Friday, December 26, 2008

ग़ज़ल



मैं अकेला था, अकेला ही चला हूँ।
बंधनों से मुक्त, मैं रस्ता नया हूँ।।
मील के पत्थर नहीं, हैं लक्ष्य मेरे।
मैं क्षितिज के पार, जाना चाहता हूँ।।
क्यों समर्पण, सामने उनके करूं मैं।
क्या हुआ मैं, जो अभावों में पला हूँ।।
भाव हैं निश्छल, प्रणय का मैं पुजारी।
प्रेम का संदेश लेकर, मैं बढ़ा हूँ।।
दोष उनको ही, भला क्यों दू सफर का।
जो बना रहबर, मैं उससे ही लुटा हूँ।।
भव्यतम शाही सवारी, जा चुकी है।
राजपथ पर, मैं अकेला ही खड़ा हूँ।।
चूमता अंबर, धरा के होंठ पल-पल।
देखकर ऐसा प्रणय, ही मैं जी रहा हूँ।।
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Sunday, December 7, 2008



मुंबई बम हादसे में हुए शहीदों के नाम
एक ग़ज़ल -
ये सियासत का कैसा मंजर है।
चश्म-दर-चश्म इक समुंदर है।।
बात करते हैं' क्यों वो मजहब की?
उनके' हाथों में' जबकि ख़ंजर है।।
रोटियों के लिए, बमों की आग।
लकडि़यां, आदमी का पंजर है।।
फ़स्ल कैसे उगे, हि़फाजत की?
रहबरों के दिमाग़, बंजर हैं।।
मौत के मंजरों पे गुटबाजी।
इस वतन का अजब मु़कद्दर है।।
जा-ब-जा ढूँढ़ते हो तुम जिसको।
वो गुनहगार घर के' अन्दर है।।
सब्र का इम्तिहां न लो 'अंबर'।
सब्र का टूटना न बेहतर है
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Monday, October 13, 2008

कर्म-कौशल!


वे तब भी महान थे। अब भी महान हैं। तब नेता थे, अब धार्मिक नेता हैं। नेता रहते हुए, उन्होंने काफी पांव पसारे, किंतु दुर्भाग्य की उनकी लोई पांवों के मुताबिक लंबी नहीं हो पाई। राजनीति के वृक्ष की जिस ऊंची डाल पर वे बैठना चाहते थे, नहीं बैठ पाए। बावजूद इसके धंधे-पानी में कोई कसर नहीं रही। धंधा-पानी आज भी उनका चकाचक है। धंधे-पानी की उनके कौशल को देखकर दिग्गज नेता, उन्हें अपने साथ चिपकाने की हसरत रखते थे। उन्होंने भी कभी किसी को निराश नहीं किया। जिसने भी उनकी ओर हाथ बढ़ाया, उन्होंने उसके ही साथ धंधे-पानी में हाथ बटाया। सहृदय वे रामलाल के बंगले के आसपास भी भिनभिनाते दिखाई दे जाते थे और श्यामलाल के बंगले के बाहर भी। धंधे-पानी के काम को वे तुच्छ दलगत राजनीति से परे का विषय मानते थे। इसलिए इस मामले में वे हमेशा ही दलगत राजनीति की दलदल से दूर रहे है। यद्यपि वे एक दल के समर्पित कार्यकर्ता थे। एक दिन ऐसा भी आया कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया और उपनाम नेता से पहले धार्मिक शब्द चस्पा हो गया। नए क्षेत्र के अनुरूप चौला बदलने के साथ ही उन्होंने अपने नाम का भी संशोधित संस्करण प्रस्तुत किया। नए संस्करण के अनुसार वे आचार्यश्री कह लाए जाने लगे। सुना है, अब तो नाम के साथ कुछ नए पृष्ठ भी जुड़ गए हैं, मसलन अवतार,भगवान आदि-आदि!
एक दिन हमने उनसे पूछा था कि आचर्यश्री हृदय परिवर्तन के उपरांत धंधा-पानी तो अवश्य प्रभावित हुआ होगा? वे मुस्करा दिए और बोले तुम नहीं सुधरोगे! फिर धीरे से बोले, नहीं! धंधे-पानी का कोई धर्म नहीं होता है। धंधे का धंधातो हवा की तरह स्वच्छंद रूप से प्रवाहित रहता है! हमने स्पष्ट करते हुए कहा- आचर्य श्री! लेनदेन..? उन्होंने जोर का ठहाका लगाया और बोले- तुम मूर्ख हो। मैं पहले ही कहां किसी से कुछ लेता था। इतना कह कर वे शांत हो गए। शायद मुखमुद्रा परिवर्तन के लिए और फिर गंभीर भाव के साथ बोले-मैंने जब कभी भी जिस किसी से भी कुछ लिया निष्काम भाव से लिए, अनासक्त भाव से लिया। वैसे तो मैंने किसी से कुछ लिया ही नहीं, क्योंकि मेरे लेने में कामना भाव नहीं रहा! बिना मांगे यदि कुछ मिलता है, तो उस लेने को लेना नहीं, ग्रहण करना कहा जाता है। लोग स्वेच्छा से श्रद्धा भाव से देते रहे और मैं ग्रहण करता रहा। ग्रहण करना मेरी विवशता थी, क्योंकि यदि मैं ग्रहण करने से इनकार करता, तो देने वाले की भावन आहत होती और यह मेरी अशिष्टता होती है। अत: मैंने अपनी भावनाओं की परवाह न कर, शिष्टाचार का पालन करते हुए, सदैव ही दाता की भावनाओं का ख्याल रखा।
दाताओं से मैंने स्वयं भी कब ग्रहण किया! घर के ईशान कोण में एक छोटा-सा पूजा-घर स्थापित कर रखा है। जब कभी कोई श्रद्धालु श्रद्धा व्यक्त करने आया, मैंने उससे ही श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करने की विनती की। इस प्रकार श्रद्धावान गुप्त दान के समान श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करते रहे और मैं ईश्वर का आदेश मान उनके चरणों से प्रसाद ग्रहण करता रहा। मैंने कब कहां किसी से कुछ लिया! जो कुछ भी लिया यज्ञ-फल के रूप में ईश्वर के चरणों से ग्रहण किया! भगवान कृष्ण ने गीत में कहा है- जो पुरुष निष्काम भाव से अनासक्त होकर कर्म करता है और अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है, वह पाप-पुण्य से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसके अंतर्मन से कर्ता भाव समाप्त हो जाता है। वह स्वयं कुछ नहीं करता, जो भी करता है, ईश्वर करता है। वह तो निमित्त मात्र होता है। मेरे सभी लेनदेन-कर्म ईश्वर के चरणों में अर्पित थे! मैं तो केवल निमित्त था, लेने वाला तो ऊपर वाला था। हे, भद्रजनों गीत में इसे ही- योग: कर्मसु कौशलम्, कहा गया है! आप सभी के लिए यह मेरा आशीर्वाद है और यही शिक्षा कि मुद्र विनिमय कर्मयोग के अनुरूप करो, यही कौशल है, 'अत्रकुशलम् तत्त्रास्तु' इसी में तुम्हारी कुशलता है!
स्वामी अद्भुतानंद जी महाराज एक राजनैतिक दल द्वारा आयोजित चिंतन शिविर में वचनामृत की वर्षा कर कार्यकर्ताओं को भिगो रहे थे। 'राजनीति में भ्रष्टाचार' विषय की चिंता को लेकर चिंतन शिविर आयोजित किया गया था। स्वामी जी ने हाल में ही राजनीति का चोला त्याग धर्म का चोला धारण किया था। वास्तव में राजनैतिक कर्मक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में उनका शुभ प्रवेश 'राजनीति में धर्म' का प्रवेश था। राजनीति की प्रदूषित गंगा को धर्म के माध्यम से प्रदूषण मुक्त करने के महान उद्देश्य से ही उन्होंने धर्म का चोला धारण किया है। स्वामी जी का मानना है कि जब तक राजनैतिक-धार्मिक-नेता गठजोड़ नहीं होगा, तब तक राजनीति की पावन धारा को स्वच्छ करना असंभव है!
स्व-चरित्र-चालीसा बखान करते-करते स्वामी अद्भुतानंद महाराज बोले- भद्र जनों! शिष्टाचार जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, क्योंकि वह जीवन की सभी विद्रूपताओं को ऐसे ढांप लेता है, जैसे प्राकृतिक कुरूपता को कोहरा। किंतु, यह स्वयं असत्य पर आधारित है। और, असत्य ही शाश्वत सत्य है। इसी असत्य के माध्यम से सत्य को असत्य सिद्ध किया जाता है। लेकिन, असत्य को असत्य सिद्ध करना मूर्खता है, क्योंकि असत्य, असत्य है, यही सत्य है। असत्य को यदि असत्य के द्वारा सत्य सिद्ध कर दिया जाए, तब तो वह स्वत: सिद्ध सत्य हो ही जाता है, अत: असत्य दोनों ही अवस्थाओं में सत्य है। वायुमंडल में दीर्घ श्वास-प्रसारण करते हुए स्वामी जी आगे बोले- भद्रजनों! शिष्टाचार का आधार असत्य है, यह कथन शास्त्र-सम्मत है! शास्त्रों में उल्लेख है, 'सत्यम् ब्रुयात प्रियम् ब्रुयात, न ब्रुयात सत्यम् अप्रियम्।' सत्य बोला, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य कभी न बोलो, क्योंकि अप्रिय सत्य- वाचन अशिष्टता है, शिष्टाचार के विरुद्ध है। अत: भद्रजनों, शिष्टाचार-मनकों के अनुरूप असत्य वाचन ही शिष्ट हैं, श्रेयष्कर हैं, क्योंकि सत्य सदैव अप्रिय ही होता है और असत्य सदैव ही प्रिय! और, सत्य यह भी है कि मानव भी असत्य प्रिय ही है। अत: जीवन का सर्वोच्च सत्य शिष्टाचार स्वयं असत्य पर आधारित है, यही सत्य है! फिर सत्य बखान कर अशिष्टता के प्रदर्शन का औचित्य क्या!
भद्रजनों! राजनीति से यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है, तो उसमें शिष्टाचार का समावेश करना होगा! मुद्र विनिमय के शिष्ट मार्ग खोजने होंगे। ऐसा होने पर जल में डूबे कुंभ का जल, जल में समा जाएगा। दोनों जल एक हो जाएंगे, अर्थात जल, जल हो जाएगा। उसी प्रकार कथित भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार हो जाएगा। दोनों असत्य मिलकर सशक्त असत्य हो जाएंगे और फिर वही सत्य हो जाएगा।
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Wednesday, October 8, 2008

मर्यादा पुरुषोत्तम रावण!



मेरा मन अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हो गया है। मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, किस तरफ जाऊं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूं। मेरा मन बार-बार कृष्ण-कृष्ण का जाप करने लगता है। जहां तक उसकी पहुंच है, वह कृष्ण को खोजने लगता है। ताकि कहीं तो एक अदद कृष्ण मिल जाए और वैचारिक गाण्डीव खूंटी पर लटका कर वह उनसे साफ-साफ कह दे, ''हे, माधव! मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूं कि क्या उचित है, क्या अनुचित है! सत्य क्या है, असत्य क्या है और लाभप्रद क्या है, हानिप्रद क्या है! अत: माधव मैं शरणागत हूं। मुझे अपना शिष्य बना लीजिए और लाभ-हानि का पूर्ण लेखा-जोख समझा कर मुझे बताने की कृपा करें कि मैं किधर जाऊं? किसे अपनाऊं?'' किंतु मन निराश है, अर्जुन तो कदम-कदम पर लाइन लगाए खड़े हैं, किंतु कृष्ण खोजे नहीं मिल रहे हैं।
मैं निराश हूं और निराश व्यक्ति आत्ममंथन पर उतारू हो जाता है। मैं भी उसी दौर से गुजर रहा हूं। श्रवणेंद्रियों को वश में कर, मैं एकाग्र चित्त अंतरात्मा की आवाज सुनने की चेष्टा कर रहा हूं। मैं मन ही मन अंतरात्मा को जागृत करता हूं और विनय भाव के साथ कहता हूं, ''हे मार्ग संकेतनी, हे भवसागर पारिणी, हे परित्राणनी सत्ता प्रदायणी! तुम कानों में गूंजकर नेता को सत्ता की ओर जाने वाले मार्ग से परिचित करा देती हो। शुभ पर अशुभ और अच्छाई पर बुराई की विजय कराने में समर्थ हो। इस नाचीज के को भी संकेत करो कि मैं आदर्श के रूप में रावण-मार्ग का अनुसरण करूं अथवा राम के पद-चिन्ह की ही लकीर पीट-पीट कर फकीर बना रहूं अथवा रावण-मार्ग का अनुसरण कर मैं भी गणमान्य लोगों की श्रेणी में घुसपैठ कर जाऊं! हे, अंतर्यामी अंतरात्मा मुझे बताओ कि इस युग में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, रावण मार्ग अथवा राम मार्ग?''
रामलीलाओं का मौसम आते-आते मेरे मन की गति हर वर्ष ही इधर जाऊं या उधर जाऊं की ऐसी ही दुर्गति को प्राप्त हो जाती है। हर वर्ष ही मैं रावण के ग्लैमर से आकर्षित होता हूं, मगर लोक- लिहाज वश राम-मार्ग के अनुसरण की घोषण कर देता हूं। अनुसरण करूं या न करूं, मगर घोषणा अवश्य मेरे मुख पर चस्पा रहती है। लेकिन मैं इस बार कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा हूं।
मेरी अंतरात्मा कह रही है- अरे, मूर्ख! क्या प्राप्त हुआ तुझे राम-घोषणा से! राम दल ने तुझे चवन्नी-कार्यकत्र्ता के रूप में भी तो स्वीकार करना उचित नहीं समझा। चवन्नी का कार्यकत्र्ता भी तू यदि बन जाता, तो कम से कम रुपया, दो रुपए का तो आदमी बन जाता। फिर क्यों राम-राम कर वन-वन भटक रहा है! देख नहीं रहा है, राम भक्त भी राम नाम का दुशाला ओढ़, रावण-धर्म का अनुसरण कर ही भवसागर पार करने की इच्छा रखते हैं।
अंतरात्मा कहती है- रावण-वध राम का मुगालता है! राम भ्रम में हैं और स्वहित के कारण राम-भक्त उस भ्रम को सींच रहे हैं। यदि रावण वध हो जाता, तो प्रत्येक विजयादशमी पर पूर्व की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, अधिक संपन्न होकर सामने आकर न खड़ा हो जाता। देख नहीं रहा तू रावण का कद प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछली विजया दशमी को पैंतीस फुट का था, इस बार पचास का हो गया है। सुना है त्रेता में दस मुखी था। अब सहस्त्र मुखी हो गया है!
और राम का कद! रावणी-राजनीति के दुष्चक्र में घिस-घिस कर निरंतर लघुता को प्राप्त होता जा रहा है! चल तू ही बता, आज तक हुआ है कभी रावण के अस्तित्व पर विवाद! किसी ने दी है, रावण के अस्तित्व को चुनौती! कभी हुआ रावण के जन्म-स्थल पर विवाद और किसी ने कभी दी है, रावण के साम्राज्य लंका के अस्तित्व को चुनौती! नहीं, न! नित नए रावण-मंदिर प्रकाश में आ रहे हैं और राम! .. नए मंदिर प्रकाश में आना तो दूर राम के तो पुराने मंदिर भी विवाद की अंधी में ध्वस्त हो रहे हैं! राम के जन्म-स्थल पर विवाद, राम-सेतु पर विवाद, राम की अयोध्या विवादित, राम के अस्तित्व पर विवाद! जिस का मन करता है, वही रावण-मार्ग का अनुसरण कर राम को प्रश्न के घेरे में ला खड़ा करता है! फिर तू क्यों राम-राम की टेर लगाए है?
जरा, विचार कर मूर्ख! राम ने भले ही रावण पर विजय प्राप्त की हो, किंतु अंतिम शिक्षा राम ने भी मरणासन्न रावण से ही ग्रहण की थी। भले ही अनुज लक्ष्मण के माध्यम से ही सही! क्या इससे रावण के महत्व का पता नहीं लगता है! फिर तू क्यों गफलत में पल रहा है? अच्छा चल, बाकी सब छोड़! अंतत: एक बात बता, तू एक-मुखी राम-मुख से कितना खा लेगा! अरे, भावना का पल्ला छोड़ और एक मुख से नहीं दस मुख से खा! इस युग में यही धर्म है। यही धर्म मार्ग है, यही आदर्श है। राम नहीं, इस युग का रावण ही आदर्श-पुरुष है! रावण ही मर्यादा पुरुषोत्तम है!

Thursday, October 2, 2008

गांधी ने आत्महत्या कर ली!

हल्की-हल्की ठंड थी। रैंप पर हिठलाती माडल की तरह प्रकृति के अंग-प्रत्यंग चथड़े-चिथड़े कोहरे की भीनी चादर से बाहर झांकने का प्रयास कर रहे थे। सड़क को बोझ का अहसास कराती सरकारी बस मंजिल तक पहुंचने के लिए चेष्टा रत्ं थी। विभिन्न मुद्राओं में अपनी-अपनी सीटों पर पसरीं सवारियां भांति-भांति के जीवों की आकृति साकार कर रही थीं। कुछ सवारियां मुंह से बीड़ी का धुआं-धुआं उगल कोहरे की चिथड़ा चादर तार-तार कर फैशन शो के दर्शकों की तरह नग्न आंखों से प्रकृति के विराट स्वरूप के साक्षात दर्शन करने की चेष्टा कर रहीं थीं।
भ्रष्टाचार के शिष्टाचार में पगे विकासशील देश की तरह बस जैसे-तैसे कुछ ही सफर पूरा कर पाई थी कि झटके के साथ रुक गई। बस के साथ संवेदनशील रिश्ते जोड़ते हुए सवारियां शंका निवारण की मंशा से दरवाजे की तरफ मुखातिब होने लगीं। तभी खटपट-खटपट करते पुलिस वर्दीधारी कुछ लोगों ने बस के अंदर प्रवेश किया और अमेरिकी लहजे में सवारियों को अपनी-अपनी जगह बैठ जाने की हिदायत दे डाली। मिस्टर बुश की तर्ज पर उनकी दूसरी हिदायत थी, 'जिसके पास जो कुछ है निकाल दो।'
इसी के साथ उनमें से कुछ संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों की तरह सवारियों की खानातलाशी में जुट गए।
इकहरी धोती में लिपटा एक वृद्ध भी सवारियों की गिनती में इजाफा कर रहा था। वर्दीधारियों की चेतावनी कानों में टपकते ही उसने आंखों पर रखी गोल-गोल ऐनक के बटन नुमा शीशे साफ किए और इसी के साथ उनमें से एक व्यक्ति उसके पास पहुंच गया। तभी स्वयंभू कमांडर की आवाज गूंजी, 'अबे छोड़ ना! जाके बदन पै तो जूं भी भुख्खी मरे हैं, तू चला तिजाब वाले हथियार ढूंढनै। आगे बढ़ किसी सद्दाम अ देख।'
आतंक की स्याह लकीरों ने वृद्ध के चेहरे पर कश्मीर का नक्शा उतर आया था।
सीमापार आतंकियों की तरह अपना काम कर वर्दीधारी एक-एक कर रफूचक्कर हो गए। सरकारी कामकाज की तरह बस फिर अपने पथ पर अग्रसर हो गई।
समय और दूरी के अनुपात को झांसा देते हुए बस चंद फर्लाग की ही दूरी तय कर पाई थी पुराने चेहरे एक बार फिर बस के अंदर प्रगट हुए। मगर इस बार उनके चेहरे पर आतंकी रुआब नहीं चुनावी मौसम का नेताई सौम्य भाव था। बस में प्रवेश करते ही उनके स्वयंभू कमांडर ने हाथ जोड़ कर इस तरह बोलना शुरू किया मानों कोई नेता पिछले चुनावी वायदे पूरे न कर पाने के लिए क्षमा याचना के साथ वोट के लिए जनता के सामने पुन: याचिका दायर कर रहा हो।
थोपड़े पर सौम्य भाव उतारते हुए स्वयंभू कमांडर बोला, 'माफ करना भइया! परेसान करा, जे लो अपना माल-पत्ता। सुन भाई कंडटर्र जे ले, जिसके जितने थे बांट दें।'
हृदय परिवर्तित उनके व्यवहार को देख प्रश्न और आश्चर्य के भाव सवारियों के चेहरों पर भारत महान का नक्शा बन रहे थे, मिटा रहे थे।
इंसानी मूल्यों की तरह उतरते-चढ़ते भावों के बीच एक मुसाफिर के मुंह से अनायास ही निकला, 'अर्रे वाह! का ईमानदारी है तमैं तो ससुर पालिटिक्स में है ना चाइए था। तुम जैसेन लोग पालिटिक्स आ जावें तो, ससुर कुछ तो धरम-धोरों बचा रै।'
एक जुटता के साथ डिनर टेबुल पर काबिज पक्ष-विपक्ष की तरह आशा-निराशा के भाव स्वयंभू के चेहरे पर इस बार साथ-साथ काबिज थे।
मुसाफिर के सद्ंवचन सुन स्वयंभू बोला, 'ठीक कैरे ओ भइया! हम भी ससुर या ई चावै हैं। पालिटिक्स में कदम जमाने के लय्यां ई तमै या कष्ट दिया। ससुर! टिकट लेवें की ताई भी पैसा चइए अर चुनाव लड़वे की खातिर भी। बस याई जुगाड़ में दिन-रात एक कर रखी है। कोई बात नहीं! ऊपर वाले की जैसी मरजी।'
इस बार ऐनक वाले वृद्ध का बेदांती मुंह खुला, 'तो, फिर लोटा क्यों रहे हो?'
अंत:वस्त्रों की सीमा का अतिक्रमण करते हुए स्वयंभू बोला, 'बाब्बा! आगे साल्ला दरोग्गा खड़ा है, ख्भ् हजार में ठेक्का दिया था। तुमारे से सब मिलाकर क्भ् ही हाथ लगे, खाल्ली-पिल्ली में दस का अपनी जेब ते भरे?'
बस ठुमक-ठुमक कर पुन: आगे खिसकने लगी। अगले फर्लाग पर दरोगा तैनात थे। दरोगा जी ने हाथ दिया और खटाक की आवाज के साथ सेल्यूट के लहजे में ड्राइवर का पैर बस के ब्रेक पर पड़ा।
दरोगा जी ने बस के अंदर प्रवेश किया ड्राइवर से पूछा, 'सब कुछ ठीक है णा।'
ड्राइवर ने कहा, 'आपकी मेरबानी है, साब!'
ड्राइवर का सकारात्मक उत्तर सुन दरोगा जी के थोपड़े की चमड़ी म्0 अंश के कोण पर झुक ज्यामिति आकृति का निर्माण करने लगीं।
दरोगा जी को तसल्ली नहीं हुई। कन्फर्मेशन करने के लिहाज से इस बार उन्होंने जोर देकर पूछा, 'सब ठीक है णा, कोई राहजणी-वाजणी ता ना हुई।'
दरोगा जी को शौर्य चक्र प्रदान करने के लहजे में ड्राइवर ने जवाब दिया, 'साबबादुर के रैत्ते किस की मजाल, भला!'
ड्राइवर का कन्फर्म जवाब सुन साबबादुर का चेहरा तुषार पात से पीड़ित लता की तरह लटक गया। कद्दू सा बोझ भरा सिर लटकाए दरोगा के चरण बस से नीचे उतरे और वह कथक नृत्यांगना की मुद्रा में पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ।
अपनी धोती-लाठी संभाल वृद्ध महाशय भी उसी के साथ बस से उतर गए। बस फिर अपने गंतव्य की तरफ रेंगने लगी।
अहिंसक चप्पलें रगड़ते हुए वृद्ध महाशय ने दरोगा जी के समीप पहुंचे और हमदर्दी का परफ्यूम छिड़कते हुए बोले, 'साहब बहादुर! आप कुछ परेशान नजर आ रहे हैं। क्या आपकी परेशानी का कारण जान सकता हूं? मैं यदि आपके कुछ काम आ सका तो..।'
गुम चोट से पीड़ित दरोगा ने वृद्ध को झिड़का, 'के तो-तो..! तू के मेरा बाब्बा लगै। पैले अपनी परेसानी तै हल करलै। फिरै एक धोत्ति सी में लिपटा। लगै है, गरीबी रेख्खा के तले वाली रेख्खा के भी तलै का बाश्ंिादा सा, चला रामसिंह दरोग्गा की मुसीबत हल करवै। खोपड़ीए खराब ना कर, अपना रासता पकड़।'
वृद्ध ने अपने मधुर वचनों से दरोगा की चोट सहलाई और हमदर्दी की ऊष्मा से उसकी सिकाई की। ज़जबातों की गर्मी से दरोगा के सीने पर रखा पत्थर पिघलने लगा और इसी के साथ भावनाओं का स्रोत फूट पड़ा, 'कल कपतान साब के यहां सलाम ठोकने जाना है। अभी तक पचास हजार का भी जुगाड़ नहीं हुआ। साल्ला नेता भी धोख्खा दे गिया। पता नी फिरोत्ती वाला भी आएगा या नी।'
वृद्ध के बेदांती मुंह से निकला, फिरोती!
हां, एक समाजवादी से पकड़ कराई थी, दरोगा बोला।
कोहरे के चिथड़ा चादर धीरे-धीरे गायब होने लगी थी, प्रकृति के बदन से भी और वृद्ध के दिमाग से भी। इसी के साथ वृद्ध के चेहरे पर बिहार का नक्शा उभर आया।
अगले दिन कोहरे में लिपटी सुबह ने फिर मुंह चमकाया। कुछ नए उद्ंघाटनों के साथ, कुछ नए परिवर्तन और नए मूल्यों के साथ। नए मूल्य और परिभाषाओं के साथ वृद्ध सीधा मुख्यमंत्री निवास पहुंचा।
मुख्यमंत्री निवास पर आज कानून-व्यवस्था से संबद्ध प्रदेश के आला पुलिस अधिकारियों की बैठक थी। मुख्यमंत्री का दरबार सजा था, कानून-व्यवस्था स्थिति के ब्यौरे के साथ-साथ अधिकारी एक-एक कर मुख्यमंत्री के हुजूर में नजराना भी पेश कर रहे थे। नजराने के वजन के हिसाब से मुख्यमंत्री अधिकारियों की कर्तव्य परायणता, निष्ठंा और योग्यता जैसे नैतिक मूल्य परिभाषित कर रहे थे और उसी आधार पर पदोन्नति व तबादलों का निर्धारण।
वृद्ध, चिकनी चांद पकड़े टुकुर-टुकुर सब देखता रहा।
कानून-व्यवस्था का समीक्षा का दौर समाप्त हुआ। कानून-व्यवस्था के भार के साथ मुख्यमंत्री विश्राम कक्ष की तरफ चले गए। नजरानों का भार हल्का कर और नए दायित्व के भार से लदे अधिकारी एक-एक कर बाहर निकलने लगे। मगर खास कुछ अधिकारी अभी भी जमे थे। दरअसल अब सांप्रदायिक सौहार्द की बैठक शुरू होने जा रही थी।
नई सजधज के साथ मुख्यमंत्री का कक्ष में पुन: प्रवेश हुआ। मुख्यमंत्री जी बोल रहे थे, अधिकारी नोट कर रहे थे।
'प्रदेश में सांप्रदायिक सौहार्द की भावना लुप्त सी होती जा रही है। लगता है, यह शब्द ही पाताल में चला गया है। कहीं कोई हलचल नहीं। पाताल से पुन: निकाल कर लाना है, उसे जीवित करना
है। सांप्रदायिक सौहार्द हमारा नारा है, आदर्श है। देखा गया है, जब-जब दंगे हुए तब-तब
सांप्रदायिक सौहार्द का नारा बुलंद हुआ, लोगों में भावना जागृत हुई। इस विषय में हमें फिर सोचना होगा। याद रखें हम संप्रदाय के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं करते, हमारे लिए सभी समान हैं। महान इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए सभी संप्रदाय के लोगों का इस्तेमाल करना है। मगर ध्यान रखें हिंदू और मुसलमानों में सांप्रदायिक सौहार्द की भावना कुछ ज्यादा ही प्रबल है, इसलिए उनका इस्तेमाल विशेष रूप से किया जाना चाहिए। सांप्रदायिक सौहार्द हमारी प्राथमिकता है, जाओ प्रयास करों।'
बहनजी के संक्षिप्त मगर आध्यात्मिक प्रवचनों की तरह गूढ़ भाषण के रहस्य को आत्मसात कर अधिकारियों न अपनी-अपनी राह पकड़ी। मगर ठंड में सिकुड़े मेंढक की तरह वृद्ध कुछ देर तक वहीं पसरा रहा है, क्योंकि गूढ़ ज्ञान का रहस्य समझ में उसके भी आ गया था और रहस्य के आवेग से खिंची लकीरों ने उसके चेहरे पर उत्तर प्रदेश और गुजरात के मानचित्रों का एक साथ उतर आना रहस्य की गूढ़ता के पुख्ता सबूत बयान कर रहे थे।
मुख्यमंत्री जी के पास वह आया था, सफर की घटना का जिक्र करने, उस पर रोष व्यक्त करने अर्थात दरोगा की शिकायत करने। मगर वह ऐसा कर न सका। आत्मज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद माया-मोह में लिप्त मनुष्य जिस तरह जगत मिथ्या का विचार मन में रख ब्रह्मं साक्षात्कार के लिए बेचैन होने लगता है, उसी तरह देश के शीर्ष कर्णधारों से भेंट करने के लिए वृद्ध बेचैन हो उठा। उसने सीधे देश की राजधानी की राह पकड़ी।
चमची-चमचों, पीए-पीओ और रथी-महारथियों के चक्रव्यूह का भेदन करते हुए अभिमन्यु की तरह वह देश के भीष्म पितामह 'गृह मंत्री' के सम्मुख प्रगट हो गया। सीनियर सिटीजन के रूप में अपना परिचय देते हुए उसने बैताल की कहानी की तरह शुरू से अंत तक की पूरी कहानी एक ही सांस में बयान कर दी।
वृद्ध की व्यथा-कथा सुन गृहमंत्री ने मरहम का फोया सा लगाते हुए कहा, 'महाशय ये सब राज-काज की बातें हैं, इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो। व्यक्तिगत कोई समस्या हो तो बताओ।'
इसी के साथ मंत्री महोदय ने पीए साहब की तरफ इशारा किया और उसने वृद्ध की हथेली पर गांधी छाप दो नोट रखने का प्रयास किया।
नोट देख वृद्ध बांस की खरपच्ची की तरह कांप उठा, 'श्रीमान, प्रधानमंत्री राहत कोष से भीख लेने नहीं आया। देश गर्त में जा रहा है और आप राज-काज की बात कह कर टाल रहे हैं।'
मंत्रीजी मुस्कुराए, 'जब मुगल थे देश तब भी यहीं था। अंग्रेज आए चले गए, देश वहीं का वहीं है। फिर हमारे आने से देश गर्त में कैसे चला जाएगा?'
'देश गर्त में नहीं जा रहा है! कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है, भ्रष्टाचार चरम पर है। साध्य और साधन दोनों की ही पवित्रता नष्ट कर दी गई है। मेरा मुंह भी आप नोट दे कर बंद कर देना चाहते हैं, श्रीमान।' वृद्ध ने कुनैन के से कड़वे घूंट पीते हुए कहा।
गीता का सहज भाव आत्मसात करते हुए मंत्री जी ने कहा, ' तुम गलत कह रहे हो, महाशय!
साधन वही पवित्र कहलाया जाता है, जिससे साध्य की प्राप्ति हो जाए। इस तरह हम साध्य-साधन
दोनों ही की पवित्रता बरकरार रखने के लिए हमेशा ही प्रयास करते रहते हैं। वैसे भी साम, दाम, दण्ड, भेद का पाठ भी गांधी सरीखे महानुभाव ही पढ़ा कर गए हैं। हम तो गांधी के पुजारी हैं, महाशय! यह उन्हीं का रामराज है। जिस राज में कानून का शासन हो उसे रामराज कैसे कह सकते हैं? कानून की धुरी पर रामराज नहीं चला करते। जिसे मुद्रा विनिमय को आप भ्रष्टाचार कहते हैं, वह भी गांधी के ही सिद्धांतों का आदान-प्रदान है।'
सड़क पर खड़े होकर लघुशंका करने वाले भतीजी-भतीजो की शिकायत करने की मंशा से वह चाचा के पास गया था। चाचा को छत के ऊपर खड़े हो कर लघुशंका निवृत्त करते पाया। वृद्ध को जैसे लकवा मार गया।
सुरक्षा कर्मियों ने लकवा ग्रस्त वृद्ध का शरीर गृहमंत्री निवास के बाहर एक कोने में रख दिया। अगले दिन हिंदी समाचार पत्रों में दस लाइन का एक संक्षिप्त समाचार था, 'गृहमंत्री निवास के बाहर लावारिस हालत में एक वृद्ध का शव बरामद हुआ है। उसके शरीर पर मात्र एक धोती लिपटी थी और बदन पर लटके एक धागे से जेब घड़ी बंधी थी। शव के पास से ही घुन खाई एक लाठी भी बरामद हुई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार वृद्ध भारत भ्रमण पर निकला था। पुलिस का मानना है कि वृद्ध ने आत्महत्या की है क्योंकि उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं पाए गए, मगर चेहरे की झुर्रीयों के बीच भारत महान का मानचित्र अवश्य अंकित था। बाद में उसकी पहचान गांधी के रूप में की गई है। कुछ लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी नाम का एक व्यक्ति स्वतंत्रता सेनानी हुआ करता था। गृहमंत्री ने घटना के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की है।'

Friday, August 15, 2008

मुक्ति बोध

भाग्यहीन है, वह!
जिंदा है, मगर मरी समान!
कुछ लोग तो सब्र कर ही बैठ गए, वह किसी आतंकवादी की गोली की शिकार हो गई होगी अथवा उसका अपहरण कर लिया गया होगा!
सही सलामत होती, तो आशीर्वाद जरूर मिलता, उसका। किसी एक की पूंजी नहीं है, वह। वह तो जन-जन की मां है। सब की दुलारी है, वह।
किंतु, कमबख्त है, वह!
कुछ लोग उसकी उम्र का घटा जोड़ लगाने लगे हैं! रोज पैदा करते और रोज मारने लगे हैं, उसे!
उसके दत्तक पुत्रों का कहना है कि अब तो साठ पूरे कर इकसठ में पांव रख लिया है, उसने। सठिया गई है, वह!
आम आदमी त्रस्त है, घटा जोड़ के इस अंक गणित से। वह त्रस्त है, क्योंकि दिन, मास और वर्ष की सीमा रेखाओं में कैद कर लिया गया है, उसे!
मां की भी कोई उम्र होती है, भला! क्या मां भी कभी बचपन, जवानी और बुढ़ापे में कदम रखती है, भला!
इस तरह तो वह एक दिन मर भी जाएगी!
मां तो मां है!
शरीर तो नहीं कि रोज-रोज पैदा हो और रोज-रोज मरे!
कितना स्वार्थी हो गया है, आदमी! वस्तु की तरह उपभोग कर रहा है, उसका!
और, जो नि:स्वार्थ सान्निध्य चाहता है, उसका। जिसके लिए ही धरा पर अवतरण हुआ उसका। वही युगों-युगों से वंचित है। केवल उसके लिए ही वह जन्म मृत्यु से परे है।
अभागिन है वह!
दुर्भाग्य! कि वह कुछ लोगों की ही क्रीत दासी बन का रह गई। वह क्या बनी ताकतवर कुछ लोगों ने उसे कभी आजाद होने ही नहीं दिया!
जब से सभ्यता नाम की महामारी ने आदमी के झुंड में प्रवेश किया। ताकतवर चंद लोगों ने उस पर कब्जा कर लिया है। कितना अच्छा होता यदि आदमी सभ्य न होता। तब वह भी सर्व-सुलभ होती।
आदिम काल में जीता था, जब आदमी। वह भी आजाद थी और आदमी भी। आदमी ने जब से कथित सभ्यता का लबादा ओढ़ा है। आदमी सेवक से सामंत बन गया। न वह आजाद रही और न ही आदमी।
आजाद रहा तो केवल सामंत। लड़ते रहे आपस में उसके लिए। जो जीता वह आजाद रहा, जो हारा वह गुलाम। गुलाम के लिए वह मर गई और जीतने वाले ने उसकी उम्र की गणना
शुरू कर दी एक-दो-तीन।
गोरे आए, शरीर व बुद्धि दोनों में ताकतवर थे। सामंतों से छीन कब्जा जमा बैठे उस पर। कुछ के लिए एक बार फिर उसका देहावसान हो गया और कुछ के लिए पुनर्जन्म। गोरो ने भी उसकी उम्र का हिसाब किताब लगाया। वह पूरे डेढ़ सो वर्ष जिंदा रही उनके लिए।
बांझ नहीं है, वह।
भरा-पूरे परिवार है उसका, पिता भी पति भी और पुत्र भी।
मगर कुलक्षणी रही वह!
एक दिन सरफरोशी की तमन्ना जगी, सिरफिरे उसके पुत्रों के दिल में। टक्कर ले बैठे हुक्मरानों से। जज्बा था उनके दिल में उसे गोरों के चंगुल से मुक्त कराएंगे।
मुक्ति के नाम पर एक-एक कर एक हजार एक पुत्र होम कर दिये उसने!
सबेरा हुआ एक दिन। चारो तरफ शोर मचा- आजादी मुक्त हो गई गोरों की दासता से! हम भी आजाद हो गए! राम राज्य स्थापित हो गया!
मगर यह क्या! सब कुछ दिवास्वप्न था! कुछ लोगों के लिए वह जरूर फिर से पैदा हुई। मगर आम आदमी के लिए दोपहर आते-आते फिर मर गई!
मुक्ति कहां मिली, उसे। अपने होम हो गए और दत्तक पुत्र काबिज!
करमजली है वह।
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को।
कि सभ्य समाज में मुक्ति शब्द ही अर्थहीन है।
मुक्ति स्वयं ही मुक्त नहीं है।
मुक्ति यदि मुक्त हो गई तो फिर बंधन का क्या होगा!
सदियों से चली आ रही दास परंपरा का क्या होगा!
किसी की दासता, सामंतों के लिए मुक्ति है और उनकी मुक्ति, उनके लिए दासता।
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को!
बदनसीब थी वह!
न वह आजाद हुई थी और न ही आदमी। हुआ था बस एक हस्तांतरण। गोरों के चंगुल से मुक्त हुई थी वह, मगर कालों ने झपट लिया उसे। आम आदमी पहले भी गुलाम था आज भी गुलाम है।
पहले पर-अधीन थे! अब स्व-अधीन हैं!
अब तो सुना है सिर पीट-पीट कर उसने भी दम तोड़ दिया है और दत्तक पुत्रों ने उसकी लाश भी टुकड़े-टुकड़ों में बांट ली है। जिसके हाथ उसकी दौलत लगी, उसने कहा आर्थिक आजादी मिल गई। जिसके हाथ राज-काज लगा, उसने कहा राजनैतिक आजादी मिल गई। तीसरे टुकड़े को लेकर दोनों के बीच समझौता हुआ और उसके साथ ही घोषणा कर दी गई-'अब सामाजिक आजादी भी हमारी दासी हो गई!'
अच्छा होता वह किसी किसान की कुटिया की स्वामिनी होती, यदि! हलवा-पूरी न सही मगर
दासी तो न कहलाती। किसान कुछ अपनी कहता कुछ उसकी सुनता, यूं घुट-घुट कर तो न मरती!
अच्छा होता यदि वह किसी मजदूर का वरण कर लेती! मजदूरिन कहलाती, मगर बंधुआ तो नहीं! दिन भर मजदूरी करते रात को एक दूजे का दुख-सुख बांटते!
तब पुत्रवती हो कर भी कम से कम निपूती तो न कह लाती। वह बंधक है, मुक्त नहीं!
मुक्त रहना उसकी नियति नहीं!
वह अजन्मा है, इसलिए मरी नहीं!
मरना उसकी प्रकृति नहीं!
आदमी मूर्ख है,
खोजता है, उसे राजपथ पर!
लाल किले की प्राचीर पर!
संपर्क : 9717095225

Wednesday, August 6, 2008

नेता का विराट स्वरूप

भक्तजनों ने आग्रह किया- स्वामीजी! साधना के उपरांत ही सही, किंतु ईश्वर का ज्ञान संभव है। उसकी अनुभूति संभव है, किंतु यह नेता! नेता हमारे लिए अगम-अगोचर हो गया है। साधना, आराधना, प्रार्थना के उपरांत भी नेता का रहस्य समझ नहीं आ रहा है! कृपया कुछ प्रकाश नेता के रूप पर भी डालिए, ताकि हम लोकतांत्रिक जीव भी उसकी माया को जान सके और लोक-सागर से पार हो सकें।
भक्तजनों के आग्रह-स्वर श्रोत्रेंद्रियों में प्रवेश करते ही स्वामीजी के मुखारबिंदु से निकला, नेता! 'नेति-नेति' अर्थात यह भी नहीं यह भी नहीं। फिर स्वामीजी बोले जिसका उद्ंभव ही 'न' से हुआ हो उसका वर्णन शब्दों में कैसे संभव है? शब्द ज्ञान की अपनी सीमाएं हैं और नेता असीम है। फिर भी हे, भक्तजनों! सीमित शब्दावली में ही मैं नेता के असीम स्वरूप का वर्णन करने का प्रयास करता हूं।
'जुगाड़' की तरह अपने प्रवचन को आगे खींचते हुए स्वामीजी बोले, हे भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, सर्वाकार है, निर्विवाद है, सद्ंचिदानंद है, जुगाड़ी है अर्थात सभी जुगाड़ों का स्त्रोत है। नेता के विराट स्वरूप का संक्षिप्त वर्णन करने के बाद स्वामीजी ने उसके एक-एक गुण का विस्तृत वर्णन कुछ इस प्रकार किया।
भक्तजनों! नेता सर्वव्यापी है, वह राष्ट्र के कण-कण में व्याप्त है। राजधानी से लेकर गांव-देहात तक की गली-मौहल्ले की हर ईट के नीचे वह विद्यमान है। हृदय निर्मल होना चाहिए घट-घट में नेता के दर्शन संभव हैं।
भक्तजनों, अब मैं नेता के सर्व-विवादित गुण का बखान करता हूं। सर्व-विवादित यह गुण है उसका स्वरूप। आदिकाल अर्थात जब से सृष्टिं में नेता नाम के जीव का उद्ंभव हुआ है, तभी से उसके स्वरूप को लेकर विवाद है। कहा जा सकता है कि नेता और उसका स्वरूप विवाद दोनों का उद्ंभव व विकास साथ-साथ ही हुआ है।
हे, भक्तजनों! विवादों के पार यदि देखा जाए तो नेता सर्वाकार है, बहुरूपी है।कभी-कभी उसे बहुरूपिया कह कर भी संबोधित किया जाता है। क्योंकि नेता लीलामय है, इसलिए भक्त ने उसके जिस रूप के दर्शन की इच्छा व्यक्त की नेता ने उसे उसी रूप में दर्शन दिये। उसके विभिन्न स्वरूप भक्त की भावना पर भी निर्भर करते हैं। शास्त्रों में कहा गया है-
'जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देख तिन तैसी'
बहुरूपिया होने के बावजूद शास्त्रों में मूलतया उसके दो स्वरूपों का वर्णन प्रमुखता से मिलता है। आज के प्रवचनों में हम मुख्य रूप से इन्हीं दो रूपों की चर्चा करेंगे।
हे, भक्तजनों! शास्त्रों को घोट कर यदि निचोड़ा जाए तो नेता का मूल स्वरूप निराकार ही सिद्ध होता है। निराकार है, तभी तो जल-वायु और आकाश की तरह वह दल रूपी पात्र के अनुरूप आकार धारण कर लेता है, रंग बदल लेता है। निराकार है तभी तो वह घट-घट का वासी है और आड़ी-तिरछी उसकी टांग का आभास तभी तो प्रत्येक क्षेत्र में हो जाता है। स्नेह के वशीभूत भक्तजन कभी-कभी उसे घाट-घाट का जल ग्रहण-कर्ता भी कहते हैं। दर्शन देकर नेता अक्सर अंतर्धान हो जाता है, हवा हो जाता है, इसलिए ही उसका एक नाम हवाबाज भी है। ये सभी लक्षण उसके निराकार स्वरूप का वर्णन करते हैं।
नेता के निराकार स्वरूप का वर्णन कर अद्ंभूतानन्द जी महाराज ने अपने प्रवचन पर अर्ध विराम लगाया। भक्तों ने अगला प्रश्न उठाया, 'नेता जब निराकार है, तो दर्शन किसके?'
चिलम में दम लगाने की माफिक महाराज ने लंबी सांस खींची और फिर बोले, 'प्रश्न महत्वपूर्ण है।'
हे, भक्तजनों! नेता निराकार ही है। मगर जब-जब चुनाव सन्निकट होते हैं, भक्तों के आग्रह पर वह उम्मीदवार बनकर साकार रूप में अवतरित होता है। भक्तजनों यही कारण है कि चुनाव संपन्न हो जाने के बाद नेता अंतर्धान हो जाता है। वास्तव में तब वह अपने निराकार रूप में चला जाता है। इसलिए तुच्छ जन को उसके दर्शन नहीं होते। मगर जो प्राणी भक्ति-भाव (पांव-पान-पूजा) के साथ उसके विराट स्वरूप के सामने आत्मसमर्पण कर देते हैं, ऐसे भक्तों को वह निराकार स्वरूप में भी दर्शन देता है।
भक्तजनों, सभी जुगाड़ों का आदि स्त्रोत होने के कारण नेता को जुगाड़ी भी कहा गया है। जुगाड़ उसकी प्रकृति है, उसकी माया है। सृष्टि के तमाम जुगाड़ उसी के जुगाड़ से संचालित हैं। जिसके सहारे वह संपूर्ण राजनैतिक सृष्टिं का निर्माण करता है।
स्वामीजी, यह भ्रष्टाचार? हां, हां, भ्रष्टाचार!
भक्तजनों, भ्रष्टाचार भी उसी शक्ति पुंज जुगाड़ का एक अंश है। हे, भक्तजनों! जिस प्रकार जल से भरा कुंभ यदि जल ही में फूट जाए तो दोनों जल एक दूसरे में समा जाते हैं, एकाकार हो जाते हैं। उसी प्रकार की गति जुगाड़ व भ्रष्टाचार की है। इसलिए शास्त्रों में कहा गया है कि भ्रष्टाचार जुगाड़ है और जुगाड़ भ्रष्टाचार। नेता प्रथम भ्रष्टाचार के लिए जुगाड़ करता है, फिर भ्रष्टाचार के सहारे चुनाव के लिए धन का जुगाड़ करता है और फिर उसके सहारे चुनाव में विजयश्री प्राप्त करने का जुगाड़। विजयश्री प्राप्त हो जाने के बाद सरकार बनाने के जुगाड़ में व्यस्त हो जाता है। ये सभी उसकी लीलाएं हैं। ऐसी ही लीलाओं के माध्यम से संपूर्ण राजनैतिक सृष्टिं की संरचना का जुगाड़ फिट हो जाता है। यह जुगाड़ ही की माया है कि नेता कभी नहीं हारता, हमेशा जनता ही हारती है।
नेता निर्विवाद है। दुनिया के संपूर्ण प्रपंच उसकी माया है, लीला है। मर्यादा स्थापना हेतु प्रपंच करना उसका परम कर्तव्य है। प्रपंच के माध्यम से वह लोकतंत्र वासियों को उनके कर्तव्य- अकर्तव्य का बोध कराता है। क्योंकि वह कीचड़ में कमल की भांति, प्रपंच करते हुए भी उनमें लिप्त नहीं होता। वह प्रपंच कर्म भी सहज भाव से करता है, इसलिए निर्विकारी है, निर्विवाद है,
सभी विवादों से परे हैं।
नेता का असत्य भी सत्य हैं, क्योंकि सत्य के मानदंड, सत्य की परिभाषा परिवर्तनशील हैं, इसलिये समय के अनुरूप नेता ही सत्य के मानदंड व परिभाषा तय करता है। इसलिये ही शास्त्रों में नेता को सत्ं और जनता को असत्ं कहा गया है।
नेता चित्स्वरूप भी है। राजनीति की समस्त चेतना नेता ही से प्रवाहित है। नेता को शक्ति पुंज कहा गया है। लोकतंत्र के लोक और तंत्र दोनों ही का चेतना स्त्रोत नेता ही है। लोकतंत्र रूपी सृष्टिं के संपूर्ण चक्र-कुचक्र नेता की ही माया से संचालित हैं। लोकतंत्र का जुगाड़ उसी की चेतना से गतिशील है। क्योंकि वह सत् है, चित् है, इसलिए वह आनंद स्वरूप है। वह आनंद स्वरूप है, इसलिए ही जनता दुखानंद रूप है। जनता का दुख ही नेता का आनंद है और उसका आनंद जनता का दुख है। यही लोकतंत्र का नियम है। शेष कल भक्तजनों, आओ अब नेता के उस विराट स्वरूप की आरती उतारे। धन्य-धन्य के सुर के साथ भक्तजन अपने-अपने स्थान पर खड़े हो कर आरती गुनगुनाने लगते हैं।

Thursday, July 31, 2008

तिजोरी में सुरक्षित लोकतंत्र !

विश्वास मत के दौरान संसद के अंदर-बाहर जो कुछ हुआ। विश्वास मत से पूर्व और उसके बाद जो कुछ हो रहा है। उस पर विभिन्न प्रकार की टिप्पणियां सुनने-पढ़ने को मिली। मसलन- लोकतंत्र हुआ शर्मसार, सरकार जीती लोकतंत्र हारा, सरकार बची शाख गई, लोकतंत्र की हत्या, शर्म भी हुई शर्मिदा आदि, आदि! हवा में उछाले गए इन जुमलों में से मैं किसी के साथ इत्ति़फा़क नहीं रखता हूं। न-इत्ति़फा़की बिना वजह की नहीं है। इन जुमलों को लेकर मैंने गहन अध्ययन किया है, शोध किया है, विचार-मंथन किया है। दिलोजान के साथ मेहनत करने के बाद ही मैं न-इत्ति़फा़की की मंजिल पर पहुंचा हूं।
पता नहीं क्यों लोकतंत्र की हत्या, लोकतंत्र की हार, लोकतंत्र शर्मसार जैसे शब्द हवा में उछालकर सास-बहू के इस सीरियल में क्यों लोकतंत्र को घसीटा गया। इस प्रकार के जुमले उछालने वालों से मेरा एक ही सवाल है, अरे भाई! लोकतंत्र इस समूचे सीरियल में था कहां? लोकतंत्र वैसे भी यहां, है कहां? लोकतंत्र तो उन तिजोरियों में सुरक्षित है, हार्स ट्रेडिंग के लिए जिनसे दौलत निकाली गई थी! लोकतंत्र होगा, तभी तो उसे जहमत आएगी! जिसका यहां अस्तित्व ही नहीं, उसे कैसी जहमत! इस पूरे प्रकरण में कहीं भी, किसी भी क्षण लोकतंत्र की सेहत को आंच नहीं आई, मैं पूरे यकीन के साथ कह रहा हूं। 'लोकतंत्र कैसे हुआ शर्मसार, शर्म आखिर क्यों हुई शर्मिदा' इन मुद्दों पर भी बुद्धि के घोड़े दौड़ाए। यहां यह बता देना अति- आवश्यक है कि मेरे घोड़ों के आगे किसी ने घास नहीं डाली, अत: दौड़ाने के लिए वे उपलब्ध थे। 'शर्म' शब्द के अर्थ जानने के लिए मैंने राजनैतिक-शब्दकोष का एक-एक पन्ने पलटा, मगर दुर्भाग्य की शब्दकोष के किसी भी पन्ने पर मुझे 'शर्म' शब्द के दर्शन नहीं हुए। एक पन्ने पर 'अपमान-अभेद्य' शब्द अवश्य प्राप्त हुआ। अंग्रेजी में शायद इसे ही 'इंसल्ट प्रूफ' कहते हैं। राजनीति के लिए बहुत ही फलदायक शब्द है। प्रगति कारक शब्द है। राजनीति में सफलता के लिए ऐसे ही शब्दों की आवश्यकता है। 'शर्म' जैसे दकियानूसी शब्दों का न होना ही कल्याणकारी है!
पन्ने-दर-पन्ने पलटने के बाद मैं शब्दकोष के उन अंतिम पन्नों पर पहुंचा, जिन पर अक्सर मुहावरे, लोकोक्तियां व कहावतें आदि होते हैं। वहां जाकर कुछ राहत का अहसास हुआ। उस पन्ने पर अनमोल वचनों के रूप में कुछ महान विभूतियों के उद्गारों का उल्लेख था। उन्हीं अनमोल वचनों के मध्य एक अनमोल वचन था- शर्म स्वयं शर्मिदा होने के लिए नहीं दूसरों को शर्मिदा करने के लिए प्रयुक्त की जाती है। इस अनमोल वचन के उद्गार-कर्ता के नाम के स्थान पर लिखा था-अज्ञात! मन ही मन उस अज्ञात-आत्मा की शांति के लिए प्रार्थना की, जिसने ऐसे अनमोल वचन उद्गारित कर राजनीति को नए आयाम दिए।
विश्वास मत के कथानक पर आधारित इस सास-बहू सीरियल में 'राष्ट्र-अहित' को लेकर भी सीरिअस चिंता व्यक्त की गई। विभिन्न संवादों में यह शब्द सीरियल के प्रथम एपिसोड 'डील की फील' से ही शुरू हो गया था। डील के पक्षधरों ने कहा-डील के विरोध में राष्ट्र का अहित है। इससे उलट डील विरोधियों ने कहा- डील का समर्थन करना राष्ट्र का अहित करना है। मगर अहित भरी यह चिंता भी औचित्यहीन नजर आई! क्योंकि, डील समर्थकों ने भी राष्ट्रहित में समर्थन किया। डील का विरोध करने वाले दलों ने भी राष्ट्रहित में ही समर्थन वापस लिया। जिन्होंने विश्वास मत के समर्थन में वोट नहीं दिए, उसका कारण भी राष्ट्रहित ही था। नोट लेकर वोट देने वालों के लिए भी राष्ट्रहित ही प्रेरणा का स्रोत था और जिन्होंने सदन में नोट लहराए, उनके लिए भी राष्ट्रहित ही सर्वोपरि था। चहुओर राष्ट्रहित ही राष्ट्रहित था। प्रत्येक राष्ट्रहित के प्रति समर्पित दिखलाई दिया। जिस देश के नेताओं के अंतर्मन में राष्ट्रहित के प्रति ऐसा समर्पित भाव हो, भला उस देश के शब्दकोष में 'राष्ट्र-अहित' जैसे शब्दों का क्या औचित्य!
'हार्स ट्रेडिंग' बे-बात की बात का बतंगड़! हार्स ट्रेडिंग हुई तो इसमें आश्चर्य क्या? अरे, भाई! बाजार है, बाजार में घोड़े हैं, घोड़े बिकाऊ हैं, घोड़ों के खरीददार हैं, मौका भी है और दस्तूर भी। फिर तो घोड़ों की खरीद-फरोख्त होना स्वाभाविक ही है। घोड़े-गधे सब एक भाव बिक गए, इस पर भी हंगामा क्यों? अरे मांग-आपूर्ति का सिद्धांत है, बाजार का दस्तूर है। जब मांग आपूर्ति से ज्यादा हो, तो गधे-घोड़े एक भाव बिकते ही हैं! नहीं, नहीं भाई! जब बाजार ही गधे-घोड़ों का हो, तो शेर कहां से आए? अब आप ही बताएं, क्या मेरी न-इत्तिफा़की नाजायज है?
संपर्क-9717095225

Saturday, June 14, 2008

मूछों से घुटनों पर उतरती राजनीति

ग्लोबल कोई समस्या हो अथवा राजनीति घुटनों पर ही वार करती है। अब महंगाई को ही लीजिए, कमबख्त जब से ग्लोबल हुई है, उसने जनता के घुटने तोड़ दिए हैं। हालांकि महंगाई जनता को परेशान तब भी करती थी, जब देसी थी, मगर तब बदन में खुजली-सी ही करके रह जाती थी। जनता को घुटनों के बल रेंगने के लिए मजबूर नहीं करती थी। अब ग्लोबल राजनीति को देखलें, पहले अफगानिस्तान में तालिबान के घुटने तोड़े, फिर ईराक में सद्दाम के। पाकिस्तान के घुटने भी सुरक्षित नहीं हैं, ग्लोबल राजनीति उसके घुटनों पर मीठी-मीठी मार कर उन्हें कमजोर करने में लगी है। मोटे तौर पर देख जाए, ग्लोबल राजनीति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी देसी राजनीति भी ग्लोबल ही हो गई है। और, स्वदेशी राजनीति डायनासॉर की गति को प्राप्त हो गई है।

दरअसल राजनीति अब मूंछों से उतर कर, घुटनों पर आ गई है। लड़ाई व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा दलीय स्तर पर निशाना घुटनों पर ही साधा जाता है। आजकल इसके लिए विपक्ष हथियार के रूप में महंगाई का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। महंगाई से सरकार के घुटनों पर वार कर रहा है। सरकार को घुटनों के बल रेंगने के लिए मजबूर कर रहा है। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पूर्व में लड़ाई भले ही मूंछों की रही हो, लेकिन घुटनों का महत्व दब भी कम नहीं था। उस समय भी प्रतिद्वंद्वी की मूंछें नीची करने की अपेक्षा उसे घुटने टेकने के लिए मजबूर करने पर ज्यादा जोर दिया जाता था। लेकिन अब तो हालात बिलकुल ही बदल गए हैं। राजनीति में अब मूंछें अल्पसंख्यक हो गई हैं। ग्लोबल राजनीति के जितने भी घुटने टिकाऊ राष्ट्राध्यक्ष हैं, वह चाहे अमेरिका का हो अथवा ब्रिटेन का या हो चीन का सभी मूंछ विहीन हैं। देसी राजनीति की तो बात ही अलग है। इतिहास गवाह है, भारतीय राजनीति में मूंछ-विहीन नेता ही सफलता को प्राप्त हुए हैं। कुछ नेताओं के अधरों पर अवश्य मूंछें दिखलाई दे जाती हैं, किंतु उन्हें मूंछ कहना मूंछों का अपमान है। दरअसल वे मूंछों के अवशेष हैं, जो भविष्य में मानवशास्त्रियों के लिए अध्ययन में सहायक सिद्ध होंगी।

मर्दो की शान कहे जाने वाली मूंछ-संस्कृति के पतन का आखिर कारण क्या है, विशेषरूप से राजनीति में? इस ज्वलंत विषय पर हमने गहन अध्ययन किया है। अध्ययन के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मूंछें प्रगति में बाधक हैं। व्यक्ति हो अथवा नेता वही तरक्की को प्राप्त हुआ है, जिसने मूंछों को प्रमुखता प्रदान नहीं की है। दरअसल मूंछें नाक का बाल बनने में अवरोध उत्पन्न करती हैं और तरक्की व्यक्तिगत जीवन में करनी हो अथवा सार्वजनिक जीवन में किसी की नाक का बाल बनना परमावश्यक है। राजनीति में तो नाक का बाल विशेष महत्व रखता है। मूंछ-संस्कृति के पतन का दूसरा प्रमुख कारण है, मूंछों का स्टिंग-ऑपरेशन में सहायक सिद्ध होना। दरअसल मुछंदर व्यक्ति जब कभी मलाई चाटता है, तो मूंछें चुगली कर देती हैं, गोपनीय तथ्य को उजागर कर देती हैं। नेताओं के लिए यह विकट समस्या है, क्योंकि मलाई चाटना उनकी आदत है। अत: मूंछें अनुपयोगी हैं और अनुपयोगी मूंछों के भार से अधरों को भार-संपन्न करने का औचित्य क्या?

घुटनों का महत्व भी यद्यपि पुरातन काल से ही है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता उन्हें एनडीए सरकार के समय प्राप्त हुई थी। उस समय सरकार के भाजपाई घुटने कुछ कमजोर पड़ गए थे, अत: पेंगुइन की चाल चलती-चलती सरकार सत्ता से बाहर हो गई। क्योंकि घुटने सरकार के थे, अत: राष्ट्रीय महत्व मिलना स्वाभाविक था। सुना है, अब भाजपा ने नए घुटने तलाश लिए हैं, देखना यह होगा कि नए घुटनों में कितनी जान है। एनडीए की सत्ता में वापसी करा पाते हैं, अथवा नहीं।

घुटनों के संबंध में प्रसिद्ध यह जुमला : 'गिरते हैं शह -सवार ही मैदान-ए-जंग में, वो क्या खाक जीएंगे जो घुटनों के बल चलते हैं।' भी घुटनों के महत्व को दर्शाता है, मगर अब स्थिति बदल गई है। अब वे ही लोग जीते हैं, जो अपने बॉस के सामने घुटनों के बल रेंगते हैं। सीधे घुटने वाले शख्स अक्सर गिरते देखे गए हैं। दरअसल घुटनों के बल रेंगना अब कला का रूप ले चुका है। आधुनिक युग में पांव-पान-पूजा की संस्कृति का महत्व भी बढ़ा है और उसमें भी घुटनों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। क्योंकि, पूजा वही उत्तम कह लाई जाती है, जो घुटनों के बल बैठकर की जाती है और पांव छूने के लिए भी घटने मोड़ने ही पड़ते हैं। अत: मूछों की अपेक्षा अब घुटनों की राजनीति का महत्व बढ़ता जा रहा है।

संपर्क ः 9717095225

Sunday, June 1, 2008

मंत्री जी की अंगूठी

बिना विभाग के मंत्री जी ने उच्चस्तरीय कमेटी की बैठक बुलाई। बैठक में राष्ट्र के सर्वागीण विकास से संबद्ध योजना पर चर्चा की जानी थी। क्योंकि मंत्रालय बिना विभाग का था, इसलिए सर्वागीण विकास पर ही चर्चा लाजिम थी और मजबूरी भी। कांफ्रेंस हाल में एक-एक कर विभाग के सभी उच्चधिकारी उपस्थित हो चुके थे। बस शेष रह गए थे मंत्री जी। उपस्थिति पूर्ण होने की सूचना मंत्री जी के पास भेजी गई और इसी के साथ मोबाइल पर बतियाते-बतियाते मंत्री जी ने कांफ्रेंस हाल में प्रवेश किया। एक-एक कर सभी मातहतों ने उनकी चरण वंदना की। चरण वंदना कराना मंत्री जी का शौक था और करना मातहतों का परम कर्तव्य। चरण वंदना के घनत्व के आधार पर मंत्री जी अपने मातहतों की निष्ठा, कर्तव्य और कर्तव्य के प्रति ईमानदारी का आंकलन करते हैं।

मंत्री जी ने मोबाइल पीए साहब के हाथ में थमाया और दोनों हाथों की अंगुलियां एक दूसरे के बीच फंसाने की अदा का प्रदर्शन करते हुए तशरीफ का टोकरा कुर्सी पर टिकाया। मंत्री जी अभी पूरी तरह टिक भी न पाए थे कि दाएं हाथ की अंगुलियों से बांए हाथ की अंगुलियों के उद्ंगम स्थल को सहलाते हुए हवा में ऐसे उछले मानो कुर्सी के नीचे किसी ने आग लगा दी हो। इसके साथ ही उनके मुंह से निकला, 'हाय, मेरी अंगूठी!'

समूचा कांफ्रेंस हाल 'हाय मेरी अंगूठी' की प्रतिध्वनि से गुंजायमान हो गया।

पीए के मुंह से निकला 'हाय, मेरी अंगूठी' सचिव के मुंह से निकला 'हाय, मंत्री जी की अंगूठी'

मैडम बटरफ्लाई के मुंह से निकला 'हाय! उनकी अंगुठी।'

मानों सभी के टेप में एक ही नारा रिकार्ड था, 'हाय, अंगूठी-हाय अंगूठी।'

वैसे तो बिना विभाग के मंत्रालय के वरिष्ठं-कनिष्ठं सभी अधिकारी व्यवहारिक प्रकृति के जीव थे अर्थात प्रेक्टिकल एप्रोची थे। सभी अधिकारी खुला मक्खन हाथ में लिए घूमते थे, मगर मक्खनी आंखों वाली मैडम बटरफ्लाई उनमें बेजोड़ थी।

बटरफ्लाई मैडम का असली नाम नहीं था। असली नाम उनके स्वभाव से मेल नहीं खाता था। दरअसल मैडम बटरफ्लाई जब भी किसी की तरफ ताकती थी तो लगता था मानों उनकी आंखों से मक्खन की बौछार हो रही है। मंत्री व अधिकारियों के चारो तरफ ऐसे भिन-भिनाती रहती थी, जैसे फूल के चारों तरफ बटरफ्लाई और सुविधानुसार अपनी पसंद के किसी फूल पर काबिज होने के बाद उसके पराग का रसास्वादन तब तक जारी रखती थी, जब तक निचुड़ा फूल निरीह अवस्था में धरती की तरफ ताकने के लिए मजबूर नहीं हो जाए। ऐसे ही कई फूलों को वह मोक्ष की अवस्था तक पहुंचाने में सफलता प्राप्त कर चुकी थी। इसी विशेषता का आकलन करते हुए उनके सहकर्मियों ने उनका नाम बटरफ्लाई रख दिया था।

मंत्री जी के चेहरे पर पुरवा हवा के शुष्क झोंके स्पष्ट दिखलाई दे रहे थे। उन्हें लग रहा था, अंगुली से अंगूठी नहीं, वर्षो की कड़ी मेहनत से प्राप्त कुर्सी आज यकायक खिसक रही है।

मनुष्य जब-जब भी संकटावस्था में होता है, उसका अध्यात्म जागृत हो जाता है। कुछ क्षण के लिए मंत्री जी भी अध्यात्म की गंगा में सशरीर गोते लगाने लगे। सामने पड़ी कुर्सी आज उन्हें रज्जाू में सर्प की भांति भ्रम लग रही थी। जगत के मिथ्यात्व का यथार्थ ज्ञान पुष्ट हो रहा था। अत: वह कुर्सी पर पुन: विराजमान होने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे।

कांफ्रेंस हाल मौन था। मंत्री जी के सामने सभी अधिकारी हाथ बंधे सिर झुकाए गिरजाघर में एकत्रित श्रद्धालुओं की मुद्रा में खडे़ थे। मैडम बटरफ्लाई ने मौन तोड़ा, 'सर! क्या हुआ, आप की अंगूठी को? घर तो ठीक-ठाक थी!'

अबोध किसी बालक के समान रुंधे गले से मंत्री जी बोले, 'कहीं गिर गई।'

समूचे कांफ्रेंस हाल के मुंह से निकला, 'गिर गई!' और गिर गई की इस आवाज के साथ ही समूचा कांफ्रेंस हाल गतिमान हो गया। मैडम बटरफ्लाई ने मौके की नजाकत भांपते हुए मंत्री जी के चरणों में मोर्चा जमाया और वह दंडवत अंदाज में उनके चरण तले अंगूठी खोजने लगी। मैडम का अनुसरण करते हुए जो जहां खड़ा था, वहीं झुका और अपने-अपने पैरों तले अंगूठी ऐसे खोजने लगा, मानो मंत्री जी की अंगूठी नहीं उनके पैरों तले की जमीन खिसक गई हो। यह मंत्री जी के प्रति उनकी निष्ठा का प्रदर्शन था।

सचिव साहब ने हाल के चारों कोनों की खाक उड़ाई तो पीए साहब ने फर्श पर बिछे गलीचे की। मानों अंगूठी नहीं, राजनीति की गेंद हो गई थी, अंगूठी। अत: सभी ने अपने-अपने पाले में तलाशी। मगर गेंद किसी के हाथ नहीं लग पाई। शायद किसी और के पाले में चली गई थी। राजनीति स्वयं गेंद खिसकाने का खेल है। एक दूसरे के पाले में खिसका कर खिलाड़ी स्वयं ही ताली बजाते हैं।

तलाश की हताशा के बाद मैडम बटरफ्लाई ने मंत्री जी का हाथ पकड़ा और दिलासा के साथ उन्हें कुर्सी पर बिठाया। एक-एक कर सभी अपने-अपने आसन पर विराजमान हो गए और अंगूठी को लेकर चिंतन-मंथन का दौर शुरू हुआ। पहल पुन: मैडम ही ने की, 'सर! घर फोन करूं शायद वहीं छूट गई हो।'

'नहीं! कमबख्त फोन भी नहीं मिल रहा है।'

'सर! यह तो अपशकुन है। अंगूठी भी गायब है, फोन भी नहीं मिला!'

'यही सोच-सोच कर तो मैं चिंतित हूं।'

सचिव बोले, 'सर! मुझे तो इस मामले में विपक्ष की साजिश लगती है।'

'ठीक ही कहते हो, मेहता जी। विदेशी हाथ भी हो सकता है।' पीए साहब बोले।

मंत्री जी ने चेहरे पर हाथ फेरा और बोले, 'मुझे अपनी कुर्सी की चिंता नहीं है, मेहता साहब। हालांकि बाल्टी बाबा से यह अंगूठी मिलने के बाद ही मुझे मंत्री पद मिला था। मगर इसी तरह यदि मंत्रियों की अंगूठियां गायब होती रही तो एक दिन सरकार का भी पतन हो जाएगा। सरकार यदि गिर गई तो इस देश का क्या होगा? बस मैं तो यही सोच-सोच कर परेशान हूं, मैडम!'

मक्खनी आंखों में आंसू छलकाते हुए मैडम बोली, 'ठीक कहते हो सर! आप हमेशा ही इस देश की चिंता में भुनते रहे हैं। अंगूठी का खोना मुझे भी किसी गंभीर साजिश का परिणाम लगता है।'

सचिव बोले, 'क्यों न इस बारे में प्रधानमंत्री जी को अवगत करा दिया जाए।'

बटरफ्लाई बोली, 'नोट तैयार करूं, सर!'

मंत्री जी ने सचिव को झाड़ पिलाई, 'मेहता साहब कभी-कभी तो मूर्खता की सभी हदें पार कर जाते हो। प्रधानमंत्री जी को बताने का नतीजा जानते हो? अभी इस मामले को यहीं दबा रहने दो।'

मंत्री जी का मोबाइल घन-घनाया। मंत्री जी जंग खाई तार से कांप गए। उन्हें लगा कि बात शायद प्रधानमंत्री जी तक पहुंच गई है और फोन त्यागपत्र देने का आदेश लिए हुए है।

मंत्री जी ने फोन ऑन किया, 'यऽऽऽस! यस, सर!!!'

आवाज प्रधानमंत्री की नहीं मंत्री जी की पत्‍‌नी की थी। हड़काने का लहजा लिए पत्‍‌नी की आवाज कान में पड़ी, 'अंगूठी भूल गए! हां, हां, हां, बाथरूम में।'

'ओऽऽऽहो! सॉरी, मैडम आज स्नान किया था।'

'मना किया था, स्नान मत किया करो, जब भी स्नान करते हो कोई न कोई अपशकुन हो जाता है।'

'वेरी सॉरी! आइंदा ध्यान रखूंगा।'

बटर फंलाई ने आंसू पोंछ मक्खन का सटीक उपयोग करते हुए पूछा, 'सर! कॉल कौन सी मैडम की थी?'

मंत्री जी के चेहरे पर भी पुरवा के स्थान पर पछवा हवा के अस्थाई चिन्ह प्रकट हुए और बोले, 'पत्‍‌नी की, अंगूठी मिल गई। आज स्नान किया था। अंगूठी बाथरूम में ही भूल आया। कमबख्त जब कभी स्नान करता हूं, कोई न कोई अपशकुन हो ही जाता है। अंगूठी बाल्टी बाबा ने दी थी। स्नान से परहेज करने की सलाह लोटा बाबा ने दी थी।'

'सऽऽऽर! इसी खुशी में फिर तो लंच हो जाए।'

बटफ्लाई के मुंह से लंच निकला और सचिव महोदय ने एक गाड़ी पंचतारा होटल रवाना कर दी और दूसरी गाड़ी अंगूठी लेने के लिए मंत्री जी के निवास पर। पत्‍‌नी पहले ही अंगूठी लेकर तीसरी गाड़ी मंत्री जी के कार्यालय की ओर रवाना कर चुकी थी।

शाम होते-होते प्रधानमंत्री कार्यालय से एक फरमान जारी हुआ, 'कोई भी मंत्री किसी भी स्थिति में अंगूठी नहीं उतारेगा। आदेश की अवहेलना करने वाले मंत्री के खिलाफ पोटा के तहत कार्रवाई की जा सकती है।'

आपात स्थिति से निपटने के लिए प्रधानमंत्री राहत कोष से विभिन्न रत्न जड़ित अंगूठियां तैयार कराने के आदेश भी दे दिए जा चुके थे। ताकि वक्त-जरूरत पर काम आ सके और सरकार पर आने वाले संभावित खतरे को टाला जा सके।

संपर्क : 9717095225

Saturday, May 31, 2008

मसला एक अदद लाइसेंस का है !

दिल्ली पुलिस ने एक चौराहे से ट्रैफिक पुलिस-वर्दी-धारी एक शख्स को गिरफ्तार किया। वह कमबख्त व्यवसायिक वाहनों से अवैध वसूली का गैर-कानूनी धंधा कर रहा था। फिर तो पुलिस ने गिरफ्तार करना ही था। उसे गिरफ्तार कर पुलिस ने वास्तव में कानून का पालन किया। यह आश्चर्य की बात नहीं है, पुलिस भी कभी-कभी कानून का पालन कर लेती है! वैसे तो पुलिस का काम केवल कानून का पालन करवाना है, कानून का पालन करना नहीं! हो, सकता है, कभी-कभी अभ्यास के लिए कानून का पालन करने संबंधी नागरिक-दायित्व का निर्वाह करना पुलिस की मजबूरी होती हो!

अब आप पूछेंगे कि उस शख्स की वसूली अवैध वसूली क्यों थी? पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर कानून का पालन कैसे किया? प्रश्न के पक्ष में आपका तर्क होगा कि ट्रैफिक पुलिस की वर्दी पहने लोगों को आपने अक्सर वसूली करते देख है। एक-दो बार आपने भी जेब ढीली कर ऐसे कर्तव्यपरायण वर्दी-धारियों के राष्ट्रीय-दायित्व में महत्वपूर्ण योगदान दिया है आपका तर्क भी जायज है और प्रश्न भी।

आपका कहना उचित है कि टै्रफिक-पुलिस की वर्दी पहने लोग चौराहों, दोराहों, राजपथों, जनपथों पर अक्सर वसूली करते रहते हैं। मगर वसूली के इस परम्-कर्म के लिए उनके पास सरकारी लाइसेंस होता है, अत: उनकी वसूली वैध वसूली होती है। जिस कमबख्त को पुलिस ने गिरफ्तार किया है, उसके पास ऐसा कोई लाइसेंस नहीं था। बस यही गलती थी, उस कमबख्त की। उसे यदि वसूली करनी ही थी, तो लाइसेंस न सही पुलिस विभाग से फ्रैंचाईज ही ले लेता। ट्रैफिक वार्डन बन जाता, खुल्ला-खेल फर्रुखाबादी खेलता! वैध वसूली करता!

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Wednesday, May 28, 2008

सांड़-सांड़ की पाचन शक्ति

गाजियाबाद में नन्दी पार्क के नाम से सांड़शाला है। जहां आवारा सांड़ रखे जाते हैं। जाहिर है कि नन्दी पार्क में बंद सभी सांड़ 'जन' किस्म के होंगे, क्योंकि राजनैतिक और सरकारी सांड़ आवारा सांड़ नहीं कहलाए जाते हैं, आवारागर्दी करना उनका मौलिक अधिकार है। आवारागर्दी-विरोधी कानून केवल 'जन' किस्म के प्राणियों पर ही लागू है।

दो-तीन दिन पहले उस सांड़शाला के दो सांड़ परलोक-गमन कर गए। सांड़-भक्तों (नन्दी-भक्त) की भावनाएं आहत हुई। मन शोक संपन्न हो गया। जाहिर है कि जब किसी समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंचती है, तो मुंह से एक आह-सी निकलती है। वही आह बढ़ते-बढ़ते शोर-गुल और आंदोलन में तब्दील हो जाती है। सांड़-भक्तों की मांग पर मृत-सांड़ों का पोस्टमार्टम हुआ।

उन्हीं में से एक सांड़ के पेट से दो रत्ती सोना, पांच व दो रुपये के चंद सिक्के, सौ ग्राम लोहे की कील, दो सौ ग्राम लोहे के वार्सल और न जाने क्या-क्या निकला। सांड़ के पेट से बरामद वस्तुएं देखकर लोगों को आश्चर्य हुआ, लेकिन बरामदगी सोचने के लिए हमें एक विषय दे गई।

हम विषय पर सोचते-सोचते सो गए। फिर सपने में नन्दी महाराज प्रकट हुए। बोले- भक्त! चिंता में भुट्टे की तरह क्यों भुनते जा रहे हो? हमने उनके सामने चिंता का कारण बयान कर दिया। हमारा चिंतनीय प्रश्न सुनकर नन्दी महाराज हंस दिए और फिर बोले- भक्त वह सांड़, जन-सांड़ था, सरकारी अथवा राजनैतिक सांड़ नहीं! उन दोनों में से किसी किस्म का सांड़ होता तो तुम्हारे मन में चिंतनीय यह प्रश्न ही उत्पन्न न होता।

हमने प्रश्न किया- क्यों, महाराज? नन्दी महाराज पुन: मुस्करा दिए और बोले- भक्त! राजनैतिक व सरकारी सांड़ों की पाचनशक्ति ़गजब की होती है। चंद सिक्के, रत्ती-दो रत्ती सोना और चंद कीलों की तो बात क्या, वे तो टकसाल की टकसाल हजम कर जाते हैं। सोने की समूची खदान हजम कर जाते हैं। लोहे की कील तो क्या वे टैंक के टैंक हजम कर जाते हैं और डकार भी नहीं लेते। भक्त मृत सांड़ भी यदि राजनैतिक अथवा सरकारी सांड़ होता, तो तुम और तुम्हारे डाक्टर बस ढूंढते रह जाते। भक्त! गलती की इस सांड़ ने जन-सांड़ होकर राजनैतिक व सरकारी सांड़ों जैसा भोजन करने की चेष्टा की। फिर तो उसकी ऐसी दुर्गति होनी ही थी। इतना कहकर नन्दी महाराज अंतर्धान हो गए और हम जाग गए।

संपर्क -9717095225

Wednesday, May 21, 2008

ज्ञान के प्रकाश से अंतरात्मा को प्रकाशित करो

रात्रि का समय था। हवा शांत थी, गर्मी अशांत थी। भव्य पंडाल में सत्यानंद जी प्रवचन-प्रसारण चल रहा था, 'हे मां! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। असत्य से सत्य की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।' तभी बिजली धोखा दे गयी। चरों ओर अंधकार छा गया। माइक गला बंद हो गया। भक्तजनों में खलबली मच गयी। परनिंदा में माहिर भक्तजन् सरकार को कोसने लगे। कुछ अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने की सद्-इच्छा से इधर-उधर हाथ-पांव पटकने लगे। एक भक्त ने जींस की जेब से लाइटर निकालकर अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने का सार्थक प्रयास किया। मंच पर गैस की लालटेन को माचिस दिखलाई गई। इस प्रकार अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का एक दौर संपन्न हुआ। प्रवचन की धारा पुन: प्रवाहित होने लगी।

भक्तजनों के तेवर देख महाराज ने प्रवचन की दिशा में मामूली सा परिवर्तन किया। ब्रह्मं सत्य, जगत मिथ्या की तर्ज पर महाराज ने ओजस्वी वाणी से अमृत वर्षा करते हुए कहा, 'भकतजनों! प्रकाश असत्य है। अंधकार ही सत्य है। जीवन के सभी पुण्य कार्य अंधकार में ही संपन्न होते हैं। प्रकाश में संपन्न पुण्य कार्य भी पाप-कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। अंधकार मिटाने के लिए हमें प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती है, किंतु प्रकाश से निपटने के लिए अंधकार की व्यवस्था नहीं की जाती, अपितु प्रकाश को ही समाप्त कर दिया जाता है। अत: अंधकार ही शाश्वत है, प्रकाश नश्वर है।'

महाराज ने वाणी को विराम देकर दीर्घ श्वास का पान किया और फिर बोले, 'विडंबना यह है कि प्रकृति परिवेश में जीना त्याग कर हमने अपने चारों ओर कृत्रिम परिवेश का जाल बुन लिया है। यही दुख का कारण है। प्रकाश की इच्छा रखते हो, तो अपने मन मंदिर में ज्ञान के दीप प्रज्ज्वलित करो। आज पुन: हम प्रकृति की ओर लौट रहे हैं। हमें सरकार और बिजली विभाग का आभारी होना चाहिए कि वे हमें प्रकृति की ओर गमन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हे भक्तजनों! प्रकाश की आशा उससे करनी चाहिए जो स्वयं प्रकाश-पुंज हो। स्वयं ही जिसका भविष्य अंधकार में है, वह किसी को किस प्रकार आलोकित कर सकता है, अत: सरकार से प्रकाश की आशा का त्याग कर, सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश से जीवन को आलोकित करो।'

प्रवचन के मध्य ही एक भक्त ने प्रश्न उछाला, 'महाराज! पानी-संकट?' महाराज बोले, 'सत्य वचन! पानी का घोर संकट है। ऐसा संकट न त्रेता में था और न ही द्वापर में, जैसा कि कलियुग में है। आंखों का पानी सूख गया है। चेहरों का पानी उतर गया है। रहीम दास जी का वचन असत्य हो गया है। अब पानी-विहीन मोती और पानी-विहीन मानुष्य ही सच्चे कह लाए जाते हैं। पानी-विहीन ही उबरते हैं। अत: पानी संकट का लाभ उठाओ। पानी का मोह त्याग, तुम भी महान बन जाओ!' प्रवचन के मध्य ही प्यासे होंठ और शुष्क वाणी से एक अन्य भक्त ने उच्चार किया, 'किंतु महाराज! पेय जल संकट?' भक्त का प्रश्न सुन महाराज मुस्करा दिए और बोले, 'पुत्र! शरीर और मन की तृष्णा कभी नहीं बुझती है। उसका त्याग करो और ज्ञान की पवित्र धारा से अंतरात्मा की तृष्णा को शांत करो।'

सत्यानंद महाराज अंधकार-प्रकाश, सत्य-असत्य और तृष्णा-त्याग पर अंधकार में प्रकाश डाल रहे थे। तभी उनका कर-कमल कनपटी पर पटका। भक्तों के झुंड से एक आवाज भिनभिनाई 'मच्छर' है। एक अन्य आवाज उठी- डेंगू का होगा! तभी करुणा-भाव से एक भक्त का हाथ महाराज की कनपटी की ओर उठा। महाराज संभले और बोले, ' अहिंसा परमोधर्म:! जीवों पर दया करो।' एक भक्त बोला, 'मलेरिया विभाग निकम्मा है। मच्छरों ने हमारा जीना दूभर कर दिया है!'

करुण रस की वर्षा करते हुए महाराज ने भक्त की जिज्ञासा शांत की, 'वत्स! मच्छर हमारे शत्रु नहीं, मित्र हैं। 'चैन की नींद सोना है, तो जागते रहो' का पवित्र संदेश प्रसारित कर हमें निद्रा से जागृत अवस्था में लाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। साधुवाद की पात्र है सरकार जिसने मच्छरों को नष्ट न करने की शपथ लेकर 'अहिंसा परमोधर्म:' का निर्वाह किया है।' इतना कह कर महाराज ने पुन: कनपटी सहलाई और बोले, 'भक्तजनों! तुम आत्मा हो और आत्मा अमर है। फिर डेंगू के मच्छर से कैसा भय! मच्छर तुम्हारे नश्वर शरीर को तो हानि पहुंचा सकता है, किंतु आत्मा को तो नहीं। तुम आत्मा हो।' महाराज ने पुन: दीर्घ श्वास का पान किया और बोले, 'तमसो मां ज्योतिर्गमय!' तभी बिजली विभाग की कृपा हुई और पण्डाल प्रकाशमान हुआ। इसके साथ ही अंधकार से प्रकाश की यात्रा का समापन हुआ।

संपर्क- 9869113044

Friday, May 16, 2008

टीले का रहस्य

आज आपको एक कहानी सुनाता हूं। कहानी न अतीत की है और न ही वर्तमान की। कहानी भविष्य की है। भविष्य की है, किंतु कोरी कल्पना नहीं। कल्पना कोरी कल्पना कभी होती भी नहीं है। प्रत्येक कल्पना किसी न किसी यथार्थ पर ही आधारित होती है। अत: इस कहानी को कोरी कल्पना समझ कर यों ही हंसी में मत उड़ा देना। अच्छा कहानी सुनों-
सूनामी गांव में एक ग्वाला रहता था। ईमानदार था, प्रेमी जीव था, सत्यवादी था, अहंकार करने के लिए उसके पास कुछ था ही नहीं, अत: अहंकार-मुक्त भी था। जब उसे अहंकार ही नहीं था, तो क्रोध कहां से होता! वैसे क्रोध के लिए भी पल्ले कुछ होना आवश्यक है। कुल मिलाकर सज्जनता के सर्वगुणों से संपन्न था। यही उसकी पूंजी थी और यही उसकी संपन्नता।
वह रोज सुबह उठता। अपने साथियों के साथ दूर जंगलों में पशु चराने ले जाता। साथी ग्वालों को प्रेम का पाठ पढ़ाता, आपस में विवाद होने पर सहज भाव से उसे निपटा देता। खुद घाटे में रहता मगर विवाद को तूल न पकड़ने देता। पशु चरने में व्यस्त हो जाते, तो उसके साथी उसे घेरकर लोक-परलोक की कहानियां सुनते। ग्वाला वैसे तो निरक्षर था। यहां तक कि अपना नाम भी लिखना नहीं जानता था। संस्कृत और संस्कृत-निष्ठ भाषा बोलने का तो प्रश्न ही नहीं। किंतु, न जाने कौन शक्ति उसकी आत्मा में प्रवेश कर जाती कि वह कहानी सुनाते-सुनाते आध्यात्मिक-प्रवचन सुनाने लगता। जिसमें वेद-पुराण और गीता-उपनिषदों के दृष्टांत भी होते। उसके साथी उस के ज्ञान पर आश्चर्य भी करते, किंतु बहुत ही ध्यान से उसे सुनते। कुछ ज्ञान की जिज्ञासा वश तो कुछ चमत्कार की जिज्ञासा के कारण।
गांव भर में वह ग्वाला संत के नाम से मशहूर हो गया। उसके ज्ञान के बारे में जितने मुंह, उतनी ही धारणाएं उत्पन्न हो गई। कोई कहता कि इस पर भूत-प्रेत का साया है, तो कोई कहता कि विशेष स्थिति में किसी संत की आत्मा इसके शरीर में प्रवेश कर जाती हैं। गांव वालों ने उसे पंडितों को दिखाया, तांत्रिकों को दिखाया, ओझा-बूझा को दिखाया, मगर किसी के हाथ कुछ न आया। प्रवचन का सिलसिला बदस्तूर जारी है।
एक दिन की बात है, वह अपने साथियों के साथ पशुओं को लेकर घने जंगल की ओर निकल गया। एक स्थान पर हरी-भरी घास देखकर सभी ने वहीं पशु चराने का फैसला किया और पेड़ों की छांव में सुस्ताने बैठ गए। उसी जंगल में एक वृक्ष के नीचे मिट्टी का एक टीला देखकर संत-ग्वाला उस पर जाकर बैठ गया। प्रवचन सुनने की इच्छा से उसके साथी अपने-अपने स्थान से उठकर उसके आसपास आकर बैठ गए। उन्हें देखकर प्रतिदिन की तरह उस ग्वाले-संत ने नेत्र बंद किए और बोलना शुरू कर दिया। मगर यह क्या! आज रोजाना जैसे तो प्रवचन नहीं! साथी पहले तो हैरान हुए और फिर यह सोचकर कि शायद यह भी प्रवचन का ही हिस्सा है, सभी शांत हो कर सुनने लगे। लेकिन, तब उन्हें हैरानी हुई जब संत ने कहा कि मैं आप लोगों को प्रतिदिन अच्छी-अच्छी कहानी सुनाता हूं, उसके बदले में सभी ग्वाले कर के रूप में मुझे अपनी-अपनी गायों का दूध दिया करेंगे। यह संपूर्ण जंगल और यहां उगने वाली घास पर भी मेरा अधिकार है।
कुछ देर तक अपनी महिमा का बखान कर संत-ग्वाला उस टीले से नीचे उतर आया और फिर अपने साथियों के साथ, पूर्व का सा व्यवहार करने लगा। संत के बदलते स्वरूप को देखकर उसके साथियों की हैरान बढ़ती जा रही थी। रोज की तरह अगले दिन फिर सभी ग्वाले उसी जंगल में पशु चराने गए और कुछ देर के बाद संत-ग्वाला उसी टीले पर जाकर बैठ गया और बैठते ही उसके व्यवहार में परिवर्तन शुरू हो गए। कल उसने जंगल और उसकी घास पर अपना अधिकार जमाया था, आज व दूसरे ग्वालों के पशुओं पर भी अपना हक जमाने लगा। उसी टीले पर बैठ कर एक दिन उसने एक-एक कर अपने साथियों को बुलाया और प्रत्येक के कान में कुछ कहा। परिणामस्वरूप परस्पर मनमुटाव पनपने लगा और दो गुट बन गए। एक गुट संत का साथ देने लगा और दूसरा गुट उसका विरोधी हो गया।
बावजूद इसके उसके साथी इस बात को लेकर हैरान थे कि संत टीले पर बैठकर अगड़म-बगड़म बकता है और टीले से नीचे उतर कर फिर पूर्व जैसा ही सद्-व्यवहार करने लगता है। सभी को प्रेम का पाठ पढ़ाने लगता है, सुख-दुख में एक दूसरे की मदद करने के लिए प्रेरित करने लगता है। साथी सोचने लगे आखिर माजरा क्या है! माजरे की तह तक जाने के लिए सभी ग्वाले गांव के जहीन-बुजुर्ग के पास गए। एक दिन ग्वालों के साथ जंगल जाकर बुजुर्ग ने पूरी स्थिति का जायजा लिया। पहले तो वह भी हैरान हुआ, लेकिन फिर वह इस नतीजे पर पहुंचा कि संत की प्रकृति में कोई विकृति नहीं है। संत की प्रकृति में विकृति पैदा होती, तो टीले से नीचे उतरकर भी वह बरकरार रहती, किंतु ऐसा तो कुछ नहीं है। हो-न-हो इस टीले में ही कुछ करामात है।
बुजुर्ग ने टीले की खुदाई कराने का निर्णय किया। टीले की खुदाई शुरू हो गई। खुदाई के दौरान सबसे पहले कुर्सी-नुमा काले रंग का एक सिंहासन मिला। उसके नीचे आकूत धन दब पड़ा था। धन भी काले ही रंग का था। काले रंग की इस दौलत का रहस्य जानने के लिए पुरातत्व-वेत्ताओं और भूगर्भ-शास्त्रियों को बुलाया गया और उसका अध्ययन शुरू हो गया। अध्ययन से पता चला कि कभी यहां भारत नाम का एक देश हुआ करता था। लोकतंत्र-काल में वहां की शासन व्यवस्था पर नेता नामक जीवों का कब्जा था। उन्हीं नेताओं के सद्कर्मो के कारण पहले लोकतंत्र का खातमा हुआ और धीरे-धीरे पूरा देश ही रसातल में चला गया। उन नेताओं को काला रंग बहुत प्रिय था। अत: वे काले रंग के ही कारनामे करते थे और काला ही धन एकत्रित करते थे। खुदाई में प्राप्त काला सिंहासन और काला धन लोकतंत्र काल के ऐसे ही किसी नेता का रहा होगा।
अधिकारियों ने वाकया अपने राजा को सुनाया। आश्चर्य व्यक्त करते हुए राजा ने सारा धन राजकोष में जमा कराने का आदेश दिया। किंतु राजा के मंत्री इस आदेश से सहमत नहीं थे। उन्होंने खुदाई में प्राप्त सारा धन समुद्र में डुबो देने का सुझाव दिया। राजा ने कारण पूछा, तो मंत्रियों ने कहा कि महाराज यह काला धन है, इसे यदि राजकोष में रखा गया, तो समूची राज-व्यवस्था काली हो जाएगी और भारत की तरह हमारा राज भी रसातल में चला जाएगा। अत: इसे नष्ट करना ही राज हित में होगा। राजा ने मंत्रियों की सलाह पर सारा काला धन समुद्र में फिंकवा दिया। गांव वालों ने राहत की सांस ली। उन्हें उनका संत फिर मिल गया था।
संपर्क-9717095225

Tuesday, May 13, 2008

संकट पाने का

समूचा राष्ट्र पानी संकट से ग्रस्त है। कहीं पानी उतरने का संकट है तो कहीं पानी चढ़ने का। कहीं पानी न होने का संकट है तो कहीं पानी-पानी होने का और कहीं-कहीं तो घड़ो पानी डालने के बाद भी पानी-पानी न होना संकट का कारण है।
कल तक जो पानीदार थे, आज बेपानी हो रहे हैं औरों के किए-धरे पर पानी फेर रहें हैं, मगरमच्छी आंसू बहा रहे हैं। हां, पानी जनित भिन्न-भिन्न प्रकार के संकट हैं। चरों तरफ संकट ही संकट है।
हमारे व्याख्यान लपक मुन्नालाल जी बोले, 'भईया! यह तो बताओ, पानी का संकट है या पानी खुद में संकट है अथवा पानी संकट में है?'
सवाल वाजिब था। हमारा चकराना भी लाजिम था। फिर भी हमने साहस जुटाया, लप्पेबाजी की और रहीम दास जी का स्मरण कर बोले-
'रहिमन पानी राखिए बिन पानी सब सून।
पानी गए ऊबरे मोती मानस चून॥'
मुन्नालाल जी ने विपक्षी बाउंसर दागा, 'हमारे सवाल का रहीम के इस दोहे से क्या वास्ता?'
मन ही मन हम बोले, 'लालू स्टाइल में हमने अपना जवाब तो फेंक ही दिया। न सही वास्ता, जवाब तो दे ही दिया। तुक मिले न मिले बोझ तो मरेगा। हमारे बेजा जवाब पर आह तो भरेगा।'
अपना मन नियंत्रित कर हम फिर बोले, 'वास्ता क्यों नहीं है, वास्ता है। रहीम दादा ने इस दोहे में पानी ही का तो संकट बताया है। उनके कहने का मतलब है, भइया! मोती, मानस, चून का जब पानी उतर जाता है तो तीनों ही बेभाव हो जाते हैं, अर्थात महत्वहीन हो जाते हैं। अत: पानी संकट न होने दो।'
मुन्नालाल जी बोले, 'नहीं-नहीं! रहीम तंत्र की मिसाल लोकतंत्र पर न बिठाओ। जमाना बदल गया है, नए जमाने की नई मिसाल बनाओ। लोकतांत्रिक इस युग में पानी उतरे चेहरे ही महान होते हैं। भावशून्य ही भाव वाले होते हैं।'
'अरे, पानी चढ़ा चेहरा नकली कहलाएगा। शुष्क होगा तो असली माल में बिक जाएगा। अत: इस युग में मानस वे ही उबरते हैं, जिनके चेहरे पानी-विहीन होते हैं। जिसके चेहरे पर पानी ठहर गया, धोबी के कुत्ते की तरह वह घर-घाट दोनों से गया। पानी उतरा चेहरा ही मोती कहलाएगा, सूखे चून को भी पचा जाएगा।'
रहीम और हमारे ऊपर एक ही छोर से बाउंसर दागते हुए मुन्नालाल जी आगे बोले, 'जिसकी आंख में पानी होगा, वही निर्बल कहलाएगा। जिसकी आंखों का पानी सूखा वह सबल हो जाएगा। जिसकी आंख में पानी होगा, बात-बात पर आठ-आठ आंसू रोएगा। तरक्की के मार्ग
को कीचड़-कीचड़ करेगा। किस्मत तरक्की के दरवाजे खोलेगी और पानी वाली आंखें शर्मसार होंगी, वक्त-बेवक्त पानी-पानी होंगी। खुले दरवाजे बंद हो जाएंगे। तरक्की के मार्ग अवरुद्ध हो जाएंगे।'
मुन्नालाल जी का प्रवचन हमारे सिर के ऊपर से उतर गया। मानो यूपीए की भैंस के साथ भैंसा पानी में उतर गया। सिर के ऊपर से पानी उतरता देख, हमने पूछा, 'जब पानी ही संकट है, फिर पानी-पानी का शोर कैसा?'
मुन्ना भाई बोले, 'जहां झील होती है पानी वहीं मरता है। पानी भरेगा तो झील वासी पानी-पानी ही चिल्लाएंगे। अपनी झील से पानी उलीच दूसरों के सिर पर गिराएंगे। पानी यहां भी संकट है, पानी वहां भी संकट है। अत: कोई अपनी झील में पानी नहीं चाहता। पानी उसकी झील में हो, मगर कमल मेरी झील में खिले। संतान उसके घर पैदा हो, मगर बधाई मुझे मिले। चिकने घड़े बनोगे, पानीदार कहलाओगे। पानी की परवाह करोगे तो उसी में डूब जाओगे। कुआं खोद कर पानी पीना मूर्खता कहलाता है, घाट-घाट का पानी पी कर मानस बुद्धिजीवी बन जाता है।'
'मुन्नाभाई! बात तुम्हारी सवा सोलह आने उचित है, अब तो पानी को ही संकट कहना उचित है।'
'नहीं, नहीं! न पानी संकट है, न पानी का संकट है। बस पाने का संकट है। पाना है, बस पाना है। आंखों में पानी भर कर पाना है, आंखों का पानी मार कर पाना है, चेहरों का पानी उतार कर पाना है। पानी-पानी होकर पाना है, चिकने घड़े होकर पाना है। निर्जल होकर पाना है, निर्लज्जा होकर पाना है। बस पाना है।'
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Tuesday, May 6, 2008

अमेरिका की टांग


अमेरिकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने कह दिया भारत के लोगों की थाली का वजन बढ़ता जा रहा है, इसलिए महंगाई बढ़ रही है। इससे पूर्व अमेरिका कि विदेश मंत्री कांडोलीजा राइस ने इसी जुमले को हवा में फेंका था। किंतु उसे लेकर कुछ ज्यादा हो-हल्ला नहीं हुआ। शायद इसलिए कि कांडोलीजा नाम से ही किसी भयानक बीमारी से पीडि़त सी लगती हैं। अब बीमारी हो या बीमारी से पीडि़त, उसकी बात को गंभीरता से क्या लेना।
लेकिन बुश साहब ने जब उसी जुमले को दोहराया तो काफी हो-हल्ला मच रहा है। बुश के इस जुमले को लेकर केवल प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जी के अलावा पूरे भारत में सनसनी फैल गई। बुश का जुमला और उस पर मनमोहन सिंह जी की चुप्पी, विपक्ष के हो-हल्ला करने के लिए बैठे-बिठाए दो मुद्दे मिल गए। विपक्ष के हो-हाल्ले करने में हमें किसी प्रकार के आश्चर्य का कोई कारण नहीं दिखाई दे रहा है। बेरोजगार के पास इसके अलावा काम भी क्या होता है। इसके अलावा विपक्ष की सार्थकता भी इसी में है कि कुछ हो या न हो, किंतु हल्ला होना चाहिए। वैसे भी विपक्ष जब है ही वि-पक्ष अर्थात पक्ष रहित।
हमारी चर्चा का विषय भी आज बुश का जुमला और उस पर मनमोहन सिंह की चुप्पी ही है। मनमोहन सिंह की चुप्पी को मैं दो प्रकार से देखता हूं। प्रथम, बुश से पूर्व मनमोहन सिंह खुद महंगाई का कारण आम आदमी की थाली का बढ़ते वजन बता चुके हैं। बुश ने तो केवल दोस्ती का निर्वाह करते हुए उसे दोहराया है। फिर मनमोहन सिंह जी उस पर हो-हल्ला क्यों करें? द्वितीय, मनमोहन सिंह कोई राजनीतिक व्यक्ति तो है नहीं, इसलिए वे राजनीति की भाषा बोलना नहीं जानते हैं। इससे पहले एक-दो मुद्दों पर उन्होंने प्रतिक्रिया जाहिर की भी, तो विपक्ष उस पर भी परम् कर्तव्य-निर्वाह करने से बाज नहीं आया, इसलिए उचित यही है कि मौन रहो। कहते हैं कि मौन मूर्खता पर पर्दा डाल देता है। राजकुमारी के स्वयंवर में कालिदास को उसके शुभ चिंतकों ने इसीलिए मौन रहने की सलाह दी थी और सलाह कामयाब भी निकली। राजकुमारी कलिदास के पल्ले में आ गिरी। अत: मनमोहन सिंह जी का चुप रहना कोई मुद्दा नहीं है।
जहां तक बुश-वचन का प्रश्न है, दूसरों के बैडरूम और किचन में झांकना प्रत्येक विचार-शील इनसान की प्रवृत्ति है। इनसान यदि जबरदस्त हो, तो स्वत: ही यह उसका मौलिक-अधिकार बन जाता है। अमेरिका ने पहले इराक की रसोई में ताकझांक की, वहां तेल की पीपों में उसे तेजाब नजर आया। अब ईरान की रसोई उसे तेजाबी लगने लगी है। पाकिस्तान के तो बैडरूम से लेकर किचिन तक में जो भी पकता है, उसी के इशारे पर पकता है। अब भारत की रसोई में भी ताकझांक शुरू कर अपने मौलिक अधिकार का सद्-उपयोग करने का संकेत दे दिया है।
इसके अलावा दूसरों के फटे में अपनी टांग का प्रवेश कराना, कुछ लोग अपना जन्म-सिद्ध अधिकार मानते हैं। अमेरिका ने इसके लिए शायद एक टांग स्पेयर में रखी हुई है। संभवतया उस टांग की इंचार्ज कोंडोलीजा जी हैं। जब कहीं भी थोड़ा सी सीवन उधड़ी हुई दिखती है, जुबान के माध्यम से टांग हरकत में आ जाती है। सीवन यदि कहीं उधड़ी दिखलाई न भी दे तो भूत के समान टांग खुद-अ-खुद कुलबुलाने लगती है। फिर टांग के लिए स्पेस खोजना अमेरिका की मजबूरी हो जाती है, नहीं तो टांग उसके फटे में ही प्रवेश करने के लिए बाध्य हो जाएगी। अमेरिका मजबूर है उसे अपनी टांग कहीं न कहीं तो व्यस्त रखनी ही है। नहीं, तो कौन कहेगा अमेरिका भी कोई महाशक्ति है, जिसे अपनी उघड़ी हुई की फिक्र नहीं दूसरों की उधड़ी हुई की चिंता है। अंत में हम वही कहेंगे, जो दो-तीन दिन पहले कहा था। आतंकवादी लंबरदारी के लिए वह खुद दोषी नहीं है। दोष सारा कोलंबस का है, क्या जरूरत थी उसे अमेरिका खोजने की। वह न अमेरिका खोजता, न उसकी टांग किसी अन्य की सीवन उधेड़ती।
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Sunday, May 4, 2008

खाली दिमाग शैतान का घर

आदमी स्वभाव से ही शैतान का सगा भतीजा होता है। उस पर भी खाली दिमाग हो, तो शैतानी ही सूझना स्वाभाविक है। शैतानी भरी हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे खाली दिमाग, शैतानी कर देर-सबेर खुद तो खुद को प्यारे हो जाते हैं, लेकिन दूसरों के लिए मुसीबत भरी सौगात छोड़ जाते हैं।
ऐसे ही एक महानुभाव थे, कोलंबस साहब। शायद घर से भी खाली थे और बेरोजगार भी। घर-बाहर से बेकार हो तो शैतानी के अलावा और सूझेगा भी क्या? बैठे-ठाले जनाब के दिमाग में फितूर उठा,चलो भारत की खोज करें। अब कोई उनसे पूछे, क्यों जनाब क्या भारत किसी मेले ठेले में अपनी मां से बिछुड़ गया था या किसी ने उसका अपहरण कर लिया था, जो चल पड़े उसे खोजने। खोजने चल भी दिए तो यह बताओ कि बेवकूफाना ऐसी जिम्मेदारी जनाब को सौंपी किसने थी? अरे, बे-फिजूल की कवायद!
भारत तो जनाब के हाथ नहीं लगा, मगर अंधे के हाथ बटेर की तरह अमेरिका नाम का एक देश उनके हाथ अवश्य लग गया। बस बन गए तीसमारखां! अब पहले तो कोई उनसे पूछे कि अमेरिका की खोज करने के लिए किस कमबख्त ने तुमसे गुहार की थी। अमेरिका की खोज यदि नहीं भी करते तो कौन 'दिल्ली का सूबा ढल जाता' या दुनिया कौन उसके बिना विकलांग होए जा रही थी। चलो, किसी न किसी तरह तुम्हारी नैया अमेरिका के किनारे लग भी गई थी तो किसने कहा था, शोर मचाने के लिए।
जनाब, तुम तो अमेरिका की खोज कर बन गए तीसमारखां, मगर दुनिया वालों की तो कर दी नींद हराम। हाथ में डंडा लिए अमेरिका अब जबरन अलंबरदार बना फिरता है। कोलंबस साहब! आप यदि न खोजते तो गुमनाम सा अमेरिका एक तरफ पड़ा रहता, दुनिया वालों की नींद हराम न होती।
ऐसे ही एक और सज्जन इतिहास में हुए हैं, उनका नाम है, वास्कोडिगामा। उनकी कारगुजारियों से भी लगता तो यही है कि वे भी थे खाली दिमाग ही। कोलंबस साहब भारत की खोज करने में नाकामयाब रहे, तो फितूरी दिमाग वास्कोडिगामा खोज बैठे भारत को।
सोने की चिड़िया अपने जंगल में अच्छी-खासी फुदकती फिरती थी, 'उरला हलवाई, परला पंसारी' किसी से लेना एक न देना दो। जनाब के फितूर ने दुनिया को भारत की राह दिखला दी। कर दी चिड़िया की नींद हराम। एक तो चिड़िया ऊपर से सोने की! एक-एक कर ताड़ने लगे उस बेचारी को। हो गई बदनियतों की बदनियती की शिकार।
पुर्तगाली, फ्रांसीसी, अंग्रेज न जाने कहां-कहां के उठाई-गिरे चिड़िमार दुनिया भर से आ धमके और लगे चिड़िया के पंख नोच ने। जैसे-तैसे उन्हें भगाया या चिड़िया की दयनीय हालत देख खुद भाग खड़े हुए, मगर जाते-जाते उसके दो टुकड़े कर गए। अब टुकड़ों को उनके चेले नोंच-नोंच खा रहे हैं।
ऐसे ही एक खाली दिमाग शैतान थे जनाब डार्विन। उनकी शैतानी हरकत से तो ऊपर वाला भी तौबा कर बैठा। जनाब डार्विन को जब कुछ नहीं सूझा, तो बोले इंसान बंदर की औलाद है। होंगे, तुम्हारे पुरखे होंगे बंदर! मगर तुम्हें यह अधिकार किसने दे दिया कि सृष्टिं के तमाम इंसानों को बंदर की औलाद बना डालो?
अब जनाब डार्विन साहब से कोई पूछे, क्यों जनाब खुदा की कौन सी बही तुम्हारे हाथ लग गई, जिसे बांच कर तुमने भूतवाणी कर डाली कि इंसान बंदर की औलाद है। अगर-चै खुदा की बही तुम्हारे हाथ लग भी गई और उसमें साफ-साफ लिखा भी था कि इंसान बंदर की औलाद है। मगर-चै एक बात बताओ इस रहस्य को यदि उजागर न करते, तो कौन तुम्हारी भैंस दूध देते-देते लतिया जाती? गोया इतना जरूर था कि रहस्य उजागर न करते तो इंसान में बंदरीय लूट-खसोट की प्रवृति जागृत न हुई होती।
बंदर बांट जैसे वंशानुगत लक्षण तो इंसान में हालांकि पहले ही से मौजूद थे, किंतु जब से इंसान को यह पता चला है कि वह बंदर की औलाद है, उसके चरित्र में बंदराना लक्षणों का इजाफा हो गया!
हां, ऐसा मेरा पक्का विश्वास है। व्यक्ति को जब अपनी वंशावली अथवा वंश-परंपरा का पता चलता है तो उसके अनुरूप वह अपने आपको हनुमान मान ही बैठता है। कभी-कभी अपने पुरखों का मान-सम्मान रखने के लिए भी उसे जबरन पहलवान बनना पड़ता ही है।
अब न कोलंबस साहब इस लोक में हैं, न वास्कोडिगामा और न ही डार्विन साहब। उन्हें होना चाहिए था, खाली दिमाग की शैतानी खोज का कुछ तो मजा उन्हें भी चखना चाहिए था। हम, तो बस यही कहेंगे- खुद, तो मर गए कमबख्त! हमारा खून पीने के लिए अपनी औलाद छोड़ गए!
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Wednesday, April 30, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) –अंतिम

गतांक से आगे...
दृश्य-छह
(मंच पर पुन: छाया प्रकट होती है। फ्लैश लाइट उसी पर फोकस।)
छाया :
बापू कहीं फिर सुबह-सुबह ही न निकल जाएं, इसलिए अगले दिन मैं सूरज निकलने से पहले ही राजघाट पहुंच गया। बापू को प्रणाम किया। बापू उस दिन काफी उद्विग्न नजर आ रहे थे। उन्होंने मुझे समाधि के अंदर नहीं बुलाया, स्वयं ही बाहर आगए।
बापू (सहज भाव से) : चल पुत्र किसी वृक्ष के नीचे खुली हवा में बैठते हैं।
(पेड़ के नीचे बैठ कर बापू कल की कथा सुनाने लगे। कथा अभी आधूरी ही हुई थी)
हवलदार (बट मारते हुए कड़क आवाज में) :
कौन है बे, स्साले, खड़ा हो...!
(बट की मार से मुन्नालाल बिलबिला गया। बापू भी धोती संवरते हुए सावधान की मुद्रा में आगए)
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) :
नहीं-नहीं, कोई ऐसा-वैसा नहीं। यह तो मेरा शिष्य मुन्नालाल है, श्रीमान...। (गले में आया खकार सटकते हुए) मुझ से दो बातें करने आया था।
हवलदार (मूंछों पर हाथ फेरते हुए उसी आवाज में) : अछाऽऽऽ, एक नहीं दो-द्दो। तू कौण है, ब्बे।
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) : मैं-मैंऽऽऽ, जनाब पहचाना नहीं?
हवलदार (व्यंग्य भाव से) : हां, तुझे ना पिछान्ना ...चूक है गई ...माफ करना साब ...गांध्धी के भतिज्जो कू ना पिछान्ना,धत्त तेरे की! (रायफल और पांव एक साथ जमीन पर पटकते हुए) ...चलो सोहरो, थाणें चलों। दरोग्गाजी आप्पों पहचान लेंग्गे।
बापू (विनय भाव से) : नहीं-नहीं जनाब, मैं महात्मा गांधी ही हूँ और यह मेरा शिष्य मुन्नालाल...!
हवलदार (व्यंग्य भाव से) : हां स्साला! इस देस का हर तिज्जा आदमी गांध्धी ही हो वै या फिर गांध्धी का चेल्ला। अर बिचारे असल गांध्धी ए को ना पूच्छे! ( दोनों की कलाई थाम थाने की तरफ ले जाते हुए) एक रात हवालात में काटेग्गा, बस गांध्धीगरदी का सारा भूत उतर जावेग्गा (धक्का देते हुए) आग्गे नू जल्दी-जल्दी पांव बढ़ा।
(दोनों के हाथ थामें हवलदार थाने में प्रवेश करता है)
पहरेदार (व्यंग्य भाव से) : साब, कभी ढंग के आदमियों कू भी पकड़ लाया करो! ...किन्हें पकड़ लाए, इनके बदन पै तो जूं भी बिचारी भूख्खी मरै हैं। (माथे पर हाथ मार कर) आज तो भोनी भी ना हुई, लगै पूरा दिन ही खराब जावेगा!
(पहरेदार की बात सुन हवलदार हँस दिया और दोनों को धकेलते हुए थानेदार के कमरे में प्रवेश कर सलाम ठोका। थानेदार की नोट गिनती ऊंगलियों रुकी)
थानेदार (क्रोध का इजहार करते हुए) :
...अबे ओ भूतनी के किन कंगालों कू पकड़ लाया?
हवलदार (दांत निपोरते हुए) : सऽऽर, दोन्नों को गांध्धी समाधि से पकड़ा है। पेड़ के निच्चे बैठ्ठें साजिस रचरे थे।
थानेदार (ग्लानि भाव से) : ...स्साले! गांध्धीजी की समाधीय नुकसान पौंचाने आए होंग्गे!
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) : नहीं, जनाब नहीं! जनाब ...मैं ही तो...!
हवलदार (मध्य ही में बनावटी हंसी हसते हुए) : ...सऽऽर, ये बूढ़ा अपने को महात्मा गांध्धी ही बतावै!
थानेदार (आसमान की तरफ मुंह उठा जंभाई लेकर खीजते हुए) : अच्छाऽऽऽ, स्सालो पै देस्सी कट्टा धर कै हवालात में डाल दै। ...सुबै देख्खेंगे।
बापू (विनीत भाव से) : जनाब जरूर कोई गलतफहमी हुई है, मैं गांधी ही हूं, मोहन दास वल्द करम चंद गांधी (कुछ देर रुकने के बाद) वही गांधी जिसकी हत्या गोड़से ने की थी, श्रीमान।
थानेदार (हँसते हुए) : कैसे मानलूं ..मिलान करने कू कुछ है तेरे पै?
बापू (पूर्व भाव से) : ...दीवार पर टंगे चित्र से मिलान कर के देखलो, जनाब...!
थानेदार (हंसते हुए) : ...चल, है गिया मिलान! मान लेवें हैं , तू गांध्धी ही सही। पर तुझे किसने सलाह दी, दिवाल सै उतर कै जमीन पै आन्ने की। तै उतरने की हिमाकत की है, तो सजा भी भुगत!
बापू (पूर्व भाव से) : नहीं-नहीं, श्रीमान यह तो अन्याय होगा...।
थानेदार (मुस्कराते हुए) : ...अच्छा! नियाय चहिए, तो कीमत चुका। ...अपना वादा पूरा कर!
बापू (आश्चर्य से) : सरकार कीमत! ...वायदा?
थानेदार (खीजते हुए) : घना भोला न बन। सेतमेत में नियाय ना मिलै ...जे थाना सै, थाना! मुकद्दमा ठोक दिया तो रोज कचैरी के चक्कर काटेगा, वकील कू फीस दे वेगा। सेंत मैं वहां से भी ना छूटै। अर दिकै सुन, पैसा खर्च करकै भी छूटवे की गारंटी ना। (कानून की किताब खोलते हुए) मै कम से कम पैसे लैकर छोड़वे की गारंटी तो लेरा हूं।
बापू (पूर्व भाव से) : जनाब, यह तो रिश्वत है, ...भ्रष्टाचार जनाब!
थानेदार (दीवार पर टंगे चित्र को ओर इशारा करते हुए) : ...देख, तेरा ई फोट्टो है, ना जे।
बापू (चित्र निहारते हुए) : ...हां, जनाब मेरा ही है।
थानेदार : ...फिर तो पंजा भी तेरा ई होग्गा।
बापू : जी जनाब!
थानेदार (बापू की ओर हाथ फैलाते हुए) : ...जी जनाब! तो फिर ला, अपने फोट्टो वाले नोट हाथ पै रख। ...तेरा वादा भी पूरा हो जागा अर दिके, जेब में तेरे नोट रहंगे तो तेरी सकल भी याद रहगी।
बापू (मजबूरी जाहिर करते हुए) : ...मगर जनाब! मैने तो जीते जी भी कभी रुपए-पैसे के हाथ नहीं लगाया। अब तो बात ही अलग है।
थानेदार (धिक्कारते हुए) : या ई तेरी भूल थी। अपने भगतों की तरह तू भी रास्टर सेवा कैस करता तो कोई गौडसे तेरा मडर ना करता। ...मरने के बाद तेरी आतमा निलाम न होत्ती और आज रात हवालात में ना काटनी पड़ती। ...पकड़ा जात्ता तो नोट दे कै छूट जात्ता। अपने भगतों की तरै घोटाल्ले पै घोटाल्ले कर कै भी इमानदार कहलात्ता...! (चेहरे पर व्यंग्य भाव लाते हुए) चल कौ ना! नोट ना हैं तो एक रात तो हवालात मैं रह। उंघह कोई गौडसे मडर तो क्या तुझै घायल भी न कर पावै! ...सेफ रहवेगा! (हवलदार को आवाज लगाते हुए) चलरे, बंद कर दोन्नो को। ...सुबै देखेंगे!
(थानेदार के इशारे पर हवलदार ने दोनों को हवालात में बंद कर दिया)
दृश्य-सात
(सुबह का समय, मंच पर थाने का दृश्य। हवालात में बापू और मुन्नालाल को निहारता थानेदार)
थानेदार (चोंक कर हवालदार की ओर संकेत कर) :
...अबे ओ भूतनी के ये के कर दिया तून्नै, गांध्धी जी को हवालात में डाल दिया। ...ये तो सच्च में ई गांध्धीजी हैं। ...अबे तू नै इतना भी ना दिख्खे। ...आंख्खन पै कतई पट्टी बांध रख्खी के।
हवलदार (गिड़गिड़ाते हुए) : सऽऽऽ र! सर कल बताया तो था। बूढ़ा अपने को गांध्धी बतावै है। ...इब छोड़ दूं, सर।
थानेदार (दांत पीसते हुए) : ऐसे ही बतावैं हैं, के (कुछ सोचने के बाद, मुंह चिड़ाते हुए) इब छोड़ दूं! छोड़वे की चौक्खी सलाह दी! ...चोक्खी सलाह देरा, छोड़ देवें। मरवा दे स्साले! उलटा मुकद्दमा ठोक दिया तो लेने के देने पड़ जावेंगे...। (इधर-उधर देखते हुए) चल एक काम कर भूतनी के दोनों कू वीआईपी रूम में सिफट कर दे, अर निलहाने-धुलाने का इंतजाम कर, नास्ता-पानी करा। मैं अभी आया। ...अर दिके जब तक लौट कै ना आंऊ किसी कू भनक तक ना पड़ै, बाप्पू हवालात मै। ...ना तो बैठ्ठें-बिठाए जान मुसीबत में पड़ जावेग्गी!
(हवलदार दोनों को थाने के अतिथि कक्ष में ले जाता है और बापू से क्षमा मांगते हुए उनकी सेवा-भाव में लग जाता है। घबराया थानेदार दौड़ा-दौड़ा गृहमंत्री जी के आवास पर। गृहमंत्री जनता की शिकायतें सुनने में व्यस्त हैं)
थानेदार (भय की मुद्रा में) :
...जयहिंद जनाब!
गृहमंत्री (उपेक्षा भाव से) : ...चेहरे पर बारह क्यों? ...विजीलेंस का छापा पड़ गया क्या?
थानेदार (रिरयाते हुए) : ...बैठे-बिठाए आफत आगी सरकार! ...इंघह कू तो अवो!
(गृहमंत्री थानेदार के साथ दूसरे कक्ष में चले जाते हैं)
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) :
...बोल, क्या आफत है?
थानेदार (हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए) : ...नौकरी बचालो माई-बाप, गजब ढै गिया, जनाब। ...गलती है गई, गलती।
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : रिश्वत लेते समय तो बाप को पूछते नहीं, फंस जाने पर माँई-बाप याद आते हैं!
थानेदार (पूर्व भाव से) : नहीं, जनाब! ...इस बार रिश्वत का मामला ना है!
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : ...फिर? ...अबे कुछ बकेगा भी या बापू की बकरी की तरह मिम्याता ही रहेगा।
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार वचन दो इस बार बचालोग्गे, नौकरी ना जान दोग्गे। ...बाल-बच्चे बिरान हो जावेंगे, सरकार।
गृहमंत्री (चेहरे पर सख्ती लाते हुए) : अबे बक तो सही किसका फर्जी एनकाऊंटर कर दिया?
थानाध्यक्ष (चेहरे पर घबराहट के भाव लाते हुए) : सरकार वो है ना कमबख्त हवलदार रामसिंग, बाप्पू अर उनके चेल्ले कू पकड़ लाया।
गृहमंत्री (थानाध्यक्ष की नकल उतारते हुए) : अबे कौन बाप्पू, किसका, तेरा के मेरा?...पूरी बात बताना।
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार, वही बाप्पू! ...महात्मा गांध्धी। ...राजघाट तै पकड़ लाया।
गृहमंत्री (घबराहट के भाव से) : अबे, क्या साले, बापू का एनकाऊंटर...?
थानेदार (पूर्व भाव से) : एनकाऊंटर ना सरकार...!
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : ...अबे, फिर?

थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार मेरी आंख पै पट्टी बंधी थी, मै न्नै दोनों कू हवालात मै डाल दिया। ...सरकार गलती है गई... बचालो सरकार।
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : अब कहां हैं, वें?
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार दोन्नो कू हवालात सै रैस्टरूम में सिफट कर दिया।
गृहमंत्री ( होठों पर अंगुली रख कर) : चोंच बंद कर थोड़ी देर बाहर बैठ। ...किसी से कुछ मत बोलना, अपने आप से भी नहीं... समझा... जा बाहर बैठ! (पार्टी अध्यक्ष से फोन पर, हर्ष व्यक्त करते हुए) : ...हैलो, सऽऽऽ र! ...सर, खुशखबरी!
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) : क्याऽऽऽ..?
गृहमंत्री (भावावेश में ) : आपके आदेश का पालन हो गया, सर! ...गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया ..!
अध्यक्ष (आश्चर्य व घबराहट के मिश्रित भाव से) : क्याऽऽऽ! सच...!
गृहमंत्री (विजय भाव से) : ...जी जनाब!
अधक्ष (कृत्रिम क्रोध के साथ) : किसने कहा था, इतनी फुर्ती दिखाने के लिए?
गृहमंत्री (विनय भाव से) : हम तो हुकुम के गुलाम हैं, जनाब। आप हुकुम करें और तामील न हो यह कैसे हो सकता है, सर...!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : चल कोई बात नहीं! ...किंतु ऐसा करना, जिसने गिरफ्तार किया है, उसे तरक्की दे दे देना और देखो...!
गृहमंत्री (मुसकराते हुए) : ...ठीक, सर! ऐसा ही होगा। हवलदार को तरक्की दे दूंगा...!
अध्यक्ष : ...और सुनो! ...थानेदार का नाम राष्ट्रपति पदक के लिए प्रस्तावित कर देना!
गृहमंत्री (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : ...क्या, सर! राष्ट्रपति पदक...!
अध्यक्ष (हँसते हुए) : राष्ट्रपिता की गिरफ्तारी और राष्ट्रपति पदक भी नहीं? तुम नहीं समझोगे! ...अरे भई! .. खेल अभी खत्म थोड़ा ही हुआ है, थानेदार अभी और भी काम लेना है (कुछ देर रुकने के बाए) उसका मुँह भी तो बंद रहना चाहिए, समझे या नहीं!
गृहमंत्री (विनीत भाव से) : समझ गया सर, समझ गया! ...मगर सर, इस गुलाम के बारे में भी...!
अध्यक्ष (मध्य ही में झिड़कते हुए) : ...तुम्हे तो बस अपनी चिंता लगी रहती है। खैर, तुम्हारे बारे में कुछ न कुछ विचार अवश्य करेंगे...!
गृहमंत्री (दांत निकालते हुए) : ...काम तो उपप्रधानमंत्री पद के काबिल किया है, जनाब!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : ठीक है, भाई! प्रधानमंत्री से तुम्हारे नाम की सिफारिश करूंगा! ...और सुनो, ध्यान से सुन, बापू को रिहा मत करना। बापू रिहा हो गया तो सत्ता खतरे में पड़ जाएगी! ...बापू हमारे पूजनीय हैं, उनका ख्याल रखना! ...कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए! ...समझ गए ना!
गृहमंत्री (उत्साह के साथ) : समझ गया जनाब, समझ गया! .. सर बापू तो हमारे भी पूजनीय हैं, पूरा ख्याल रखूंगा। प्रणाम सऽऽऽर!
(गृहमंत्री थानेदार को अंदर बुला कर उसकी पीठ थपथपाते हैं। मगर उसके चेहरे पर घबराहट के भाव अभी भी काबिज हैं)
गृहमंत्री (हर्ष व्यक्त करते हुए) :
दरोगा जी, कमाल कर दिया। तुम्हारा तो मुंह चूमने को मन करता है...!
थानेदार (भय के भाव के साथ) : सर-सर-सर...!
गृहमंत्री (थनाध्यक्ष के चेहरे के भाव पढ़ते हुए) : ...घबराने की जरूरत नहीं है, दरोगा जी। तुमने वास्तव में काबिल-ए-तारीफ काम किया है। हवलदार को तरक्की और तुझे राष्ट्रपति पदक दिलाने की सिफारिश करूंगा। (कुछ विचार करने के बाद) मगर एक काम करना, अगले आदेश तक बापू को रिहा मत करना! ...बापू का हम सम्मान करते हैं, वें सुरक्षित रहने चाहिएं! ...देख उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न हो। खातिर-दारी में भी कोई कसर न रखना। ...चाहे कितना भी पैसा खर्च हो जाए।
थानेदार (आश्चर्य से गृहमंत्री की तरफ देखते हुए) : जी ईईई, जी सर!
गृहमंत्री (तसल्ली देते हुए) : ...बकरी की तरह मिमयाने की आदत गई नहीं! ...ध्यान से सुन, बापू को रिहा मत करना! बापू रिहा हो गया तो हमारी (बात बदलते हुए) तेरा राष्ट्रपति पदक खतरे में पड़ जाएगा ...और कुछ भी हो सकता है!
थानेदार (असमंजस के भाव से) : जी ईईई, जी सर!
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : बावले, घबरा क्यों रहा है! बापू कैद में हैं ना, कैद ही में रहने दे। इससे सुरक्षित जगह उनके लिए और कौन सी होगी! ...अब तू जा, बापू की सेवा में लग जा। अर देख, किसी को कानों-कान खबर नहीं लगनी चाहिए कि बापू कैद में हैं। ...सबूत कोई हो तो खंत्म कर देना।
थानेदार (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...मगर सर बापू का शिष्य भी तो उनके साथ है। ...उसका क्या करूं?
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : ...पुलिस का दरोगा है या म्यूनिसपैल्टी का! (एक क्षण रुकने के बाद) आजकल बदमाशों के एनकाउंटर नहीं हो रहे? कानून-व्यवस्था काफी खराब हाती जो रही है! (थानेदार की आंखों में आंखें डालकर) अच्छा, जा अब तू जा, देख बापू की सेवा में कोई कमी न रह जाए!
(थानेदार ने गृहमंत्री को सलाम ठोका और सीधा थाने पहुंचा, मंच पर पुन: छाया प्रकट। लाइट उस पर फोकस कर दी गई)
छाया (आहत स्वर में) :
...और आधी रात के बाद मुझे बापू से अलग कर राजघाट यमुना के किनारे झाड़ियों के पास ले जाया गया। वहां जाकर मुझ से कहा, चल तुझे रिहा करते हैं, ...जा भाग। लंबे-लंबे डिग भरते हुए मैं राजघाट से बाहर जाने लगा तभी मेरी पीठ से कई गोलियां टकराई और मैं वहीं गिर पड़ा। ...सुबह के समाचार पत्रों की सुर्खियों में से एक सुर्खी थी, 'अंतरराजीय एक गिरोह के साथ मुठभेड़ में दो सिपाही मामूली रूप से घायल, एक बदमाश वहीं ढेर और उसके दो साथी भागने में सफल...।'
(सिसकी भरते हुए छाया अंतरध्यान हो जाती है और नेपथ्य से गृहमंत्री जी का भाषण सुनाई पड़ता है)
गृहमंत्री (गंभीर आवाज में) :
...हमारी सरकार ने भ्रष्टाचार दूर करने का संकल्प लिया है, सामाजिक न्याय प्रदान करना हमारा उद्देश्य है। सामाजिक व आर्थिक समानता लाने के लिए हम कटिबद्ध हैं, क्योंकि हमने भारत को बापू के सपनों का देश बनाना है। उनके सपने साकार करने हैं...। क्योंकि बापू हमारे लिए पूजनीय हैं, आज भी प्रासंगिक हैं!

संपर्क- 9868113044
(प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नईदिल्‍ली)