का भी पाया जाता है। अर्थात पूर्णतया मन पर आधारित। जब तक मन चाहा खेल लिया, जब नहीं चाहा कपड़े-लत्‍ते झाड़ अपने-अपने घर चले गए। ऐसे यूटू कर्मों की फल प्राप्‍ति में प्राय: अदालती फैसले के समान थोड़ा समय लगता है। किन्‍तु, फल देर-सबेर मिलता ही है। मीटू ऐसे ही मध्‍यमार्गी यूटू कर्मों का फल है। कर्म किया है तो फल मिलेगा ही। अवधि को लेकर दुख का कारण क्‍या?       
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यू-टू से मी-टू तक


ब्रह्म मुहूर्त था। हम युवावस्था की मधुर स्मृतियों के चर्वण में तल्ली़न थे। सहसा ही श्रवणेंद्रियों में मी-टू, मी-टूकी मधुर ध्वनि गूंजने लगी। विचार करने लगा संभवतया अतीत की पर्त के नीचे दबी कोई स्मृति कह रही है, ‘मैं भी, मैं भी। सुखद आश्चर्य के साथ श्वान मुद्रा में दोनों कान इधर -उधर घुमाए। तत्पश्चात उठकर बैठ गया, कक्ष के चारों कोनों का अवलोकन किया, कोई नहीं था। बिस्तर से खड़ा हुआ। किवाड़ों की बिवाइयों से बाहर की ओर झांका। बाहर भी कोई नहीं था, लेकिन मी-टू, मी-टूकी मधुर ध्‍वनि बारबार गुदगुदी-सी कर रही थी। 
भोर हुई, पत्नी चाय लेकर प्रस्तुत हुईं और बोली, ‘ पामेरियन पिल्ले के समान आंखें लाल-लाल! क्या रात भर जागते रहे? होले- होले आंखें सहलाई, मगर लज्जा की मारी आंखें पत्नी की आंखों के साथ दो-चार करने की स्थि‍ति में नहीं आई। झुकी-झुकी गरदन, हमने कहा- नहीं-नहीं, हम तो निद्रालीन थे, इस मी-टू, मी-टूकी ध्वनि ने सोने नहीं दिया। आश्चर्य के साथ पत्नी जी ने मी-टू, मी-टूदोहराया और इसके साथ ही कद्दू-से उनके मुखमंडल पर चिंता की लकीरें उतर आईं। पत्नी जी की दशा देख प्रेम और सहानुभति से पगी वाणी में हमने कहा- अरे! आपके मुखमंडल पर सूखे रेत पर पानी की-सी लकीरें! …चिंता का कारण,  प्रिय? धिक्कारने के लहजे में पत्नी बोली- कितना समझाया था, शदीशुदा हो, बाज आ जाओ बचकाना हरकतों से! मगर, बाज नहीं आए, अब भुगतो! इतना कहकर समृद्ध वृक्ष के तने-सी कमर को झटका देकर पत्नी जी खड़ी हुईं और बड़बड़ाती हुई चली गईं। चाय की चुस्की  के साथ हम विचार मुद्रा में चले गए। विचार करने लगे- इस मी-टू, मी-टूका अतीत की हमारी हरकतों से क्या संबंध?  अतीत में यू-टू, यू-टू  तो सुना था। वर्तमान में न जाने उल्‍का की भांति यह नया शब्‍द मी-टू, मी-टू कहां से टपक आया। कमज़र्फ़ ने पत्‍नी जी को परेशान कर दिया, हमारे अतीत का स्‍मरण करा दिया। राख में दबी चिंगारियां पुन: सुलगा गया!     
विचारों की गठरी लादे हम रसोई घर में पहुंचे। पत्‍नी जी को मक्‍खन लगाया और मी-टू रहस्‍य के प्रति जिज्ञासा व्‍यक्‍त की। चिकित्‍सक की मुद्रा में पत्‍नी जी ने कहना शुरू किया, सुनों जी! यह एक भयानक वायरस है। भयानक इतनी कि अच्‍छे-अच्‍छे अक्‍बर भी इससे नहीं बच पाए। विशेष रूप से जीवन के अंतिम पड़ाव में विचरण करने वाले तुम्‍हारे जैसे पुरुषों को अधिक लपेटती है। इसका काटा पानी भी नहीं मांगता, जी। श्रीमती जी के वचन सुन मस्‍तिष्‍क कुल्‍फी-सा जम गया। तन तुषार पीड़ित लता के समान कांपने लगा। तन-मन पर नियंत्रण कर हमने जिज्ञासा व्‍यक्‍त की- ऊर्जा दायक यू-टू, यू-टू तो सुना था। मी-टू, मी-टू कहां से प्रकट हो गया कमबख्‍त? पत्‍नी जी बोली- धैर्य धारण करो स्‍वामी। वही बताने जा रही हूं। युवावस्‍था में जिन पुरुषों ने यू-टू- यू-टू का खेल खेला था, उन्‍हीं को अपनी चपेट में ले रही है, मी-टू, मी-टू वायरस। तुम तो काम से गए स्‍वामी। पत्‍नी जी तो हमारे अतीत और वर्तमान को झकझोर कर अपने काम में व्‍यस्‍त हो गईं। और, हम अतीत पर जमी काई की एक-एक पर्त उखाड़ कर संभावित अपने वर्तमान की दलदल से उबरने की चेष्‍टा में व्‍यस्‍त हो गए।
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Wednesday, July 18, 2018



असत्‍य ही सत्‍य है

जहां सत्‍य है, वहां सुशासन नहीं! और, जहां सुशासन है, वहां सत्‍य नहीं! अत: हे, सत्‍यान्‍वेषकों ! हे, सत्‍यानुगामियों सत्‍य से पल्‍ला झाड़, असत्‍य का अनुगमन करो। असत्‍य पर आरूढ़ होकर सुशासन आ रहा है। सुशासन का स्‍वागत करो। 
असत्य ही विकास-मार्ग प्रशस्‍त करता है। असत्‍य ही प्रगति का वाहक है। असत्‍य अनुगामी ही शिखर का स्‍पर्श करते हैं। सत्‍यगामी तलहटी में पकौड़े ही तलते रह जाते हैं। असत्‍य पानी में तेल की उस बूंद के समान है, जो सदैव ही पानी के ऊपर तैरती रहती है। पात्र में कितना भी पानी भरो, तेल की बूंद ऊपर ही रहेगी। उसी प्रकार असत्‍य पर जितनी चाहे सत्‍यरूपी कीचड़ फेंकों, वह मणिकणिका की भांति सदैव ही देदीप्‍यामान रहेगा। असत्‍य दूध के ऊपर तैरती मलाई है, क्रीमी लेयर है।  अत:  असत्‍य का अनुगमन करो।    
असत्य सर्वत्र है। सार्वभौम है। आदि है अनादि है अनन्‍त है। असत्य मर्यादा है। युगधर्म है। राजधर्म है। असत्‍य ही जीवन्‍त है, जीवन है। असत्य बिन सब व्यर्थ है। बिनु पग चलइ, सुनइ बिन काना। कर बिन कर्म करहिं विधि नाना।। यथार्थ में अस्‍तित्‍व के लिए असत्‍य को किसी नश्‍वर शरीर के नश्‍वर अंगों की आवश्‍यकता नहीं है। अफवाह उसका वाहन है। अफवाह पर सवार हो कर वह वायु गति से संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड में व्‍याप्‍त हो जाता है। यही सत्य है।
सत्‍य पीड़ादायक है। सदैव ही कटु होता है। और, कटु वचन निषेध है। 'सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् , न ब्रुयात् सत्‍यं अप्रियं।' वस्‍तुत: सत्‍य सदैव ही अप्रिय होता है। अप्रिय सत्‍य हिंसा है। भारत गांधी का देश है। अहिंसा परमोधर्म के मूल मंत्र का समर्थक है। यहां हिंसा के लिए कोई स्‍थान नहीं है। मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा वर्जित है। सत्‍य मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों ही प्रकार से हिंसा वृत्‍ति है। सत्य वचन हमेशा ही दूसरों के मन को व्यथित करते हैं,  कष्ट पहुंचाते हैं। आचार-विचार में सत्य का सहारा लेने वाले व्यक्ति 'परिचित्तानुरंजन' प्रवृति के जीव होते हैं। 'परिचित्तानुरंजन' हिंसा है और हम हिंसावादी नहीं हैं। क्योंकि हम गांधी- मार्ग का अनुसरण करते हैंहम स्वभाव ही से उदारवादी हैं, अहिंसावादी हैं।  अत: सत्यवादी मार्ग का त्‍याग कर। असत्‍य मार्ग का अनुसरण करो।  क्‍योंकि,  असत्‍य पीड़ा रहित होता है। असत्‍य सदैव ही प्रिय होता है। राजभोग के समान माधुर्यपूर्ण होता है। तभी तो असत्‍यानुगामी राज- भोग करते हैं। अत: असत्‍य का अनुगमन करो। स्‍वयं भी प्रसन्‍न रहो दूसरों को भी प्रसन्‍न रखो। असत्‍य दिव्‍य आकर्षण शक्‍ति से ओतप्रोत होता है। क्‍योंकि, श्रुतिप्रिय होता है। असत्‍य जन- जन को उसी प्रकार आकर्षित करता है। जिस प्रकार पुष्‍पगंध भंवरे को। जिस प्रकार मक़नातीस लोहे को। असत्‍य जिस ओर भी चल पड़ता है, कोटि-कोटि पग उसी ओर विचरने लगते हैं। असत्‍य जिस ओर भी दृष्‍टिपात करने लगता है, कोटि-कोटि दृष्‍टि उसी और तुषरपात-सा करने लगती हैं। वस्‍तुत: असत्‍य ही सत्‍य है। केवल असत्‍य ही सत्‍य है। और, यही सत्‍य है।