Monday, October 15, 2007

दशानन की लोकतांत्रिक शक्ति




शानन का जनता दरबार लगा था। द्वार पर तैनात प्रहरी एक-एक व्यक्ति की जमा-तलाशी लेकर उन्हें दरबार में प्रवेश करा रहे थे। दरबार में प्रवेश कर वे महाराज का अभिवादन करते और उनका सचिव भ्राता खरदूषण छीनने की तर्ज पर उनके हाथ से ज्ञापन ले लेता। कोई व्यक्ति कुछ बोलने की हिम्मत करता कि उससे पूर्व ही सुरक्षा कर्मी उसे बाहर का रास्ता दिखला देते। जन-नायक दशानन के साथ जनता की भेंट का सिलसिला जारी था कि तभी दूत ने अभिवादन करते हुए दशानन को सूचना दी, 'महाराज! मलेच्छ प्रदेश की मुख्यमंत्री आदरणीय मंदोदरी पधारी हैं।' मंदोदरी ने दरबार में प्रवेश किया। उसके खुले केश हवा में ध्वज की समान लहरा रहे थे। कमल पात के समान विस्तृत नयन में अश्रु कण सुशोभित थे और चेहरा क्लांत था। महारानी मंदोदरी का ऐसा रूप देख दशानन का दरबार इस प्रकार सहम गया, मानो कोई वामपंथी दरबार में बलात प्रवेश कर गया हो। गरीबी रेखा के नीचे खिंची रेखा पर लटकी जनता के समान दशानन को प्रणाम कर मंदोदरी बोली, 'हे, नाथ! पीड़ा अब असहनीय हो गई है। मैं बार-बार विधवा होती रहूं, अब और सहन नहीं होता। बार-बार आपके दिवंगत होने और मेरे विधवा होने का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। हे, प्राणनाथ! आपको तो भगवान शिव का वरदान प्राप्त है, जितनी बार दिवंगत होंगे, आप तो उतने ही नए शीश लेकर पुनर्जन्म को प्राप्त होंगे। आप तो जीवन-मरण की इस राजनीति में दशानन से शतानन् हो गए हो, मगर मैं? मैं तो निरीह जनता की तरह लोकतंत्र की इस चक्की में उसी तरह पिसे रहीं हूं, जिस तरह गेहूं के साथ घुन!'प्रिय मंदोदरी के ऐसे वचन सुन दशानन मुस्करा कर बोला, 'प्रिय तुम एक विशाल प्रदेश की मुख्यमंत्री हो और क्या चाहिए, तुम्हें? विधवा होने का नाटक भी नहीं कर सकती? प्रिय, राजतंत्र नहीं अब लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सफलता प्राप्त करने के लिए नाटक परम् आवश्यक है। कौन कहता है, तुम बार-बार विधवा हो रही हो! त्रेता से लेकर आज तक तुम अक्षुण्ण सुहागिन हो और सदैव सुहागिन ही रहोगी। चिंता का त्याग करो, प्रिये और निश्चिंत हो कर सत्ता का सुखोपभोग करो।'
पलकों से टपके आंसू पोंछ मंदोदरी बोली, 'निश्चिंत हो कर सत्ता का सुखोपभोग करूं! ..कैसे? अपने सुहाग को रोज-रोज मरते देखती रहूं! ..कैसे? हे, नाथ! प्रतिदिन मृत्यु को प्राप्त होने की अपेक्षा एक बार ही मृत्यु का पूर्ण-वरण कर लेना श्रेयष्कर होगा और मैं भी निरंतर विधवा होने की पीड़ा से मुक्त हो जाऊंगी।''
प्रिय, मंदोदरी! तुम लोकतांत्रिक राजनीति के नैतिक मूल्यों से अनभिज्ञ हो। तुम नहीं जानती कि अब पूर्ण मृत्यु का वरण करने की अपेक्षा प्रतिक्षण मृत्यु को प्राप्त करने वाले ही चिरजीवी होते हैं। वही नेता सत्ता का परम् पद प्राप्त करने में सफल होता है, जो प्रतिक्षण मृत्यु का वरण करते हैं। प्रिये! जिसे तुम मृत्यु कह रही हो, वह मृत्यु नहीं, नव-जीवन है। लोकतंत्र में यही श्रेयष्कर है।' वक्ष-स्थल से खिसक आए साड़ी के पल्लू को पुन: यथास्थान जमाया, खुले केश संवारे और बूचड़खाने में बंधी बकरी के समान मिमियाते हुए बोली, 'नहीं-नहीं-नहीं, प्राणनाथ नहीं! विजयदशमी पुन: नजदीक है। आपका वध किया जाएगा और सार्वजनिक रूप से पुन: बंधु-बांधवों सहित आपका अंतिम संस्कार कर दिया जाएगा। मुझे इस पीड़ा से बचालो नाथ, इस पीड़ा से बचालो। भगवान राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दो नाथ और युगों से चली आ रही इस वैर पर सदैव के लिए विराम लगा दो, नाथ।'

अट्टहास करते हुए दशानन बोला, 'अंतिम संस्कार! नहीं, प्रिये मेरा अंतिम संस्कार करने के लिए, राम के पास अब पर्याप्त शक्ति कहां! मेरा अंतिम संस्कार नहीं, पुतले दहन कर कुण्ठा का निष्कासन है, यह। लोकतंत्र में पुतले दहन के अतिरिक्त विपक्ष के पास अन्य कोई विकल्प भी तो शेष नहीं है। सुनो, प्रिये! पुतले दहन कर राम मुझे महिमामंडित कर रहा है। ऐसा कर तुम्हारा राम बता रहा है कि सत्ता पर आज भी मेरा ही अधिकार है और मैं ही लंकेश हूं।''

क्या कहा तुमने, राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर दूं! उसके समक्ष जो स्वयं शक्ति विहीन है। प्रिय तुम्हारा राम राजनीति के दुष्चक्र में फंस चुका है और उसकी तमाम शक्तियां आज मेरे साथ हैं। प्रिय भ्राता विभीषण का राम दरबार से मोह भंग हो चुका है। उसे लंका का राज्य तो क्या विधायक का भी टिकट नहीं दिला पाए राम। विभीषण आज लंका के गृहमंत्री पद पर सुशोभित हैं। प्रिय सुग्रीव खाद्य मंत्री हैं और मस्त हो कर चारा चर रहें हैं। बाली पुत्र प्रिय अंगद के हाथों में लंका का प्रतिरक्षा विभाग है और समुद्र वित्तमंत्री। प्रिय तुम्ही बताओ तुम्हारे राम के पास अब बचा ही क्या है।''

मगर, महाराज! यह तो आपके आदर्श व मर्यादा के विपरीत है।' मंदोदरी बोली।दशानन के अट्टहास से पुन: दरबार गूंज गया। अट्टंहास करते-करते वह बोला, 'आदर्श-गरिमा! राजनीति में आदर्श, दोस्ती और दुशमनी कभी स्थायी नहीं होती। मार्ग वही आदर्श कहलाता है, जो सत्ता तक पहुंचाए और सत्ता को अक्षुण्ण रखे। ऐसी गरिमा का क्या लाभ प्रिय, जो व्यक्ति को भटकने की राह पर ला खड़ा करे। गरिमा तो क्रय-विक्रय की वस्तु है। सत्ता यदि हाथ में हो तो गरिमा स्वयं वरण कर लेती है।''

प्रिय मंदोदरी! जाओ भयमुक्त हो कर राज करो। त्रेता से आज तक तुम्हारा पति लंकेश प्रति क्षण मृत्यु का वरण कर दशानन से सहस्त्र-सहस्त्र शतानन हो गया है और राम बेचारा तब भी वन-वन भटक रहा था और आज भी। जाओ सत्ता सुखोपभोग करो मंदोदरी, सत्ता सुखोपभोग करो।'
राजेंद्र त्यागी-9868113044