Sunday, December 7, 2008



मुंबई बम हादसे में हुए शहीदों के नाम
एक ग़ज़ल -
ये सियासत का कैसा मंजर है।
चश्म-दर-चश्म इक समुंदर है।।
बात करते हैं' क्यों वो मजहब की?
उनके' हाथों में' जबकि ख़ंजर है।।
रोटियों के लिए, बमों की आग।
लकडि़यां, आदमी का पंजर है।।
फ़स्ल कैसे उगे, हि़फाजत की?
रहबरों के दिमाग़, बंजर हैं।।
मौत के मंजरों पे गुटबाजी।
इस वतन का अजब मु़कद्दर है।।
जा-ब-जा ढूँढ़ते हो तुम जिसको।
वो गुनहगार घर के' अन्दर है।।
सब्र का इम्तिहां न लो 'अंबर'।
सब्र का टूटना न बेहतर है
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