Sunday, December 16, 2007

महंगाई ने गरीब की ही तो प्रतिष्ठा बढ़ाई है



           
       पता नहीं क्यों लोग महंगाई का नाम सुनकर ऐसे बिदकते हैं, जैसे लाल कपड़े को देखकर सांड़। विचार कीजिए जन्म से मृत्यु तक, रसोई से दफ्तर तक, पनघट से मरघट तक महंगाई ही तो मनुष्य का साथ देती है। महंगाई सर्वागनी है, अंग-अंग वासनी है, कण-कण व्यापनी है। हरदम साथ चिपके रहने वाली प्रेयसी के समान है। महंगाई न हो तो सब कुछ बेकार सा लगता है। जीवन निराश सा प्रतीत होता है। पैसा हाथ का मैल है। महंगाई डिटर्जेट है, हाथ साफ करती है। 'पानी बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम दोनो हाथ उलीचये यही सज्जन को काम।' महंगाई घर में दाम बढ़ने ही नहीं देती, इस प्रकार उलीचने के कष्टदायक कर्म से बचाती है। मनुष्य को सज्जन बनाती है। पैसा मनुष्य को अहंकारी बनाता है, उसमें माया-मोह उत्पन्न करता है। मनुष्य का पतन करता है। महंगाई मनुष्य को निरहंकारी बनाती है। मनुष्य को पतन से आत्मिक-उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करती है।
महंगाई सरकार की माया है। माया सरकार की हो अथवा ईश्वर की दोनों ही अपरंपार हैं। सरकारें बदलती रहती हैं, महंगाई ज्यों की त्यों जमी रहती है। सरकार रामलाल की हो या मुन्नालाल की महंगाई हमेशा विद्यमान रहती है। सभी कुछ परिवर्तनशील है, केवल परिवर्तन और महंगाई के अलावा। महंगाई ही सत्य है, शेष सभी असत्य।
जब कभी महंगाई का जिक्र होता है, अपना मन ईलु-ईलु करने लगता है, प्रफुल्लित हो जाता है। जब कभी सुनता हूं, प्याज फुदकने लगी है, आलू चढ़ने लगा है, दाल उछलने लगी है, तब-तब मेरा मन भी बल्ली की ऊंचाई से उछलने लगता है। महंगाई के बढ़ने से मुझे आत्मिक-सुख प्राप्त होता है। मंदे जमाने में कटोरे भर-भर दाल पीने के बाद भी मैं हीन भावना से ग्रस्त रहता था। मुर्गमुसल्लम खाने वालों के सामने तेवर ढीले करके चलता था। क्योंकि तब घर की बीमार मुर्गी की तुलना गरीब की दाल से की जाती थी।आज गरीब की दाल मुर्गी के सिर पर बैठी है। आज जब कभी भी दाल के पानी में रोटी का टुकड़ा भिगोने का सुअवसर पाता हूं, हीन भावना का नहीं गर्व का अहसास करता हूं।
एक जमाना था, जब आग पर भुने आलू खा कर पेट की आग बुझाता था, तब स्वयं को गरीबी रेखा के नीचे पाता था। आज जब आलू के झोल से रोटी सटकता हूं, तो लग्जूरिअस लाइफ जीने का अहसास करता हूं।
मंदे जमाने में निगाह नीची कर प्याज और नमक के साथ रोटी सटकता था। महंगाई के कारण उस कष्टकारी सटकने से अब निजात मिल गई है। क्योंकि प्याज अब सटकने की नहीं, सजाने की वस्तु है, इसलिए उसे ड्राइंग रूम में सजाता हूं। उसे देख-देख कर अमीर होने का अहसास करता हूं।
महंगाई बढ़ा कर सरकार ने गरीब को इज्जत बख्शी है। आलू, प्याज, दाल को अमीर की डाइनिंग टेबुल तक पहुंचा कर गरीब के खाजे को ही तो प्रतिष्ठा दिलाई है। सरकार की सकारात्मक दृष्टिं से विचार करें तो महंगाई ने गरीब ही की तो प्रतिष्ठा बढ़ाई है!
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