Friday, November 16, 2007

पैकेज संस्कृति का युग है जी

हम ने तनख्वाह की रकम पत्‍‌नी के हाथ पर रखी, मगर इस बार पत्‍‌नी के चेहरे पर तनख्वाई झलक सफाचट नजर आई। आज उनके चेहरे पर परंपरागत प्रणय भाव का अभाव था। तनख्वाह वाले दिन उनके चेहरे पर अभाव के ऐसे भाव पहले कभी देखने में नहीं आए। तनख्वाह दिवस पर तो वे शरबत में नहाई रसभरी की माफिक नजर आती रही हैं। चेहरे पर ऐसे ही रसीले भाव देखकर हमारा पौत्र अक्सर कह देता है, 'दादीमां आज तो सैक्सी-सैक्सी सी लग रही हो।'
आशा के विपरीत नाक-भौ सिकोड़ते हुए पत्‍‌नी बोली, 'अब ऐसे नहीं चलेगा जी। महीने में पूरे तीस दिन लंच बांध कर ले जाते हो, तनख्वाह अट्ठाइस दिन की ही लाते हो। सुनो जी! दस हजार में तो बस डिनर, ब्रेकफास्ट ही मिलेगा। लंच का इंतजाम कहीं और कर लेना या फास्ट रख लेना। हथेली पर पंद्रह हजार रखोगे तभी लंच, डिनर दोनों मिलेंगे। ब्रेक फास्ट भी चाहिए तो कपड़े धुले-धुलाए नहीं मिलेंगे। कपड़े धुले-धुलाए पहनने हैं तो ब्रेक फास्ट की छुट्टी। सभी सुविधाएं चाहिए तो बीस हजार रुपये महीने देने होंगे।'
तनख्वाह के दिन भी पत्‍‌नी का तनखईया व्यवहार देख हमारे तनख्वाही गौरव एक ही झटके में चूर-चूर होता दिखलाई दिया। हम सोचने लगे, दफ्तर से घर के लिए चले थे, होटल कैसे पहुंच गए?
हमने साहस जुटाया और शंका समाधान के लिए श्रीमती जी से पूछा, 'यह क्या जी, यह सौदा कैसा जी?' श्रीमती जी फरमाई, 'सच्चा सौदा है, जी! पैकेज संस्कृति का युग है, जी। यह हमारा घरेलू पैकेज है, जी।' हमने माथा ठोका और मन ही मन सोचा, 'यह तो गजब हो गया जी, पैकेज संस्कृति की हवा के झोंके होटल से घर तक पहुंच गए जी।'
कल ही की तो बात है, अस्पताल के पैकेज को लेकर जब मास्टर जी अपना मुकद्दर कोस रहे थे। दरअसल मस्टराइन की डयू डेट नजदीक थी। मास्टर जी जच्चा-बच्चा अस्पताल के चक्कर लगा रहे थे, पैकेज का जोड़-भाग लगा रहे थे। सिंगल डिलवरी का पैकेज दस हजार रुपए डबल का बीस हजार, मगर डबल पर 25 प्रतिशत की छूट मिलेगी। अर्थात डबल डिलवरी पर कुल 15 हजार रुपये का खर्चा आएगा। जी ने घटा-जोड़ लगाया, दिमाग में बिजली से कौंधी, '15 हजार में क्यों न दो प्राप्त कर लूं! पैदावार के मामले में ईश्वर हम पर पहले ही से मेहरबान है, साल भर बाद फिर अस्पताल के चक्कर लगाने होंगे, फिर दस हजार खर्च करने पड़ेंगे। अच्छा है, एक बार में ही किस्सा निपटा लूं। '
मास्टर जी ने 25 प्रतिशत की छूट का लाभ उठाते हुए अस्पताल में 15 हजार रुपए जमा कर दिए। मगर ऊपर वाले ने साथ नहीं दिया, बदकिस्मती से मस्टराइन ने एक ही बच्चा जना।
डाक्टर पांच हजार रुपये वापस करने लगा। मास्टर जी को बुरा लगा। वे बोले, 'रुपये वापस नहीं चाहिए। पांच हजार का घाटा क्यों उठाऊं। अग्रीमंट डबल डिलवरी के पैकेज का हुआ था। पेमेंट भी उसी हिसाब से किया था। पांच हजार अपने पास रख, हजार-पांच सौ और चाहिए तो बोल, मगर पैकेज के हिसाब से बच्चा एक नहीं दो लूंगा।'
डाक्टर परेशान था। मास्टर को पैकेज का अर्थ समझाया और फिर बताया, 'डिलीवरी सिंगल हो या डबल, इसमें डाक्टर का कोई रोल नहीं है। ऊपर वाले की कृपा है, तुम्हारा मुकद्दर।'
अस्पताल में यदि पैकेज न होता तो बैठे-बिठाए मास्टर को नकद पांच हजार का घाटा न होता। मास्टर जी तभी से कभी अपने मुकद्दर को तो कभी अस्पताल के पैकेज को कोस रहें हैं। कैसी अजीब बात है, घर में पैकेज, होटल में पैकेज, हास्पिटल में पैकेज। पैकेज संस्कृति न हुई सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हो गया। जहां देखो उसी की रामधुन।
21 वी सदी अर्थ और संस्कृति का पुनर्जागरण काल है। तरह-तरह के घोटाले व पैकेज स्कीम ने अर्थ व संस्कृति के क्षेत्र में इस सदी ने नए आयाम स्थापित किए हैं, क्रांतिकारी परिवर्तन किए हैं। अब तो लगता है, 22 वी सदी के आते-आते दोनों क्षेत्रों में आमूलचूल परिवर्तन का बिगुल बज जाएगा और तब पैकेज संस्कृति राजनीति, घर, होटल व हास्पिटल से निकल कर मरघट तक पहुंच जाएगी। तब मुन्नालाल की यही कामना होगी काश पिताश्री व माताश्री दोनों की आत्माएं एक साथ ही परमात्मा में लीन हो जाए और अंतिम संस्कार पैकेज का लाभ मिल जाए।
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Thursday, November 15, 2007

उधार की जिंदगी जीता इनसान


सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी इनसान उधार की जिंदगी जी रहा है। जब कभी उसके जीवन-परिचय के पन्ने उलटता-पलटता हूं। मन वेदना से भर जाता है। सिर धुनने लगता हूं। उसके पास अपना कुछ भी तो नहीं है, न चाल, न चेहरा और न ही चरित्र! इनसान उल्लू का पठ्ठा हो सकता है। सूअर का बच्चा हो सकता है। गधे का बच्चा हो सकता है और बंदर की औलाद भी! न जाने क्यों इनसान आज तक भी इनसान का बच्चा नहीं बन पाया। बस यही सोच-सोच कर मैं शहर के अंदेशे में काजी जी की तरह दुबला हुए जा रहा हूं।
वैसे उधार का खाने वाले ही सफल कह लाए जाते हैं, परंतु सफलता का यह पैमाना इनसानों के मध्य ही प्रचलित है। सृष्टिं के अन्य प्राणियों के लिए सफलता-असफलता की कसौटी नहीं। जैसे कोई चोर कुछ विशिष्ट सद्गुणों के कारण चोरों के बीच सफल-असफल हो सकता है, किंतु वे ही गुण आम इनसान के बीच उसे सफलता अथवा असफल की डिग्री नहीं दिलाते हैं।
अपनी प्रेयसी को जब-कभी सर्वागीण निहारता हूं, तो उसकी संपूर्ण सुंदरता किसी महाजन के यहां गिरवी सी रखी नजर आती है। वह कोकिला कण्ठ है। उसका चेहरा चांद सा है। आंखें मीन के समान हैं। नाक तोते जैसी, होंठ गुलाब-पुष्प की पंखुड़ी के समान और केश काली घटाओ का अहसास कराती हैं और गरदन सुराही का आभास कराती है। मद मस्त हथनी का सा यौवन लिए जब वह ठुमक-ठुमक कर चलती है, तो कभी बिल्ली की चाल (कैट वॉक), तो कभी हिरनी की चाल के समान दिव्य आनंद की अनुभूति होती है। चपल-चंचला मेरी प्रेयसी कभी जलपरी सी लगती है, तो कभी आकाश-परी के समान।
जब कभी मैं इश्क की चाशनी से बाहर निकलता हूं, तो सोचता हूं- हे, अप्रतिम सुंदरी! तुम आनंद प्रदायनी हो, परमानंदनी हो, तुम दिव्य हो! ..परंतु हे, परमानंदनी, हे दिव्यानंदनी! तुम सृष्टिं की सभी महिलाओं में सुंदरतम् हो, किंतु यह क्या? तुम्हारा विराट व्यक्तित्व सृष्टिं के विभिन्न जीव-जंतु और मृत पिण्डों के अलंकार व उपमाओं से लदा है। तुम्हारे अंदर क्या कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसका वर्णन मैं किसी इनसानी उपमा के आधार पर कर सकूं? हे, परम प्रिय! तुम यथार्थ स्वरूप में कब आओगी, तुम इनसान कब कह लाओगी?
समस्या प्रेयसी तक ही सीमित नहीं है। हमारे मित्र भी किसी की बेटी-बहू से कम नहीं है, क्योंकि उनके जीवन-परिचय में भी इनसानी सद्गुण एक भी नहीं है! हाथी की सूंड़ सी बलिष्ठ भुजाओं वाले मेरे मित्र, शेर के समान सीना लिए घूमते हैं। जब वे बोलते हैं, तो सिंह-गर्जन का अहसास होता है। सूर्य के तेज से चमकते मुखमण्डल पर धनुष कमान से झुकी भंवें अर्जुन के गाण्डीव का अहसास कराती हैं। उनमें चीते की सी चपलता है। जब हाथी की मदमस्त चाल से वे चलते हैं, तो धरती भी हिल जाती है। उनके व्यक्तित्व में वे सभी जानवरीय सद्गुण विद्यमान हैं, जिनके कारण कोई इनसान महान कहलाया जाता है। मसलन स्वान निद्रा, बको ध्यानम् और काग चेष्टा! इनसान और इनसानी व्यक्तित्व से उनका भी दूर-दूर का वास्ता नहीं है।
कहते हैं, आदिकाल में इनसान इनसानी सद्गुणों से ओतप्रोत था। मगर जब से उसके अंदर सभ्यता ने घुसपैठ की है, इनसानी गुणों का त्याग कर उसने सृष्टिं के अन्य प्राणियों की उपमाएं ओढ़ ली हैं और अब वह इनसान कम जीव-जंतुओं का रिमिक्स बन गया है। मैं उस दिन के इंतजार में हूं, जब इनसान कथित सभ्यता के आवरण से बाहर आएगा और इनसान का बच्चा कह लाएगा!
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Wednesday, November 14, 2007

शहर में बंदर, चुनाव आ गए क्या?


चचा मुन्नालाल ने भड़भड़ाते हुए हमारे घर प्रवेश किया। चचा झक कुर्ता, पायजामा और गांधी टोपी में सुसज्जित थे। चचा की चाल लालूई, चेहरा कराती और चरित्र राहुली। खिचड़ी सरकार साक्षात मूर्ति! जिस घनत्व के साथ वे भड़भड़ा कर घर में घुसे, उनकी शक्ल-ओ सूरत देखकर उसी घनत्व में हम अचकचाए। चचा चुनाव के मौसम में ही इस बहुरूपिया रूप में प्रकट होते हैं। अत: हम सोचने लगे शरद ऋतु में यह बसंत बहार कैसी? हमने चचा से पूछा- क्यों, चुनाव आ गए क्या? चचा बोले- भतीजे हम यही बताने तो आए हैं।
चचा का जवाब सुनकर हमारी अचकचाहट वृद्धि को प्राप्त हुई। मन ही मन हम बोले- चुनाव? वामपंथी-लाली तो काफी हल्की हुई है, फिर अचानक चुनाव कैसे? दिल्ली के तो आसपास भी चुनाव की आहट नहीं! फिर चचा और चुनाव?
हमने पुन: अपने जहन पर जोर डाला और अनुमान लगाया कि कहीं चचा की सूरत-शीरत पाकिस्तान-राजनीति की समीक्षा तो नहीं कर रही है? हम अनुमान के आधार पर बोले- अच्छा-अच्छा मुशर्रफ साहब ने कपड़े पहनने का जो प्रयास किया है..!
हम अपना वक्तव्य पूरा भी न कर पाए थे कि चचा ने हमें बीच ही में लपक लिया- तुम्हारे भी सामान्य-ज्ञान का कमाल है, भतीजे! मुशर्रफ अभी तक वर्दी धारण किए हुए हैं और तुम दुबारा कपड़े पहना रहे हो। हमने चचा को समझाया- चचाजानी! पकिस्तान का अवाम वर्दी उतारने पर जोर दे रहा था। पाक दामन मुशर्रफ साहब ने कहा छोड़ो वर्दी का राग हम कपड़े ही उतार देते हैं। उन्होंने कपड़े अपने उतारे, आवाम को लगा मुशर्रफ साहब ने उनके उतार दिए। अवाम इमरजेंसी-इमरजेंसी चिल्लाने लगा। ताऊ बुश ने आंखें दिखाई, मुशर्रफ भाई ने फौरन कपड़े पहनने का ऐलान कर दिया। मगर चचा! चुनाव-चर्चा पाकिस्तान में हो रही है और रंग हिंदुस्तान की गिरगिट बदल रही है, भला क्यों?
चचा को हमारी गिरगिटिया समीक्षा कुछ तीखी-तीखी सी लगी। उन्होंने करेले सा कड़वा मुँह बनाया और बोले- भतीजे! पॉलटिक्स के ज्ञान में तुम कतई मनमोहन सिंह हो। अरे भतीजे पाकिस्तान की पॉलटिक्स से हमारा क्या मतलब! हम तो हिंदुस्तान की बात कर रहे हैं, राजधानी की बात कर रहे हैं।
हमारा सिर फिर चकराया। हम बोले- चचा तुम्हारी पॉलटिक्स हमारे जहन से बाहर की बात है। हिंदुस्तान में अभी चुनाव की आहट तक नहीं सुनाई दे रही है और तुम चुनाव चर्चा में मशगूल! अच्छा, चचा तुम्हीं बताओ, यह चुनाव बे-मौसम तुम्हारे जहन में कहां से आ टपका?
चचा ने कद्दू सा मुंह फुलाया और फिर जहानती अंदाज में बोले- भतीजे शहर की गलियों में बंदर नहीं दिखलाई दे रहे हैं, क्या? अभी किसी बंदर से साबि़का नहीं हुआ है, शायद? हमने पूछा- मगर शहर की गलियों में बंदर और चुनाव! इन दोनों के बीच कौन सी रिश्तेदारी है? थोड़ा खुल कर बताओ, चचा!
भतीजे! बंदर कल प्रियंका जी के बंगले तक भी पहुंच गए। फिर भी तुम्हें नहीं लगता चुनाव का मौसम आ गया है? हम झड़बेरी से झुंझलाए और फिर आत्मसमर्पण भाव से बोले- चचाजानी साफ-साफ कहो ना, क्यों परमाणु समझौते की तरह मामले को उलझाए जा रहे हो?
वामपंथी मुस्कराहट के साथ चचा बोले- इतना भी नहीं समझते भतीजे, बंदरों ने जन-संपर्क शुरू कर दिया है। आलाकमान की चौखट पर दस्तक देनी शुरू कर दी है। इतना कह कर चचा ने हमारे चेहरे की ओर देखा। हमारे चेहरे पर उन्होंने पूरे बारह बजे पाए। वे मुस्कराए और बोले- सुनो भतीजे! बंदरों के पास इतनी फुर्सत कहां कि वे बे-मतलब शहर गली-गली चक्कर लगाएं, जन-संपर्क कायम करें। जब-जब चुनाव आते हैं, तभी-तभी बंदर संसद के गलियारों से निकल कर शहर की गलियों के चक्कर लगाते हैं! अत: हमारी मानों देहली की देहरी पर चुनावी मौसम दस्तक दे रहा है। राजनीति के क्षितिज पर चुनावी बादल छाने लगे हैं। संसद की दीवार फांद कर बंदर शहर में आने लगे हैं!
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Monday, November 12, 2007

दोस्त दुनियां में नहीं दाग से बेहतर

पानी और दाग, इन दोनों ने अपने आप को राष्ट्रीय समस्या के रूप में प्रस्तुत किया है। देश के कर्णधारों के समक्ष ये दोनों समस्याएं प्रधान है और शेष सभी गौण। यह भी कहा जा सकता है कि शेष सभी समस्याएं स्वयं समाप्त हो गई हैं। स्वाभाविक भी है, शहर में जब कोई बड़ा दादा पैदा हो जाता है तो बाकी दादा दुम दबाकर इधर-उधर हो जाते हैं। दोनों समस्याओं का साथ-साथ अवतरित होना महज संयोग नहीं है। चोली-दामन के संबंध की परंपरा में दोनों के बीच उसी तरह का पवित्र व अटूट गठजोड़ है, जिस तरह चोर-सिपाही, अपराध-राजनीति और नेता-दलाल के बीच।
आप सोच रहें होंगे कि चोर-सिपाही, अपराध-राजनीति और नेता दलाल की बात तो उचित है, मगर पानी संकट से दाग का क्या संबंध? है, अवश्य है! पवित्र इस गठजोड़ को आप इस प्रकार समझिए, जब पोखर का पानी उतरने लगता है तो तलहटी में जमी गाद चमकने लगती है। इसी प्रकार जब आंखों का पानी सूखने लगे और चेहरे का पानी उतरने लगे तो क्या होगा? वही होगा जो होता आया है और वही हम कह रहे हैं। अर्थात पानी उतरेगा तो दाग उभरेगा।
रहीम दास के मोती, मानस व चून नहीं हैं दाग, जो पानी उतरने पर उबरना बंद कर दे। दाग उभरता ही तब है, जब पानी उतरता है। यहां हम रहीम के 'मानस' की बात नहीं कर रहें हैं, क्योंकि उससे हम सहमत नहीं हैं। हमारा मानना है कि दाग की तरह कोई भी मानस तभी उभरता है, जब उसका पानी उतर जाता है। इस सूत्र के माध्यम से मानस व दाग के पारस्परिक संबंधों की भी व्याख्या की जा सकती है और कहा जा सकता है कि मानस के साथ दाग के बीच भी चोली दामन का संबंध है। अत: पानी और दाग के बीच प्रगाढ़ संबंध स्वत: सिद्ध है।
राष्ट्र की मूल समस्या नेताओं पर दाग की है अर्थात दागी नेताओं से जुड़ी है। यही वह समस्या है, जिसके कारण लोकतंत्र खतरे में पड़ता नजर आ रहा है। मगर समस्याओं की हमारी सूची में यह कोई समस्या ही नहीं है। इस कहावत पर जरा गौर कीजिए, 'वह मर्द ही क्या, जिसके ऊपर चार लांछन न हों।' सही बात है मर्द होगा तो लांछन होंगे ही। यह कहावत नेताओं पर भी शत-प्रतिशत लागू होती है, मगर कुछ अलग तरह से, 'वह नेता ही क्या जिसके कुर्ते पर दाग न हो।' इस नीति वाक्य को इस प्रकार भी कहा जा सकता है, 'नेता है तो दाग भी होगा ही।' दाग बगैर नेता की कल्पना करना उसी प्रकार गैरवाजिब है जिस तरह कर झूठखोरी के बिना व्यापार और घूसखोरी के बिना फाइल का खिसकना। इन सभी के बीच अर्थशास्त्रीय संबंध है।
नेता और दाग के बीच अटूट रिश्ता होने के कारण ही कभी-कभी तो यह सोचने पर मजबूर होना पड़ता है कि नेता में दाग है या नेता ही दाग है। यह ''दाग बीच नेता है कि नेता बीच दाग है। दाग ही नेता है कि नेता ही दाग है॥'' की स्थिति है। चूंकि नेता व दाग के बीच प्रेम संबंध हैं, अत: राजनीति से दाग का सीधा संबंध है। आप राजनीति करें और बेदाग रह जाएं, ऐसा संभव नहीं। अब आप ही बताइए, काजल की कोठरी में रह कर बेदाग रहना क्या संभव है? कोयले की दलाली करोगे तो मुंह न सही हाथ तो काले होंगे ही।
राजनीति के दाग इतने गहरे होते हैं कि छुटाए नहीं छूटते। ''कितना कमबख्त है यह दाग, बहुत छुड़ाया मगर छूट न सका।'' पीछा छुड़ाने की बात छोड़िए, जितना छुड़ाओगे उतना ही गहरा होता जाएगा-
''हजरत-ए-दाग जहां बैठ गए, बैठ गए
और होंगे तेरी महफिल से उभरने वाले।''
लानत भेजिए ऐसी राजनीति करने वालों पर, जिनके कुर्ते बेदाग हैं। दरअसल राजनीति एक राष्ट्र स्तरीय हमाम है और हमाम में सब नंगे हैं। अब सवाल यह पैदा होता है कि हमाम में जब सभी नंगे हैं, अर्थात राजनीति में जब सभी दागदार हैं, तो फिर यह शोर क्यों? सवाल का जवाब है, 'जब आदमी पानी में डूबा हो, तो उसे अपने दाग नहीं दिखते हैं।' सिर पर घड़ो पानी पड़ा हो और आप पानी-पानी हो गए हो, फिर कैसे दिखेंगे अपने दाग। मगर ऐसे लोगों की हकीकत कुछ इस तरह है-
''वो जमाना भी हमें याद है तुम कहते थे,
दोस्त दुनियां में नहीं दाग से बेहतर।''
अंत में हम तो बस यही कहेंगे-
''कोई मिटाता है, दाग-ए-दिल, ऐ दाग
जलेगा यह चिराग महशर तक।''

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Saturday, November 10, 2007

लक्ष्मीजी के संग साक्षात्कार



मुन्नालाल के सपने में रात लक्ष्मीजी आई। लक्ष्मीजी ने जागृत अवस्था में मुन्नालाल पर कभी कृपा नहीं की, हमेशा परहेज ही रखा। खैर, सपने में ही सही, मगर आई तो सही। लक्ष्मीजी का आगमन हुआ, चित्त से चिंता का बहिर्गमन हुआ। मन मंदिर के सभी वाद्य यंत्र बज उठे। उसका हृदय ग्लैड-ग्लैड हुआ। उस लगा जैसे उसके भाग्य का छप्पर भी आज फट गया। बिल्ली के ही नहीं आज उसके भाग्य से भी छीका टूट गया। हालांकि आजकल ऐसी घटनाएं आम हैं। लिहाजा भाग्य के सहारे जीवनयापन करने वाली बिल्लियां भी अब बुद्धिजीवी-कर्मयोगी कहलाए जाने लगी हैं। आशा के विपरीत स्वप्न देख मुन्नालाल आश्चर्यचकित हुआ, गदगद होना स्वाभाविक था।
भावविभोर वह लक्ष्मीजी के सम्मान में चरणागत् हो गया। भक्ति-भाव देख लक्ष्मीजी भी प्रसन्न भई और बोली पुत्र मांगों क्या चाहिए। लक्ष्मीजी के कृपा वचन सुन मुन्नालाल का पत्रकार मन जागा और बोला, 'मां! साक्षात्कार चाहिए।' लक्ष्मीजी ने कहा, कमबख्त! मन ही मन मुस्कराई और सोचने लगी उल्लू को तो बाहर खड़ा किया था, अंदर कैसे आ गया? लक्ष्मीजी बोली- ठीक पुत्र, जैसी तुम्हारी इच्छा।
लक्ष्मीजी के साथ हमारे संवाददाता मुन्नालाल की बातचीत के प्रमुख अंश प्रस्तुत हैं।
- 'तमसो मा ज्यातिर्गमय' भक्त अंधकार से उजाले की तरफ जाने के लिए प्रार्थना करते हैं। मगर आप स्वयं रात्रि में ही गमन करती हैं। ऐसा क्यों?
ऐसी प्रार्थना मुझसे नहीं सरस्वती से की गई है। मेरे भक्त तो मुझे अंधकार में ही बुलाते हैं, प्रकाश में नहीं।
-आपके भक्त आपको अंधकार में ही क्यों बुलाते हैं?
क्योंकि सृष्टिं के सभी पुण्य कार्य अंधकार में ही संपन्न होते हैं।
आपकी पूजा अमावस्या की रात में ही होने का करण भी क्या यही है?
हां! यही है। अन्य कोई सवाल करो।
-क्या आपने कभी अपने भक्त-पुत्रों को समझाया नहीं कि अंधकार विनाश का और प्रकाश उन्नति का प्रतीक है?
आपने एक ही प्रश्न में दो प्रश्न कर डाले! मगर आपका पहला प्रश्न मिथ्या है। मेरे भक्त पुत्र नहीं पति कह लाए जाते हैं। पुत्र तो सरस्वती के होते हैं। जहां तक दूसरे प्रश्न का सवाल है, सरस्वती पुत्रों के लिए ही प्रकाश उन्नति का प्रतीक है। लक्ष्मी-पतियों के लिए तो अंधकार ही प्रगति-पथ प्रशस्त करता है।
-प्राय: आप एक ही स्वरूप के दर्शन होते हैं। क्या अन्य देवी-देवताओं के समान आपके अनेक रूप नहीं हैं?
स्वरूप तो मेरे भी अनेक हैं, लेकिन पृथ्वी लोक में मेरे दो रूप 'श्याम और श्वेत' ही प्रसिद्ध हैं। उनमें भी सर्वाधिक पूजा श्याम रूप की होती है। सांसरिक जीवों की धारणा है कि लक्ष्मी का केवल श्याम स्वरूप ही कल्याणकारी है।
-आपको चंचला क्यों कहा जाता है?
क्योंकि मेरे स्वामी अनेक हैं। अब तो सरस्वती पुत्र भी मेरे स्वामी बनने की कामना करने लगे हैं।
‘-कहा जाता है कि विष्णु भगवान के साथ गरुड़ पर सवार हो कर आपका आगमन कल्याणकारी है और रात्रि काल में जब आप उल्लू पर सवार हो कर अकेले आती हैं तो अशुभ होता है। क्या यह सत्य है?
यह पुरातन काल की बात है। अब परंपराएं बदल रही हैं, स्वभाव बदल रहें हैं और स्वभाव के अनुरूप मूल्य परिवर्तित हो रहे हैं। बदलते मूल्यों के इस युग में उल्लू पर सवार हो कर अकेले गमन करना ही भक्तों के लिए हितकारी है।
-उल्लू आपका प्रिय वाहन है। आपके सानिध्य में सर्वाधिक रहता है, फिर भी वह 'उल्लू' ऐसा क्यों?
क्योंकि वह मेरे प्रति आसक्त नहीं है। मेरा उपभोग नहीं करता, इसलिए आज भी उल्लू है। बिलकुल तुम्हारी तरह। तुम्हें मेरा वरण करना चाहिए था, मगर तुम साक्षात्कार में ही संतुष्ट हो गए!
-क्या 'उल्लू' मनुष्य योनि में भी पाए जाते हैं?
हां, मनुष्य योनि में दो प्रकार के उल्लू पाए जाते हैं। एक वे जो मुझे सिर पर तो लादे रहते हैं, मगर उपभोग नहीं करते। दूसरे वे जो मुझे अपने आसपास भी देखना पसंद नहीं करते, अपरिग्रह उनका आदर्श है। दोनों ही प्रकार के प्राणी अव्यवहारिक हैं। अत: मुन्नालाल यदि जीवन सफल बनाना है तो सरस्वती के साथ-साथ मेरा भी चिंतन कर। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय' के स्थान पर 'ज्योतिर्मा तमसोगमय' का जाप कर।

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Friday, November 9, 2007

दीपावली की ढेर सारी शुभकामनाएं


ज्योतिपर्व दीपावली पर मुन्नालाल की ओर से आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं, बिंदास शुभकामनाएं। प्रथम और विशेष शुभकामनाएं उन रहनुमाओं को जिन्होंने दिए की रोशनी भी महंगी की है। अपना घर जगमग कर, हमें अंधेरों से दोस्ती करने की नसीहत दी है। उन्हें बधाई, उन्‍हें उनके त्याग के लिए बधाई! दूसरी बधाई उन मिलावटखोर महानुभावों को जिन्‍होंने सिंथेटिक दूध का आविष्‍कार कर, हमें नश्‍वर शरीर का बोध कराया है। आदमी को मृत्‍युलोक मुक्‍त कर, स्‍वर्ग का रास्‍ता दिखाया है।
बधाई बिंदास संस्कृति के वाहकों को भी। नई संस्कृति के जन्मदाताओं को, प्रचारकों को। यह उनके अथक प्रयास और विश्वास का ही परिणाम है कि बच्चों के आत्मविश्वास में वृद्धि हो रही है, हीनभावना का क्षय हो रहा है। सौंदर्य-बोध वृद्धि को प्राप्त हो रहा है! बच्चे बिंदास बोल रहे हैं, कंडोम-कंडोम खेल रहे हैं। सेक्सी-सेक्सी खेल रहे हैं, सेक्सी पहन रहे हैं, सेक्सी खा रहे हैं। समूचे वातावरण को सेक्सी-सेक्सी कर रह हैं।
शुभकामनाएं ऐसे धर्माचार्यो के लिए भी, जिन्होंने 'धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष' पुरुषार्थ-चतुष्टय की नए संदर्भ में व्याख्या की है। धर्म मार्ग भी अर्थ की ओर जाता है, इस नए सिद्धांत का प्रतिपादन किया। धर्म को अर्थ से जोड़ा और अर्थ को काम से। जिसके पास अर्थ है, काम है, मोक्ष उसे स्वमेव प्राप्त हो जाता है। शुभकामनाएं उन महान संतों को जिन्होंने राजनीति में धर्म के साथ-साथ अर्थ और काम का भी प्रवेश दिला कर उसे संपूर्णता प्रदान की। ऐसे ऋषियों को मुन्नालाल का शत्-शत् प्रणाम।
शुभकामना राष्ट्र के उन कर्णधारों को भी जिन्होंने धर्माचार्यो के वचन जीवन में उतारे और राजनीति का नवीन संस्करण प्रस्तुत किया। राजनीति को आर्थिक आधार प्रदान किया, उसका सेक्सिकरण किया। सेक्स-सेंस को नई ऊंचाईयाँ प्रदान की। सत्ता, सेक्स और अपराध तीनों के अंत:संबंध जनता के सामने प्रस्तुत किए। पौरुष की नई गाथा लिखी। दुर्योधन, दु:शासन प्रवृत्ति का विकास किया। द्रौपदी चीरहरण को नए आयाम दिए।
शत्-शत् नमन और विशेष शुभकामनाएं उन कामिनियों को भी जिन्होंने चीर की पीर को समझा और कमनीय काया को चीर के बोझ से कुछ तो मुक्त किया। न चीर होगा, न चीरहरण की त्रासदी और न चीर की पीर होगी! फिर न किसी दु:शासन और दुर्योधन पर चीर हरण का आरोप लगेगा। अपना पानी उतार पारदर्शिता सिद्धांत को सींचने वाली ऐसे पारदर्शी बालाएं, धन्य हैं! चाल- चरित्र और चेहरे में समानता का इससे उत्तम उदाहरण और क्या होगा? ये सभी महान विभूतियां बिंदास संस्कृति के प्रकाश स्तंभ हैं। सभी को मुन्नालाल कोटि-कोटि नमन करता है।
अंतिम शुभकामना उन भद्रजनों को जो भीष्म पितामह की परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं। धर्म के गीत गाते हैं, किंतु चीरहरण के समय शीश झुका लेते हैं। लज्जा की प्रतिज्ञा से प्रतिज्ञाबद्ध हैं। संपूर्ण निष्ठा के साथ प्रतिज्ञा का पालन कर रहे हैं। धर्म उनका जीवन है, आदर्श है, किंतु अवसर जब धर्म और अधर्म के मध्य संघर्ष का आता है, तो सेनानायक पद अधर्म पक्ष का स्वीकारते हैं। वचन से धर्म, का और कर्म से अधर्म का निर्वाह करने वाले ऐसे भद्रजन, धन्य हैं।
राष्ट्र के लिए समर्पित जनता को कैसी शुभकामना, कैसा संदेश? बस, मुन्नालाल यही कह सकता है, अर्जुन की तरह गाण्डीव का बोझ कंधों पर उठाए रखना। भील गोपियां लूटते रहे, बस तुम देखते रहना। बृहन्नला का अभिनय करते रहना।
संपर्क : 9868113044

Thursday, November 8, 2007

प्रकाश से अंधकार की ओर ले चल, माँ!

दुनिया-जहान के सभी पुण्य कार्य अंधेरे में संपन्न किए जाते हैं। दिन के उजाले में नहीं! लक्ष्मी भी अमावस्या की अंधेरी रात में विचरण करती है। पूर्णिमा की उजली रात में नहीं। फिर न जाने क्यों आदमी ''तमसो माँ ज्योतिर्गमय'' अंधेरे से उजाले की ओर जाने की कामना करता है? न जाने क्यों द्वार पर दीपक जलाकर लक्ष्मी के आने की आशा करता है?
कुछ लोगों की साजिश लगती है, यह! जब कभी कोई तीज-त्योहार आता है, साजिशन कुछ घिसे-पिटे जुमले बरसात में मेंढकों की तरह हवा में उछले जाते हैं। मसलन, पूरे वर्ष असत्य से मात खाते रहने वाला सत्य, दशहरा आते ही असत्य पर जीत का दावा करने लगता है। वेंटिलेटर पर अंतिम सांसें गिनती-गिनती अच्छाई अचानक बुराई पर विजय प्राप्त करने का दम भरने लगती है। जैसे-जैसे दीपावली नजदीक आती है, अंधकार के सहारे जीवन-यापन करने वाला प्रकाश उसी अंधकार पर विजय प्राप्त करने का दावा करने लगता है। गुमनाम जिंदगी बसर करने वाले ऐसे कथित मूल्यों का वर्ष में एक बार उछलना, पितरों का श्राद्ध मनाने जैसा लगता है।
मृत जुमले उछालने वाले लोगों से मुझे सख्त नफरत है, उनकी साजिश से नफरत है, मुझे! ..चालू किस्म के लोग, कथित मूल्यों से चिपके ऐसे बेदम जुमले उछाल कर अन्य लोगों को गुमराह करते हैं। ऐसा करने में ही उनका हित है। मेरी प्रार्थना है कि चालू किस्म के ऐसे लोगों की बातों में न आना। बुराई के पीछे छिपी अच्छाई को पहचानना। सकारात्मक सोच का इस्तेमाल कर उन अच्छाईओं को खोजना और उन्हीं का अनुसरण करना।
''तमसो माँ ज्योतिर्गमय'' अव्यवहारिक प्रार्थना है। सफल कोई भी व्यक्ति शायद ही अंधकार से प्रकाश में आने की ऐसी अव्यवहारिक कामना करता होगा, क्योंकि प्रकाशित होने पर पुण्य कार्य भी पाप में तब्दील हो जाते हैं! कौन व्यक्ति पुण्य नहीं कमाना चाहेगा? प्रकाश में आकर क्यों बदनाम होना चाहेगा? अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना केवल गुमराह करने के उद्देश्य से दुहराई जाती है, ताकि अन्य के पुण्य कार्य प्रकाशित हो कर पाप में तब्दील होते रहें और खुद वे अंधेरे में मस्ती काटते रहें।
अब आप ही बताएं, जिसका आधार ही अंधियारा है, क्या वह प्रकाश कभी अंधकार पर विजय प्राप्त कर पाएगा? क्यों भूल जाते हो, टिमटिमाते जिस दीपक के सहारे अंधकार पर प्रकाश की विजय की असत्य घोषणा कर रहे हो, वह दीपक खुद ही अंधकार में विराजमान है।
''दिए तले अंधेरा'' किसने नहीं देखा! कुछ देर टिमटिमाने के बाद दिया बुझ जाएगा और अंधकार फिर सारे वातावरण में छा जाएगा। अंधकार ही स्थायी है, प्रकाश अस्थायी। माँ से केवल यही प्रार्थना करो- मुझे प्रकाश से अंधकार की ओर ले चल, माँ! ..मुझे स्थायित्व प्रदान कर, माँ! ..लोग मूर्ख हैं, द्वार पर दीपक जलाकर लक्ष्मी का स्वागत रखने की इच्छा रखते हैं और लक्ष्मी अमावस्या के काले साये में स्याह दिलों को धन-धान्य से पूर्ण कर लौट जाती है। अंधकार विजयी हो जाता है और कुछ देर के बाद पराजित योद्धा की तरह प्रकाश भी अंधकार में विलीन हो जाता है!
दुनिया के सारे कारोबार असत्य के ही सहारे तो चलते हैं! असत्य ही प्रगति पथ का निर्धारक है, व्यवहारिक है और सत्य अव्यवहारिक है, प्रगति में बाधक है। चारों ओर असत्य ही का गुणगान हो रहा है! अत: असत्य ही सत्य है!
प्रत्येक व्यवहारिक व्यक्ति जब-जब असत्य न बोलने का दावा करता है, तब-तब वह असत्य ही का तो पालन करता है। जो व्यक्ति सदैव सत्य बोलता है, उसे सफाई देने की आवश्यकता क्या है? सत्य का इस्तेमाल केवल असत्य स्थापित करने के लिए किया जाता है। अत: वर्णमाला के प्रथम अक्षर के साथ चिपके सत्य को पहचानों। अकेले सत्य का त्याग कर 'अ' के चिपके सत्य का अनुसरण करो, प्रगति पथ पर बढ़ो! सत्य कभी का पराजित हो चुका है। असत्य ही की जय-जय कार है, इसलिए प्रकाश नहीं अंधेरों से दोस्ती करना सीखो!
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Wednesday, November 7, 2007

न दोस्ती अच्छी, न दुशमनी उनकी


मच्छरों की भिन-भिनाहट और कौवों की कांव-कांव से तमाम शहर परेशान है। मार्केटिंग में दोनों इतने उस्ताद हैं कि किसी को किसी की सुनने ही नहीं देते। बात सुनने-सुनाने तक ही सीमित हो तो भी सब्र कर लिया जाए, मगर मोका पड़ते ही दोनों डंक मारने से भी नहीं चूकते। डंक भी ऐसा कि पीड़ित पानी न मांगे। बावजूद इसके देखिए कि आदमी जानते-बूझते भी न मच्छरों से पीछा छुटाना चाहता है और न ही कौवों से। मच्छरों को रक्त पिला-पिला कर पाले हुए है और कौवों को श्रद्धा के साथ श्राद्ध का हलवा-पूरी। विडंबना देखिए कि दुष्ट कौवों को इतना विश्वासपात्र और शुभ मान लिया जाता है कि प्रिय के आने का सगुन भी कौवों की कांव-कांव से ही मनाया जाता है।
आदमी की मजबूरी है, क्योंकि मच्छर पानी में पनपते हैं। अब पानी रोको तो मच्छर पनपने का खतरा और वह भी डेंगू जैसे खतरनाक किस्म का, ऊपर से म्यूनिसपैलिटि वालों के चालान का डर। पानी उतर जाए तो समाज में किरकिरी। एक बूंद पानी चेहरे से लुड़का नहीं कि सुनने को मिल जाएगा, 'अरे, पानी उतर चेहरा लिए फिरता है। आंखों का पानी सूख गया है।' अब कहने वालों को भला कौन समझाए कि आंख में पानी रुक गया तो मच्छर पैदा हो जाएंगे, म्यूनिसपैलिटि वाले चालान काट जाएंगे। म्यूनिसपैलिटि वालों की आंख हालांकि शुष्क होती हैं, यानी के पानी विहीन होती हैं, इसलिए सूक्ष्मदर्शी होती हैं। फिर भी खुदा-ना-खास्ता किसी की आंख का पानी उनसे चूक भी गया तो, जनाब डेंगू बुखार का खतरा और देर-सबेर आंख बंद हो जाने का शुभ अवसर पैदा होने का खतरा। अब कहने वालों को कौन समझाए कि भइया चेहरे का पानी उतारने की वजह कुछ और नहीं बस मच्छरों से बचाव है।
समझ नहीं आता कि रहीम दादा किन परिस्थितियों में कह गए, 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरे, मोती-मानस चून।' ऐसा लगता है कि रहीम दादा के जमाने में मच्छर नहीं होते होंगे। होते भी होंगे, तो डेंगू किस्म के कतई नहीं होंगे। अगर डेंगू मच्छर होते तो म्यूनिसपैलिटि वाले उन्हें देशद्रोह के आरोप में बंद कर देते। खैर रहीम के दिन अच्छे थे, क्योंकि मच्छरों के आतंक से बचे हुए थे। मच्छर यदि होते तो यह बात भी गारंटी के साथ कह सकता हूं कि रहीम दादा की गिनती अकबर के नवरत्‍‌नों में न होती। तब उनका समूचा भक्ति साहित्य किसी डेंगू-साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ होता।
आज परिस्थितियां भिन्न हैं। हालांकि पानी का संकट है, चेहरों का पानी उतर गया है, आंखों का सूख गया है, फिर भी चारों तरफ मच्छरों की भिन-भिनाहट है, अर्थात मच्छरों का साम्राज्य है। फण्डा बड़ा साफ है, पानी उतर रहा है, अत: कहीं न कहीं तो रुकेगा ही। रुकेगा वहां, झील होगी और जहां झील होगी मच्छर भी वहीं पनपेंगे। मगर यह मत समझ लेना कि पानी में पनपने वाले मच्छर खुद में पानीदार होते हैं, नहीं-नहीं पानीदार जीव की प्रवृत्ति दूसरे जीवों का रक्त पीने की नहीं होती। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि परजीवी वही होता है, जो पानी विहीन होता है।
अब रही बात कौवों की बड़े ही उस्ताद किस्म की जीव होते हैं। कोयल जैसा सुर नहीं, हंस जैसी तासीर नहीं फिर भी हलवा-पूरी मारते हैं। माल खुद चट कर जाते हैं और फतवा यह कि पितरों तक पहुंचा रहे हैं। माल न मिले तो कांव-कांव। आदमी समझता है कि उसकी प्रशंसा में गीत गा रहा है, मगर काग साहब अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हैं। उल्लू है तो कोई न कोई सीधा करेगा ही, मगर उल्लू सीधा करते-करते यदि घायल कर जाए तो? हां, काग वृत्ति का यही कमाल है। सीता जी समझती रहीं होंगी का काग देव चरण-वंदना करने आ रहे हैं और वे जनाब उनके चरण घायल कर गए। यही कुछ जरूर कृष्ण भगवान के साथ भी हुआ होगा। वे भी सोच रहें होंगे कि कौआ बेचारा श्रद्धावश उनके पास आ रहा है और वह उनके हाथ से ले उड़ा माखन-रोटी। अब सूरदासजी भले ही काग के भाग्य की सराहना करते रहें, मगर वह भाग्य नहीं काग वृत्ति का कमाल था। अत: हमारी यही सलाह है कि मच्छर व काग वृत्ति को समझों, उन से दूर रहो। उनकी न दोस्ती अच्छी है और न ही दुशमनी।
संपर्क : 986811304




Tuesday, November 6, 2007

पाकिस्तान में तड़का लगे, छींके हिंदुस्तान


पाकिस्तान में इमरजेंसी की घोषणा, सुनकर भयावह आश्चर्य की अनुभूति हुई। इमरजेंसी-वार्ड में इमरजेंसी की घोषणा! जिस शिशु का जन्म ही इमरजेंसी-वार्ड में हुआ हो और अभी तक वेंटिलेटर पर सांसें गिन रहा हो, उसके लिए इमरजेंसी की घोषणा! मतलब साफ हैं, मामला कुछ गड़बड़ है, अंतिम दौर के आसपास है! भयावह इसलिए कि यदि इमरजेंसी-वार्ड की परिस्थितियां भी इमरजेंसी हो गई तो फिर वहां, इमरजेंसी नहीं, उससे ऊपर वाले किसी दर्जे की व्यवस्था की आवश्यकता है! संभवतया जनहित में घोषणा इमरजेंसी की कर दी गई होगी। एक विशेषज्ञ ने लगभग ठीक ही कहा है- यह इमरजेंसी और मार्शल लॉ के बीच की कोई स्थिति है। हम कहते हैं, यह मार्शल लॉ से भी ऊपर की कोई स्थिति है। मार्शल अपने से ऊपर की ही कोई स्थिति उत्पन्न करेगा, तभी तो उसका कद बढ़ेगा। पाकिस्तान की इमरजेंसी दूरदर्शनी-परिचर्चा का विषय है।
खैर कुछ भी सही , इस बारे में हम मुशर्रफ साहब की साफगोई के कायल हो गए। उन्होंने ठीक ही कहा,- ऐ पश्चिम वालों अभी हमारा बच्चा वेंटिलेटर पर हैं। डेमोक्रेसी के लक्जरी वार्ड में शिफ्ट करने में समय लगेगा! तुम्हें भी तो सदियों लगे थे डेमोक्रेसी-वार्ड में शिफ्ट होने में! सुनों, तुम हमारी तरह की इमरजेंसी नहीं ला सकते, हम तुम्हारी तरह की डेमोक्रेसी! पाकिस्तान की जनता ने 'मुशर्रफ कपड़े उतारो, कपड़े उतारो' चिल्ला-चिल्ला कर पाकिस्तान को नख्लिस्तान बना डाला, तो बेचारे मुशर्रफ साहब क्या करते, उन्होंने कपड़े उतार दिए। पता नहीं क्यों अब शेम-शेम चिल्ला रही है! जनता आतंकवाद-आतंकवाद का शोर मचाकर आतंक फैला रही थी। जिन महानुभावों के आतंकवाद से खतरा था, मुशर्रफ साहब ने उन्हें सुरक्षित-स्थान पर पहुंचा दिया। पता नहीं क्यों वे ही लोग अब उसे नजरबंदी बताकर इमरजेंसी का शोर मचा रहे हैं। किसी ने सच ही कहा है, कोई भी शख्स सभी को खुश नहीं रख सकता!
पाकिस्तान अपने हिंदुस्तान का पड़ोसी मुल्क है। पड़ोस में सड़ी मिर्च का तड़का लगेगा, तो छींक पड़ोसी को आएगी ही। पड़ोस में बरसात हो और पड़ोसी बौछार से बच जाए, यह असंभव है। भाजपा का इसमें कोई कुसूर नहीं है। वह तो पड़ोसी पाकिस्तान के तड़के के कारण छींक रही है। तो उसे याद आएगा ही कि हमारे वो भी एक दिन सड़ी मिर्चा ले आए थे। पाकिस्तान की इमरजेंसी के बहाने अपनी इमरजेंसी को कोसना स्वाभाविक है। रोने के लिए आखिर मुद्दा तो कोई चाहिए। रोएगी-चीखेगी नहीं तो भारत की जनता उसके मौन का अर्थ क्या लगाएगी, क्या यह बताने की भी जरूरत है। हमारी माताजी स्वर्गवासी हुई। मातम-पुरसी के लिए पड़ोसिन आई। हमारी माताजी का जिक्र करते-करते अपने-अपने स्वर्गवासियों के लिए विलाप करने लगीं। उनके उसी विलाप से हमें पता चला कि घूंघट में कौन सी पड़ोसिन छिपी हैं। किस-किसने रुदाली का कितना सशक्त अभिनय किया, उनके स्वजन-विलाप से ही हमें ज्ञात हुआ। जब उनके यहां कोई ताजा-ताजा स्वर्ग सिधारेगा, हम भी उसी के अनुरूप रुदन की परंपरा का निर्वाह करेंगे। उसी परंपरा का अनुसरण बेचारी भाजपा कर रही है।
पाकिस्तान की इमरजेंसी के आधार पर इंदिरा-युगीन इमरजेंसी को याद कर विलाप करना, भाजपा की मजबूरी भी है। महंगाई के मुद्दे पर वह विलाप कर नहीं सकती, क्योंकि उसके राज्य में भी महंगाई कम कृपावान नहीं थी। महंगाई एक ही किस्म की होती है, अत: महंगाई की किस्म भी विलाप का कारण नहीं बन सकती। 'गरीबी हटाओ-देश बचाओ' जैसे घटिया किस्म के विषय पर ध्यान देकर वह अपनी ऊर्जा फिजूल में नष्ट करने की पक्षधर कभी रही ही नहीं! बेचारी अभी तक परमाणु-डील के वाममार्गी टाइप मुद्दे पर आंसू बहा रही थी।
भगवान इमरजेंसी लगे अमेरिका में, वह मुद्दा भी बेचारी से छिन लिया। कभी किसिंजर, तो कभी मलफर्ड तो कभी टालबोट जैसे एक के बाद एक धमकाऊ-पूत भेजकर डील-मुद्दे को टालने के लिए दबाव डालती रही। क्या करती बेचारी आखिरकार डील-मुद्दे को टालमटोल की नीति भेंट चढ़ाना ही पड़ा। भला हो पाकिस्तान का इमरजेंसी लग गई। उसके दुख में विलाप करने के साथ-साथ अपनी इमरजेंसी पर भी विलाप करने की सुविधा मिल गई। भाजपा को वास्तव में पाकिस्तान का शुक्रगुजार होना चाहिए। भगवान राम के बाद यदि कोई उसे ऊर्जा प्रदान कर रहा है तो केवल पाकिस्तान। कभी कश्मीर के बहाने, तो कभी जिन्ना के और अब इमरजेंसी के बहाने ऊर्जा प्राप्त हो रही

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Monday, November 5, 2007

बॉस बनाम बांस

प्रश्न, बॉस किसे कहते हैं? उत्तर, जिसके हाथ में बांस हो, उसे बॉस कहते हैं। अगला प्रश्न बांस किसे कहते हैं? जिसे देख कर भूत भागते हैं, जिसके इशारे पर शेर नाचते हैं। जिससे बंद सीवर खोले जाते हैं। छोटा दीखता है, कुछ चिकना होता है, किंतु मारक होता है। वार कहीं करता है, घाव कहीं होता है।
सच बात है, बांस बिन बॉस की गरिमा नहीं, बांस बिना बॉस, बॉस नहीं। बॉस के हाथ में यदि बांस न हो तो वह न कभी अपनी और न ही दूसरों की बांसुरी बजा पाएगा। बांस रखना और बांसुरी बजाना बॉस का धर्म है। घनिष्ठ इस संबंध के अतिरिक्त बॉस और बांस के मध्य कुछ समानता भी हैं। मसलन, बॉस और बांस दोनों गांठ -गठीले होते है। प्रत्येक गांठ कुछ शंका, कुछ आशंकाओं, कुछ प्रश्न और कुछ रहस्यों से भरी होती हैं। एक गांठ का रहस्य सुलझाने का प्रयास करोगे, दूसरी गांठ पहली से ज्यादा मजबूत नजर आएगी। गांठें कच्चे धागे की गांठ के समान होती हैं, जो कभी खुलती ही नहीं हैं, प्रयास करने पर उलझती ही चली जाती हैं।
बॉस का और बांस का मुसकराना यदा-कदा ही होता है। सदियों में जाकर कभी बांस पर फूल खिलते हैं और जब खिलते हैं, तो अकाल साथ लेकर आते हैं। बॉस कभी मुस्कराते नहीं है और जब कभी मुस्कराते हैं तो किसी के लिए संकट के बादल लेकर आते हैं। ऐसी ही कुछ समानताओं के कारण बॉस और बांस कभी-कभी एक दूसरे के पर्यायवाची से लगते हैं।
अंग्रेज बॉस और बांस के पारस्परिक संबंधों से भीलीभांति परिचित थे, इसलिए वे और उनके अधिकारी हाथ में सदैव बांस रखते थे। उनके लिए बांस बॉसिज्म का प्रतीक था, जिसे वे रूल कहते थे। उस रूल के ही सहारे रूलिंग चलती थी। रूल के सामने शेष सभी 'रूल' व्यर्थ थे। बांस के सहारे ही वे 150 वर्ष तक भारत के शानदार बॉस बने रहे। बांस रूपी रूल का ही कमाल था कि उनके राज्य में कभी सूरज डूबा ही नहीं। बांस कमजोर हुआ तो सूरज ऐसा डूबा की अब ब्रिटेन में भी उगने का नाम भी नहीं ले रहा है।
विश्व की समूची राजनीति के दो ही आधार हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म। नटनी के समान विश्व राजनीति भी बांस के सहारे ही तो पतली रस्सी पर चल कर अपना सफर पूरा करती है। हो भी क्यों ना राजनीति और नटनी सगी बहने ही तो हैं। ऊंट किस करवट बैठेगा, प्रयास करने पर पता किया जा सकता है, मगर राजनीति और नटनी कब किस करवट लुढ़क जाए किसे पता है।
''उसका बांस मेरे बांस से लंबा क्यों?'' बांसिज्म के इसी दर्शन पर विश्व की राजनीति टिकी है। समस्या कश्मीर की हो या अफगान की अथवा इराक की, जड़ में सभी के बांस है। अमेरिका आज अमेरिका न होता यदि उसके हाथ में बांस न होता। पाकिस्तान में आपातकाल लगाकर मुशर्रफ साहब ने अपने बांस को ही कुछ सशक्त, कुछ लंबा करने का प्रयास किया है। झगड़ा बांस का ही है। मेरे बांस से उसका बांस लंबा क्यों?
विकासशील सभी देश महाशक्ति बनने के लिए आज लंबे और मजबूत बांस की तलाश में हैं। हमारा मानना है कि तृतीय विश्वयुद्ध यदि कभी होगा भी तो, न तेल के लिए होगा और न ही पानी के लिए। होगा तो केवल बांस के लिए होगा, क्योंकि युद्ध जब कभी भी हुए हैं, बॉसिज्म और बांसिज्म को लेकर ही हुए हैं। मजबूत बांस वाला ही युद्ध में विजयी होगा और वही विश्व-बॉस कहलाएगा।
संपर्क : 9868113044

Sunday, November 4, 2007

हमाम के अंदर, हमाम के बाहर

जब से पढ़ा है कि जेबकतरे अब सूटेड-बूटेड हो कर जेबतराशी करने लगे हैं, तब से मैं स्वयं को हमाम के अंदर की अवस्था में पा रहा हूं। मुझे इस बात का गम नहीं है कि जेबतराश जेब हल्की करने के इस पवित्र व्यवसाय में मोबाइल का इस्तेमाल करने लगे हैं। विकारों की तरह मोबाइल का त्याग तो मैंने उसी दिन कर दिया था, जिस दिन से पड़ोसी की बाई ने मोबाइल पर अपॉइंटमेंट ग्रहण करने शुरू किए थे।
मुझे इस बात से भी कोई गिला नहीं है कि इस पवित्र धंधे में महिलाएं भी उतर आई हैं, क्योंकि मैं नारी-स्वातं˜य का समर्थक हूं। किसी भी धंधे में पुरुषों का ही एकाधिकार क्यों रहे। नारियों को भी पुरुष के कंधे से कंधा रगड़ कर चलने का अधिकार प्राप्त होना ही चाहिए।
मेरी पीड़ा का कारण तो केवल उनके सूटेड-बूटेड होने को लेकर है, क्योंकि अब मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं कि कौन से वस्त्र धारण कर बाहर निकलूं। हमाम के अंदर की अवस्था में यदि घर से बाहर कदम रखता हूं, तो व्यथा जाने बिना ही लोग पत्थरों से स्वागत करेंगे। बिना जांच-पड़ताल के ही पुलिस सार्वजनिक-स्थल पर अश्लील हरकत के जुर्म में मुझे अंदर कर देगी। इस तरह की सभी आशंकाओं को यदि दरकिनार कर भी दिया जाए तो लोकलाज हर कदम पर मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है। मेरा मानना है कि तमाम दुशवारियों के बावजूद लोकलाज के कुछ अवशेष अभी भी मौजूद हैं। अवशेष शेष न होते तो आधुनिक संस्कृति की प्रतिनिधि-बालाएं अ‌र्द्धवस्त्र की सीमा रेखा पर ही आकर न रुक जातीं। ऐसी प्रगतिशील बालाएं जिस दिन अ‌र्द्धवस्त्र की लक्ष्मण रेखा भी लांघ जाएंगी उस दिन मैं समझूंगा कि समाज अब लोकलाज की दकियानूसी व्यवस्था से पूर्ण रूपेण मुक्त हो गया है।
बात जेबकतरों के सूटेड-बूटेड होने और हमें हमाम के अंदर की अवस्था प्राप्त होने की चल रही थी। दिगंबर बने घर के अंदर कब तक बैठे रहते, दफ्तर तो जाना ही था। हमने श्रीमती जी से कपड़े मांगे। नए परिवर्तन से बे-खबर श्रीमती जी ने हमारे सामने वही पेंट-शर्ट ला कर पटक दी। हम बोले- इन्हें पहन कर दफ्तर जाऊंगा? श्रीमती जी बोली एक ही दिन तो पहने हैं। हमने उन्हें समझाया जेबकतरों ने अब इन्हें ही अपनी यूनिफार्म बना लिया है। लोग मुझे भी..!
श्रीमती जी कलफ लगा खादी का कुर्ता-पायजामा ले आई। हम तुनक कर बोले, इन्हें पहन कर आफिस जाऊं? श्रीमती जी ने पूछा, इनमें क्या खराबी है। जेबकतरे कुर्ते-पायजामे तो नहीं पहनते। हमारा जवाब था- उनके बॉस तो पहनते हैं। हमने तह खोलकर उनकी प्रत्येक सलवट पर लगे दाग दिखलाए। श्रीमती जी ने टका सा जवाब दिया- ऐसे दाग धोने के लिए अभी तक कोई डिटर्जट नहीं बना है। संदूक दर संदूक छानने के बाद वे कहीं से भगवा-वस्त्र खोज लाई। समझौतावादी सरकार की तरह हमने वामपंथी मन के साथ समझौता किया। सोचा भगवा धारण कर ही दफ्तर चले जाएंगे। यार-दोस्त हंसी ही तो उड़ाएंगे, मगर शक की निगाह से तो नहीं देखेंगे। अफसोस कि भगवा वस्त्र भी बेदाग नहीं निकले। उनकी प्रत्येक तह पर लिखा था, ''मुंह में राम बगल में माया''।
हम पुन: स्वयं को हमाम के अंदर की अवस्था में पा रहे थे। जेबकतरों को कोस रहे थे। कमबख्तों, पहनने के लिए तुम्हें सूट-बूट ही मिले थे। खादी का कुर्ता-पायजामा या भगवा चोगा धारण कर लेते। कुछ दाग पहले ही लगे थे, कुछ और लग जाते। उन्हें धारण करने के बाद भी तुम तो जैसे थे वैसे ही रहते। हमाम के अंदर-बाहर समान अवस्था में ही रहते। कम से कम हम तो अवस्था परिवर्तन के दुष्चक्र से बच जाते। फैशन डिजाइनरों से मेरी प्रार्थना है, कुछ इस प्रकार के भी वस्त्र डिजाइन करो, जिन्हें धारण कर हम जैसे भी हमाम से बाहर की अवस्था का अहसास कर सकें।
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Saturday, November 3, 2007

काश! उल्लू प्रोफेशनल होता





उल्लू से हमने पूछा, भाई! तुम उल्लू क्यों, मूर्खता का पर्याय क्यों?
सहज भाव से वह बोला, बड़े भाई! लक्ष्मी को ढोते फिरते हैं। उसका उपभोग नहीं करते, इसीलिए हम उल्लू हैं, उल्लू कहलाते हैं।
लक्ष्मी! और उसका उपभोग नहीं! ऐसा क्यों?
वह बोला, लंबी कहानी है, तुम्हारे ऋषि-मुनियों की कारस्तानी है, भाई।
ऋषि-मुनियो का नाम सुन हम थोड़ा झिझके। फिर भी साहस किया और बोले, भइया संक्षेप में वर्णन करो।
सुनो, 'देवऋषी बहुत सुंदर प्रवचन दिया करते थे। हमारे पूर्वज उनके प्रवचनों के दीवाने थे। अत: जिस वृक्ष के तले बैठ कर वे प्रवचन देते, हमारे पूर्वज उसकी शाख पर बैठ कर नित्य-प्रति उनके प्रवचन सुनते। उनके प्रवचनों का सार था, जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह इन सभी पांच विकारों से दूर रहना चाहिए, अर्थात निर्विकारी होना चाहिए। तभी से हमारे पूर्वजों ने निर्विकारी होने का व्रत धारण कर लिया।'
'मगर देवऋषि जिन मनुष्य को प्रवचन देते थे, वे तो निर्विकारी नहीं?' हमने अपनी शंका मित्र उल्लू के समक्ष प्रस्तुत की।
हां! ठीक कहते हो मनुष्य निर्विकारी नहीं। दरअसल जैसे-जैसे सूर्य भगवान का रथ मंजिल की तरफ बढ़ा हमारे पूर्वज ऊंघने लगे, इसलिए वे प्रवचन का मर्म सुनने से अनभिज्ञ रह गए। मनुष्य संपूर्ण प्रवचन सुन कर ही अपने-अपने घर लौटे। सुना है, भइया! देवऋषि ने प्रवचन के अंत में मर्म बताया था, 'नैतिकता जीवन में उतारने के लिए नहीं केवल बखान करने के लिए है, उल्लू सीधा करने के लिए है। तभी से मनुष्य उल्लू सीधा करता आ रहा है और हम उल्लू बनते आ रहे हैं।'
महाशय, प्रवचन की मुद्रा में आ गए और अपनी बात को विस्तार देते हुए बोले, 'तुम्हारा कोई देवता या ऋषि-मुनि ऐसा है, जो किसी विकार से प्रभावित न रहा हो। कोई प्रेम प्रसंग में लिप्त रहा तो कोई क्रोध की ज्वाला में दहकता रहा। लोभ व मोह तो लगभग सभी पर हावी रहे। देवासुर संग्राम जब-जब भी हुआ कोई न कोई विकार ही आधार बना। फिर मनुष्य की क्या बिसात।'
'मगर लक्ष्मी की सवारी बनने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ?' हमने शंका-युक्त प्रश्न किया।
बड़े भाई बोले, 'यह भी उन्हीं देवऋषि का कमाल था, भइया। समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मीजी का उदय रात्रि प्रहर में हुआ। उन्हें एक सवारी की आवश्यकता हुई। महिला थी, रात्रि का समय था अत: सभी विकारों से मुक्त ऐसी सवारी की खोज हुई जिसे रात्रि में भी स्पष्ट दिखाई देता हो, अर्थात जिसकी 'हैड लाइट' ज्यादा तेज हों। देवऋषि ने हमारा नाम का प्रस्ताव रखा और विष्णु सहित लक्ष्मी ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।'
हम बोले, 'यह तो ठीक है कि विकारी नहीं हो, मगर तामसी प्रवृति के तो हो, निशाचर हो, दिन में सोते हो रात में जागते हो, दिन में दिखलाई भी नहीं पड़ते?'
वे मुस्कुराए और बोले, 'गीता पढ़ी है? पढ़ी होती तो पता होता रात्रि में जागना संत प्रवृति है। गीता में लिखा है, 'या निशा सर्व भूतानाम तस्यां जागृति संयमी। - रात्रि में जब सभी चर-अचर निद्रालीन हो जाते हैं, उस समय संयमी जागृत अवस्था में होते हैं।' तामसी प्रवृति के होते तो विकारी भी होते और विकार में अंधे जीव के लिए रात्रि के अंधकार की तरह दिन के उजाले का भी कोई अर्थ नहीं।
तुम्ही बताओ, अपने प्रेमियों के घर लक्ष्मी जब जाती ही रात्रि में हैं, तो इसमें हमारा क्या दोष? रात-रात भर लक्ष्मी को ढोएं और दिन में सोए भी नहीं, यह कैसे संभव है? दिन में दिखलाई तो देता है, मगर हम दिखलाई नहीं पड़ते, क्योंकि रात्रि की थकान उतारने के लिए एकांत किसी स्थान में विश्राम-अवस्था में होते हैं।'
हमारा अगला सवाल था, 'लक्ष्मी उल्लू पर सवार हो कर जिसके घर जाती है, वह विकारी हो जाता है। यह आरोप भी क्या मिथ्या है?'
'स्वार्थी मनुष्य ने बेचारी लक्ष्मी को भी नहीं बख्शा। यह आरोप भी यदि सत्य होता तो सर्वप्रथम विकारी हम होते। विकारी होते तो हम भी उल्लू नहीं लक्ष्मीपति होते।' महाशय फिर मुस्कुराए और बोले, 'फिर लक्ष्मी और उल्लू से जुड़े किस्सों के साथ बरखुरदार लक्ष्मी और विष्णु भगवान के तलाक के किस्से भी आम होते।'
'दरअसल मनुष्य बहुत स्वार्थी है, कोई भी लक्ष्मीपति नहीं चाहता कि लक्ष्मी उसके अलावा किसी और के घर जाए, इसलिए ही ऐसी अफवाहें उड़ा दी हैं। उल्लू पर बैठ कर लक्ष्मी का आना यदि अशुभ होता, तो बड़े भाई लक्ष्मीपति उल्लू न पालते। लक्ष्मीपति जब चैन की नींद सोता है, तब रात-रात भर जाग कर उल्लू उसके लिए लक्ष्मी ढोता है।'
महोदय ने आंखें मटकाई और बोले, 'सुनो! लक्ष्मी वाहक के इस रहस्य को अब तो सरस्वती पुत्र भी भांप गए हैं। उन्होंने अब हंस के साथ-साथ उल्लू सीधा करना भी सीख लिया है। हंस दिखाकर उल्लुओं को आकर्षित करते हैं, दोनों को एक ही पिंजरे में रखते हैं। लगता है, सरस्वती और लक्ष्मी के बीच अब वैर-भाव समाप्त हो गया है, अब तो सहोदर बहनों की तरह दोनों संग-संग रहने लगी हैं।'
उल्लू-चालीसा सुन हम सोचने लगे, 'काश! उल्लू भी प्रोफेशनल होता स्थान, काल और पात्रानुसार सद्ंगुण परिभाषित करता, तो उल्लू होते हुए भी उल्लू न कहलाता। वह भी लक्ष्मीपति होता।'
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