Tuesday, May 13, 2008

संकट पाने का

समूचा राष्ट्र पानी संकट से ग्रस्त है। कहीं पानी उतरने का संकट है तो कहीं पानी चढ़ने का। कहीं पानी न होने का संकट है तो कहीं पानी-पानी होने का और कहीं-कहीं तो घड़ो पानी डालने के बाद भी पानी-पानी न होना संकट का कारण है।
कल तक जो पानीदार थे, आज बेपानी हो रहे हैं औरों के किए-धरे पर पानी फेर रहें हैं, मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं। हां, पानी जनित भिन्न-भिन्न प्रकार के संकट हैं। चरों तरफ संकट ही संकट है।
हमारे व्याख्यान लपक मुन्नालाल जी बोले, 'भईया! यह तो बताओ, पानी का संकट है या पानी खुद में संकट है अथवा पानी संकट में है?'
सवाल वाजिब था। हमारा चकराना भी लाजिम था। फिर भी हमने साहस जुटाया, लप्पेबाजी की और रहीम दास जी का स्मरण कर बोले-
'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए ऊबरे मोती मानस चून॥'
मुन्नालाल जी ने विपक्षी बाउंसर दागा, 'हमारे सवाल का रहीम के इस दोहे से क्या वास्ता?'
मन ही मन हम बोले, 'लालू स्टाइल में हमने अपना जवाब तो फेंक ही दिया। न सही वास्ता, जवाब तो दे ही दिया। तुक मिले न मिले बोझ तो मरेगा। हमारे बेजा जवाब पर आह तो भरेगा।'
अपना मन नियंत्रित कर हम फिर बोले, 'वास्ता क्यों नहीं है, वास्ता है। रहीम दादा ने इस दोहे में पानी ही का तो संकट बताया है। उनके कहने का मतलब है, भइया! मोती, मानस, चून का जब पानी उतर जाता है तो तीनों ही बेभाव हो जाते हैं, अर्थात महत्वहीन हो जाते हैं। अत: पानी संकट न होने दो।'
मुन्नालाल जी बोले, 'नहीं-नहीं! रहीम तंत्र की मिसाल लोकतंत्र पर न बिठाओ। जमाना बदल गया है, नए जमाने की नई मिसाल बनाओ। लोकतांत्रिक इस युग में पानी उतरे चेहरे ही महान होते हैं। भावशून्य ही भाव वाले होते हैं।'
'अरे, पानी चढ़ा चेहरा नकली कहलाएगा। शुष्क होगा तो असली माल में बिक जाएगा। अत: इस युग में मानस वे ही उबरते हैं, जिनके चेहरे पानी-विहीन होते हैं। जिसके चेहरे पर पानी ठहर गया, धोबी के कुत्ते की तरह वह घर-घाट दोनों से गया। पानी उतरा चेहरा ही मोती कहलाएगा, सूखे चून को भी पचा जाएगा।'
रहीम और हमारे ऊपर एक ही छोर से बाउंसर दागते हुए मुन्नालाल जी आगे बोले, 'जिसकी आंख में पानी होगा, वही निर्बल कहलाएगा। जिसकी आंखों का पानी सूखा वह सबल हो जाएगा। जिसकी आंख में पानी होगा, बात-बात पर आठ-आठ आंसू रोएगा। तरक्की के मार्ग
को कीचड़-कीचड़ करेगा। किस्मत तरक्की के दरवाजे खोलेगी और पानी वाली आंखें शर्मसार होंगी, वक्त-बेवक्त पानी-पानी होंगी। खुले दरवाजे बंद हो जाएंगे। तरक्की के मार्ग अवरुद्ध हो जाएंगे।'
मुन्नालाल जी का प्रवचन हमारे सिर के ऊपर से उतर गया। मानो यूपीए की भैंस के साथ भैंसा पानी में उतर गया। सिर के ऊपर से पानी उतरता देख, हमने पूछा, 'जब पानी ही संकट है, फिर पानी-पानी का शोर कैसा?'
मुन्ना भाई बोले, 'जहां झील होती है पानी वहीं मरता है। पानी भरेगा तो झील वासी पानी-पानी ही चिल्लाएंगे। अपनी झील से पानी उलीच दूसरों के सिर पर गिराएंगे। पानी यहां भी संकट है, पानी वहां भी संकट है। अत: कोई अपनी झील में पानी नहीं चाहता। पानी उसकी झील में हो, मगर कमल मेरी झील में खिले। संतान उसके घर पैदा हो, मगर बधाई मुझे मिले। चिकने घड़े बनोगे, पानीदार कहलाओगे। पानी की परवाह करोगे तो उसी में डूब जाओगे। कुआं खोद कर पानी पीना मूर्खता कहलाता है, घाट-घाट का पानी पी कर मानस बुद्धिजीवी बन जाता है।'
'मुन्नाभाई! बात तुम्हारी सवा सोलह आने उचित है, अब तो पानी को ही संकट कहना उचित है।'
'नहीं, नहीं! न पानी संकट है, न पानी का संकट है। बस पाने का संकट है। पाना है, बस पाना है। आंखों में पानी भर कर पाना है, आंखों का पानी मार कर पाना है, चेहरों का पानी उतार कर पाना है। पानी-पानी होकर पाना है, चिकने घड़े होकर पाना है। निर्जल होकर पाना है, निर्लज्जा होकर पाना है। बस पाना है।'
संपर्क- 9717095225