Saturday, May 31, 2008

मसला एक अदद लाइसेंस का है !

दिल्ली पुलिस ने एक चौराहे से ट्रैफिक पुलिस-वर्दी-धारी एक शख्स को गिरफ्तार किया। वह कमबख्त व्यवसायिक वाहनों से अवैध वसूली का गैर-कानूनी धंधा कर रहा था। फिर तो पुलिस ने गिरफ्तार करना ही था। उसे गिरफ्तार कर पुलिस ने वास्तव में कानून का पालन किया। यह आश्चर्य की बात नहीं है, पुलिस भी कभी-कभी कानून का पालन कर लेती है! वैसे तो पुलिस का काम केवल कानून का पालन करवाना है, कानून का पालन करना नहीं! हो, सकता है, कभी-कभी अभ्यास के लिए कानून का पालन करने संबंधी नागरिक-दायित्व का निर्वाह करना पुलिस की मजबूरी होती हो!

अब आप पूछेंगे कि उस शख्स की वसूली अवैध वसूली क्यों थी? पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर कानून का पालन कैसे किया? प्रश्न के पक्ष में आपका तर्क होगा कि ट्रैफिक पुलिस की वर्दी पहने लोगों को आपने अक्सर वसूली करते देख है। एक-दो बार आपने भी जेब ढीली कर ऐसे कर्तव्यपरायण वर्दी-धारियों के राष्ट्रीय-दायित्व में महत्वपूर्ण योगदान दिया है आपका तर्क भी जायज है और प्रश्न भी।

आपका कहना उचित है कि टै्रफिक-पुलिस की वर्दी पहने लोग चौराहों, दोराहों, राजपथों, जनपथों पर अक्सर वसूली करते रहते हैं। मगर वसूली के इस परम्-कर्म के लिए उनके पास सरकारी लाइसेंस होता है, अत: उनकी वसूली वैध वसूली होती है। जिस कमबख्त को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, उसके पास ऐसा कोई लाइसेंस नहीं था। बस यही गलती थी, उस कमबख्त की। उसे यदि वसूली करनी ही थी, तो लाइसेंस न सही पुलिस विभाग से फ्रैंचाईज ही ले लेता। ट्रैफिक वार्डन बन जाता, खुल्ला-खेल फर्रुखाबादी खेलता! वैध वसूली करता!

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Wednesday, May 28, 2008

सांड़-सांड़ की पाचन शक्ति

गाजियाबाद में नन्दी पार्क के नाम से सांड़शाला है। जहां आवारा सांड़ रखे जाते हैं। जाहिर है कि नन्दी पार्क में बंद सभी सांड़ 'जन' किस्म के होंगे, क्योंकि राजनैतिक और सरकारी सांड़ आवारा सांड़ नहीं कहलाए जाते हैं, आवारागर्दी करना उनका मौलिक अधिकार है। आवारागर्दी-विरोधी कानून केवल 'जन' किस्म के प्राणियों पर ही लागू है।

दो-तीन दिन पहले उस सांड़शाला के दो सांड़ परलोक-गमन कर गए। सांड़-भक्तों (नन्दी-भक्त) की भावनाएं आहत हुई। मन शोक संपन्न हो गया। जाहिर है कि जब किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचती है, तो मुंह से एक आह-सी निकलती है। वही आह बढ़ते-बढ़ते शोर-गुल और आंदोलन में तब्दील हो जाती है। सांड़-भक्तों की मांग पर मृत-सांड़ों का पोस्टमार्टम हुआ।

उन्हीं में से एक सांड़ के पेट से दो रत्ती सोना, पांच व दो रुपये के चंद सिक्के, सौ ग्राम लोहे की कील, दो सौ ग्राम लोहे के वार्सल और न जाने क्या-क्या निकला। सांड़ के पेट से बरामद वस्तुएं देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ, लेकिन बरामदगी सोचने के लिए हमें एक विषय दे गई।

हम विषय पर सोचते-सोचते सो गए। फिर सपने में नन्दी महाराज प्रकट हुए। बोले- भक्त! चिंता में भुट्टे की तरह क्यों भुनते जा रहे हो? हमने उनके सामने चिंता का कारण बयान कर दिया। हमारा चिंतनीय प्रश्न सुनकर नन्दी महाराज हंस दिए और फिर बोले- भक्त वह सांड़, जन-सांड़ था, सरकारी अथवा राजनैतिक सांड़ नहीं! उन दोनों में से किसी किस्म का सांड़ होता तो तुम्हारे मन में चिंतनीय यह प्रश्न ही उत्पन्न न होता।

हमने प्रश्न किया- क्यों, महाराज? नन्दी महाराज पुन: मुस्करा दिए और बोले- भक्त! राजनैतिक व सरकारी सांड़ों की पाचनशक्ति ़गजब की होती है। चंद सिक्के, रत्ती-दो रत्ती सोना और चंद कीलों की तो बात क्या, वे तो टकसाल की टकसाल हजम कर जाते हैं। सोने की समूची खदान हजम कर जाते हैं। लोहे की कील तो क्या वे टैंक के टैंक हजम कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते। भक्त मृत सांड़ भी यदि राजनैतिक अथवा सरकारी सांड़ होता, तो तुम और तुम्हारे डाक्टर बस ढूंढते रह जाते। भक्त! गलती की इस सांड़ ने जन-सांड़ होकर राजनैतिक व सरकारी सांड़ों जैसा भोजन करने की चेष्टा की। फिर तो उसकी ऐसी दुर्गति होनी ही थी। इतना कहकर नन्दी महाराज अंतर्धान हो गए और हम जाग गए।

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Wednesday, May 21, 2008

ज्ञान के प्रकाश से अंतरात्मा को प्रकाशित करो

रात्रि का समय था। हवा शांत थी, गर्मी अशांत थी। भव्य पंडाल में सत्यानंद जी प्रवचन-प्रसारण चल रहा था, 'हे मां! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। असत्य से सत्य की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।' तभी बिजली धोखा दे गयी। चरों ओर अंधकार छा गया। माइक गला बंद हो गया। भक्तजनों में खलबली मच गयी। परनिंदा में माहिर भक्तजन् सरकार को कोसने लगे। कुछ अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने की सद्-इच्छा से इधर-उधर हाथ-पांव पटकने लगे। एक भक्त ने जींस की जेब से लाइटर निकालकर अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने का सार्थक प्रयास किया। मंच पर गैस की लालटेन को माचिस दिखलाई गई। इस प्रकार अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का एक दौर संपन्न हुआ। प्रवचन की धारा पुन: प्रवाहित होने लगी।

भक्तजनों के तेवर देख महाराज ने प्रवचन की दिशा में मामूली सा परिवर्तन किया। ब्रह्मं सत्य, जगत मिथ्या की तर्ज पर महाराज ने ओजस्वी वाणी से अमृत वर्षा करते हुए कहा, 'भकतजनों! प्रकाश असत्य है। अंधकार ही सत्य है। जीवन के सभी पुण्य कार्य अंधकार में ही संपन्न होते हैं। प्रकाश में संपन्न पुण्य कार्य भी पाप-कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। अंधकार मिटाने के लिए हमें प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती है, किंतु प्रकाश से निपटने के लिए अंधकार की व्यवस्था नहीं की जाती, अपितु प्रकाश को ही समाप्त कर दिया जाता है। अत: अंधकार ही शाश्वत है, प्रकाश नश्वर है।'

महाराज ने वाणी को विराम देकर दीर्घ श्वास का पान किया और फिर बोले, 'विडंबना यह है कि प्रकृति परिवेश में जीना त्याग कर हमने अपने चारों ओर कृत्रिम परिवेश का जाल बुन लिया है। यही दुख का कारण है। प्रकाश की इच्छा रखते हो, तो अपने मन मंदिर में ज्ञान के दीप प्रज्ज्वलित करो। आज पुन: हम प्रकृति की ओर लौट रहे हैं। हमें सरकार और बिजली विभाग का आभारी होना चाहिए कि वे हमें प्रकृति की ओर गमन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हे भक्तजनों! प्रकाश की आशा उससे करनी चाहिए जो स्वयं प्रकाश-पुंज हो। स्वयं ही जिसका भविष्य अंधकार में है, वह किसी को किस प्रकार आलोकित कर सकता है, अत: सरकार से प्रकाश की आशा का त्याग कर, सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश से जीवन को आलोकित करो।'

प्रवचन के मध्य ही एक भक्त ने प्रश्न उछाला, 'महाराज! पानी-संकट?' महाराज बोले, 'सत्य वचन! पानी का घोर संकट है। ऐसा संकट न त्रेता में था और न ही द्वापर में, जैसा कि कलियुग में है। आंखों का पानी सूख गया है। चेहरों का पानी उतर गया है। रहीम दास जी का वचन असत्य हो गया है। अब पानी-विहीन मोती और पानी-विहीन मानुष्य ही सच्चे कह लाए जाते हैं। पानी-विहीन ही उबरते हैं। अत: पानी संकट का लाभ उठाओ। पानी का मोह त्याग, तुम भी महान बन जाओ!' प्रवचन के मध्य ही प्यासे होंठ और शुष्क वाणी से एक अन्य भक्त ने उच्चार किया, 'किंतु महाराज! पेय जल संकट?' भक्त का प्रश्न सुन महाराज मुस्करा दिए और बोले, 'पुत्र! शरीर और मन की तृष्णा कभी नहीं बुझती है। उसका त्याग करो और ज्ञान की पवित्र धारा से अंतरात्मा की तृष्णा को शांत करो।'

सत्यानंद महाराज अंधकार-प्रकाश, सत्य-असत्य और तृष्णा-त्याग पर अंधकार में प्रकाश डाल रहे थे। तभी उनका कर-कमल कनपटी पर पटका। भक्तों के झुंड से एक आवाज भिनभिनाई 'मच्छर' है। एक अन्य आवाज उठी- डेंगू का होगा! तभी करुणा-भाव से एक भक्त का हाथ महाराज की कनपटी की ओर उठा। महाराज संभले और बोले, ' अहिंसा परमोधर्म:! जीवों पर दया करो।' एक भक्त बोला, 'मलेरिया विभाग निकम्मा है। मच्छरों ने हमारा जीना दूभर कर दिया है!'

करुण रस की वर्षा करते हुए महाराज ने भक्त की जिज्ञासा शांत की, 'वत्स! मच्छर हमारे शत्रु नहीं, मित्र हैं। 'चैन की नींद सोना है, तो जागते रहो' का पवित्र संदेश प्रसारित कर हमें निद्रा से जागृत अवस्था में लाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। साधुवाद की पात्र है सरकार जिसने मच्छरों को नष्ट न करने की शपथ लेकर 'अहिंसा परमोधर्म:' का निर्वाह किया है।' इतना कह कर महाराज ने पुन: कनपटी सहलाई और बोले, 'भक्तजनों! तुम आत्मा हो और आत्मा अमर है। फिर डेंगू के मच्छर से कैसा भय! मच्छर तुम्हारे नश्वर शरीर को तो हानि पहुंचा सकता है, किंतु आत्मा को तो नहीं। तुम आत्मा हो।' महाराज ने पुन: दीर्घ श्वास का पान किया और बोले, 'तमसो मां ज्योतिर्गमय!' तभी बिजली विभाग की कृपा हुई और पण्डाल प्रकाशमान हुआ। इसके साथ ही अंधकार से प्रकाश की यात्रा का समापन हुआ।

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Friday, May 16, 2008

टीले का रहस्य

आज आपको एक कहानी सुनाता हूं। कहानी न अतीत की है और न ही वर्तमान की। कहानी भविष्य की है। भविष्य की है, किंतु कोरी कल्पना नहीं। कल्पना कोरी कल्पना कभी होती भी नहीं है। प्रत्येक कल्पना किसी न किसी यथार्थ पर ही आधारित होती है। अत: इस कहानी को कोरी कल्पना समझ कर यों ही हंसी में मत उड़ा देना। अच्छा कहानी सुनों-
सूनामी गांव में एक ग्वाला रहता था। ईमानदार था, प्रेमी जीव था, सत्यवादी था, अहंकार करने के लिए उसके पास कुछ था ही नहीं, अत: अहंकार-मुक्त भी था। जब उसे अहंकार ही नहीं था, तो क्रोध कहां से होता! वैसे क्रोध के लिए भी पल्ले कुछ होना आवश्यक है। कुल मिलाकर सज्जनता के सर्वगुणों से संपन्न था। यही उसकी पूंजी थी और यही उसकी संपन्नता।
वह रोज सुबह उठता। अपने साथियों के साथ दूर जंगलों में पशु चराने ले जाता। साथी ग्वालों को प्रेम का पाठ पढ़ाता, आपस में विवाद होने पर सहज भाव से उसे निपटा देता। खुद घाटे में रहता मगर विवाद को तूल न पकड़ने देता। पशु चरने में व्यस्त हो जाते, तो उसके साथी उसे घेरकर लोक-परलोक की कहानियां सुनते। ग्वाला वैसे तो निरक्षर था। यहां तक कि अपना नाम भी लिखना नहीं जानता था। संस्कृत और संस्कृत-निष्ठ भाषा बोलने का तो प्रश्न ही नहीं। किंतु, न जाने कौन शक्ति उसकी आत्मा में प्रवेश कर जाती कि वह कहानी सुनाते-सुनाते आध्यात्मिक-प्रवचन सुनाने लगता। जिसमें वेद-पुराण और गीता-उपनिषदों के दृष्टांत भी होते। उसके साथी उस के ज्ञान पर आश्चर्य भी करते, किंतु बहुत ही ध्यान से उसे सुनते। कुछ ज्ञान की जिज्ञासा वश तो कुछ चमत्कार की जिज्ञासा के कारण।
गांव भर में वह ग्वाला संत के नाम से मशहूर हो गया। उसके ज्ञान के बारे में जितने मुंह, उतनी ही धारणाएं उत्पन्न हो गई। कोई कहता कि इस पर भूत-प्रेत का साया है, तो कोई कहता कि विशेष स्थिति में किसी संत की आत्मा इसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। गांव वालों ने उसे पंडितों को दिखाया, तांत्रिकों को दिखाया, ओझा-बूझा को दिखाया, मगर किसी के हाथ कुछ न आया। प्रवचन का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
एक दिन की बात है, वह अपने साथियों के साथ पशुओं को लेकर घने जंगल की ओर निकल गया। एक स्थान पर हरी-भरी घास देखकर सभी ने वहीं पशु चराने का फैसला किया और पेड़ों की छांव में सुस्ताने बैठ गए। उसी जंगल में एक वृक्ष के नीचे मिट्टी का एक टीला देखकर संत-ग्वाला उस पर जाकर बैठ गया। प्रवचन सुनने की इच्छा से उसके साथी अपने-अपने स्थान से उठकर उसके आसपास आकर बैठ गए। उन्हें देखकर प्रतिदिन की तरह उस ग्वाले-संत ने नेत्र बंद किए और बोलना शुरू कर दिया। मगर यह क्या! आज रोजाना जैसे तो प्रवचन नहीं! साथी पहले तो हैरान हुए और फिर यह सोचकर कि शायद यह भी प्रवचन का ही हिस्सा है, सभी शांत हो कर सुनने लगे। लेकिन, तब उन्हें हैरानी हुई जब संत ने कहा कि मैं आप लोगों को प्रतिदिन अच्छी-अच्छी कहानी सुनाता हूं, उसके बदले में सभी ग्वाले कर के रूप में मुझे अपनी-अपनी गायों का दूध दिया करेंगे। यह संपूर्ण जंगल और यहां उगने वाली घास पर भी मेरा अधिकार है।
कुछ देर तक अपनी महिमा का बखान कर संत-ग्वाला उस टीले से नीचे उतर आया और फिर अपने साथियों के साथ, पूर्व का सा व्यवहार करने लगा। संत के बदलते स्वरूप को देखकर उसके साथियों की हैरान बढ़ती जा रही थी। रोज की तरह अगले दिन फिर सभी ग्वाले उसी जंगल में पशु चराने गए और कुछ देर के बाद संत-ग्वाला उसी टीले पर जाकर बैठ गया और बैठते ही उसके व्यवहार में परिवर्तन शुरू हो गए। कल उसने जंगल और उसकी घास पर अपना अधिकार जमाया था, आज व दूसरे ग्वालों के पशुओं पर भी अपना हक जमाने लगा। उसी टीले पर बैठ कर एक दिन उसने एक-एक कर अपने साथियों को बुलाया और प्रत्येक के कान में कुछ कहा। परिणामस्वरूप परस्पर मनमुटाव पनपने लगा और दो गुट बन गए। एक गुट संत का साथ देने लगा और दूसरा गुट उसका विरोधी हो गया।
बावजूद इसके उसके साथी इस बात को लेकर हैरान थे कि संत टीले पर बैठकर अगड़म-बगड़म बकता है और टीले से नीचे उतर कर फिर पूर्व जैसा ही सद्-व्यवहार करने लगता है। सभी को प्रेम का पाठ पढ़ाने लगता है, सुख-दुख में एक दूसरे की मदद करने के लिए प्रेरित करने लगता है। साथी सोचने लगे आखिर माजरा क्या है! माजरे की तह तक जाने के लिए सभी ग्वाले गांव के जहीन-बुजुर्ग के पास गए। एक दिन ग्वालों के साथ जंगल जाकर बुजुर्ग ने पूरी स्थिति का जायजा लिया। पहले तो वह भी हैरान हुआ, लेकिन फिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि संत की प्रकृति में कोई विकृति नहीं है। संत की प्रकृति में विकृति पैदा होती, तो टीले से नीचे उतरकर भी वह बरकरार रहती, किंतु ऐसा तो कुछ नहीं है। हो-न-हो इस टीले में ही कुछ करामात है।
बुजुर्ग ने टीले की खुदाई कराने का निर्णय किया। टीले की खुदाई शुरू हो गई। खुदाई के दौरान सबसे पहले कुर्सी-नुमा काले रंग का एक सिंहासन मिला। उसके नीचे आकूत धन दब पड़ा था। धन भी काले ही रंग का था। काले रंग की इस दौलत का रहस्य जानने के लिए पुरातत्व-वेत्ताओं और भूगर्भ-शास्त्रियों को बुलाया गया और उसका अध्ययन शुरू हो गया। अध्ययन से पता चला कि कभी यहां भारत नाम का एक देश हुआ करता था। लोकतंत्र-काल में वहां की शासन व्यवस्था पर नेता नामक जीवों का कब्जा था। उन्हीं नेताओं के सद्कर्मो के कारण पहले लोकतंत्र का खातमा हुआ और धीरे-धीरे पूरा देश ही रसातल में चला गया। उन नेताओं को काला रंग बहुत प्रिय था। अत: वे काले रंग के ही कारनामे करते थे और काला ही धन एकत्रित करते थे। खुदाई में प्राप्त काला सिंहासन और काला धन लोकतंत्र काल के ऐसे ही किसी नेता का रहा होगा।
अधिकारियों ने वाकया अपने राजा को सुनाया। आश्चर्य व्यक्त करते हुए राजा ने सारा धन राजकोष में जमा कराने का आदेश दिया। किंतु राजा के मंत्री इस आदेश से सहमत नहीं थे। उन्होंने खुदाई में प्राप्त सारा धन समुद्र में डुबो देने का सुझाव दिया। राजा ने कारण पूछा, तो मंत्रियों ने कहा कि महाराज यह काला धन है, इसे यदि राजकोष में रखा गया, तो समूची राज-व्यवस्था काली हो जाएगी और भारत की तरह हमारा राज भी रसातल में चला जाएगा। अत: इसे नष्ट करना ही राज हित में होगा। राजा ने मंत्रियों की सलाह पर सारा काला धन समुद्र में फिंकवा दिया। गांव वालों ने राहत की सांस ली। उन्हें उनका संत फिर मिल गया था।
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Tuesday, May 13, 2008

संकट पाने का

समूचा राष्ट्र पानी संकट से ग्रस्त है। कहीं पानी उतरने का संकट है तो कहीं पानी चढ़ने का। कहीं पानी न होने का संकट है तो कहीं पानी-पानी होने का और कहीं-कहीं तो घड़ो पानी डालने के बाद भी पानी-पानी न होना संकट का कारण है।
कल तक जो पानीदार थे, आज बेपानी हो रहे हैं औरों के किए-धरे पर पानी फेर रहें हैं, मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं। हां, पानी जनित भिन्न-भिन्न प्रकार के संकट हैं। चरों तरफ संकट ही संकट है।
हमारे व्याख्यान लपक मुन्नालाल जी बोले, 'भईया! यह तो बताओ, पानी का संकट है या पानी खुद में संकट है अथवा पानी संकट में है?'
सवाल वाजिब था। हमारा चकराना भी लाजिम था। फिर भी हमने साहस जुटाया, लप्पेबाजी की और रहीम दास जी का स्मरण कर बोले-
'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए ऊबरे मोती मानस चून॥'
मुन्नालाल जी ने विपक्षी बाउंसर दागा, 'हमारे सवाल का रहीम के इस दोहे से क्या वास्ता?'
मन ही मन हम बोले, 'लालू स्टाइल में हमने अपना जवाब तो फेंक ही दिया। न सही वास्ता, जवाब तो दे ही दिया। तुक मिले न मिले बोझ तो मरेगा। हमारे बेजा जवाब पर आह तो भरेगा।'
अपना मन नियंत्रित कर हम फिर बोले, 'वास्ता क्यों नहीं है, वास्ता है। रहीम दादा ने इस दोहे में पानी ही का तो संकट बताया है। उनके कहने का मतलब है, भइया! मोती, मानस, चून का जब पानी उतर जाता है तो तीनों ही बेभाव हो जाते हैं, अर्थात महत्वहीन हो जाते हैं। अत: पानी संकट न होने दो।'
मुन्नालाल जी बोले, 'नहीं-नहीं! रहीम तंत्र की मिसाल लोकतंत्र पर न बिठाओ। जमाना बदल गया है, नए जमाने की नई मिसाल बनाओ। लोकतांत्रिक इस युग में पानी उतरे चेहरे ही महान होते हैं। भावशून्य ही भाव वाले होते हैं।'
'अरे, पानी चढ़ा चेहरा नकली कहलाएगा। शुष्क होगा तो असली माल में बिक जाएगा। अत: इस युग में मानस वे ही उबरते हैं, जिनके चेहरे पानी-विहीन होते हैं। जिसके चेहरे पर पानी ठहर गया, धोबी के कुत्ते की तरह वह घर-घाट दोनों से गया। पानी उतरा चेहरा ही मोती कहलाएगा, सूखे चून को भी पचा जाएगा।'
रहीम और हमारे ऊपर एक ही छोर से बाउंसर दागते हुए मुन्नालाल जी आगे बोले, 'जिसकी आंख में पानी होगा, वही निर्बल कहलाएगा। जिसकी आंखों का पानी सूखा वह सबल हो जाएगा। जिसकी आंख में पानी होगा, बात-बात पर आठ-आठ आंसू रोएगा। तरक्की के मार्ग
को कीचड़-कीचड़ करेगा। किस्मत तरक्की के दरवाजे खोलेगी और पानी वाली आंखें शर्मसार होंगी, वक्त-बेवक्त पानी-पानी होंगी। खुले दरवाजे बंद हो जाएंगे। तरक्की के मार्ग अवरुद्ध हो जाएंगे।'
मुन्नालाल जी का प्रवचन हमारे सिर के ऊपर से उतर गया। मानो यूपीए की भैंस के साथ भैंसा पानी में उतर गया। सिर के ऊपर से पानी उतरता देख, हमने पूछा, 'जब पानी ही संकट है, फिर पानी-पानी का शोर कैसा?'
मुन्ना भाई बोले, 'जहां झील होती है पानी वहीं मरता है। पानी भरेगा तो झील वासी पानी-पानी ही चिल्लाएंगे। अपनी झील से पानी उलीच दूसरों के सिर पर गिराएंगे। पानी यहां भी संकट है, पानी वहां भी संकट है। अत: कोई अपनी झील में पानी नहीं चाहता। पानी उसकी झील में हो, मगर कमल मेरी झील में खिले। संतान उसके घर पैदा हो, मगर बधाई मुझे मिले। चिकने घड़े बनोगे, पानीदार कहलाओगे। पानी की परवाह करोगे तो उसी में डूब जाओगे। कुआं खोद कर पानी पीना मूर्खता कहलाता है, घाट-घाट का पानी पी कर मानस बुद्धिजीवी बन जाता है।'
'मुन्नाभाई! बात तुम्हारी सवा सोलह आने उचित है, अब तो पानी को ही संकट कहना उचित है।'
'नहीं, नहीं! न पानी संकट है, न पानी का संकट है। बस पाने का संकट है। पाना है, बस पाना है। आंखों में पानी भर कर पाना है, आंखों का पानी मार कर पाना है, चेहरों का पानी उतार कर पाना है। पानी-पानी होकर पाना है, चिकने घड़े होकर पाना है। निर्जल होकर पाना है, निर्लज्जा होकर पाना है। बस पाना है।'
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Tuesday, May 6, 2008

अमेरिका की टांग


अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कह दिया भारत के लोगों की थाली का वजन बढ़ता जा रहा है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है। इससे पूर्व अमेरिका कि विदेश मंत्री कांडोलीजा राइस ने इसी जुमले को हवा में फेंका था। किंतु उसे लेकर कुछ ज्यादा हो-हल्ला नहीं हुआ। शायद इसलिए कि कांडोलीजा नाम से ही किसी भयानक बीमारी से पीडि़त सी लगती हैं। अब बीमारी हो या बीमारी से पीडि़त, उसकी बात को गंभीरता से क्या लेना।
लेकिन बुश साहब ने जब उसी जुमले को दोहराया तो काफी हो-हल्ला मच रहा है। बुश के इस जुमले को लेकर केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के अलावा पूरे भारत में सनसनी फैल गई। बुश का जुमला और उस पर मनमोहन सिंह जी की चुप्पी, विपक्ष के हो-हल्ला करने के लिए बैठे-बिठाए दो मुद्दे मिल गए। विपक्ष के हो-हाल्ले करने में हमें किसी प्रकार के आश्चर्य का कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा है। बेरोजगार के पास इसके अलावा काम भी क्या होता है। इसके अलावा विपक्ष की सार्थकता भी इसी में है कि कुछ हो या न हो, किंतु हल्ला होना चाहिए। वैसे भी विपक्ष जब है ही वि-पक्ष अर्थात पक्ष रहित।
हमारी चर्चा का विषय भी आज बुश का जुमला और उस पर मनमोहन सिंह की चुप्पी ही है। मनमोहन सिंह की चुप्पी को मैं दो प्रकार से देखता हूं। प्रथम, बुश से पूर्व मनमोहन सिंह खुद महंगाई का कारण आम आदमी की थाली का बढ़ते वजन बता चुके हैं। बुश ने तो केवल दोस्ती का निर्वाह करते हुए उसे दोहराया है। फिर मनमोहन सिंह जी उस पर हो-हल्ला क्यों करें? द्वितीय, मनमोहन सिंह कोई राजनीतिक व्यक्ति तो है नहीं, इसलिए वे राजनीति की भाषा बोलना नहीं जानते हैं। इससे पहले एक-दो मुद्दों पर उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर की भी, तो विपक्ष उस पर भी परम् कर्तव्य-निर्वाह करने से बाज नहीं आया, इसलिए उचित यही है कि मौन रहो। कहते हैं कि मौन मूर्खता पर पर्दा डाल देता है। राजकुमारी के स्वयंवर में कालिदास को उसके शुभ चिंतकों ने इसीलिए मौन रहने की सलाह दी थी और सलाह कामयाब भी निकली। राजकुमारी कलिदास के पल्ले में आ गिरी। अत: मनमोहन सिंह जी का चुप रहना कोई मुद्दा नहीं है।
जहां तक बुश-वचन का प्रश्न है, दूसरों के बैडरूम और किचन में झांकना प्रत्येक विचार-शील इनसान की प्रवृत्ति है। इनसान यदि जबरदस्त हो, तो स्वत: ही यह उसका मौलिक-अधिकार बन जाता है। अमेरिका ने पहले इराक की रसोई में ताकझांक की, वहां तेल की पीपों में उसे तेजाब नजर आया। अब ईरान की रसोई उसे तेजाबी लगने लगी है। पाकिस्तान के तो बैडरूम से लेकर किचिन तक में जो भी पकता है, उसी के इशारे पर पकता है। अब भारत की रसोई में भी ताकझांक शुरू कर अपने मौलिक अधिकार का सद्-उपयोग करने का संकेत दे दिया है।
इसके अलावा दूसरों के फटे में अपनी टांग का प्रवेश कराना, कुछ लोग अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते हैं। अमेरिका ने इसके लिए शायद एक टांग स्पेयर में रखी हुई है। संभवतया उस टांग की इंचार्ज कोंडोलीजा जी हैं। जब कहीं भी थोड़ा सी सीवन उधड़ी हुई दिखती है, जुबान के माध्यम से टांग हरकत में आ जाती है। सीवन यदि कहीं उधड़ी दिखलाई न भी दे तो भूत के समान टांग खुद-अ-खुद कुलबुलाने लगती है। फिर टांग के लिए स्पेस खोजना अमेरिका की मजबूरी हो जाती है, नहीं तो टांग उसके फटे में ही प्रवेश करने के लिए बाध्य हो जाएगी। अमेरिका मजबूर है उसे अपनी टांग कहीं न कहीं तो व्यस्त रखनी ही है। नहीं, तो कौन कहेगा अमेरिका भी कोई महाशक्ति है, जिसे अपनी उघड़ी हुई की फिक्र नहीं दूसरों की उधड़ी हुई की चिंता है। अंत में हम वही कहेंगे, जो दो-तीन दिन पहले कहा था। आतंकवादी लंबरदारी के लिए वह खुद दोषी नहीं है। दोष सारा कोलंबस का है, क्या जरूरत थी उसे अमेरिका खोजने की। वह न अमेरिका खोजता, न उसकी टांग किसी अन्य की सीवन उधेड़ती।
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Sunday, May 4, 2008

खाली दिमाग शैतान का घर

आदमी स्वभाव से ही शैतान का सगा भतीजा होता है। उस पर भी खाली दिमाग हो, तो शैतानी ही सूझना स्वाभाविक है। शैतानी भरी हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे खाली दिमाग, शैतानी कर देर-सबेर खुद तो खुद को प्यारे हो जाते हैं, लेकिन दूसरों के लिए मुसीबत भरी सौगात छोड़ जाते हैं।
ऐसे ही एक महानुभाव थे, कोलंबस साहब। शायद घर से भी खाली थे और बेरोजगार भी। घर-बाहर से बेकार हो तो शैतानी के अलावा और सूझेगा भी क्या? बैठे-ठाले जनाब के दिमाग में फितूर उठा,चलो भारत की खोज करें। अब कोई उनसे पूछे, क्यों जनाब क्या भारत किसी मेले ठेले में अपनी मां से बिछुड़ गया था या किसी ने उसका अपहरण कर लिया था, जो चल पड़े उसे खोजने। खोजने चल भी दिए तो यह बताओ कि बेवकूफाना ऐसी जिम्मेदारी जनाब को सौंपी किसने थी? अरे, बे-फिजूल की कवायद!
भारत तो जनाब के हाथ नहीं लगा, मगर अंधे के हाथ बटेर की तरह अमेरिका नाम का एक देश उनके हाथ अवश्य लग गया। बस बन गए तीसमारखां! अब पहले तो कोई उनसे पूछे कि अमेरिका की खोज करने के लिए किस कमबख्त ने तुमसे गुहार की थी। अमेरिका की खोज यदि नहीं भी करते तो कौन 'दिल्ली का सूबा ढल जाता' या दुनिया कौन उसके बिना विकलांग होए जा रही थी। चलो, किसी न किसी तरह तुम्हारी नैया अमेरिका के किनारे लग भी गई थी तो किसने कहा था, शोर मचाने के लिए।
जनाब, तुम तो अमेरिका की खोज कर बन गए तीसमारखां, मगर दुनिया वालों की तो कर दी नींद हराम। हाथ में डंडा लिए अमेरिका अब जबरन अलंबरदार बना फिरता है। कोलंबस साहब! आप यदि न खोजते तो गुमनाम सा अमेरिका एक तरफ पड़ा रहता, दुनिया वालों की नींद हराम न होती।
ऐसे ही एक और सज्जन इतिहास में हुए हैं, उनका नाम है, वास्कोडिगामा। उनकी कारगुजारियों से भी लगता तो यही है कि वे भी थे खाली दिमाग ही। कोलंबस साहब भारत की खोज करने में नाकामयाब रहे, तो फितूरी दिमाग वास्कोडिगामा खोज बैठे भारत को।
सोने की चिड़िया अपने जंगल में अच्छी-खासी फुदकती फिरती थी, 'उरला हलवाई, परला पंसारी' किसी से लेना एक न देना दो। जनाब के फितूर ने दुनिया को भारत की राह दिखला दी। कर दी चिड़िया की नींद हराम। एक तो चिड़िया ऊपर से सोने की! एक-एक कर ताड़ने लगे उस बेचारी को। हो गई बदनियतों की बदनियती की शिकार।
पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज न जाने कहां-कहां के उठाई-गिरे चिड़िमार दुनिया भर से आ धमके और लगे चिड़िया के पंख नोच ने। जैसे-तैसे उन्हें भगाया या चिड़िया की दयनीय हालत देख खुद भाग खड़े हुए, मगर जाते-जाते उसके दो टुकड़े कर गए। अब टुकड़ों को उनके चेले नोंच-नोंच खा रहे हैं।
ऐसे ही एक खाली दिमाग शैतान थे जनाब डार्विन। उनकी शैतानी हरकत से तो ऊपर वाला भी तौबा कर बैठा। जनाब डार्विन को जब कुछ नहीं सूझा, तो बोले इंसान बंदर की औलाद है। होंगे, तुम्हारे पुरखे होंगे बंदर! मगर तुम्हें यह अधिकार किसने दे दिया कि सृष्टिं के तमाम इंसानों को बंदर की औलाद बना डालो?
अब जनाब डार्विन साहब से कोई पूछे, क्यों जनाब खुदा की कौन सी बही तुम्हारे हाथ लग गई, जिसे बांच कर तुमने भूतवाणी कर डाली कि इंसान बंदर की औलाद है। अगर-चै खुदा की बही तुम्हारे हाथ लग भी गई और उसमें साफ-साफ लिखा भी था कि इंसान बंदर की औलाद है। मगर-चै एक बात बताओ इस रहस्य को यदि उजागर न करते, तो कौन तुम्हारी भैंस दूध देते-देते लतिया जाती? गोया इतना जरूर था कि रहस्य उजागर न करते तो इंसान में बंदरीय लूट-खसोट की प्रवृति जागृत न हुई होती।
बंदर बांट जैसे वंशानुगत लक्षण तो इंसान में हालांकि पहले ही से मौजूद थे, किंतु जब से इंसान को यह पता चला है कि वह बंदर की औलाद है, उसके चरित्र में बंदराना लक्षणों का इजाफा हो गया!
हां, ऐसा मेरा पक्का विश्वास है। व्यक्ति को जब अपनी वंशावली अथवा वंश-परंपरा का पता चलता है तो उसके अनुरूप वह अपने आपको हनुमान मान ही बैठता है। कभी-कभी अपने पुरखों का मान-सम्मान रखने के लिए भी उसे जबरन पहलवान बनना पड़ता ही है।
अब न कोलंबस साहब इस लोक में हैं, न वास्कोडिगामा और न ही डार्विन साहब। उन्हें होना चाहिए था, खाली दिमाग की शैतानी खोज का कुछ तो मजा उन्हें भी चखना चाहिए था। हम, तो बस यही कहेंगे- खुद, तो मर गए कमबख्त! हमारा खून पीने के लिए अपनी औलाद छोड़ गए!
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