Saturday, September 22, 2007

राजनीति का खिचड़ी दर्शन -व्‍यंग्‍य

राजनीति का खिचड़ी दर्शन
राजेंद्र त्यागी
कभी-कभी आप असमंजस की स्थिति में होते होंगे। मन में एक विचार आया, उससे निपट भी न पाए कि दूसरा विचार आ टपक। इतना ही नहीं, प्रत्येक विचार अपने ढाई चावल अलग गलाने की चेष्टा में मशगूल रहता होगा। मन में उत्पन्न यही विक्षोभ असमंजस का कारण बनता है। ऐसी स्थिति में विचारों की खिचड़ी पकाना ही श्रेयष्कर है। आप न भी चाहें तो भी ऐसा होना स्वाभाविक है, क्योंकि कब्ज की स्थिति में हाजमा दुरुस्त रखने के लिए खिचड़ी का ही एक विकल्प शेष रह जाता है। वैसे भी जब विचार अपने अपने-अपने ढाई चावल अलग-अलग पकाने की चेष्टा करने लगते हैं तो उनमेंअसमंजस की दाल मिलकर खिचड़ी का पकना स्वाभाविक ही है।
असमंजस की ऐसी खिचड़ी स्थिति अक्सर तब पैदा होती है, जब राजनीति में विक्षोभ पैदा होता है। उत्पन्न विक्षोभ के कारण सुनामी लोग परस्पर टकराने लगते हैं और यह टकराव इतना जबरदस्त होता है कि उनके मस्तिष्क में अनायास ही चुंबकीय तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं और जिसका परिणाम होता है, सूनामी लहरें।
सूनामी लहरें अनामी लोगों को उद्वेलित करती हैं और उनके मन में खिचड़ी बनने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। यह खिचड़ी न केवल अनामी लोगों के मन में पकती है, वरन् समूचा राजनैतिक वातावरण ही खिचड़ीमय हो जाता है। जहां देखों वहीं खिचड़ी फदकने से उत्पन्न संगीत सुनाई पड़ने लगता है, क्योंकि प्रत्येक सुनामी अपनी-अपनी खिचड़ी पकाने में मशगूल हो जाते हैं। जिनके पास ढाई चावल हैं वे भी और जिनके पास ढाई भी नहीं हैं, वे भी हांड़ियों के तले चिंगारियों को हवा देने लगते हैं। हांडी मिट्टी की है या काठ की उनके लिए ऐसा सोचना समय की बरबादी है।
जब-जब चुनाव आते हैं, तब-तब खिचड़ी-प्रक्रिया कुछ ज्यादा तेज हो जाती है। खिचड़ी का महत्व और उसकी मांग कुछ ज्यादा ही बढ़ जाती है। अपने खिचड़ी बालों को संवारते-संवारते मुन्नालाल बोले, ऐसा होना स्वाभाविक है। खिचड़ी राजनीति, खिचड़ी तंत्र, खिचड़ी दल, खिचड़ी सरकार, हर तरफ खिचड़ी-खिचड़ी। फिर खिचड़ी नहीं पकेगी तो और क्या पकेगा?
मुन्नालाल जी आगे बोले, देखो भइया, सुनामियों के लिए चुनाव संकट की घड़ी होती है। उनके लिए यह घड़ी संकट चतुर्थी के समान होती है और संकट चतुर्थी के दिन खिचड़ी का भक्षण पुण्यकारी है। एक बार खिचड़ी पक गई तो बस समझो पूरे पांच साल बिरयानी उड़ाने के शुभ अवसर प्रदान हो गए। अत: प्रत्येक सुनामी खिचड़ी पकाने में व्यस्त हो जाता है और वह भी तेरे ढाई चावल मेरे दाल के दाने, नहीं होंगे तो भी चलेगा, कोई तो ऐसा मिलेगा जिसका दाल-दलिया कर दाल हासिल की जा सकती है। कुल मिलाकर खिचड़ी पकानी है, परमाणु समझोते की आंच पर पके अथवा रामसेतु के किनारे, बस खिचड़ी पकानी है।
हम बोले, 'खिचड़ी तंत्र में खिचड़ी-खिचड़ी यह तो ठीक है, मगर सुनामी लोगों से उत्पन्न सूनामी लहरें! यह नहीं समझे?' मुन्नालाल बोले, 'सीधी सी बात है। सुनामी हैं तो उनके विचार भी सूनामी होंगे ही। विचार सूनामी होंगे तो उनसे चुंबकी-तरंग भी सूनामी ही उत्पन्न होंगी और सूनामी-तरंगों से उत्पन्न सूनामी-लहरें स्रोत को नहीं सामने वाले को प्रभावित करती हैं। अनामी प्रभावित होते हैं।' हम बोले, 'तो क्या अनामी प्रभावित होने के लिए ही हैं? तो क्या खिचड़ी भी सुनामियों के लिए और बिरयानी भी?' मुन्नालाल बोले, 'नहीं, नहीं! सुनामी उनके लिए भी खिचड़ी पकाते हैं, मगर मजबूरी है, उनके लिए खिचड़ी बीरबल-स्टाइल में पकती है। चुनाव के समय उसे आंच दिखलाई जाती है। कहीं जाकर अगले चुनाव आने तक पक पाती है, मगर क्या करें बांटने में कठिनाई होती है, तब चुनाव-आचार संहिता आड़े आ जाती है। अत: बेचारे सुनामियों को खिचड़ी भी खुद ही खानी पड़ती है और बिरयानी भी। अनामियों के लिए बस सूनामी लहरें ही शेष रह जाती है। यही उनकी नियति है। '
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Sunday, September 9, 2007

राजनीति, इज्जत और कीचड़

राजनीति, इज्जत और कीचड़
राजेन्द्र त्यागी
राजनीति का अपना एक संसार है, जिसमें इज्जत होती है, कीचड़ होती है। कीचड़ और इज्जत जब उछलती हैं, तो राजनीति में गतिशीलता के दर्शन हाते हैं। वरन् राजनीति कीचड़ भरे नाले के समान प्रवाह हीन सी दिखलाई पड़ती है। नाले की कीचड़ उछल कर जब सड़क पर आती है, तब पूर्व में कीचड़ के नीचे जारी मंद-मंद प्रवाह गति पकड़ लेता है और उसकी गति व दिशा दोनों स्पष्ट होने लगती हैं। यही स्थिति राजनीति की। कीचड़ राजनीति का स्थाई भाव है। राजनीति है जहाँ, कीचड़ है वहाँ! इज्जत राजनीति का स्वभाविक अंग है, क्योंकि इज्जत मनुष्य के साथ सदैव से चिपकी है। मनुष्य है, तो इज्जत होगी ही। इज्जत, इज्जत है, भले ही वह किसी भी स्तर की क्यों न हो। इज्जत वेश्या के भी होती है, क्योंकि किसी क्षण वह भी बेइज्जती मसूस करती है! इसी प्रकार राजनीति और उसके मुख्य तत्व नेता भी इज्जतदार होते हैं। वेश्या के समान राजनीति भी कब किस के बिस्तर पर करवटे बदलने लगे, कोई भरोसा नहीं है। फिर भी दोनों की अपनी-अपनी इज्जत होती है। दोनों के मध्य बस एक अन्तर है, वेश्या का अपना एक चरित्र होता है, किन्तु नेता इस मामले में प्रगतिवादी है, इसलिए उसकी इज्जत बहुआयामी है! 'इज्जत पर कीचड़ उछाली जा रही है!' राजनीति में यह जुमला अक्सर सुनने को मिलता है, क्योंकि इज्जत और कीचड़ दोनों ही राजनीति के स्थाई भाव हैं। किन्तु मैं इस जुमले से इत्तिफाक नहीं रखता। दरअसल राजनीति में कीचड़ इज्जत पर उछाली ही नहीं जाती। जिस प्रकार नाले से कीचड़ उछाली जाती है, उसी प्रकार इज्जत से कीचड़ उछाली जाती है। यह प्रक्रिया जनहित में है। इसके विपरीत कहावत है कि इज्जत और कीचड़ जब तक दबी रहे तभी तक ठीक है, किन्तु मैं इससे भी इत्तिफाक नहीं रखता। मेरे विचार से इज्जत और कीचड़ दबी-ढकी रहे तो एक दिन बदबू का प्रसारण करने लगती हैं। वायुमण्डल को प्रदूषित करने लगती हैं। अत: दोनों का उछलना आवश्यक है। इज्जत जितनी उछलती है, उतनी ही चमकती है। दबी-ढकी इज्जत क्या खाक चमकेगी? उछलना इज्जत का स्वाभाविक गुण है! जो लोग कीचड़ और इज्जत को दबा कर रखना चाहते हैं, वे 'जमाखोर' प्रवृत्ति के होते हैं और जमाखोरी सर्वजन हित में नहीं है! इज्जत से कीचड़ का उछलना सर्वजन के हित में तो है ही, व्यक्तिगत हित में भी है। जब तक इज्जत कीचड़ में दबी रहेगी, तब तक इज्जतदार का यथार्थ स्वरूप प्रगट नहीं होगा। उसके सद्गुण सार्वजनिक नहीं हो पाते, अत: वह सार्वजनिक जीवन से वंचित रहता है। वह सर्व-जन के गौरव से वंचित रहता है। अत: सर्व-जन होने के लिए इज्जत से कीचड़ उछालना परमावश्यक है। आवरण से ढके व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। व्यक्तित्व-विकास तभी होता है, जब वह आवरणहीन होता है, अर्थात नंगा हो जाता है। कीचड़ उछलने के बाद राजनीति में व्यक्ति नंगे से भी दो कदम आगे होता है, अर्थात वह नंग हो जाता है। कहावत है, ''नंग बड़ा बादशाह से'' इस आर्ष-वचन से मैं इत्तिफाक रखता हूँ। जिस किसी विद्वान ने हितकारी इस सूत्र की स्थापना की है, उसे किसी राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाना चाहिए। नंगपने के इसी मुलमंत्र के सहारे कई महानुभाव बादशाहत तक पहुंच चुके हैं। कीचड़ उछलने के बाद इज्जत पर कुछ दाग चिपके रह जाते हैं। किन्तु वे दाग शत्रु नहीं मित्र प्रवृत्ति के होते हैं! ऐसे दाग इज्जत पर सलमा-सितारों की तरह चमकते हैं! जिसकी इज्जत दागदार नहीं, राजनीति में वह व्यक्ति दमदार नहीं! दाग किसी डिटर्जेट से धोने की धूर्तता मत करना! पक्षताना पड़ेगा! अत: कीचड़ उछल रही है, उछलने दो। इज्जत दागदार हो रही है होने दो! जन-नायक का यथार्थ स्वरूप जन-जन के समक्ष व्यक्त होने दो! नाक कट भी जाए तो क्या गम है! जितनी बार कटेगी, हर बार सवा हाथ बढ़ेगी! नाक कट रही है, जन-नायक का हो रहा है, होने दो! लोकतंत्र सुदृढ़ हो रहा है, होने दो! कीचड़ उछल रही है उछलने दो! -----------------

धैर्य धर मतदाता


धैर्य धर मतदाता
राजेंद्र त्यागी
काम का बोझ और बॉस के बांस का दर्द लिए हम घर पहुंचे। चेहरे पर विरह-संताप का ताप लिए श्रीमतीजी द्वार पर ही प्राप्त हो गई। उनके विरह-संवेग के कारण हम नहीं थे, क्योंकि कृष्ण-गोपिका-विरह की स्थिति अब हमारे लिए अतीत का हिस्सा बन चुकी हैं। रीतिकाल की नायिका की तरह द्वार पर खड़ी श्रीमती जी हमारी बाट नहीं जोह रही थी। वे खंभों पर लटके बिजली के तार निहार रही थी। दरअसल पिछले तीन दिन से बिजली नहीं आई थी। श्रीमतीजी का संतापित चेहरा देख हमारे मुख से निकला, ''अभी तक नहीं आई़!'' पूर्व में जब-कभी पत्नी मायके चली जाया करती थी, तब भी ऐसे ही व्यग्रभाव से हम मन ही मन कहा करते थे, ''आज भी नहीं आई!'' वक्त और जमाने की दुश्वारियों ने पत्नी का रूप परिवर्तन श्रीमती के रूप में कर दिया है। जंग खाए लोहे की तरह धीरे-धीरे पत्नी-भाव का क्षरण हो गया है। जिज्ञासा युक्त हमारा प्रश्न सुनकर विरह-भाव से श्रीमतीजी बस इतना बोली, ''बिहारी की नायिका के समान नखरे दिखाती है। आती है और मुखड़ा दिखाकर चली जाती है।'' बिजली नहीं तो पानी भी नहीं। पानी उतरे नेताई चेहरों की तरह नल भी कई दिन से सूखे पड़े हैं। महाराजाधिराज के आगमन की पूर्व-सूचना की तरह सुबह-शाम सूखी टोंटी वायु-वेग से बिगुल सा बजाती है। तृष्णा-तृप्त बिगुल की आवाज सुन कर ही तन-मन भीग-भीग सा जाता है। दुर्भाग्य हमारा कि आगमन का सूचनात्मक बिगुल हमारे घर बजता है और महाराजाधिराज पड़ोस ही में टपक कर लोट जाते हैं। पिछले कई दिन से वाटरबॉथ का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ है। सनबॉथ से ही गुजारा हो रहा है। इसे स्वेट्बॉथ भी कहा जा सकता है, जिसका सौभाग्य घर और दफ्तर दोनों स्थानों पर प्राप्त है। मोमबत्ती के तन में आग लगाकर श्रीमतीजी ने कैंडल-लाइट डिनर का प्रबंध किया। हमने दाल के पानी में रोटी का टुकड़ा भीगोकर पेट की आग पर पानी डालने का प्रयास किया। ईश्वर को धन्यवाद दिया। बिजली-पानी न सही महंगाई के इस युग में दाल-रोटी तो मिल रही है। लगभग यह सुनिश्चित हो चुका था कि बिजली का सहवास आज भी प्राप्त नहीं होगा। बिजली के बिना रात तनहा ही गुजारनी पड़ेगी। हम चारपाई शरणम् गच्छामि हो गए। नींद को आना ही था, वह आ गई। आम आदमी के लिए नींद का आना न आना समाचार नहीं है। प्रसंग-विवशता के कारण इस व्यथा-कथा में जिक्र करना आवश्यक हो गया था, अत: कर दिया। नींद के आगोश में जाते ही हम स्वप्न-लोक में विचरण करने लगे। शुक्र है कि वित्तमंत्रालय का ध्यान अभी इस ओर नहीं गया है, अत: स्वप्न देखना अभी तक सेवाकर से मुक्त है और आम आदमी भी स्वप्न-लोक में विचरण करने का साहस कर सकता है। झर-झर करते झरने की सी आवाज हमारी श्रवणेंदियों में उतरी और साथ ही तेज प्रकाश का सा आभास हुआ। दरअसल इंद्र-लोक की परी के समान सरकार हमारे सपने में उतरी थी। अवतरित होते ही सरकार ने हम से पूछा, ''प्रिय मतदाता! आँखों में जलन दिल में तूफान सा क्यों है?'' अनायास ही सरकार के अवतरण से हम हतप्रभ भी थे और भयभीत भी, अत: अतिथि-औपचारिकता का निर्वाह करते हुए हम बोले, ''कुछ नहीं, बस यों ही!'' हमारा संकोच हमारा औपचारिक व्यवहार का अहसास कर सरकार बोली, ''नहीं-नहीं! नि:संकोच बोलो, निर्भय होकर बोलो, औपचारिकता का त्याग कर बोलो! हम तुम्हारी सरकार हैं, तुम्हारी प्रत्येक समस्या का निवारण, तुम्हारे प्रत्येक कष्ट का हरण करना हमारा धर्म है।'' ''अरे! सरकार भी अहसास करती है! मतदाता के प्रति इतना स्नेह भाव रखती है!'' सरकार का ऐसा व्यवहार देख हम आश्चर्यचकित थे। सरकार की अहसास-शक्ति और स्नेहभाव देख हमने अपनी व्यथा उसके सामने उगल दी। सरकार मुसकरा दी और बोली, ''विद्युत और जल विभाग धैर्य धारण करने की शिक्षा दे रहे हैं। मतदाता उसे संकट समझ रहे हैं। धैर्य धारण करो, प्रिय मतदाता! पॉजेटिव बनो!''
कथित बुद्धिजीवी की तरह सरकार ने नाक, होंठ और गालों पर अंगुलियां घुमाई और फिर गंभीर-भाव से बोली, ''बाह्य-प्रकाश की चिंता में कब तक डूबे रहोगे, प्रिय मतदाता? गीता का अनुसरण कर अंतर्मन प्रकाशित करो! ..तृष्णा कैसी भी हो, मनुष्य के पतन का कारण है! सांसारिक तृष्णा का त्याग कर गीता-उपदेश से अंतर्मन की तृष्णा शांत करो! गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है- नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:। अर्थात असत् का भाव नहीं है और सत् का अभाव नहीं है। गीता के इस श्लोक को हमारे दोनों विभाग नीति-वाक्य बनाने की तैयारी में जुटे हैं।'' सरकारी प्रवचन हमारे स्थूल व शुक्ष्म शरीर को संयुक्त रूप से प्रभावित कर गए, अत: हमने सोचा की अवसर हाथ से नहीं जाना चाहिए। सरकार कब-कब हाथ आती है। लगे हाथ ब्ल्यू लाइन-वाइट लाइन के कारनामों के बारे में भी कुछ ज्ञान ले लिया जाए। हमारी जिज्ञासा का खुलासा होते ही सरकार फिर कृष्ण-भाव में आ कर बोली, ''नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:। न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारूत:।। जिसे शस्त्र काट नहीं सकते, आग जला नहीं सकती, जल गला नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकता। उस आत्मा को ब्ल्यू-वाइट लाइन भला क्या खा कर मारेंगी। आत्मा अमर है। ..हे मतदाता! बस के नीचे जिस शरीर को तुम देख रहे हो, वह नश्वर है। नश्वर पदार्थ के लिए शोक कैसा? बसों पर गीता का यह अमर वाक्य अंकित करने के आदेश कर दिए गए हैं।'' सरकार के कृष्ण-वचन हमारे अर्जुन-मन बिना बिजली के ही प्रकाशित हो गया। आत्मा बिना जल के ही भीग गई। हमें अहसास हुआ बिजली-पानी दोनों असत् है और असत् का भाव नहीं है। बसे आत्मा की अमरता का ज्ञान दे रही हैं। समूची दिल्ली में गीता-ज्ञान का रस बरस रहा है। सरकार अंतध्र्यान हो गई। हमने करवट ली, आँखें खोली। चारोओर अंधकार ही अंधकार पाया। जल-देवता के दर्शनार्थ श्रीमतीजी को ध्यानावस्था में नल के पास खड़ा पाया। पड़ोस से विलाप की आवाज आ रही थी। पड़ोसी सिंह साहब चिथड़ा नश्वर शरीर फर्श पर पड़ा आत्मा की अमरता का संदेश प्रसारित कर रहा था। *******