Tuesday, January 22, 2008

मेरे घर में संसदीय प्रणाली!

मेरे परिवार के लोकतांत्रिक ढांचे पर जब से संसदीय प्रणाली काबिज हुई है। मेरा घर, घर नहीं विधानसभा अखाड़ा बन गया है।
माइक नहीं है, मगर चकला-बेलन का उन्मुक्त प्रयोग होता है। थपथपाने के लिए बैंच नहीं, मगर थाली-परांत का बेझिझक इस्तेमाल किया जा रहा है।
आपातकालीन किसी भी स्थिति से निपटने के लिए बहू चप्पल-सैंडल पैरों में नहीं हमेशा हाथ में रखती है। बेटा बूट के तस्मे कसना हद दरजे की बेवकूफी समझता है। पौत्र बात-बात पर गर्दभ स्वर में हूट करने के वोकल व्यायाम में जुटा है।
पत्नी जब-जब भी सम्मानित सदस्यों के घेरे में घिर जाने के भय से आशंकित होती है, तब-तब सदस्यों को सदन से निष्कासित करने की धमकी देने लगती है।
सम्मानित सदस्यों की बहुमूल्य राय में मैं 'आउट डेटिड' हो गया हूं। दर्शक दीर्घा (घर के दरवाजे पर बनी बैठक) मेरे लिए आरक्षित कर दी गई है। उसके अलावा मैं कहीं कदम नहीं रख सकता क्योंकि ऐसा करने पर मेरे खिलाफ 'प्रिव्लेज' का मामला बनना तय है।
पतली गली से बर्हिगमन। संसदीय भाषा का अखंड पाठ। सदन कूप के अंदर जौहर दिखलाना। मां को आदरणीय कह-कह कर उल्टे लोटे पानी पिलाना। मेरे परिवार की परम्परा सी बन गई है। कुल मिलाकर मेरा परिवार ऐसे सभी मानदंड आत्मसात कर घर को आदर्श सदन बनाने पर तुला है, जिन्हें अपना कर सम्मानित कोई भी सदस्य 'बैस्ट पार्लियामंटेरियन' का खिताब हासिल करने की लालसा रखता है।
बात एक रात की है। पौत्र ने पानी पीने वाली लुटिया बजाई। भूकंप के झटको से लड़खड़ाती कच्ची दीवार की मानिंद जर-जर हमारा शरीर अज्ञात किसी आशंका से कांपने लगा। पता नहीं आज किस की लुटिया टांगने का मुहूर्त आ गया है।
लुटिया की कर्कश आवाज कानों में पड़ते ही घर में अचानक चहलकदमी शुरू हो गई। सदन का कोरम पूरा करने की मंशा से परिवार के सदस्य एक दूसरे को हॉल की तरफ खींचे ला रहे थे।
हॉल मेरे घर का वह सदन है, जहां बैठ कर सम्मानित सदस्य घर-परिवार की चिंता में मगरमछी आंसू बहाते हैं। अधिकार और मौलिक अधिकार के नाम पर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते हैं।
कोरम पूरा करने की गंभीरता भांप हमने अंदाजा मारा हो-न-हो मसला जरूर अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ा होगा। वैसे अविश्वास मेरे परिवार का स्थायी धर्म है। एक दूजे पर विश्वास करना हमारे यहां अधर्म है। फिर भी विश्वास और अविश्वास पर यदाकदा सदन की बैठक बुला ही ली जाती है।
मसला कुछ भी न था। मसला, फिर भी था। मसला बस शक्ल दिखाने से जुड़ा था। इसलिए बैठक का एजेंडा मामूली था।
'जन गण मन' के उपरांत सदन की बैठक शुरू हुई। लघु पुत्र खड़ा हुआ और बिन प्रसंग ही चीखने लगा। अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान उसकी अम्मा ने व्यवस्था देते हुए बैठने का इशारा किया।
बेटे ने जिद्द पकड़ी।
अध्यक्ष ने पैंतरा बदला- 'अच्छा चल पहले तू ही बोल ले। प्रश्नकाल बाद में शुरू कर लेंगे।' अध्यक्ष ने व्यवस्था परिवर्तन कर नई व्यवस्था फेंकी।
दीर्घ पुत्र ने नियम-उपनियमों की पुस्तक हवा में लहराते हुए 'प्वाइंट आफ आर्डर' उछाला।
सत्तापक्ष का पक्ष लेते हुए अध्यक्ष
गुर्राई-'सदन सर्वोच्च है। कोई भी नियम उससे ऊपर नहीं है।'
दीर्घ बैठ गया, यह सोच कर कि अध्यक्ष की इस व्यवस्था से वह स्वत: ही सभी कायदे-कानून से ऊपर हो गया।
अपने पति का अपमान समझ बहू ने हवा में बेलन घुमाया। पति ने 'चीफ व्हिप' के लहजे में बैठने का इशारा किया। बहू बड़बड़ाती बैठ गई।
लघु ने बोलना शुरू किया-'हमारे जन्म दिन की वीडियो फिल्म नहीं बनाई गई। बड़े भइया का यह रवैया पक्षपात पूर्ण है। सदन को इसकी निंदा करनी चाहिए।'
बिना बारी के ही बहू ने प्रतिवाद किया-'हमारी शादी की फिल्म बनवाने के नाम पर तुम्हारे बाप ने तोंबा सा मुंह बना लिया था। तब तो तुमने भी मुंह पर टेप चिपका ली थी। अपने साथ गुजरी तो कैसे बकरे की तरह मिम्यां रहे हो।'
अध्यक्ष ने व्यवस्था दी-'बाप सदन में नहीं है, इसलिए उसका नाम लेना सदन की मर्यादा के खिलाफ है। इसे कार्यवाही से निकाल दिया जाए।'
साड़ी का पल्लू कमर में खोंसती बहु बोली, 'सदन में न सही दर्शक दीर्घा में तो बैठा-बैठा खकार रहा है। एक सदस्य ने सम्मानित दूसरे सदस्य पर आरोप लगाया है, इसलिये मामला सदस्य के विशेषाधिकार हनन का बनता है, ससुर जी को सदन में तलब किया जाए।'
लघु के दिल में बाप प्रेम जागृत हुआ। उसने जूता भाभी की तरफ उछाला और वक्तव्य हवा में धकेला, 'बाप को तोंबा कहती है।'
अध्यक्ष ने सदन की गरिमा का हवाला दिया।
मगर अध्यक्ष की यह व्यवस्था भी शोर-गुल में डूब कर रह गई। बाप का पक्ष लेते हुए लघु फिर चिल्लाया, 'सदन चाहे जाए भाड़ में, मगर बाप को तोंबा नहीं कहने दूंगा।'
जवाब में बहू ने लघु के सिर पर बेलन दे मारा।
अम्मा ने अपना सिर बचाते हुए सदन की कार्यवाही पंद्रह मिनट के स्थगित कर दी।
यानी के सिर फुटव्वल के लिए पंद्रह मिनट की खुली छूट दे दी। सदन की बैठक फिर शुरू हुई।
पौत्र ने सम्मानित दोनों सदस्यों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया।
अम्मा ने मामला रफा-दफा करने की गर्ज से प्रस्ताव विशेषाधिकार समिति के सुपुर्द कर अपना दामन विवाद से बचाया। निरीह जनता की तरह दर्शक दीर्घा में बैठे-बैठे हम खून के घूंट पीते रहे और कुछ इस तरह सोचते रहे-''वाह रे, सदन! जिन नियमों के कारण तू सर्वोच्च कह लाया, उन्हीं का हंता कहलाया।
नियम बनाना तो तेरा अधिकार था। नियम तोड़ने का अधिकार तुझे किसने दे दिया। सदन की गरिमा का कभी कुछ तो ख्याल रखा होता। अपने हित त्याग कभी तो समूचे परिवार के बारे में भी सोचा होता।''