Sunday, November 4, 2007

हमाम के अंदर, हमाम के बाहर

जब से पढ़ा है कि जेबकतरे अब सूटेड-बूटेड हो कर जेबतराशी करने लगे हैं, तब से मैं स्वयं को हमाम के अंदर की अवस्था में पा रहा हूं। मुझे इस बात का गम नहीं है कि जेबतराश जेब हल्की करने के इस पवित्र व्यवसाय में मोबाइल का इस्तेमाल करने लगे हैं। विकारों की तरह मोबाइल का त्याग तो मैंने उसी दिन कर दिया था, जिस दिन से पड़ोसी की बाई ने मोबाइल पर अपॉइंटमेंट ग्रहण करने शुरू किए थे।
मुझे इस बात से भी कोई गिला नहीं है कि इस पवित्र धंधे में महिलाएं भी उतर आई हैं, क्योंकि मैं नारी-स्वातं˜य का समर्थक हूं। किसी भी धंधे में पुरुषों का ही एकाधिकार क्यों रहे। नारियों को भी पुरुष के कंधे से कंधा रगड़ कर चलने का अधिकार प्राप्त होना ही चाहिए।
मेरी पीड़ा का कारण तो केवल उनके सूटेड-बूटेड होने को लेकर है, क्योंकि अब मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि कौन से वस्त्र धारण कर बाहर निकलूं। हमाम के अंदर की अवस्था में यदि घर से बाहर कदम रखता हूं, तो व्यथा जाने बिना ही लोग पत्थरों से स्वागत करेंगे। बिना जांच-पड़ताल के ही पुलिस सार्वजनिक-स्थल पर अश्लील हरकत के जुर्म में मुझे अंदर कर देगी। इस तरह की सभी आशंकाओं को यदि दरकिनार कर भी दिया जाए तो लोकलाज हर कदम पर मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है। मेरा मानना है कि तमाम दुशवारियों के बावजूद लोकलाज के कुछ अवशेष अभी भी मौजूद हैं। अवशेष शेष न होते तो आधुनिक संस्कृति की प्रतिनिधि-बालाएं अ‌र्द्धवस्त्र की सीमा रेखा पर ही आकर न रुक जातीं। ऐसी प्रगतिशील बालाएं जिस दिन अ‌र्द्धवस्त्र की लक्ष्मण रेखा भी लांघ जाएंगी उस दिन मैं समझूंगा कि समाज अब लोकलाज की दकियानूसी व्यवस्था से पूर्ण रूपेण मुक्त हो गया है।
बात जेबकतरों के सूटेड-बूटेड होने और हमें हमाम के अंदर की अवस्था प्राप्त होने की चल रही थी। दिगंबर बने घर के अंदर कब तक बैठे रहते, दफ्तर तो जाना ही था। हमने श्रीमती जी से कपड़े मांगे। नए परिवर्तन से बे-खबर श्रीमती जी ने हमारे सामने वही पेंट-शर्ट ला कर पटक दी। हम बोले- इन्हें पहन कर दफ्तर जाऊंगा? श्रीमती जी बोली एक ही दिन तो पहने हैं। हमने उन्हें समझाया जेबकतरों ने अब इन्हें ही अपनी यूनिफार्म बना लिया है। लोग मुझे भी..!
श्रीमती जी कलफ लगा खादी का कुर्ता-पायजामा ले आई। हम तुनक कर बोले, इन्हें पहन कर आफिस जाऊं? श्रीमती जी ने पूछा, इनमें क्या खराबी है। जेबकतरे कुर्ते-पायजामे तो नहीं पहनते। हमारा जवाब था- उनके बॉस तो पहनते हैं। हमने तह खोलकर उनकी प्रत्येक सलवट पर लगे दाग दिखलाए। श्रीमती जी ने टका सा जवाब दिया- ऐसे दाग धोने के लिए अभी तक कोई डिटर्जट नहीं बना है। संदूक दर संदूक छानने के बाद वे कहीं से भगवा-वस्त्र खोज लाई। समझौतावादी सरकार की तरह हमने वामपंथी मन के साथ समझौता किया। सोचा भगवा धारण कर ही दफ्तर चले जाएंगे। यार-दोस्त हंसी ही तो उड़ाएंगे, मगर शक की निगाह से तो नहीं देखेंगे। अफसोस कि भगवा वस्त्र भी बेदाग नहीं निकले। उनकी प्रत्येक तह पर लिखा था, ''मुंह में राम बगल में माया''।
हम पुन: स्वयं को हमाम के अंदर की अवस्था में पा रहे थे। जेबकतरों को कोस रहे थे। कमबख्तों, पहनने के लिए तुम्हें सूट-बूट ही मिले थे। खादी का कुर्ता-पायजामा या भगवा चोगा धारण कर लेते। कुछ दाग पहले ही लगे थे, कुछ और लग जाते। उन्हें धारण करने के बाद भी तुम तो जैसे थे वैसे ही रहते। हमाम के अंदर-बाहर समान अवस्था में ही रहते। कम से कम हम तो अवस्था परिवर्तन के दुष्चक्र से बच जाते। फैशन डिजाइनरों से मेरी प्रार्थना है, कुछ इस प्रकार के भी वस्त्र डिजाइन करो, जिन्हें धारण कर हम जैसे भी हमाम से बाहर की अवस्था का अहसास कर सकें।
संपर्क 9868113044