यू टू कर्म मी टू उसका फल
कर्मवाद भारतीय संस्कृति का महत्वपूर्ण
सिद्धांत है। कर्मवाद के अनुसार प्रत्येक कर्म का एक फल निश्चित है और प्राप्ति
भी सुनिश्चित है। इस विषय में कोई किन्तु-परन्तु नहीं। गीता में तो कर्मवाद का
प्रमुखता से वर्णन किया गया है। गीता कहती है, ‘कर्म कर फल की चिंता मत कर, फल प्राप्ति तो अवश्यंभावी है। इतना
अवश्य है कि कुछ कर्मों के फल खाप पंचायती फैसलों की तर्ज पर ‘इस हाथ दे, उस हाथ ले’ के आधार पर साथ-साथ मिल जाते हैं। उदाहरण के रूप
में दीवार में सर मारोगे तो सर हाथ के हाथ ही फूटेगा। सभी जानते हैं,
फिर भी लोग दीवार से सर टकारते ही हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं,
अदालती फैसले की तरह जिनकी फल प्राप्ति में वर्षों लग जाते हैं। कभी-कभी तो अगले
जन्म में। भारतीय संस्कृति के अनुसार उन्हें प्रारब्ध कहते हैं।
‘मीटू’ भी एक कर्म फल ही
है। युवावस्था में किए किए गए ‘यूटू’ कर्म का फल। कुछ
विचारकों को फल प्राप्ति पर नहीं, प्राप्ति की अवधि पर आपत्ति है। उनकी शिकायत
है कि कर्म तो युवावस्था में किया था। फल मिलने में इतनी देरी क्यों? हाथ के हाथ ही क्यों
नहीं मिल। संभवतया ऐसे विचारक कर्मवाद के पूर्ण रहस्य से अनभिज्ञ हैं। दरअसल अल्पकालिक
कर्मफल और दीर्घकालिक कर्मफल का संबंध कर्म के घनत्व पर आधारित है। खेले गए ‘यूटू’ का घनत्व यदि छिछली
प्रकृति का है, सांसारिक भाषा में जिसे छेड़खानी कहते हैं। तो ऐसे कर्मों का फल जूते-चप्पलों
के रूप में ‘इस हाथ दे,
उस हाथ ले’ के
आधार पर साथ के साथ प्राप्त हो जाता है। ‘यूटू’ कर्म यदि गंभीर घनत्व वाला है। अर्थात गंभीर
प्रकृति का है, तो ऐसी स्थिति में सकारात्मक फल प्राप्ति की संभावना प्राय: प्रबल
रहती हैं। ऐसे अनेक ‘यूटू’ कर्मी देखने में आए हैं, जो एक-दूजे के साथ संपूर्ण जीवन ‘यू-टू, यू-टू’ खेलते-खेलते व्यतीत
कर देते हैं। भारतीय संस्कृति में ऐसे महानुभाव सद्-कर्मी कहलाते हैं।
एक ‘यूटू’ खेल मध्यमार्गी
प्रकृति का भी पाया जाता है। अर्थात पूर्णतया मन पर आधारित। जब तक मन चाहा खेल लिया, जब नहीं चाहा कपड़े-लत्ते झाड़ अपने-अपने घर चले
गए। ऐसे ‘यूटू ’ कर्मों की फल प्राप्ति में प्राय: अदालती फैसले
के समान थोड़ा समय लगता है। किन्तु, फल देर-सबेर मिलता ही है। ‘मीटू’ ऐसे ही मध्यमार्गी ‘यूटू’ कर्मों का फल है। कर्म किया है तो फल मिलेगा ही। अवधि को लेकर दुख का
कारण क्या?
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