Monday, October 13, 2008

कर्म-कौशल!


वे तब भी महान थे। अब भी महान हैं। तब नेता थे, अब धार्मिक नेता हैं। नेता रहते हुए, उन्होंने काफी पांव पसारे, किंतु दुर्भाग्य की उनकी लोई पांवों के मुताबिक लंबी नहीं हो पाई। राजनीति के वृक्ष की जिस ऊंची डाल पर वे बैठना चाहते थे, नहीं बैठ पाए। बावजूद इसके धंधे-पानी में कोई कसर नहीं रही। धंधा-पानी आज भी उनका चकाचक है। धंधे-पानी की उनके कौशल को देखकर दिग्गज नेता, उन्हें अपने साथ चिपकाने की हसरत रखते थे। उन्होंने भी कभी किसी को निराश नहीं किया। जिसने भी उनकी ओर हाथ बढ़ाया, उन्होंने उसके ही साथ धंधे-पानी में हाथ बटाया। सहृदय वे रामलाल के बंगले के आसपास भी भिनभिनाते दिखाई दे जाते थे और श्यामलाल के बंगले के बाहर भी। धंधे-पानी के काम को वे तुच्छ दलगत राजनीति से परे का विषय मानते थे। इसलिए इस मामले में वे हमेशा ही दलगत राजनीति की दलदल से दूर रहे है। यद्यपि वे एक दल के समर्पित कार्यकर्ता थे। एक दिन ऐसा भी आया कि उनका हृदय परिवर्तन हो गया और उपनाम नेता से पहले धार्मिक शब्द चस्पा हो गया। नए क्षेत्र के अनुरूप चौला बदलने के साथ ही उन्होंने अपने नाम का भी संशोधित संस्करण प्रस्तुत किया। नए संस्करण के अनुसार वे आचार्यश्री कह लाए जाने लगे। सुना है, अब तो नाम के साथ कुछ नए पृष्ठ भी जुड़ गए हैं, मसलन अवतार,भगवान आदि-आदि!
एक दिन हमने उनसे पूछा था कि आचर्यश्री हृदय परिवर्तन के उपरांत धंधा-पानी तो अवश्य प्रभावित हुआ होगा? वे मुस्करा दिए और बोले तुम नहीं सुधरोगे! फिर धीरे से बोले, नहीं! धंधे-पानी का कोई धर्म नहीं होता है। धंधे का धंधातो हवा की तरह स्वच्छंद रूप से प्रवाहित रहता है! हमने स्पष्ट करते हुए कहा- आचर्य श्री! लेनदेन..? उन्होंने जोर का ठहाका लगाया और बोले- तुम मूर्ख हो। मैं पहले ही कहां किसी से कुछ लेता था। इतना कह कर वे शांत हो गए। शायद मुखमुद्रा परिवर्तन के लिए और फिर गंभीर भाव के साथ बोले-मैंने जब कभी भी जिस किसी से भी कुछ लिया निष्काम भाव से लिए, अनासक्त भाव से लिया। वैसे तो मैंने किसी से कुछ लिया ही नहीं, क्योंकि मेरे लेने में कामना भाव नहीं रहा! बिना मांगे यदि कुछ मिलता है, तो उस लेने को लेना नहीं, ग्रहण करना कहा जाता है। लोग स्वेच्छा से श्रद्धा भाव से देते रहे और मैं ग्रहण करता रहा। ग्रहण करना मेरी विवशता थी, क्योंकि यदि मैं ग्रहण करने से इनकार करता, तो देने वाले की भावन आहत होती और यह मेरी अशिष्टता होती है। अत: मैंने अपनी भावनाओं की परवाह न कर, शिष्टाचार का पालन करते हुए, सदैव ही दाता की भावनाओं का ख्याल रखा।
दाताओं से मैंने स्वयं भी कब ग्रहण किया! घर के ईशान कोण में एक छोटा-सा पूजा-घर स्थापित कर रखा है। जब कभी कोई श्रद्धालु श्रद्धा व्यक्त करने आया, मैंने उससे ही श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करने की विनती की। इस प्रकार श्रद्धावान गुप्त दान के समान श्रद्धा सुमन ईश्वर के चरणों में अर्पित करते रहे और मैं ईश्वर का आदेश मान उनके चरणों से प्रसाद ग्रहण करता रहा। मैंने कब कहां किसी से कुछ लिया! जो कुछ भी लिया यज्ञ-फल के रूप में ईश्वर के चरणों से ग्रहण किया! भगवान कृष्ण ने गीत में कहा है- जो पुरुष निष्काम भाव से अनासक्त होकर कर्म करता है और अपने सभी कर्म ईश्वर को समर्पित कर देता है, वह पाप-पुण्य से मुक्त हो जाता है, क्योंकि उसके अंतर्मन से कर्ता भाव समाप्त हो जाता है। वह स्वयं कुछ नहीं करता, जो भी करता है, ईश्वर करता है। वह तो निमित्त मात्र होता है। मेरे सभी लेनदेन-कर्म ईश्वर के चरणों में अर्पित थे! मैं तो केवल निमित्त था, लेने वाला तो ऊपर वाला था। हे, भद्रजनों गीत में इसे ही- योग: कर्मसु कौशलम्, कहा गया है! आप सभी के लिए यह मेरा आशीर्वाद है और यही शिक्षा कि मुद्र विनिमय कर्मयोग के अनुरूप करो, यही कौशल है, 'अत्रकुशलम् तत्त्रास्तु' इसी में तुम्हारी कुशलता है!
स्वामी अद्भुतानंद जी महाराज एक राजनैतिक दल द्वारा आयोजित चिंतन शिविर में वचनामृत की वर्षा कर कार्यकर्ताओं को भिगो रहे थे। 'राजनीति में भ्रष्टाचार' विषय की चिंता को लेकर चिंतन शिविर आयोजित किया गया था। स्वामी जी ने हाल में ही राजनीति का चोला त्याग धर्म का चोला धारण किया था। वास्तव में राजनैतिक कर्मक्षेत्र से धर्मक्षेत्र में उनका शुभ प्रवेश 'राजनीति में धर्म' का प्रवेश था। राजनीति की प्रदूषित गंगा को धर्म के माध्यम से प्रदूषण मुक्त करने के महान उद्देश्य से ही उन्होंने धर्म का चोला धारण किया है। स्वामी जी का मानना है कि जब तक राजनैतिक-धार्मिक-नेता गठजोड़ नहीं होगा, तब तक राजनीति की पावन धारा को स्वच्छ करना असंभव है!
स्व-चरित्र-चालीसा बखान करते-करते स्वामी अद्भुतानंद महाराज बोले- भद्र जनों! शिष्टाचार जीवन का सबसे बड़ा सत्य है, क्योंकि वह जीवन की सभी विद्रूपताओं को ऐसे ढांप लेता है, जैसे प्राकृतिक कुरूपता को कोहरा। किंतु, यह स्वयं असत्य पर आधारित है। और, असत्य ही शाश्वत सत्य है। इसी असत्य के माध्यम से सत्य को असत्य सिद्ध किया जाता है। लेकिन, असत्य को असत्य सिद्ध करना मूर्खता है, क्योंकि असत्य, असत्य है, यही सत्य है। असत्य को यदि असत्य के द्वारा सत्य सिद्ध कर दिया जाए, तब तो वह स्वत: सिद्ध सत्य हो ही जाता है, अत: असत्य दोनों ही अवस्थाओं में सत्य है। वायुमंडल में दीर्घ श्वास-प्रसारण करते हुए स्वामी जी आगे बोले- भद्रजनों! शिष्टाचार का आधार असत्य है, यह कथन शास्त्र-सम्मत है! शास्त्रों में उल्लेख है, 'सत्यम् ब्रुयात प्रियम् ब्रुयात, न ब्रुयात सत्यम् अप्रियम्।' सत्य बोला, प्रिय बोलो किंतु अप्रिय सत्य कभी न बोलो, क्योंकि अप्रिय सत्य- वाचन अशिष्टता है, शिष्टाचार के विरुद्ध है। अत: भद्रजनों, शिष्टाचार-मनकों के अनुरूप असत्य वाचन ही शिष्ट हैं, श्रेयष्कर हैं, क्योंकि सत्य सदैव अप्रिय ही होता है और असत्य सदैव ही प्रिय! और, सत्य यह भी है कि मानव भी असत्य प्रिय ही है। अत: जीवन का सर्वोच्च सत्य शिष्टाचार स्वयं असत्य पर आधारित है, यही सत्य है! फिर सत्य बखान कर अशिष्टता के प्रदर्शन का औचित्य क्या!
भद्रजनों! राजनीति से यदि भ्रष्टाचार समाप्त करना है, तो उसमें शिष्टाचार का समावेश करना होगा! मुद्र विनिमय के शिष्ट मार्ग खोजने होंगे। ऐसा होने पर जल में डूबे कुंभ का जल, जल में समा जाएगा। दोनों जल एक हो जाएंगे, अर्थात जल, जल हो जाएगा। उसी प्रकार कथित भ्रष्टाचार भी शिष्टाचार हो जाएगा। दोनों असत्य मिलकर सशक्त असत्य हो जाएंगे और फिर वही सत्य हो जाएगा।
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Wednesday, October 8, 2008

मर्यादा पुरुषोत्तम रावण!



मेरा मन अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हो गया है। मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, किस तरफ जाऊं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूं। मेरा मन बार-बार कृष्ण-कृष्ण का जाप करने लगता है। जहां तक उसकी पहुंच है, वह कृष्ण को खोजने लगता है। ताकि कहीं तो एक अदद कृष्ण मिल जाए और वैचारिक गाण्डीव खूंटी पर लटका कर वह उनसे साफ-साफ कह दे, ''हे, माधव! मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूं कि क्या उचित है, क्या अनुचित है! सत्य क्या है, असत्य क्या है और लाभप्रद क्या है, हानिप्रद क्या है! अत: माधव मैं शरणागत हूं। मुझे अपना शिष्य बना लीजिए और लाभ-हानि का पूर्ण लेखा-जोख समझा कर मुझे बताने की कृपा करें कि मैं किधर जाऊं? किसे अपनाऊं?'' किंतु मन निराश है, अर्जुन तो कदम-कदम पर लाइन लगाए खड़े हैं, किंतु कृष्ण खोजे नहीं मिल रहे हैं।
मैं निराश हूं और निराश व्यक्ति आत्ममंथन पर उतारू हो जाता है। मैं भी उसी दौर से गुजर रहा हूं। श्रवणेंद्रियों को वश में कर, मैं एकाग्र चित्त अंतरात्मा की आवाज सुनने की चेष्टा कर रहा हूं। मैं मन ही मन अंतरात्मा को जागृत करता हूं और विनय भाव के साथ कहता हूं, ''हे मार्ग संकेतनी, हे भवसागर पारिणी, हे परित्राणनी सत्ता प्रदायणी! तुम कानों में गूंजकर नेता को सत्ता की ओर जाने वाले मार्ग से परिचित करा देती हो। शुभ पर अशुभ और अच्छाई पर बुराई की विजय कराने में समर्थ हो। इस नाचीज के को भी संकेत करो कि मैं आदर्श के रूप में रावण-मार्ग का अनुसरण करूं अथवा राम के पद-चिन्ह की ही लकीर पीट-पीट कर फकीर बना रहूं अथवा रावण-मार्ग का अनुसरण कर मैं भी गणमान्य लोगों की श्रेणी में घुसपैठ कर जाऊं! हे, अंतर्यामी अंतरात्मा मुझे बताओ कि इस युग में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, रावण मार्ग अथवा राम मार्ग?''
रामलीलाओं का मौसम आते-आते मेरे मन की गति हर वर्ष ही इधर जाऊं या उधर जाऊं की ऐसी ही दुर्गति को प्राप्त हो जाती है। हर वर्ष ही मैं रावण के ग्लैमर से आकर्षित होता हूं, मगर लोक- लिहाज वश राम-मार्ग के अनुसरण की घोषण कर देता हूं। अनुसरण करूं या न करूं, मगर घोषणा अवश्य मेरे मुख पर चस्पा रहती है। लेकिन मैं इस बार कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा हूं।
मेरी अंतरात्मा कह रही है- अरे, मूर्ख! क्या प्राप्त हुआ तुझे राम-घोषणा से! राम दल ने तुझे चवन्नी-कार्यकत्र्ता के रूप में भी तो स्वीकार करना उचित नहीं समझा। चवन्नी का कार्यकत्र्ता भी तू यदि बन जाता, तो कम से कम रुपया, दो रुपए का तो आदमी बन जाता। फिर क्यों राम-राम कर वन-वन भटक रहा है! देख नहीं रहा है, राम भक्त भी राम नाम का दुशाला ओढ़, रावण-धर्म का अनुसरण कर ही भवसागर पार करने की इच्छा रखते हैं।
अंतरात्मा कहती है- रावण-वध राम का मुगालता है! राम भ्रम में हैं और स्वहित के कारण राम-भक्त उस भ्रम को सींच रहे हैं। यदि रावण वध हो जाता, तो प्रत्येक विजयादशमी पर पूर्व की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, अधिक संपन्न होकर सामने आकर न खड़ा हो जाता। देख नहीं रहा तू रावण का कद प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछली विजया दशमी को पैंतीस फुट का था, इस बार पचास का हो गया है। सुना है त्रेता में दस मुखी था। अब सहस्त्र मुखी हो गया है!
और राम का कद! रावणी-राजनीति के दुष्चक्र में घिस-घिस कर निरंतर लघुता को प्राप्त होता जा रहा है! चल तू ही बता, आज तक हुआ है कभी रावण के अस्तित्व पर विवाद! किसी ने दी है, रावण के अस्तित्व को चुनौती! कभी हुआ रावण के जन्म-स्थल पर विवाद और किसी ने कभी दी है, रावण के साम्राज्य लंका के अस्तित्व को चुनौती! नहीं, न! नित नए रावण-मंदिर प्रकाश में आ रहे हैं और राम! .. नए मंदिर प्रकाश में आना तो दूर राम के तो पुराने मंदिर भी विवाद की अंधी में ध्वस्त हो रहे हैं! राम के जन्म-स्थल पर विवाद, राम-सेतु पर विवाद, राम की अयोध्या विवादित, राम के अस्तित्व पर विवाद! जिस का मन करता है, वही रावण-मार्ग का अनुसरण कर राम को प्रश्न के घेरे में ला खड़ा करता है! फिर तू क्यों राम-राम की टेर लगाए है?
जरा, विचार कर मूर्ख! राम ने भले ही रावण पर विजय प्राप्त की हो, किंतु अंतिम शिक्षा राम ने भी मरणासन्न रावण से ही ग्रहण की थी। भले ही अनुज लक्ष्मण के माध्यम से ही सही! क्या इससे रावण के महत्व का पता नहीं लगता है! फिर तू क्यों गफलत में पल रहा है? अच्छा चल, बाकी सब छोड़! अंतत: एक बात बता, तू एक-मुखी राम-मुख से कितना खा लेगा! अरे, भावना का पल्ला छोड़ और एक मुख से नहीं दस मुख से खा! इस युग में यही धर्म है। यही धर्म मार्ग है, यही आदर्श है। राम नहीं, इस युग का रावण ही आदर्श-पुरुष है! रावण ही मर्यादा पुरुषोत्तम है!

Thursday, October 2, 2008

गांधी ने आत्महत्या कर ली!

हल्की-हल्की ठंड थी। रैंप पर हिठलाती माडल की तरह प्रकृति के अंग-प्रत्यंग चथड़े-चिथड़े कोहरे की भीनी चादर से बाहर झांकने का प्रयास कर रहे थे। सड़क को बोझ का अहसास कराती सरकारी बस मंजिल तक पहुंचने के लिए चेष्टा रत्ं थी। विभिन्न मुद्राओं में अपनी-अपनी सीटों पर पसरीं सवारियां भांति-भांति के जीवों की आकृति साकार कर रही थीं। कुछ सवारियां मुंह से बीड़ी का धुआं-धुआं उगल कोहरे की चिथड़ा चादर तार-तार कर फैशन शो के दर्शकों की तरह नग्न आंखों से प्रकृति के विराट स्वरूप के साक्षात दर्शन करने की चेष्टा कर रहीं थीं।
भ्रष्टाचार के शिष्टाचार में पगे विकासशील देश की तरह बस जैसे-तैसे कुछ ही सफर पूरा कर पाई थी कि झटके के साथ रुक गई। बस के साथ संवेदनशील रिश्ते जोड़ते हुए सवारियां शंका निवारण की मंशा से दरवाजे की तरफ मुखातिब होने लगीं। तभी खटपट-खटपट करते पुलिस वर्दीधारी कुछ लोगों ने बस के अंदर प्रवेश किया और अमेरिकी लहजे में सवारियों को अपनी-अपनी जगह बैठ जाने की हिदायत दे डाली। मिस्टर बुश की तर्ज पर उनकी दूसरी हिदायत थी, 'जिसके पास जो कुछ है निकाल दो।'
इसी के साथ उनमें से कुछ संयुक्त राष्ट्र प्रतिनिधियों की तरह सवारियों की खानातलाशी में जुट गए।
इकहरी धोती में लिपटा एक वृद्ध भी सवारियों की गिनती में इजाफा कर रहा था। वर्दीधारियों की चेतावनी कानों में टपकते ही उसने आंखों पर रखी गोल-गोल ऐनक के बटन नुमा शीशे साफ किए और इसी के साथ उनमें से एक व्यक्ति उसके पास पहुंच गया। तभी स्वयंभू कमांडर की आवाज गूंजी, 'अबे छोड़ ना! जाके बदन पै तो जूं भी भुख्खी मरे हैं, तू चला तिजाब वाले हथियार ढूंढनै। आगे बढ़ किसी सद्दाम अ देख।'
आतंक की स्याह लकीरों ने वृद्ध के चेहरे पर कश्मीर का नक्शा उतर आया था।
सीमापार आतंकियों की तरह अपना काम कर वर्दीधारी एक-एक कर रफूचक्कर हो गए। सरकारी कामकाज की तरह बस फिर अपने पथ पर अग्रसर हो गई।
समय और दूरी के अनुपात को झांसा देते हुए बस चंद फर्लाग की ही दूरी तय कर पाई थी पुराने चेहरे एक बार फिर बस के अंदर प्रगट हुए। मगर इस बार उनके चेहरे पर आतंकी रुआब नहीं चुनावी मौसम का नेताई सौम्य भाव था। बस में प्रवेश करते ही उनके स्वयंभू कमांडर ने हाथ जोड़ कर इस तरह बोलना शुरू किया मानों कोई नेता पिछले चुनावी वायदे पूरे न कर पाने के लिए क्षमा याचना के साथ वोट के लिए जनता के सामने पुन: याचिका दायर कर रहा हो।
थोपड़े पर सौम्य भाव उतारते हुए स्वयंभू कमांडर बोला, 'माफ करना भइया! परेसान करा, जे लो अपना माल-पत्ता। सुन भाई कंडटर्र जे ले, जिसके जितने थे बांट दें।'
हृदय परिवर्तित उनके व्यवहार को देख प्रश्न और आश्चर्य के भाव सवारियों के चेहरों पर भारत महान का नक्शा बन रहे थे, मिटा रहे थे।
इंसानी मूल्यों की तरह उतरते-चढ़ते भावों के बीच एक मुसाफिर के मुंह से अनायास ही निकला, 'अर्रे वाह! का ईमानदारी है तमैं तो ससुर पालिटिक्स में है ना चाइए था। तुम जैसेन लोग पालिटिक्स आ जावें तो, ससुर कुछ तो धरम-धोरों बचा रै।'
एक जुटता के साथ डिनर टेबुल पर काबिज पक्ष-विपक्ष की तरह आशा-निराशा के भाव स्वयंभू के चेहरे पर इस बार साथ-साथ काबिज थे।
मुसाफिर के सद्ंवचन सुन स्वयंभू बोला, 'ठीक कैरे ओ भइया! हम भी ससुर या ई चावै हैं। पालिटिक्स में कदम जमाने के लय्यां ई तमै या कष्ट दिया। ससुर! टिकट लेवें की ताई भी पैसा चइए अर चुनाव लड़वे की खातिर भी। बस याई जुगाड़ में दिन-रात एक कर रखी है। कोई बात नहीं! ऊपर वाले की जैसी मरजी।'
इस बार ऐनक वाले वृद्ध का बेदांती मुंह खुला, 'तो, फिर लोटा क्यों रहे हो?'
अंत:वस्त्रों की सीमा का अतिक्रमण करते हुए स्वयंभू बोला, 'बाब्बा! आगे साल्ला दरोग्गा खड़ा है, ख्भ् हजार में ठेक्का दिया था। तुमारे से सब मिलाकर क्भ् ही हाथ लगे, खाल्ली-पिल्ली में दस का अपनी जेब ते भरे?'
बस ठुमक-ठुमक कर पुन: आगे खिसकने लगी। अगले फर्लाग पर दरोगा तैनात थे। दरोगा जी ने हाथ दिया और खटाक की आवाज के साथ सेल्यूट के लहजे में ड्राइवर का पैर बस के ब्रेक पर पड़ा।
दरोगा जी ने बस के अंदर प्रवेश किया ड्राइवर से पूछा, 'सब कुछ ठीक है णा।'
ड्राइवर ने कहा, 'आपकी मेरबानी है, साब!'
ड्राइवर का सकारात्मक उत्तर सुन दरोगा जी के थोपड़े की चमड़ी म्0 अंश के कोण पर झुक ज्यामिति आकृति का निर्माण करने लगीं।
दरोगा जी को तसल्ली नहीं हुई। कन्फर्मेशन करने के लिहाज से इस बार उन्होंने जोर देकर पूछा, 'सब ठीक है णा, कोई राहजणी-वाजणी ता ना हुई।'
दरोगा जी को शौर्य चक्र प्रदान करने के लहजे में ड्राइवर ने जवाब दिया, 'साबबादुर के रैत्ते किस की मजाल, भला!'
ड्राइवर का कन्फर्म जवाब सुन साबबादुर का चेहरा तुषार पात से पीड़ित लता की तरह लटक गया। कद्दू सा बोझ भरा सिर लटकाए दरोगा के चरण बस से नीचे उतरे और वह कथक नृत्यांगना की मुद्रा में पेड़ के नीचे जा खड़ा हुआ।
अपनी धोती-लाठी संभाल वृद्ध महाशय भी उसी के साथ बस से उतर गए। बस फिर अपने गंतव्य की तरफ रेंगने लगी।
अहिंसक चप्पलें रगड़ते हुए वृद्ध महाशय ने दरोगा जी के समीप पहुंचे और हमदर्दी का परफ्यूम छिड़कते हुए बोले, 'साहब बहादुर! आप कुछ परेशान नजर आ रहे हैं। क्या आपकी परेशानी का कारण जान सकता हूं? मैं यदि आपके कुछ काम आ सका तो..।'
गुम चोट से पीड़ित दरोगा ने वृद्ध को झिड़का, 'के तो-तो..! तू के मेरा बाब्बा लगै। पैले अपनी परेसानी तै हल करलै। फिरै एक धोत्ति सी में लिपटा। लगै है, गरीबी रेख्खा के तले वाली रेख्खा के भी तलै का बाश्ंिादा सा, चला रामसिंह दरोग्गा की मुसीबत हल करवै। खोपड़ीए खराब ना कर, अपना रासता पकड़।'
वृद्ध ने अपने मधुर वचनों से दरोगा की चोट सहलाई और हमदर्दी की ऊष्मा से उसकी सिकाई की। ज़जबातों की गर्मी से दरोगा के सीने पर रखा पत्थर पिघलने लगा और इसी के साथ भावनाओं का स्रोत फूट पड़ा, 'कल कपतान साब के यहां सलाम ठोकने जाना है। अभी तक पचास हजार का भी जुगाड़ नहीं हुआ। साल्ला नेता भी धोख्खा दे गिया। पता नी फिरोत्ती वाला भी आएगा या नी।'
वृद्ध के बेदांती मुंह से निकला, फिरोती!
हां, एक समाजवादी से पकड़ कराई थी, दरोगा बोला।
कोहरे के चिथड़ा चादर धीरे-धीरे गायब होने लगी थी, प्रकृति के बदन से भी और वृद्ध के दिमाग से भी। इसी के साथ वृद्ध के चेहरे पर बिहार का नक्शा उभर आया।
अगले दिन कोहरे में लिपटी सुबह ने फिर मुंह चमकाया। कुछ नए उद्ंघाटनों के साथ, कुछ नए परिवर्तन और नए मूल्यों के साथ। नए मूल्य और परिभाषाओं के साथ वृद्ध सीधा मुख्यमंत्री निवास पहुंचा।
मुख्यमंत्री निवास पर आज कानून-व्यवस्था से संबद्ध प्रदेश के आला पुलिस अधिकारियों की बैठक थी। मुख्यमंत्री का दरबार सजा था, कानून-व्यवस्था स्थिति के ब्यौरे के साथ-साथ अधिकारी एक-एक कर मुख्यमंत्री के हुजूर में नजराना भी पेश कर रहे थे। नजराने के वजन के हिसाब से मुख्यमंत्री अधिकारियों की कर्तव्य परायणता, निष्ठंा और योग्यता जैसे नैतिक मूल्य परिभाषित कर रहे थे और उसी आधार पर पदोन्नति व तबादलों का निर्धारण।
वृद्ध, चिकनी चांद पकड़े टुकुर-टुकुर सब देखता रहा।
कानून-व्यवस्था का समीक्षा का दौर समाप्त हुआ। कानून-व्यवस्था के भार के साथ मुख्यमंत्री विश्राम कक्ष की तरफ चले गए। नजरानों का भार हल्का कर और नए दायित्व के भार से लदे अधिकारी एक-एक कर बाहर निकलने लगे। मगर खास कुछ अधिकारी अभी भी जमे थे। दरअसल अब सांप्रदायिक सौहार्द की बैठक शुरू होने जा रही थी।
नई सजधज के साथ मुख्यमंत्री का कक्ष में पुन: प्रवेश हुआ। मुख्यमंत्री जी बोल रहे थे, अधिकारी नोट कर रहे थे।
'प्रदेश में सांप्रदायिक सौहार्द की भावना लुप्त सी होती जा रही है। लगता है, यह शब्द ही पाताल में चला गया है। कहीं कोई हलचल नहीं। पाताल से पुन: निकाल कर लाना है, उसे जीवित करना
है। सांप्रदायिक सौहार्द हमारा नारा है, आदर्श है। देखा गया है, जब-जब दंगे हुए तब-तब
सांप्रदायिक सौहार्द का नारा बुलंद हुआ, लोगों में भावना जागृत हुई। इस विषय में हमें फिर सोचना होगा। याद रखें हम संप्रदाय के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद नहीं करते, हमारे लिए सभी समान हैं। महान इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए सभी संप्रदाय के लोगों का इस्तेमाल करना है। मगर ध्यान रखें हिंदू और मुसलमानों में सांप्रदायिक सौहार्द की भावना कुछ ज्यादा ही प्रबल है, इसलिए उनका इस्तेमाल विशेष रूप से किया जाना चाहिए। सांप्रदायिक सौहार्द हमारी प्राथमिकता है, जाओ प्रयास करों।'
बहनजी के संक्षिप्त मगर आध्यात्मिक प्रवचनों की तरह गूढ़ भाषण के रहस्य को आत्मसात कर अधिकारियों न अपनी-अपनी राह पकड़ी। मगर ठंड में सिकुड़े मेंढक की तरह वृद्ध कुछ देर तक वहीं पसरा रहा है, क्योंकि गूढ़ ज्ञान का रहस्य समझ में उसके भी आ गया था और रहस्य के आवेग से खिंची लकीरों ने उसके चेहरे पर उत्तर प्रदेश और गुजरात के मानचित्रों का एक साथ उतर आना रहस्य की गूढ़ता के पुख्ता सबूत बयान कर रहे थे।
मुख्यमंत्री जी के पास वह आया था, सफर की घटना का जिक्र करने, उस पर रोष व्यक्त करने अर्थात दरोगा की शिकायत करने। मगर वह ऐसा कर न सका। आत्मज्ञान प्राप्त हो जाने के बाद माया-मोह में लिप्त मनुष्य जिस तरह जगत मिथ्या का विचार मन में रख ब्रह्मं साक्षात्कार के लिए बेचैन होने लगता है, उसी तरह देश के शीर्ष कर्णधारों से भेंट करने के लिए वृद्ध बेचैन हो उठा। उसने सीधे देश की राजधानी की राह पकड़ी।
चमची-चमचों, पीए-पीओ और रथी-महारथियों के चक्रव्यूह का भेदन करते हुए अभिमन्यु की तरह वह देश के भीष्म पितामह 'गृह मंत्री' के सम्मुख प्रगट हो गया। सीनियर सिटीजन के रूप में अपना परिचय देते हुए उसने बैताल की कहानी की तरह शुरू से अंत तक की पूरी कहानी एक ही सांस में बयान कर दी।
वृद्ध की व्यथा-कथा सुन गृहमंत्री ने मरहम का फोया सा लगाते हुए कहा, 'महाशय ये सब राज-काज की बातें हैं, इनके चक्कर में क्यों पड़ते हो। व्यक्तिगत कोई समस्या हो तो बताओ।'
इसी के साथ मंत्री महोदय ने पीए साहब की तरफ इशारा किया और उसने वृद्ध की हथेली पर गांधी छाप दो नोट रखने का प्रयास किया।
नोट देख वृद्ध बांस की खरपच्ची की तरह कांप उठा, 'श्रीमान, प्रधानमंत्री राहत कोष से भीख लेने नहीं आया। देश गर्त में जा रहा है और आप राज-काज की बात कह कर टाल रहे हैं।'
मंत्रीजी मुस्कुराए, 'जब मुगल थे देश तब भी यहीं था। अंग्रेज आए चले गए, देश वहीं का वहीं है। फिर हमारे आने से देश गर्त में कैसे चला जाएगा?'
'देश गर्त में नहीं जा रहा है! कानून-व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं है, भ्रष्टाचार चरम पर है। साध्य और साधन दोनों की ही पवित्रता नष्ट कर दी गई है। मेरा मुंह भी आप नोट दे कर बंद कर देना चाहते हैं, श्रीमान।' वृद्ध ने कुनैन के से कड़वे घूंट पीते हुए कहा।
गीता का सहज भाव आत्मसात करते हुए मंत्री जी ने कहा, ' तुम गलत कह रहे हो, महाशय!
साधन वही पवित्र कहलाया जाता है, जिससे साध्य की प्राप्ति हो जाए। इस तरह हम साध्य-साधन
दोनों ही की पवित्रता बरकरार रखने के लिए हमेशा ही प्रयास करते रहते हैं। वैसे भी साम, दाम, दण्ड, भेद का पाठ भी गांधी सरीखे महानुभाव ही पढ़ा कर गए हैं। हम तो गांधी के पुजारी हैं, महाशय! यह उन्हीं का रामराज है। जिस राज में कानून का शासन हो उसे रामराज कैसे कह सकते हैं? कानून की धुरी पर रामराज नहीं चला करते। जिसे मुद्रा विनिमय को आप भ्रष्टाचार कहते हैं, वह भी गांधी के ही सिद्धांतों का आदान-प्रदान है।'
सड़क पर खड़े होकर लघुशंका करने वाले भतीजी-भतीजो की शिकायत करने की मंशा से वह चाचा के पास गया था। चाचा को छत के ऊपर खड़े हो कर लघुशंका निवृत्त करते पाया। वृद्ध को जैसे लकवा मार गया।
सुरक्षा कर्मियों ने लकवा ग्रस्त वृद्ध का शरीर गृहमंत्री निवास के बाहर एक कोने में रख दिया। अगले दिन हिंदी समाचार पत्रों में दस लाइन का एक संक्षिप्त समाचार था, 'गृहमंत्री निवास के बाहर लावारिस हालत में एक वृद्ध का शव बरामद हुआ है। उसके शरीर पर मात्र एक धोती लिपटी थी और बदन पर लटके एक धागे से जेब घड़ी बंधी थी। शव के पास से ही घुन खाई एक लाठी भी बरामद हुई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार वृद्ध भारत भ्रमण पर निकला था। पुलिस का मानना है कि वृद्ध ने आत्महत्या की है क्योंकि उसके शरीर पर चोट के निशान नहीं पाए गए, मगर चेहरे की झुर्रीयों के बीच भारत महान का मानचित्र अवश्य अंकित था। बाद में उसकी पहचान गांधी के रूप में की गई है। कुछ लोगों का मानना है कि महात्मा गांधी नाम का एक व्यक्ति स्वतंत्रता सेनानी हुआ करता था। गृहमंत्री ने घटना के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की है।'