Monday, July 15, 2013

हीरामन


राजेंद्र त्यागी
    
बूढ़ा वृक्ष, हीरामन को समझाता, ''ढेले मार कर कच्चे-पक्के फल तोड़ना बच्चों का स्वभाव है। वे नहीं जानते कि फल तोड़ने की उनकी कोशिश शान्त वृक्षों का तन घायल कर रही है।'' कुछ देर विचार करने के बाद वह फिर बोला, ''अच्छा हीरामन! तुम्ही बताओ, क्या तुम फल खाना छोड़ सकते हो? मल-मूत्र त्यागना बन्द कर, क्या हमारा तन गन्दा करना छोड़ सकते हो? ..शायद कभी नहीं, क्योंकि ऐसा करना तुम्हारा स्वभाव है! इसी प्रकार फल देने हमारा स्वभाव है! ..जब तुम अपने स्वभाव का परित्याग न करने के लिए विवश हो और बच्चे अपना स्वभाव न त्यागने के लिए..! फिर वृक्ष ही अपने स्वभाव का त्याग क्यों करें?'' अपने प्रश्नों का उत्तर स्वयं ही देते हुए बूढ़े वृक्ष ने आगे कहा, ''..हीरामन! यह स्वभाव ही तो हमारी पहचान है!''
  हीरामन बूढ़े वृक्ष के प्रवचन सुनता और आंखें बंद कर मनन करने लगता, ''..जब फल देना वृक्षों का स्वभाव है और वे स्वभाव का त्याग न करने के लिए विवश हैं, तो फिर एक-एक फल के लिए हमारे बीच संघर्ष क्यों? क्या यह भी हम जीवों का स्वभाव है?''
   बूढ़ा वृक्ष दार्शनिक मुद्रा में हीरामन की शंका का समाधान करता, ''हीरामन! जरा-जरा सी बात के लिए संघर्ष करना जीवों का स्वभाव नहीं, आदत है! ..स्वभाव और आदत के मध्य अन्तर होता है। स्वभाव प्रकृति प्रदत्त है और आवश्यकता के अनुसार आदत हम स्वयं गढ़ लेते हैं। स्वभाव नहीं बदला जा सकता, आदत बदली जा सकती है!''
  हीरामन, मन से भी हीरा था और स्वभाव से भी। उसका मन कुन्दन की तरह खरा, निश्छल था और तन हीरे की तरह सप्तरंगी आभा लिए हुए। पंखों पर इंद्रधनुषी आभा, कण्ठ मानो नीलकण्ठ भगवान के आशीर्वाद का फल, चोंच जैसा सूर्य देवता ने अपनी प्रथम किरण से स्वयं सँवारी हो। मन निर्मल, नैतिकता की साक्षात प्रतिमूर्ति। आदर्श व सिद्धान्तों पर जान न्योछावर करने वाला, हीरामन!
  हीरामन तोते की योनी में होने के बावजूद तोताचश्म नहीं था। यही उस में एक अवगुण था। अर्थात छल-छद्म व प्रपंच से ग्रस्त इस संसार में असफल। जब कभी चार दोस्त मिल-बैठते हीरामन पर तरस खाते और उसे समझाने बैठ जाते, ''देख हीरामन! जमाने की चाल पहचान। कब तक यूँ ही धक्के खाता रहेगा? तेरे दोस्त कहाँ से कहाँ पहुँच गऐ और तू है कि..! बुद्धिमान वही है जो अवसर के अनुरूप अपने -आपको  परिवर्तित करले! .. 'बी पै्रक्टिकल हीरामन'!''
   शुभचिन्तक समझाते, ''..अच्छा, हमे ही देख हीरामन! मजे से फल खाते हैं और पेट भरा नहीं कि उड़ जाते हैं और तू, खुद नहीं खाता! काट-काट कर बच्चों को खिलाता है, खुद भूखा रह जाता है! अरे, छोड़! बच्चे तो ढेला मार कर खुद ही तोड़ लेंगे। ..तू अपनी सोच हीरामन!''
 ''..ना-भाई-ना! वहे भी क्या जीव जो दिन-रात अपने ही पेट की सोचता रहे? कुछ उपकार भी तो करना चाहिए। वैसे भी बच्चों को स्वादिष्ट फल खिलाने में बड़ा आनन्द आता है। बच्चों के ढेले से वृक्षों का तन भी घायल होने से बच जाता है और कच्चे फल भी टूटने से बच जाते हैं।'' हीरामन बूढ़े वृक्ष की बात याद कर कहता, ''बस मेरी तो यही पूंजी है! सन्तोष में ही परम सुख है, भाई! ..मौकापरस्त जीव असन्तुष्ट रहते हैं और असन्तुष्ट जीव कभी सुखी नहीं रहते। ..अरे, भाई! अपनी भी तो कोई जमीर होती है!''
  शुभचिन्तक पलटवार करते, ''नादान हीरामन! जमीर, आदर्श, सिद्धान्त और नैतिकता की मदिरा दूसरों को पिलाने के लिए होती है, खुद पीने के लिए नहीं! ताकि पीने वाला तेरी तरह नैतिकता के नशे में मदमस्त रहे और अपन मीठे-मीठे फलों पर हाथ साफ करते रहें! ..कौए को देख हीरामन! कितना चालाक है! सुबह-सुबह कांऊ-कांऊ कर सारे संसार को नैतिकता का पाठ पढ़ाता है और निगाह बचते ही पराए माल पर हाथ साफ कर जाता है!''
  शुभचिंतकों की बात सुन हीरामन बेबाक लहजे में कहता, ''चालाक है तो क्या? ..गू में भी तो चोंच वही मारता है!''
  शुभचिंतकों को हीरामन का 'दर्शन' समझ नहीं आता। उसके साथ झक मारते, उस पर तरस खाते और पंख फड़फड़ा कर उड़ जाते 'तलाश' में। ..हीरामन सोचने लगता, ''कैसा जमाना आ गया है! सरल स्वभाव के मूर्ख व धूर्त और चालक जीव प्रैक्टिकल एप्रोच के कहलाए जाते हैं!'' ..खैर स्वभाव हीरामन का! स्वभाव कैसा भी हो जीव चाह कर भी त्याग नहीं पाता। उसी प्रकार जमाने की तमाम दुश्वारियां सहने के बावजूद हीरामन भी अपने आदर्श व सिद्धान्तों को तिलांजलि नहीं दे पाया।
   एकान्त पाकर हीरामन पंख सिकोड़ता, आंखें बंद कर मन ही मन जमाने पर तरस खाता, ''..कैसा जमाना आ गया है, भाई! ..चलो, ठीक है! मैं मूर्ख ही सही! ..सुखी तो हूँ, मानसिक शान्ति तो है! प्रैक्टिकल एप्रोच वाले लोगों को मानसिक शान्ति कहाँ! ..नहीं, मुझे नहीं बनना प्रैक्टिकल!''  हीरामन को शान्तभाव से बैठा देख तोतों के बच्चें टींऊ-टींऊ कर उसे घेर लेते। उन्हें देख हीरामन भी खुशी से पंख फड़फड़ाने लगता। हीरामन समझ जाता, उन्हें फल चाहिए। वह उन्हें लेकर फलदार वृक्षों की ओर उड़ता और मीठे-मीठे फल खिलाकर आनन्द की प्राप्ति करता। फल खाते-खाते जब बच्चों का मन भर जाता, हीरामन से कहानी सुनाने का आग्रह करते। हीरामन उन्हें नैतिकता से भरपूर पौराणिक कहानियां सुनाता।
  एक दिन ऐसा भी आया जब शुभचिंतकों ने अपने-अपने बच्चों को हीरामन के पास जाने से रोकने लगे। वे नहीं चाहते थे कि नैतिकता की कहानियां सुन-सुन कर उनके  बच्चे भी हीरामन की तरह दुनियादारी की रफ्तार में पिछड़ जाएं, निकम्मे बन जाएं। धीरे-धीरे हीरामन अकेला पड़ने लगा। उसके चरित्र पर भी संदेह की अंगुलियां उठने लगी।
   अकेलेपन से हीरामन दुखी न था। उसके दुख का कारण था, चरित्र पर संदेह। चरित्र पर कीचड़ उछलीहीरामन का हीरे जैसा मन क्लान्त हो गया, किन्तु कुछ समय के लिए ही। वह स्वभाव के अनुरूप सन्तोष कर बैठ गया। सोचने लगा, ''पत्थरों के डर से वृक्ष फल देना तो नहीं छोड़ते! स्वभाव तो स्वभाव है, प्रकृतिजन्य है! ..फिर पत्थरों से कैसा भय! ..बस, आत्मा स्वच्छ होनी चाहिए, तन पर लगे मैल की चिन्ता क्यों?'' मन शान्त कर हीरामन ने परिंदों का संसार छोड़ कर मनुष्यों के संसार में जाने का फैसला किया। उसका अनुमान था कि थोड़ी-बहुत नैतिकता यदि कहीं शेष है, तो वह मनुष्यों में ही है।
  जंगल छोड़ हीरामन ने शहर की तरफ उड़ान भरी। हारा-थका हीरामन एक दिन शानदार बंगले की मुंडेर पर आराम फरमाने बैठ गया। तभी बंगले के मालिक के बच्चों की निगाह हीरामन पर पड़ी और उन्होंने उसे पकड़ लिया। हीरामन भी खुश था, कहानी सुनाने के लिए उसे बच्चे मिल गए थे। रंग-रूप देखकर बच्चों के मात-पिता भी हीरामन पर मोहित हो गए। सुंदर-सा एक पिंजरा मंगवाया गया और हीरामन को उसके अन्दर कैद कर दिया गया।
  हीरामन को खाने के लिए चने की दाल और फल दिए जाने लगे। रोज सुबह-शाम उससे 'राम-राम' का जाप सुना जाने लगा। बच्चे उससे बाते करते। हीरामन भी खुश था, भरपेट भोजन के साथ-साथ, बाते करने के लिए बच्चे, चिन्तन के लिए एकान्त और परलोक सुधारने के लिए राम-नाम का जाप!
  पिंजरे का आकार बढ़ता चला गया और पिंजरे में तोतों की संख्या भी। हीरामन के दिन और प्रसन्नता से कटने लगे, किन्तु दूसरे तोते कैद में स्वयं को व्यथित महसूस करने लगे थे। व्यथित तोतों को हीरामन समझाता, ''क्या रखा है, पिंजरे के बाहर के संसार में! सांसारिक प्रपंच से दूर कितना सुख है यहां, राम का नाम लेने के लिए दो घड़ी का समय भी मिल जाता है और पेट भर भोजन भी।'' हीरामन की बात अन्य तोतों की समझ न आती। वे ताक में रहते, काश! धोखे से ही सही, कभी पिंजरा खुला रह जाए और वे खुले आसमान में फुर्र से उड़ जाएं! ..खुला आसमान न सही किसी अन्य के पिंजरे का सुख लिया जाए!
  एक दिन ऐसा भी आया, जब मालिक ने यह सोचकर पिंजरे का दरवाजा खोल दिया कि तोते अब पालतू हो गए हैं और पिंजरे से निकल कर अब इन्हें पूरे बंगले की शोभा बढ़ानी चाहिए। पिंजरा खुलते ही सभी तोते बंगले से बाहर भागने की जुगत में लग गए। शाम हुई और जुगत भी लग गई। तोतों ने हीरामन से कहा, ''..चल उड़ चल, मौका है!''  इनकार कर, हीरामन उन्हें नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगा, ''निष्ठा भी कोई चीज होता है! इतने दिन से मालिक की दाल खा रहे हैं, उसका कोई अर्थ नहीं? ..विचार करो, भाई! हम तो उड़ जाएंगे, मगर मालिक पर क्या बीतेगी, उनके बच्चे निराश हो जाएंगे। कितना अच्छा है मालिक, कोई जरूरी तो नहीं कि दूसरी जगह इससे अच्छा मालिक मिल जाए! ..मत जाओ! रोज-रोज मालिक बदलना अच्छा नहीं है! ..मालिक के प्रति निष्ठावान बनो!'' हीरामन का 'निष्ठा-दर्शन' सुन तोते हँस कर बोले, ''हीरामन! मूर्ख नहीं, 'प्रॉफेश्नल' बन! ..प्रॉफेश्नलिज़्म में निष्ठा के लिए स्थान कहां? ..चल-आ-उड़ चले! ..अन्य किसी पिंजरे का आनन्द लेंगे!'' प्रॉफेश्नलिज़्म की परिभाषा सुन हीरामन का हीरे-सा मन दुखी हो गया और उसके क्षुब्ध मन से निकला, ''धर्म-धोरा अब कहीं नहीं बचा!'' निष्ठा से बंधा हीरामन मुंडेर से उड़ कर पिंजरे में जा बैठा। शेष तोते हीरामन के मुकद्दर पर तरस खाते-खाते नए पिंजरे की तलाश में खुले आसमान में उड़ान भरने लगे।
  हीरामन ने जिन तोतों को उड़ना सिखाया, वे लोहे के पिंजरे से सोने-चांदी तक पहुँच गए। उन्हीं में से कुछ अवसर पाकर देश-विदेश के चिड़ियाघरों की भी सैर कर आए, लेकिन निष्ठावान हीरामन लोहे के पिंजरे से बाहर न निकल पाया। वह इसी को अपना मुकद्दर समझ खुश रहता। उसे सन्तोष था कि कथित 'प्रॉफेश्नलों' की तरह भले ही उसने कुछ न पाया हो अथवा बहुत कुछ खो दिया हो, किन्तु निष्ठा और ईमानदारी की पूँजी तो उसी के पास है! उसे सन्तोष था कि कम से कम वह अवसरवादी तो न कह लाया जाएगा!
    एक-एक कर दिन बीतते गए और हीरामन परिवार के सदस्यों में घुल-मिलता चला गया। एक दिन उसे लगा कि वह खुले आसमान में उड़ने वाला जंगली परिंदा नहीं, मालिक के परिवार का ही एक सदस्य है। उसने एक दिन अपनी भावना से मालिक को भी अवगत कराया, ''..मैं भी तो इस परिवार का एक सदस्य ही हूं! आप मुझ पर इतना खर्च करते हैं, अच्छा नहीं लगता कि मैं खाली बैठा बस राम नाम का जाप करता रहूँ! पिंजरे से निकल कर अब मुझे समूचे बंगले की शोभा बढ़ानी चाहिए, परिवार हित में कुछ और भी कार्य करना चाहिए! ..वैसे भी पिंजरा अब मेरे आकार के हिसाब से छोटा हो गया है।''
  हीरामन की बात सुन मालिक मन ही मन मुसकराया। पिछले हादसे को लेकर मालिक सतर्क हो गया था। तोते चालाक परिंदे होते हैं, उसकी धारणा ओर पुष्ट हो गई थी। वह हीरामन को भी संदेह की दृष्टिं से देखने लगा था। उसे लगा कि हीरामन भूल सुधारना चाहता है। अपने अन्य साथियों की तरह उड़ जाना चाहता है। अत: उसके राशन-पानी में वृद्धि और गुणवत्ता में सुधार कर दिया गया, किन्तु हीरामन को पिंजरे से निजात न दी। इसके विपरीत पिंजरे के कुंदे में एक कील डाल दी गई, ताकि पिंजरा हवा से भी न खुलने पाए। साथ ही मालिक हीरामन का विकल्प तलाशने में जुट गया। मालिक का व्यवहार और संदेह से हीरामन के मन को ठेस लगी।
  दिन बीतते गए और वक्त के साथ-साथ हीरामन के मन की पीर का इलाज स्वत: ही होता गया।  दरअसल जब कभी मालिक नैतिकता का बखान करता, हीरामन ध्यान से सुनता और मन ही मन उसकी सराहना करता। वह सोचता, ''जैसा सुना था, मालिक वैसे हैं,नहीं! पता नहीं, मनुष्य समाज में एक-दूसरे के खिलाफ अफवाह क्यों उड़ा दी जाती हैं? ..बस यही कमी है, मनुष्य समाज में, दूषित राजनीति का त्याग कर दें तो इससे सुंदर समाज दूसरा और कोई है नहीं!'' लेकिन एक दिन हीरामन का भ्रम चूर-चूर हो गया। ..उसका कोमल हृदय शीशे की तरह चूर-चूर हो गया था। अफवाह हकीकत में बदल गई। मालिक वैसा ही निकला, जैसा उसके बारे में सुना था। ऊपर से आदर्शवादी, सिद्धान्तवादी और अन्दर से 'प्रैक्टिकल' एप्रोची! ..उस दिन मालिक सच बोलने के आरोप में अपने पुत्र को डाट रहा था, ''मूर्ख है तू, गधा है! सत्यवादी हरीशचंद्र बनता है। ..अरे ये नैतिकता-वैतिकता सब दिखाने के दांत होते हैं! मैं यदि तेरी तरह हरीशचंद्र होता तो तू आज नई-नई कारों में न घूम पाता, शानदार इस बंगले में न रहता। ..अरे मूर्ख, सच्चाई की नींव पर एम्पायर नहीं खड़ी हुआ करती हैं! ..तेरी यह नैतिकता जरुर एक दिन इस एम्पायर की नींव हिला देगी!''
   मालिक ने हीरामन की ओर संकेत कर कहा, ''देख रहे हो इस परिंदे को! अपना भला-बुरा यह भी सोचता है। जिस दिन दाल-दाना देना बंद कर दोगे उड़ जाएगा, पिंजरे से! ..पिंजरे से मुक्ति पाने के लिए एक दिन उसने भी असत्य का सहारा लिया था। अपने आपको परिवार का सदस्य बता कर पिंजरा खुलवाना चाहता था!''    
  हीरामन की निष्ठा पर संदेह! हीरामन का कण्ठ और नीला पड़ गया। सागर मंथन से निकला सम्पूर्ण विष जैसे उसके कण्ठ में समा गया हो! हीरामन! ..बेचारा हीरामन! गीली आंखों से कभी आसमान की ओर निहारता, तो कभी मालिक के गले में लटकी रुद्राक्ष की माल की ओर! कभी ऊपर वाले को कोसता तो कभी अपने मुकद्दर को। किन्तु आघात पर आघात के बावजूद निष्ठा की कैंची उसके पर कुतरती रही। उसका मन छटपटाता कभी कि सोने का पिंजरा त्याग लौट जाऊं अपने देश, लेकिन चाह कर भी वह पिंजरे से बाहर न निकल पाया।
   और एक दिन! ..हीरामन की मौज-मस्ती की कहानी सुन एक 'प्रॉफेश्नल' तोता मालिक की गोद में छटपटा कर  ऐसे आ गिरा मानो किसी बहेलिए ने अपने बाण से उसका तन घायल कर दिया हो! मालिक ने उसे इधर-उधर से देखा, उसके पंख सहलाए और कारिंदों को निर्देश दिए, ''हीरामन को मुक्त कर दो! उसका विकल्प मिल गया है!'' कारिंदों ने  आदेश का पालन करते हुए हीरामन को मुक्त कर दिया।
   अप्रत्याशित इस मुक्ति से हीरामन हतप्रभ था! निष्ठा का बोझ लेकर वह बंगले के बाहर गुलमोहर के वृक्ष की शाख पर बैठकर  'मनुष्य स्वभाव' को लेकर चिन्तन करने लगा, ''..कहते हैं कि मनुष्य और जानवरों में बस बुद्धि का अन्तर है। जानवरों के मुकाबले मनुष्य की बुद्धि विकसित होती है।'' हीरामन ने एक लंबी सांस ली और आसमान की ओर आह भरते हुए बोला, ''भाड़ में जाए विकसित बुद्धि! ..दूषित बुद्धि!'' ...हीरामन ने पंख फड़फड़ाए और गुलमोहर की शाख से उड़ चला अपने वतन की ओर, सोचते-सोचते, '' हम बुद्धिहीन ही अच्छे हैं! असभ्य हैं, जानवर हैं, किन्तु दूषित राजनीति से ग्रस्त तो नहीं! 'बी-प्रैक्टिल' का पाठ पढ़ाने वाले मेरे सहोदरों की कथनी-करनी में तो अन्तर नहीं! ''
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