Wednesday, July 18, 2018



असत्‍य ही सत्‍य है

जहां सत्‍य है, वहां सुशासन नहीं! और, जहां सुशासन है, वहां सत्‍य नहीं! अत: हे, सत्‍यान्‍वेषकों ! हे, सत्‍यानुगामियों सत्‍य से पल्‍ला झाड़, असत्‍य का अनुगमन करो। असत्‍य पर आरूढ़ होकर सुशासन आ रहा है। सुशासन का स्‍वागत करो। 
असत्य ही विकास-मार्ग प्रशस्‍त करता है। असत्‍य ही प्रगति का वाहक है। असत्‍य अनुगामी ही शिखर का स्‍पर्श करते हैं। सत्‍यगामी तलहटी में पकौड़े ही तलते रह जाते हैं। असत्‍य पानी में तेल की उस बूंद के समान है, जो सदैव ही पानी के ऊपर तैरती रहती है। पात्र में कितना भी पानी भरो, तेल की बूंद ऊपर ही रहेगी। उसी प्रकार असत्‍य पर जितनी चाहे सत्‍यरूपी कीचड़ फेंकों, वह मणिकणिका की भांति सदैव ही देदीप्‍यामान रहेगा। असत्‍य दूध के ऊपर तैरती मलाई है, क्रीमी लेयर है।  अत:  असत्‍य का अनुगमन करो।    
असत्य सर्वत्र है। सार्वभौम है। आदि है अनादि है अनन्‍त है। असत्य मर्यादा है। युगधर्म है। राजधर्म है। असत्‍य ही जीवन्‍त है, जीवन है। असत्य बिन सब व्यर्थ है। बिनु पग चलइ, सुनइ बिन काना। कर बिन कर्म करहिं विधि नाना।। यथार्थ में अस्‍तित्‍व के लिए असत्‍य को किसी नश्‍वर शरीर के नश्‍वर अंगों की आवश्‍यकता नहीं है। अफवाह उसका वाहन है। अफवाह पर सवार हो कर वह वायु गति से संपूर्ण ब्रह्माण्‍ड में व्‍याप्‍त हो जाता है। यही सत्य है।
सत्‍य पीड़ादायक है। सदैव ही कटु होता है। और, कटु वचन निषेध है। 'सत्यं ब्रुयात् प्रियं ब्रुयात् , न ब्रुयात् सत्‍यं अप्रियं।' वस्‍तुत: सत्‍य सदैव ही अप्रिय होता है। अप्रिय सत्‍य हिंसा है। भारत गांधी का देश है। अहिंसा परमोधर्म के मूल मंत्र का समर्थक है। यहां हिंसा के लिए कोई स्‍थान नहीं है। मनसा-वाचा-कर्मणा हिंसा वर्जित है। सत्‍य मनसा, वाचा और कर्मणा तीनों ही प्रकार से हिंसा वृत्‍ति है। सत्य वचन हमेशा ही दूसरों के मन को व्यथित करते हैं,  कष्ट पहुंचाते हैं। आचार-विचार में सत्य का सहारा लेने वाले व्यक्ति 'परिचित्तानुरंजन' प्रवृति के जीव होते हैं। 'परिचित्तानुरंजन' हिंसा है और हम हिंसावादी नहीं हैं। क्योंकि हम गांधी- मार्ग का अनुसरण करते हैंहम स्वभाव ही से उदारवादी हैं, अहिंसावादी हैं।  अत: सत्यवादी मार्ग का त्‍याग कर। असत्‍य मार्ग का अनुसरण करो।  क्‍योंकि,  असत्‍य पीड़ा रहित होता है। असत्‍य सदैव ही प्रिय होता है। राजभोग के समान माधुर्यपूर्ण होता है। तभी तो असत्‍यानुगामी राज- भोग करते हैं। अत: असत्‍य का अनुगमन करो। स्‍वयं भी प्रसन्‍न रहो दूसरों को भी प्रसन्‍न रखो। असत्‍य दिव्‍य आकर्षण शक्‍ति से ओतप्रोत होता है। क्‍योंकि, श्रुतिप्रिय होता है। असत्‍य जन- जन को उसी प्रकार आकर्षित करता है। जिस प्रकार पुष्‍पगंध भंवरे को। जिस प्रकार मक़नातीस लोहे को। असत्‍य जिस ओर भी चल पड़ता है, कोटि-कोटि पग उसी ओर विचरने लगते हैं। असत्‍य जिस ओर भी दृष्‍टिपात करने लगता है, कोटि-कोटि दृष्‍टि उसी और तुषरपात-सा करने लगती हैं। वस्‍तुत: असत्‍य ही सत्‍य है। केवल असत्‍य ही सत्‍य है। और, यही सत्‍य है।


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