Saturday, March 29, 2008

जूं रेंगती नहीं अथवा अहसास नहीं होता

आजकल जूंओं के बारे में एक आम शिकायत है कि उन्होंने रेंगने छोड़ दिया है, निष्क्रिय हो गई हैं। पति को पत्‍‌नी की जूं से शिकायत हैं। घर कभी चिल्ड्रेन पार्क सा लगता है तो कभी कबाड़ी की दुकान सा। लाख कहने के बावजूद पत्नी के कान पर जूं नहीं रेंग रही है, घर व्यवस्थित नहीं कर पा रही है। पत्नी को पति की जूं से शिकायत है। बार-बार चीखने चिल्लाने और आंसू जाया करने के बाद भी पति की जूं सक्रिय नहीं हों रहीं है। पति रास्ते पर नहीं आ रहें हैं। संतान को मां-बाप की जूंओं से और मां-बाप को संतान की जूंओं से इसी तरह की शिकायत है।
इस प्रकार की शिकायतें केवल घरेलू जूंओं की ही नहीं है। राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इस प्रकार की शिकायतें बहुतायत में प्राप्त होती रहती हैं। स्वायत्ता के लिए तिब्बती आन्दोलन कर रहे हैं। उनके समर्थन में यूरोपिय देश भी चिल्ल-पौं मचा रहे हैं, मगर चीन के कान की जूं रेंग ही नहीं रही है। भारत व पाकिस्तान को भी एक-दूजे की जूंओं से कमोबेश ऐसी ही शिकायतें हैं। कैसी अजीब बात है कि जब जूं निष्क्रिय हों जाती हैं, तो सेनाएं सक्रिय हो जाती हैं और आतंकवाद की जूं शरीर पर चहलकदमी करने लगती हैं।
इसी प्रकार की शिकायतें राष्ट्र-राज्य स्तर पर भी है। महंगाई बढ़ रही है, किसान आत्महत्या कर रहें हैं और सरकार के कान पर जूं तक नहीं रेंग रही है। एक-आधा जूं ने करवट बदली भी थी, किसानों के कर्ज माफ कर दिए गए, मगर बाकी जूं उसका श्रेय लेने में जुट गई। बहरहाल किसानों का जीवन-मुक्ति अभियान जारी है! अजीब बात है कि देश का आम नागरिक भ्रष्टाचार की आग में झुलस रहा है और प्रशासन भ्रष्टाचार के आरामदेह गद्दों पर सुख की नींद सो रहा है। उसके कान पर एक जूं तक नहीं रेंग रही है।
शासन-तंत्र भले ही कोई हो जूंओं की मानसिकता अपरिवर्तनीय है। राजतंत्र हो या हो लोकतंत्र जूं समान भाव से ही रक्तपान करती हैं। वे अपने मन से ही सक्रिय होती हैं और अपने ही मन से निष्क्रिय। जब इच्छा होती है कान पर चहलकदमी करने लगती हैं, जब इच्छा होती है, तंद्रा में लीन हो जाती हैं। मगर एक अहम सवाल यह भी है कि जूं क्या वास्तव में अपने धर्म से विमुख हो गई हैं? क्या वास्तव में अब वे रेंगती नहीं हैं? हमें लगता है कि उन पर निष्क्रिय होने का आरोप लगाना जूंओं के प्रति अन्याय ही है।
हो सकता है, हताश कुछ लोगों की जूंओं ने रेंगना बंद कर दिया हो। रेंगने का जब कोई फर्क ही न पड़े तो व्यर्थ रेंगने का औचित्य भी क्या? जूं रेंगना शुरू भी कर दें, तो भी कौन बबूल पर आम लटकने लगेंगे और नहीं रेंग रहीं हैं, तो ही क्या आम के वृक्षों पर बबूल के कांटे उग आए हैं। दरअसल मसला जूंओं के रेंगने न रेंगने का नहीं है। असल मसला है अहसासीकरण का। जब अहसास होना ही बंद हो जाए तो ऐसी स्थिति में उनका रेंगने या न रेंगना स्वयं ही औचित्यहीन हो जाएगा।
जनता कितनी भोली है, जूंओं से उम्मीद करती है कि वे अपने पदचाप से सरकार को जागृत कर देंगी। सरकार निद्रा में नहीं है, जो जागृत अवस्था में आएगी। सरकार विदेह है, अर्थात अशरीरी और देह से परे आत्म स्थिति प्राप्त प्राणी के कान पर जूं रेंगे या न रेंगे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
जनता वास्तव में भोली है, वह नहीं जाती है कि प्रशासन भोग-योग, आसक्ति-विरक्ति और राग-वैराग्य से परे कर्मयोगी की स्थिति को प्राप्त हो गया है। वह भोगों का भोग करता है, मगर उनमें लिप्त होता नहीं है। वह भ्रष्टाचार करता है, मगर भ्रष्टाचार में लिप्त नहीं है, इसलिए वह भ्रष्टाचारी नहीं है। जब वह कर्म करते हुए भी कर्मो में लिप्त नहीं है, तब जूं रेंगे या न रेंगे फर्क क्या पड़ता है। अत: तोहमत जूंओं पर लगना वाजिब नहीं है। जूंओं का काम रेंगने है, आज भी रेंग रहीं हैं। उनके शरीर पर न सही तुम्हारे शरीर पर ही सही। असल मुद्दा अहसासीकरण का है। विदेह और कर्मयोगी अहसास विहीन होते हैं। अत: जूं रेंगने भी लगे तो फर्क क्या पड़ता है!
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