Wednesday, April 30, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) –अंतिम

गतांक से आगे...
दृश्य-छह
(मंच पर पुन: छाया प्रकट होती है। फ्लैश लाइट उसी पर फोकस।)
छाया :
बापू कहीं फिर सुबह-सुबह ही न निकल जाएं, इसलिए अगले दिन मैं सूरज निकलने से पहले ही राजघाट पहुंच गया। बापू को प्रणाम किया। बापू उस दिन काफी उद्विग्न नजर आ रहे थे। उन्होंने मुझे समाधि के अंदर नहीं बुलाया, स्वयं ही बाहर आगए।
बापू (सहज भाव से) : चल पुत्र किसी वृक्ष के नीचे खुली हवा में बैठते हैं।
(पेड़ के नीचे बैठ कर बापू कल की कथा सुनाने लगे। कथा अभी आधूरी ही हुई थी)
हवलदार (बट मारते हुए कड़क आवाज में) :
कौन है बे, स्साले, खड़ा हो...!
(बट की मार से मुन्नालाल बिलबिला गया। बापू भी धोती संवरते हुए सावधान की मुद्रा में आगए)
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) :
नहीं-नहीं, कोई ऐसा-वैसा नहीं। यह तो मेरा शिष्य मुन्नालाल है, श्रीमान...। (गले में आया खकार सटकते हुए) मुझ से दो बातें करने आया था।
हवलदार (मूंछों पर हाथ फेरते हुए उसी आवाज में) : अछाऽऽऽ, एक नहीं दो-द्दो। तू कौण है, ब्बे।
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) : मैं-मैंऽऽऽ, जनाब पहचाना नहीं?
हवलदार (व्यंग्य भाव से) : हां, तुझे ना पिछान्ना ...चूक है गई ...माफ करना साब ...गांध्धी के भतिज्जो कू ना पिछान्ना,धत्त तेरे की! (रायफल और पांव एक साथ जमीन पर पटकते हुए) ...चलो सोहरो, थाणें चलों। दरोग्गाजी आप्पों पहचान लेंग्गे।
बापू (विनय भाव से) : नहीं-नहीं जनाब, मैं महात्मा गांधी ही हूँ और यह मेरा शिष्य मुन्नालाल...!
हवलदार (व्यंग्य भाव से) : हां स्साला! इस देस का हर तिज्जा आदमी गांध्धी ही हो वै या फिर गांध्धी का चेल्ला। अर बिचारे असल गांध्धी ए को ना पूच्छे! ( दोनों की कलाई थाम थाने की तरफ ले जाते हुए) एक रात हवालात में काटेग्गा, बस गांध्धीगरदी का सारा भूत उतर जावेग्गा (धक्का देते हुए) आग्गे नू जल्दी-जल्दी पांव बढ़ा।
(दोनों के हाथ थामें हवलदार थाने में प्रवेश करता है)
पहरेदार (व्यंग्य भाव से) : साब, कभी ढंग के आदमियों कू भी पकड़ लाया करो! ...किन्हें पकड़ लाए, इनके बदन पै तो जूं भी बिचारी भूख्खी मरै हैं। (माथे पर हाथ मार कर) आज तो भोनी भी ना हुई, लगै पूरा दिन ही खराब जावेगा!
(पहरेदार की बात सुन हवलदार हँस दिया और दोनों को धकेलते हुए थानेदार के कमरे में प्रवेश कर सलाम ठोका। थानेदार की नोट गिनती ऊंगलियों रुकी)
थानेदार (क्रोध का इजहार करते हुए) :
...अबे ओ भूतनी के किन कंगालों कू पकड़ लाया?
हवलदार (दांत निपोरते हुए) : सऽऽर, दोन्नों को गांध्धी समाधि से पकड़ा है। पेड़ के निच्चे बैठ्ठें साजिस रचरे थे।
थानेदार (ग्लानि भाव से) : ...स्साले! गांध्धीजी की समाधीय नुकसान पौंचाने आए होंग्गे!
बापू (गिड़गिड़ाते हुए) : नहीं, जनाब नहीं! जनाब ...मैं ही तो...!
हवलदार (मध्य ही में बनावटी हंसी हसते हुए) : ...सऽऽर, ये बूढ़ा अपने को महात्मा गांध्धी ही बतावै!
थानेदार (आसमान की तरफ मुंह उठा जंभाई लेकर खीजते हुए) : अच्छाऽऽऽ, स्सालो पै देस्सी कट्टा धर कै हवालात में डाल दै। ...सुबै देख्खेंगे।
बापू (विनीत भाव से) : जनाब जरूर कोई गलतफहमी हुई है, मैं गांधी ही हूं, मोहन दास वल्द करम चंद गांधी (कुछ देर रुकने के बाद) वही गांधी जिसकी हत्या गोड़से ने की थी, श्रीमान।
थानेदार (हँसते हुए) : कैसे मानलूं ..मिलान करने कू कुछ है तेरे पै?
बापू (पूर्व भाव से) : ...दीवार पर टंगे चित्र से मिलान कर के देखलो, जनाब...!
थानेदार (हंसते हुए) : ...चल, है गिया मिलान! मान लेवें हैं , तू गांध्धी ही सही। पर तुझे किसने सलाह दी, दिवाल सै उतर कै जमीन पै आन्ने की। तै उतरने की हिमाकत की है, तो सजा भी भुगत!
बापू (पूर्व भाव से) : नहीं-नहीं, श्रीमान यह तो अन्याय होगा...।
थानेदार (मुस्कराते हुए) : ...अच्छा! नियाय चहिए, तो कीमत चुका। ...अपना वादा पूरा कर!
बापू (आश्चर्य से) : सरकार कीमत! ...वायदा?
थानेदार (खीजते हुए) : घना भोला न बन। सेतमेत में नियाय ना मिलै ...जे थाना सै, थाना! मुकद्दमा ठोक दिया तो रोज कचैरी के चक्कर काटेगा, वकील कू फीस दे वेगा। सेंत मैं वहां से भी ना छूटै। अर दिकै सुन, पैसा खर्च करकै भी छूटवे की गारंटी ना। (कानून की किताब खोलते हुए) मै कम से कम पैसे लैकर छोड़वे की गारंटी तो लेरा हूं।
बापू (पूर्व भाव से) : जनाब, यह तो रिश्वत है, ...भ्रष्टाचार जनाब!
थानेदार (दीवार पर टंगे चित्र को ओर इशारा करते हुए) : ...देख, तेरा ई फोट्टो है, ना जे।
बापू (चित्र निहारते हुए) : ...हां, जनाब मेरा ही है।
थानेदार : ...फिर तो पंजा भी तेरा ई होग्गा।
बापू : जी जनाब!
थानेदार (बापू की ओर हाथ फैलाते हुए) : ...जी जनाब! तो फिर ला, अपने फोट्टो वाले नोट हाथ पै रख। ...तेरा वादा भी पूरा हो जागा अर दिके, जेब में तेरे नोट रहंगे तो तेरी सकल भी याद रहगी।
बापू (मजबूरी जाहिर करते हुए) : ...मगर जनाब! मैने तो जीते जी भी कभी रुपए-पैसे के हाथ नहीं लगाया। अब तो बात ही अलग है।
थानेदार (धिक्कारते हुए) : या ई तेरी भूल थी। अपने भगतों की तरह तू भी रास्टर सेवा कैस करता तो कोई गौडसे तेरा मडर ना करता। ...मरने के बाद तेरी आतमा निलाम न होत्ती और आज रात हवालात में ना काटनी पड़ती। ...पकड़ा जात्ता तो नोट दे कै छूट जात्ता। अपने भगतों की तरै घोटाल्ले पै घोटाल्ले कर कै भी इमानदार कहलात्ता...! (चेहरे पर व्यंग्य भाव लाते हुए) चल कौ ना! नोट ना हैं तो एक रात तो हवालात मैं रह। उंघह कोई गौडसे मडर तो क्या तुझै घायल भी न कर पावै! ...सेफ रहवेगा! (हवलदार को आवाज लगाते हुए) चलरे, बंद कर दोन्नो को। ...सुबै देखेंगे!
(थानेदार के इशारे पर हवलदार ने दोनों को हवालात में बंद कर दिया)
दृश्य-सात
(सुबह का समय, मंच पर थाने का दृश्य। हवालात में बापू और मुन्नालाल को निहारता थानेदार)
थानेदार (चोंक कर हवालदार की ओर संकेत कर) :
...अबे ओ भूतनी के ये के कर दिया तून्नै, गांध्धी जी को हवालात में डाल दिया। ...ये तो सच्च में ई गांध्धीजी हैं। ...अबे तू नै इतना भी ना दिख्खे। ...आंख्खन पै कतई पट्टी बांध रख्खी के।
हवलदार (गिड़गिड़ाते हुए) : सऽऽऽ र! सर कल बताया तो था। बूढ़ा अपने को गांध्धी बतावै है। ...इब छोड़ दूं, सर।
थानेदार (दांत पीसते हुए) : ऐसे ही बतावैं हैं, के (कुछ सोचने के बाद, मुंह चिड़ाते हुए) इब छोड़ दूं! छोड़वे की चौक्खी सलाह दी! ...चोक्खी सलाह देरा, छोड़ देवें। मरवा दे स्साले! उलटा मुकद्दमा ठोक दिया तो लेने के देने पड़ जावेंगे...। (इधर-उधर देखते हुए) चल एक काम कर भूतनी के दोनों कू वीआईपी रूम में सिफट कर दे, अर निलहाने-धुलाने का इंतजाम कर, नास्ता-पानी करा। मैं अभी आया। ...अर दिके जब तक लौट कै ना आंऊ किसी कू भनक तक ना पड़ै, बाप्पू हवालात मै। ...ना तो बैठ्ठें-बिठाए जान मुसीबत में पड़ जावेग्गी!
(हवलदार दोनों को थाने के अतिथि कक्ष में ले जाता है और बापू से क्षमा मांगते हुए उनकी सेवा-भाव में लग जाता है। घबराया थानेदार दौड़ा-दौड़ा गृहमंत्री जी के आवास पर। गृहमंत्री जनता की शिकायतें सुनने में व्यस्त हैं)
थानेदार (भय की मुद्रा में) :
...जयहिंद जनाब!
गृहमंत्री (उपेक्षा भाव से) : ...चेहरे पर बारह क्यों? ...विजीलेंस का छापा पड़ गया क्या?
थानेदार (रिरयाते हुए) : ...बैठे-बिठाए आफत आगी सरकार! ...इंघह कू तो अवो!
(गृहमंत्री थानेदार के साथ दूसरे कक्ष में चले जाते हैं)
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) :
...बोल, क्या आफत है?
थानेदार (हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए) : ...नौकरी बचालो माई-बाप, गजब ढै गिया, जनाब। ...गलती है गई, गलती।
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : रिश्वत लेते समय तो बाप को पूछते नहीं, फंस जाने पर माँई-बाप याद आते हैं!
थानेदार (पूर्व भाव से) : नहीं, जनाब! ...इस बार रिश्वत का मामला ना है!
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : ...फिर? ...अबे कुछ बकेगा भी या बापू की बकरी की तरह मिम्याता ही रहेगा।
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार वचन दो इस बार बचालोग्गे, नौकरी ना जान दोग्गे। ...बाल-बच्चे बिरान हो जावेंगे, सरकार।
गृहमंत्री (चेहरे पर सख्ती लाते हुए) : अबे बक तो सही किसका फर्जी एनकाऊंटर कर दिया?
थानाध्यक्ष (चेहरे पर घबराहट के भाव लाते हुए) : सरकार वो है ना कमबख्त हवलदार रामसिंग, बाप्पू अर उनके चेल्ले कू पकड़ लाया।
गृहमंत्री (थानाध्यक्ष की नकल उतारते हुए) : अबे कौन बाप्पू, किसका, तेरा के मेरा?...पूरी बात बताना।
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार, वही बाप्पू! ...महात्मा गांध्धी। ...राजघाट तै पकड़ लाया।
गृहमंत्री (घबराहट के भाव से) : अबे, क्या साले, बापू का एनकाऊंटर...?
थानेदार (पूर्व भाव से) : एनकाऊंटर ना सरकार...!
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : ...अबे, फिर?

थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार मेरी आंख पै पट्टी बंधी थी, मै न्नै दोनों कू हवालात मै डाल दिया। ...सरकार गलती है गई... बचालो सरकार।
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : अब कहां हैं, वें?
थानेदार (पूर्व भाव से) : सरकार दोन्नो कू हवालात सै रैस्टरूम में सिफट कर दिया।
गृहमंत्री ( होठों पर अंगुली रख कर) : चोंच बंद कर थोड़ी देर बाहर बैठ। ...किसी से कुछ मत बोलना, अपने आप से भी नहीं... समझा... जा बाहर बैठ! (पार्टी अध्यक्ष से फोन पर, हर्ष व्यक्त करते हुए) : ...हैलो, सऽऽऽ र! ...सर, खुशखबरी!
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) : क्याऽऽऽ..?
गृहमंत्री (भावावेश में ) : आपके आदेश का पालन हो गया, सर! ...गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया ..!
अध्यक्ष (आश्चर्य व घबराहट के मिश्रित भाव से) : क्याऽऽऽ! सच...!
गृहमंत्री (विजय भाव से) : ...जी जनाब!
अधक्ष (कृत्रिम क्रोध के साथ) : किसने कहा था, इतनी फुर्ती दिखाने के लिए?
गृहमंत्री (विनय भाव से) : हम तो हुकुम के गुलाम हैं, जनाब। आप हुकुम करें और तामील न हो यह कैसे हो सकता है, सर...!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : चल कोई बात नहीं! ...किंतु ऐसा करना, जिसने गिरफ्तार किया है, उसे तरक्की दे दे देना और देखो...!
गृहमंत्री (मुसकराते हुए) : ...ठीक, सर! ऐसा ही होगा। हवलदार को तरक्की दे दूंगा...!
अध्यक्ष : ...और सुनो! ...थानेदार का नाम राष्ट्रपति पदक के लिए प्रस्तावित कर देना!
गृहमंत्री (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : ...क्या, सर! राष्ट्रपति पदक...!
अध्यक्ष (हँसते हुए) : राष्ट्रपिता की गिरफ्तारी और राष्ट्रपति पदक भी नहीं? तुम नहीं समझोगे! ...अरे भई! .. खेल अभी खत्म थोड़ा ही हुआ है, थानेदार अभी और भी काम लेना है (कुछ देर रुकने के बाए) उसका मुँह भी तो बंद रहना चाहिए, समझे या नहीं!
गृहमंत्री (विनीत भाव से) : समझ गया सर, समझ गया! ...मगर सर, इस गुलाम के बारे में भी...!
अध्यक्ष (मध्य ही में झिड़कते हुए) : ...तुम्हे तो बस अपनी चिंता लगी रहती है। खैर, तुम्हारे बारे में कुछ न कुछ विचार अवश्य करेंगे...!
गृहमंत्री (दांत निकालते हुए) : ...काम तो उपप्रधानमंत्री पद के काबिल किया है, जनाब!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : ठीक है, भाई! प्रधानमंत्री से तुम्हारे नाम की सिफारिश करूंगा! ...और सुनो, ध्यान से सुन, बापू को रिहा मत करना। बापू रिहा हो गया तो सत्ता खतरे में पड़ जाएगी! ...बापू हमारे पूजनीय हैं, उनका ख्याल रखना! ...कोई तकलीफ नहीं होनी चाहिए! ...समझ गए ना!
गृहमंत्री (उत्साह के साथ) : समझ गया जनाब, समझ गया! .. सर बापू तो हमारे भी पूजनीय हैं, पूरा ख्याल रखूंगा। प्रणाम सऽऽऽर!
(गृहमंत्री थानेदार को अंदर बुला कर उसकी पीठ थपथपाते हैं। मगर उसके चेहरे पर घबराहट के भाव अभी भी काबिज हैं)
गृहमंत्री (हर्ष व्यक्त करते हुए) :
दरोगा जी, कमाल कर दिया। तुम्हारा तो मुंह चूमने को मन करता है...!
थानेदार (भय के भाव के साथ) : सर-सर-सर...!
गृहमंत्री (थनाध्यक्ष के चेहरे के भाव पढ़ते हुए) : ...घबराने की जरूरत नहीं है, दरोगा जी। तुमने वास्तव में काबिल-ए-तारीफ काम किया है। हवलदार को तरक्की और तुझे राष्ट्रपति पदक दिलाने की सिफारिश करूंगा। (कुछ विचार करने के बाद) मगर एक काम करना, अगले आदेश तक बापू को रिहा मत करना! ...बापू का हम सम्मान करते हैं, वें सुरक्षित रहने चाहिएं! ...देख उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न हो। खातिर-दारी में भी कोई कसर न रखना। ...चाहे कितना भी पैसा खर्च हो जाए।
थानेदार (आश्चर्य से गृहमंत्री की तरफ देखते हुए) : जी ईईई, जी सर!
गृहमंत्री (तसल्ली देते हुए) : ...बकरी की तरह मिमयाने की आदत गई नहीं! ...ध्यान से सुन, बापू को रिहा मत करना! बापू रिहा हो गया तो हमारी (बात बदलते हुए) तेरा राष्ट्रपति पदक खतरे में पड़ जाएगा ...और कुछ भी हो सकता है!
थानेदार (असमंजस के भाव से) : जी ईईई, जी सर!
गृहमंत्री (पूर्व भाव से) : बावले, घबरा क्यों रहा है! बापू कैद में हैं ना, कैद ही में रहने दे। इससे सुरक्षित जगह उनके लिए और कौन सी होगी! ...अब तू जा, बापू की सेवा में लग जा। अर देख, किसी को कानों-कान खबर नहीं लगनी चाहिए कि बापू कैद में हैं। ...सबूत कोई हो तो खंत्म कर देना।
थानेदार (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...मगर सर बापू का शिष्य भी तो उनके साथ है। ...उसका क्या करूं?
गृहमंत्री (झिड़कते हुए) : ...पुलिस का दरोगा है या म्यूनिसपैल्टी का! (एक क्षण रुकने के बाद) आजकल बदमाशों के एनकाउंटर नहीं हो रहे? कानून-व्यवस्था काफी खराब हाती जो रही है! (थानेदार की आंखों में आंखें डालकर) अच्छा, जा अब तू जा, देख बापू की सेवा में कोई कमी न रह जाए!
(थानेदार ने गृहमंत्री को सलाम ठोका और सीधा थाने पहुंचा, मंच पर पुन: छाया प्रकट। लाइट उस पर फोकस कर दी गई)
छाया (आहत स्वर में) :
...और आधी रात के बाद मुझे बापू से अलग कर राजघाट यमुना के किनारे झाड़ियों के पास ले जाया गया। वहां जाकर मुझ से कहा, चल तुझे रिहा करते हैं, ...जा भाग। लंबे-लंबे डिग भरते हुए मैं राजघाट से बाहर जाने लगा तभी मेरी पीठ से कई गोलियां टकराई और मैं वहीं गिर पड़ा। ...सुबह के समाचार पत्रों की सुर्खियों में से एक सुर्खी थी, 'अंतरराजीय एक गिरोह के साथ मुठभेड़ में दो सिपाही मामूली रूप से घायल, एक बदमाश वहीं ढेर और उसके दो साथी भागने में सफल...।'
(सिसकी भरते हुए छाया अंतरध्यान हो जाती है और नेपथ्य से गृहमंत्री जी का भाषण सुनाई पड़ता है)
गृहमंत्री (गंभीर आवाज में) :
...हमारी सरकार ने भ्रष्टाचार दूर करने का संकल्प लिया है, सामाजिक न्याय प्रदान करना हमारा उद्देश्य है। सामाजिक व आर्थिक समानता लाने के लिए हम कटिबद्ध हैं, क्योंकि हमने भारत को बापू के सपनों का देश बनाना है। उनके सपने साकार करने हैं...। क्योंकि बापू हमारे लिए पूजनीय हैं, आज भी प्रासंगिक हैं!

संपर्क- 9868113044
(प्रकाशक – किताबघर प्रकाशन, दरियागंज, नईदिल्‍ली)

Tuesday, April 29, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -सात

गतांक से आगे...
दृश्य-पांच
(छाया मंच पर प्रकट होती है और फ्लैश लाइट उस पर केंद्रित हो जाती है)
छाया :
दोपहर होते-होते मैं समाधि स्थल पहुंच गया था, लेकिन बापू वहां नहीं थे। चिंताग्रस्त मैंने उन्हें इधर-उधर खोजा, मगर बापू का कहीं पता न था। आखिरकार समाधि स्थल पर ही बैठा-बैठा मैं उनका इंतजार करने लगा।
(मंच पर संध्याकालीन दृश्य, तभी लाठी टेकते-टेकते हारे थके से बापू का मंच पर प्रवेश)
मुन्नालाल (जिज्ञासा व चिंता भाव से) :
अरे! बापू कहां गायब हो गए थे।
बापू (बात टालने के उद्देश्य से) : कहीं... नहीं, बस यूं ही निकल गया था।
मुन्नालाल (झुंझलाहट में) : बापू...?
बापू (कृत्रिम क्रोध व्यक्त करते हुए) : मुन्नालाल...! जिद्द मत किया कर ...मुझे अकेला छोड़ दे।
मुन्नालाल (समझाने के भाव से) : बापू यह जिद्द नहीं है। ...बात समझ, चुनाव का दौर है, यूं ही तेरा अकेले कहीं जाना ठीक नहीं है।
बापू (कृत्रिम क्रोध व्यक्त करते हुए) : तू नहीं सुधरेगा!
मुन्नालाल (सहज भाव से) : ...बिलकुल नहीं, बापू!
(बापू मुन्नालाल को पूरे दिन की कहानी सुनाते हैं)
मुन्नालाल (चितिंत स्वर में) :
देख मैंने कहा था ना, अकेले कहीं मत जाना। ...जिद्द मैं नहीं तू करने लगा है, अब बापू! ठीक है बापू, जो हुआ सो ठीक है, अब चुनाव समाप्त होने तक बस समाधिस्थ ही रह। ...देख कहीं जाने का मन करे भी तो अकेले मत जाना।
बापू (आग्रह भाव से) : ...नहीं-नहीं पुत्र ..एक बार दूसरी पार्टी वालों के कार्यालय भी जाकर देख लूं।
मुन्नालाल (आदेशात्मक भाव से) : नहीं बापू ...बिलकुल नहीं, ...कहा ना चुनाव तक समाधिस्थ रहने में ही भलाई है...।
बापू (विनीत भाव से) : ...हर्ज क्या है, पुत्र! वे मेरे राम के भक्त हैं। हां, अब तो मुझे राष्ट्रपिता भी मानने लगे हैं। स्वदेशी के भी खूब नारे लगाते हैं। सुना है पुत्र मेरी लाठी भी उन्हीं के पास है। टोपी का भी सम्मान करते हैं...।
मुन्नालाल (झुंझलाते हुए) : हाँ, सफेद नहीं, बस काली...!
बापू (मुसकराते हुए) : ...इससे फर्क क्या पड़ता है, काली हो या सफेद। टोपी आखिर टोपी है, पुत्र।
मुन्नालाल (बापू की मंशा भांपते हुए) : ठीक है बापू, नहीं मानता तो ...मगर मैं साथ चलूंगा। कल सुबह जब तक मैं न आ जाऊं तब तक कहीं मत जाना।
बापू (सहज भाव से) : ठीक है, पुत्र!
मुन्नालाल : ...अच्छा, प्रणाम बापू , मैं चलता हूं। तू भी आराम करले। (चलते-चलते) ठीक है, मैं सुबह ही आ जाऊंगा!
(प्रात: मंच पर साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक के मध्य राजपथ का दृश्य। सामने राष्ट्रपति भवन का विशाल द्वार। राजपथ पर लाठी के सहारे बापू अकेले ही धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन की ओर जा रहें हैं। राष्ट्रपति भवन के पास एक सिपाही उनका रास्ता रोकता है)
सिपाही (कड़क आवाज में) :
कौन है, बे। मूँ ठाए किंघह जारा?
बापू (विनम्र भाव से) : पुत्र, मैं बापू हूं...।
सिपाही (व्यंग्य भाव से ) : अच्छाऽऽऽ! ...ससुर, म्हारा बाप है। या ई त मुसीबत है, ससुर इस छेत्तर की डूटी में, इंघह जो भी आवै है, म्हारा बाप ही आवै। चल तू भी म्हारा बाप ही सही, पर जे तो बता तू है कौन, तेरा कुछ नाम पता भी है कि बस म्हारा बाप ही सै?
बापू (पूर्व भाव से) : ...पुत्र, पहचाना नहीं, मैं राष्ट्रपिता, गांधी...।
सिपाही (ठहाका लगाते हुए) : लै भाई, इब तै हद है गई। इब तक तै मेरा ई बाप बनै था। इबजा पूरे रास्टर का बाप बन गिया। बड़ा बेरूपिया लागै कोई!
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ-हाँ, पुत्र राष्ट्रपिता!
सिपाही (हँसते हुए) : ...धत्, कैसा रास्टरपिता! औलाद लाल बत्तीन की गाड़ी मै हांडे अर बाप पाँव-पाँव ...ना बाबा ना नोकरी तो मैन्ने अपनी लुगाई तै भी जादा प्यारी लाग्गै। अग्गै जावै की इजजजत कतई ना दूँ! ...अच्छी तू खिसक यहां तै।
(बापू आगे की ओर पाँव बढ़ाते हैं)
सिपाही (कड़क आवाज में) :
अरे ओ म्हारे बाप, रास्टरपति भवन की ना, बापसी की बस पकड़ लै, बापसी की।
बापू (रुक कर विनीत भाव से) : मेरा यकीन कर पुत्र, मैं राष्ट्रपिता...!
सिपाही (दया भाव दिखलाते हुए) : ...चल ससुर तेरा अकीन करलूँ, तू रास्टरपिता ही सै, पर रास्टरपति तै ना। ...आज के जमानै में ससुर पतिन अर पतनियों के सामने पितान नै कौन पुच्छै? (डंडा हवा में घुमाते हुए) अच्छा तू जे बता, तेरे बरगी जनपथी जीव नै राजपथ पै एंटरी किस बवले ने दे-दी। (सिर खुजलाते हुए, धीरे से) जरूर कोई बावला दरोग्गा खड़ा होग्गा एंटरी पै, पर बावला तो कौना। जरूर पीसे ले कै एंटरी दी होग्गी।
बापू : नहीं, पुत्र मेरे पास पैसे कहाँ?
सिपाही (झिड़कते हुए) : मैं रिसवतखोर ना सै ...चल फूट इंघह ते। (बीड़ी में कश खींचते हुए) अच्छा सुन, तैनै नाम तो बाताया ही ना, नाम के है तेरा?
बापू (पुन: समझाते हुए) : ...पुत्र, मैं महात्मा गांधी ...मोहन दास वल्द करम चंद गांधी ...मोहन दास करम चंद गांधी।
सिपाही (क्रोध में) : सुबै-सुबै खोपड़ी खराब ना कर! ...इतने अच्छर तो अब हम भी बाँच लेवे हैं। (बीड़ी का लंबा एक कश खींचने के बाद ) हम कैह वै हैं ना, ससुर तू गांधी होत्ता तो भैं-भैं करती लालबत्ती की गाड़ी में ना आत्ता! (मुँह बिचकाते हुए) धत्त! तेरी नाक मै रस्सी!
बापू (आग्रह भाव से) : पुत्र मेरा यकीन कर मैं गांधी ही हूँ!
सिपाही (डंडे से सिर खुजलते हुए अपने-आप से) : ...हूँ, हुलिया तै गांध्धी जैस्सा ई, नाम भी वा ई बतावै। हो सकै, भाई वाई हो! ...चल कौना टैम तो पास कर ई लैं!
(सिपाही ने हाथ पकड़ बापू को नार्थ ब्लाक के चबूतरे पर बिठाया और दूसरी बीड़ी सुलगाई कुछ देर सोचने के बाद)
सिपाही (गंभीर मुद्रा में) :
...हुलिया तै तो तू असल मै गांध्धी सा ही लग्गै। पर पता है, जे राजपथ सै, राजपथ, इंघह गांध्धीगरदी मचाते खद्दरधारी बेरूपियां भी कम ना फिरैं। ...अर इंघह जौ भी आवै, ससुर अपने कू गांध्धी का सगा भतीज्जा ही बतावै। पर तू तो अपने को सीध्धे गांध्धी ही बता रिआ...! (बापू के चेहरे पर अपनी निगाह गड़ा कर) हांऽऽऽ लाग्गै खोपड़ी ठीक काम कर री सै, तू तै असली गांध्धी बाप्पू सा ही लाग्गै। (कुछ देर रुकने के बाद) अच्छा सच्ची-सच्ची बता गांध्धी ही सै?

बापू (गंभीर भाव से) : सत्य ही बोल रहा हूँ, मैं गांधी ही हूँ।
सिपाही (बीड़ी चबूतरे की मुंडेर से रगड़ विनम्र भाव से): ...चल मान लेंऊ तू गंध्धी ही सै। पर मेरी - तेरी कौन सुनै इस राज मै...? (कुछ देर चुप रहने के बाद पुन:) मेरे बाब्बा ने भी तेरे संग आजद्दी की जंग लड़ी थी। वा तेरी बहादुरी किस्से खूब सुनावै था। (गीली आँख पोंछते हुए) मैं भी तुझै खूब प्यार करूं! ...पर तू जे बता राजघट छोड़ इंघह क्यूं धख्खे खारा, भाई?
बापू (सहज भाव से) : चुनाव का टिकट लेने के लिए अशोक रोड़ के दफ्तर जा रहा था। रास्ता भटक गया इसलिए इधर निकल आया।
सिपाही (जोर का ठहाका लगाते हुए) : टिकस ...चुनाव...! ई का अंघाई सूज्जी, तैनै!
बापू (सहज भाव से) : हाँ, पुत्र चुनाव के लिए टिकट, मगर इसमें हँसने की क्या बात है?
सिपाही (भावुक होते हुए) : हूँ... हसूं ना तो के रोऊं ...मेरा बाप्पू टिकस माँगने चला! इबजा या उमर मै नेतागरदी...!
(आंखों में आया पानी फिर पोंछा) हूंऽऽऽ, टिकस! क्यूं बावला हो रिआ, बाप्पू? ...तेरा मारग अब कुर्सी तक तो के राजपथ तक भी ना ला सकै है। ...फिर, कौन ससुर तन्नै टिकस देग्गा?
(बापू बड़े ध्यान से बात सुनते-सुनते उसके चेहरे के भाव पढ़ रहे थे)
बापू (समझाने के लहजे में) :
ऐसा तो नहीं है, पुत्र! ...कि कोई भी टिकट ना दे...!
सिपाही (आसमान की ओर मुंह उठाकर कुछ सोचते हुए, मध्य ही में) : ...अच्छा तू बता, रास्टरपती भवन अर या संसद के आसपास तेरे नाम का कोई मारग है के...?
बापू : ...नहीं पुत्र!
सिपाही : ना है, ना! (लंबी सांस लेते हुए) तेरा मारग कुर्सी तक ले जात्ता तो नेड़े-धौरे की किसी सड़क पै तेरे नाम का पत्थर भी लगा होत्त, है ना? ...बाप्पू! (विराम) तेरा मारग इबजा सत्ता की ओर ना, दिल्ली सै बाहर की राह दिखवै। या ई लईयां तेरे नाम का मारग दिल्ली के बाहरी इलक्के मै सै, वाई पै तेरे नाम का पत्थर लगा सै। ...बस पड़ा रह इक तरफा, अर दिखाता रै जमना पार की राह!
बापू (सहज भाव से) : ...हाँ!
सिपाही (इंडिया गेट की और संकेत करते हुए) : ...अर हाँ, वो इंडिया गेट देखरा है ना!
बापू (इंडिया गेट की ओर देख कर) : हाँ...!
सिपाही (क्षुब्ध भाव से) : किसी बावले ने अंग्रेज का बुत हटा कै तेरा बुत लगाने की बात कर दी। पर साल्लों बीत गिए, तेरे चेल्लों ने लगनै ना दी..!
बापू (मध्य ही में) : ...क्यूं भाई?
सिपाही (क्षुब्ध भाव से) : ...या लई यां कि तुझे इंडिया गेट पै खड़ा कर दिया तै नवे गांध्धियों की बैल्यू घट जावैगी। ...फिर तुझे टिकस दे कै कौन ससुर अपने पांव मैं कुलाड़ी मारवा चावैगा! ...कतई ना होवै!
बापू (सफाई देते हुए) : टिकट लेने नहीं आया, टिकट के बहाने लोकतंत्र का हाल देखने आया था। अकबर रोड वाले तो कल देख लिए थे। सोचा आज अशोक रोड वालों को भी देख लूं। सुना है राष्ट्रवादी विचारधारा के हैं, मेरा भी बड़ा सम्मान करते हैं।
सिपाही (झुंझला कर) : ...के देख्खेगा? जैसे अकबर वाल्ले, वैसे ही अशोक वाल्ले! ...बस सकल-सूरत का अंतर सै!
बापू (विनय भाव से) : मगर एक बार देख लेने में हर्ज क्या है?
सिपाही (झुंझलाहट और दया के मिश्रित भाव से) : ...बे-बात अपने हाड़न नै मुसीबत मै क्यूं डाल्लै! ...ले इंघह बैठ्ठा-बैठ्ठा ई मैं तन्नै सब दिखा दूं। (एक लंबी सांस ली और प्यार से बापू का हाथ अपने हाथ में लेकर) ले तैन्नै असल बात बताऊं। ...बुरा मान्नै तै मान जाइओ! (रुक कर झटके के साथ) तेरा कोई सम्मान-वम्मान ना करै सै। सब के सब दुकानदार सै, दुकान चलांवै हैं। तेरे नाम की सकीम चला कै ससुर सब अपना-अपना सौद्द बेंचै हैं, ''गांध्धी छाप बीड़ी के बंडल के साथ इनामी कूपन मूफत में'' हां बिलकुल या ई तरज पै। ...तेरे नाम की सकीम अभी जनता में चल जावैं है ना, यां ई लई यां बखत-जरूरत पड़ने पै तेरा नाम ले ले वैं हैं। ...ना तै तेरे जैसे जनपथी जीव कू कोई राजपथी वाला ना पुच्छैं।
बापू : मगर पुत्र, सुना है अशोक रोड वालों ने मेरा स्वदेशी का सिद्धांत भी अपना लिया है...?
सिपाही (आंखें पोंछी, बीड़ी सुलगाई और खिन्न भाव से हंस कर बोला) : ...असोका रोड वालों की सुदेसी! कौन ससुर तेरी तरै ढाई गज की धोत्ती लपेट्टें फिरै है? ...कौन तेरी तरै टायर सोल की चप्पल पहन घूमता फिरै? (लंबी सांस खींचते हुए) अरे, बाप्पू! सब के सब खीमखाफ का सपारी सूट लटकाए फिरें हैं, रिबक के जूत्ते पहनै, अर विदेस्सी गाड़ी में घूम्में, अर बात करैं सुदेसी की। सब के सब ससुर बात्तन का खावैं हैं। ...कोरी बात्तन का। (चेहरें पर घृणा व रोष के भाव एक साथ लाते हुए) अकल मैं धंसी के होर बात बताऊं उनकी।
बापू : मगर पुत्र मेरे राम पर तो वे अपनी...?
सिपाही (ठहाके के साथ मध्य ही में) : ...राम- तेरा राम! ...या भी तू गलत ही सोच रा! ...राम भौत जपैं सै! कतई ना बगल मै छूरी ले कै राम-राम करैं सै ...तेरे नाम की तरै, ससुर राम के नाम की भी दुकानदारी चला रें सै। इनन नै भगवान कू भी ना बख्शा। वाए भी बेच लिया, तेरी के बिसात! (एक क्षण के मौन के बाद) बेचेंग्गे जब तक बिकेगा, बेचेंग्गे। जब ना बिकेगा तब तेरा अर तेरे राम का नाम फुट्टें मूं ते भी ना लें। ...अर एक बात होर सुनले, किसी भैकावे में ना रहिओ। तेरे अर तेरे भगवान के नाम की दुकनदारी जिस दिन बंद है जागी। दिके तेरे चेल्ले तुम दोनों की फोट्टो कच्ची दिवाल के आले में भी ना सजावैं, दिल की बात तो दूर की! ( बापू ने गौर से सिपाही को देखा। सिपाही ने बापू का हाथ सहलाया। जली बीड़ी फैंकी, नई बीड़ी अंगुलियों के बीच रगड़ता हुआ घृणा भाव से बोला) इबजा बता, वां जाक्कै करेग्गा आतमहतया। करनी है तो , जा चला जा ...! (सिपाही की आंखों का पानी सीमाएं लांघ चेहरे तक आ गया। उसने दोनों हाथों से आंख और चेहरे को रगड़ा और रुंधे गले से बोला।) जाऽऽऽ चला जा, देखिया! अकबर रोड ते तो परसाद ले लिया, इबजा असोक रोड तै भी लिया! ...कर ले आतमहतया, मेरा के है? मैं भी भीग्गी आंखान तै थाण्णें में एक पर्चा दाखल कर दूंगा। अगियात एक फकीर ने आतमहतया कर ली।
(सिपाही के भाव देख बापू की आंखें भी नम हो गई। दोनों ने एक-दूजे को निरीह भाव से निहारा। एक मौन अंतराल के बाद मुसकराने का प्रयास किया) मैं समझ गिया रे बापू, राजघाट ते तेरा मन उचाट हो गिया। ...या ई लई यां तुझ्झै टिकस ले वै का उदमाद सुझ्झा। ...हां, इंसान कब तलक अकेला पड़ा रह सकै। (रुक-रुक कर) को ना, चल तू मेरी गैल म्हारे घर चल। ...मुझे लागेगा जैसे मेरा बाब्बा जिंदा है गिया। जात्तकों के साथ खेल्लेगा, तो मन बहल जावेगा। ...जात्ताकों नै आजाद्दी के किस्से सुनाइयों। कहवैं हैं ना, जात्तक का मन कौरी सलेट होवै है। हो सकै है, तेरी बात उनकी सलेट पे उतर जावै। ...अर आज ना सही, कल उनमें तैं कोई सच्चा रास्टरवाद्दी बन जावै। आज ना सही देस का कल सुधर जावै। (बापू का हाथ पकड़ अधिकार पूर्ण आग्रह के साथ) रंज ना कर, चल उठ मेरे साथ चल।
बापू (विनीत भाव से) : नहीं पुत्र, आज नहीं, आऊंगा एक दिन तेरे घर अवश्य आऊंगा।
(लाठी टेकते हुए बापू विजय चौक की तरफ चलने लगे)
सिपाही (बापू की मंशा भांपते हुए) :
ठीक है बाप्पू, जैसी तेरी इछ्छा। ...चल तुझे जनपथ तक तै छोड़ आऊं। रास्ते में कहीं लोकतंतर का असली पहरेदार मिल गिया तो अबैध हथियार रखने के जुरम में अंदर कर देग्गा। चल, पर दिके इक बार म्हारे जैसेन के घर जरूर आईओ...।
(बापू का हाथ पकड़ कर सिपाही उन्हें जनपथ की ओर ले जाता है)
(कल : बापू कैद ...जारी)

Monday, April 28, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -छह


गतांक से आगे...
दृश्य तीन
(फ्लैश लाइट मंच के मध्य में फोकस और आगे की कथा सुनाने के लिए छाया प्रकट)
छाया :
गत् दिवस के दृश्य पर बापू को यकीन नहीं हुआ। समाधिस्थ हो वे विचार करने लगे, 'यह कैसे हो सकता है कि एक भी राष्ट्र भक्त शेष न हो। एक भी निष्ठंावान भामाशाह इस देश में शेष न बचा हो। चुनाव के टिकटों की बिक्री? ...आदर्श और सिद्धांत कोरी लफ्फाजी तो नहीं कि मौसम की तरह हर तीसरे माह बदलते रहें। ...संस्कृतियां एक-दो साल में नहीं बदला करती। युग-युगांतर में जाकर कहीं थोड़ा-बहुत परिवर्तन आता है, संस्कृतियों में। ...अवश्य कहीं दृष्टिं दोष रहा होगा।' (एक क्षण के मौन के बाद) ...बापू ने कल लोकतंत्र का जुलूस मेरी आंखों से देखा था। आज अपनी आंखों से देखने का निश्चय किया और आंख-कान और मुंह से हाथ हटाए। एक कागज पर आत्म-परिचय लिखा और लाठी टेकते-टेकते अकेला ही जा लगे पार्टी दफ्तर की टिकट खिड़की की लाइन में।
(मंच पर पुन: पार्टी कार्यालय का दृश्य। परिसर में ही स्थित एक कमरे में आत्म-परिचय समिति का कार्यालय। कार्यालय की खिड़की के सामने आत्म-परिचय जमा कराने वालों की लाइन। उसी लाइन में बापू भी लग जाते हैं। आस-पास के लोगों की नजरें बापू की तरफ उठती हैं।)
पहला (आश्चर्य से) :
अबे देख! ..यह कौन?
दूसरा (गौर से देखते हुए) : हूँ, यह तो कोई गांधी का सगा भतीजा सा लगै!
पहला (पुन: आश्चर्य से) : अबे, भतीजा ना! असली गांधी सा ही लगै। गौर से तो देख।
दूसरा (उपेक्षा भाव से) : देख लिया, गौर से ही देखा है। जो भी है, चौखटा है, नुमाइशी!
तीसरा (हँसते हुए) : क्यूं परेशान हो भाई, चुनाव का दौर है, नए-नए जीव प्रकट होने ही लगते हैं।
(अपना-अपना आत्म-परिचय जमा कर हँसते हुए वहाँ से बिदा हो जाते हैं। बारी बापू की आती है और वे भी अपना आत्म-परिचय क्लर्क को थमा देते हैं)
क्लर्क (ठहाका लगाते हुए) :
मिल गया-मिल गया, मिल गया भइया मिल गया...!
मेहता (होठों पर मुसकराहट लाते हुए) : अरे, बड़े खुश हो रहे हो भइया, कौन मिल गया। हमे भी तो बताओ, हम भी खुश हो ले!
क्लर्क (बापू के आत्म-परिचय को हवा में लहराते हुए) : बस पूछो ना, मेहता जी। ...बस मिल गया!
मेहता (उत्सुकता का प्रदर्शन करते हुए) : अरे, बताओ ना हम से क्या पर्दा! ...किसी धरती पकड़ का बॉयोडेटा हाथ लग गया क्या?
क्लर्क (ठहाके के साथ बापू का आत्म-परिचय मेहता की तरफ बढ़ाते हुए) : यह लो जनाब, तुम भी पढ़ लो इस बाजीगर की आत्मकथा!
(मेहता साहब आत्म-परिचय पढ़ कर मुसकराते हैं। दुबारा पढ़ते हैं। उसके बाद वह भी जोर का ठहाका लगाते हैं। उनके साथ वाली कुर्सी पर विराजमान चौधरी साहब उन्हें टोकते हैं।)
चौधरी (कृत्रिम हंसी हंसते हुए) :
...के हुआ, मेहत्ता साब! हम भी तो देख्खें। तुम दोन्नों ही अकेले-अकेले मज्जे लेत्ते रओगे। भइया हमने भी सरीक करलो या तमास्से में!
मेहता (हंसते हुए) : ...लो तुसी भी देख लो, जनाब। पार्टी धन्य हो गई गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
(बापू का आत्म-परिचय मेहता चौधरी के हाथ में थमा देता है। चौधरी भी पढ़ कर हंसने लगता है।)
चौधरी (मुसकराते हुए) :
भई, बायडाट्टा तो गांधी के सगे भतिज्जो का सा लाग्गै। या-ए तो टिकस देवे की सिफारिश करनी ही पड़ेग्गी!
(चौधरी व मेहता का वार्तालाप सुन कर शेष दोनों पदाधिकारी भी अपनी-अपनी कुर्सियों पर बैठे-बैठे ही बापू के आत्म-परिचय की ओर ताकने लगते हैं। उनमें से एक अन्य पाण्डे जी उसे चौधरी के हाथ से ले लेते हैं।)
चौधरी (व्यंग्य में) :
भई पाण्डे जी, अर जरा देख का बता गांध्धी-असली के नकली?
पाण्डे (मुसकराते हुए) : बायडाट्टा तो असली सा लग रहा है, बुड्डें के पता नहीं असली है या नकली?
चौधरी : अच्छा चल जे बता, जदाद कित्ती लिक्खी?
पाण्डे (व्यंग्य भाव से) : हां, कोई अरब-दो-अरब की तो होगी ही!
चौधरी (उत्सुकता के साथ) : भई बता, सच्ची-सच्ची बता। इत्ती है तो फिर गाँध्धी कती ना!
पाण्डे (चश्मा साफ करते हुए) : ढाई गज की एक धोती, एक लंगोटी, एक लाठी..!
मेहता (उत्सुकता के साथ) : मखौल ना कर भाई, सही-सही बता।
पाण्डे (आंखों पर चश्मा चढ़ाते हुए) : सही-सही ही बता रहा हूं। ...अरेऽऽ, एक बकरी, एक चरखा भी।
(सभी जोर का ठहाका लगाते हैं)
चौधरी (ठहके को मुसकराहट में तब्दील करते हुए) :
बायडाटा तो कमबख्त ने फुरसत में लिख्खा दिख्खे। ...फारजरी के मुकदमें भी जरूर होंग्गे, जालिम पै। ...पाण्डे जी, जरा देख्खो त्तो सई, मुकदम्में कित्ते लिक्खे सै?
पाण्डे (निगाह आत्म-परिचय पर टिकाते हुए) : मुकदमे हैं, तो कई, पर चार सौ बीसी का तो कोई नहीं।
चौधरी (पूर्व भाव से) : गाँध्धी है तो फिर, मुकद्दमें अंग्रेजन के जम्माने के होंगे!
पाण्डे (हँसते हुए) : ठीक पहचाना, आजाद्दी से पहले के ही हैं!
उपाध्याय (उबासी लेते हुए) : ...पता क्या लिखा है?
पाण्डे (व्यंग्य करते हुए) : लो पता भी सुनों भाई (धीरे-धीरे) रिंग रोड़ ...राजघाट ...दिल्ली।
चौधरी (क्लर्क की ओर मुखातिब होते हुए) : ...पर जे भी देख्खो पण्डे, राजघाट पै तो धोबीघाट भी सै!
उपाध्याय (चाँद फेरते हाथ फेरते हुए) : धोबीघाट हो या निगमबोध घाट, क्या फर्क पड़ता है। (चपरासी की ओर संकेत करते हुए) ...जरा अंदर ले आ गांधी के भतीजे को,थोड़ा मजा तो ले-लें।
(चपरासी के संकेत पर बापू ने प्रवेश किया। बापू को देख कर एक बार फिर सभी ने जोरदार ठहाका लगाया)
चौधरी (कृत्रिम गंभीरता के साथ) : अच्छा टिकस चावै है, बाबा! चुनाव लड़वे की इछ्छा है। पर एक बात तै बता तेरे पल्ले तै एक काणी कोड्डी बी ना।
बापू (विनीत भाव से) : है, सरकार है! बकरी है, चरखा है...।
चौधरी (मध्य हीमें व्यंग्य भाव से) : ...पर बकरी अर चरखा बेच कै तै चुनाव ना लड़ा जावै।
बापू (पूर्व भाव से) : चुनाव के लिए पैसे की क्या जरूरत सरकार?
पाण्डे (चेहरे पर गंभीर भाव लाते हुए) : मुफ्त में वोट ना मिले हैं, श्रीमान!
चौधरी (पूर्व भाव से) : अच्छा चल जे बता तेरे छेत्तर में तेरी बिरादरी के कित्ते बोट सै?
बापू (आश्चर्य भाव से) : पैसे... बिरादरी... !
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : हाँ, बिरादरी! ...जलदी बता टैम खराब ना कर!
बापू (भाव छिपाते हुए) : ...एक भी नहीं, श्रीमान।
चौधरी (पूर्व भाव से) : ...पैसा तेरे पल्ले ना, बिरादरी की बोट भी ना! ...अर चला चुनाव लड़वे!
बापू (चेहरे पर विश्वास के भाव लाते हुए) : ...जनाब, इरादा तो है, टिकट देकर तो देखो।
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : ...मुफ्त में तो डीटीसी का टिकट भी कोई ना दे। या तो परलियामेंट का टिक्स सै। ...अच्छा चल को ना! ...नाम तै बता।
बापु (सहज भाव से) : ...गांधी।
पाण्डे (व्यंग्य भाव से) : अच्छा, गांधी! (विचार की मुद्रा में रुक-रुक कर) .. .कौन सा गांधी, सोनिया गांधी... प्रियंका गांधी ...राहुल गांधी ...वढेरा गांधी ...इनमें से तो कोई ना! (क्षणभर रुकने के बाद) ..हम तो इनके अलावा और किसी गांधी को नहीं जानते!
(पाण्डे के लहजे पर एक बार फिर सभी लोग ठहाका लगाते हैं)
उपाध्याय (हँसते हुए) :
गांधी फिल्म का गांधी रिचर्ड एटनबरो! (ठहाका)
पाण्डे (पूर्व भाव से) :
उचित दादा! एटनबरो की डुप्लीकेट कापी है, पर सत्यापित नहीं कराई!
चौधरी (हाँसते हुए) : वा काम उपाधयाय जी कर देवेंगे। (रुकने के बाद) अच्छा फिर तै बताईयो अपना नाम, वल्द की साथ!
बापू (पुन: विनीत भाव से) : मोहनदास वल्द करम चंद गांधी ...मोहनदास करमचंद गांधी।
चौधरी (उपेक्षा भाव से) : नाम तै कोई चौख्खा सा रख लेत्ता। अच्छा, चौख्ख सा कोई नाम रख कै फिर आईओ...।
उपाध्याय (गरदन को झटका देते हुए, गंभीर भाव से) : क्या बतायाऽऽऽ ...सच में ! मोहनदास करमचंद गांधी! सच्ची-सच्ची बता, बाबा! ...मोहनदास करमचंद गांधी ही है ना!
(उपाध्याय को गंभीर होता देख शेष लोग भी गंभीर हो कर उपाध्याय के चेहरे की ओर देखने लगते हैं)
बापू (सहज भाव से) :
हां, यही सत्य है, श्रीमान।
उपाध्याय (मन ही मन विचार करते हुए) : ...बकरी... लाठी ...चरखा ...राजघाट ...अंग्रेजों के जमाने के मुकदमे ...सकल-सूरत भी गांधी जैसी ही, नाम भी वही। ...अबे, कहीं गांधी ही तो नहीं! ...बैठे-बिठाए झंझट क्यों मौल लिया जाए। (पार्टी महासचिव राय साहब को फोन मिला कर, गंभीर मुद्रा में) हैलो, सर! ...सर, गजब हो गया..!

राय साहब (लापरवाही से) : ...हाँ ऽऽऽ, क्या आफत आ गई!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...सर! ...गांधी जी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ...कौन गांधी?
उपाध्याय (अपनी बात पर बल देते हुए) : सर, महात्मा गांधी! ...मोहनदास करमचंद गांधी, सर!
राय साहब (क्रोध में) : ...क्या बकवास है, उपाध्याय! ...मजाक का समय नहीं है।
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...सर मजाक नहीं, सर! बॉयोडेटा भी उन्हीं का है! ...शक्ल-ओ-सूरत भी वही। ...सर मेरा विश्वास करो, गांधी ही हैं।

राय साहब (गंभीर होते हुए) : ...कन्फर्म!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : जी, सर!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ठीक है, फिर तो मामला गंभीर है! ...अच्छा, फौरन मेरे चैंबर में आकर बात करो।
उपाध्याय (आत्म-परिचय राय साहब की ओर बढ़ाते हुए) : ...सर यह देखिए, बॉयोडॉटा
राय साहब (आत्म-परिचय पढ़ कर, मुसकराहट के साथ) : हूँ ऽऽऽ! बॉयोडॉटा तो बड़ी खूबसूरती से तैयार किया है।
उपाध्याय (गंभीर भाव से) : ...जी सर!
राय साहब (संशय व्यक्त करते हुए) : उपाध्याय, चुनाव का मौसम है। ...कोई बेरूपिया ना हो!
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : नहीं, सर! ...मुझे तो गांधी जी से ही लगते हैं!
राय साहब (दीवार पर टंगे बापू के चित्र को निहारते हुए) : अच्छी तरह पहचान लिया है, ना! ...गांधीजी ही हैं, ना!
उपाध्याय (बापू के चित्र पर आँख टिकाते हुए) : जी, हाँ !
राय साहब (गंभीर भाव से) : ...अच्छा ऽऽऽ! ...तो वे हैं, कहाँ?
उपाध्याय (संतोष के भाव के साथ) : सर! मेरे कमरे में!
राय साहब (पूर्व भाव से) : ठीक है, सम्मान के साथ बैठाओ। ...देखो! ...कोई कष्ट नहीं होना चाहिए।
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...ठीक, सर!
राय साहब (गंभीर भाव से) : ...और देखो उपाध्याय, ...अगर ऐसा है तो मामला गंभीर है! ...अच्छाऽऽ! ...कोई बात नहीं मेरे फोन का इंतजार करना। ...और सुनो, बापू को जूस-वूस पिला देना, अच्छाऽऽ!
(उपाध्याय वापिस अपने कमरे में)
उपाध्याय (विनय भाव से) :
अरे, बाबा! आप अभी तक खड़े ही हैं! ...आइए-आइए (बराबर वाले कमरे में ले जाकर सोफे की ओर संकेत कर)... यहां, आराम से बैठिए।
बापू (सहज भाव से) : मगर... !
उपाध्याय (पूर्व भाव से) : ...आपका केस महासचिव जी के पास पुटअप कर दिया है। फैसला अभी आता ही होगा। (कुछ रुक कर) ...तब तक आप आराम करो।
(उपाध्याय जूस लाने के लिए चपरासी को आदेश देता है और खुद राय साहब के फोन के इंतजार में कार्यालय- कक्ष में टहलने लगते हैं)
(राय साहब पार्टी अध्यक्ष को फोन करते हैं)
राय साहब (व्याकुल भाव से) :
हैलो, सर! ...मैं देवदत्त राय, सर!
अध्यक्ष (सहज भाव से) : हाँ-हाँ, बोलो राय साहब!
राय साहब (पूर्व भाव से) : सर, गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है, सर!
अध्यक्ष (उपेक्षा भाव से) : कौन, गांधी? ..किस की बात कर रहे हो, राय साहब?
राय साहब (शब्दों को खींच कर) : सर! ...वही महात्मा गांधी ...सर बापू!
अध्यक्ष (हँसते हुए) : राय साहब! खुश हो रहे हो या रो रहे हो!
राय साहब (चिंता भाव से) : सर खुशी की बात नहीं है और रो भी नहीं रहा हूं! ...बस चिंतित हूं!
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) : ...तुम कैसे कह सकते हो कि वह शख्स गांधी ही है, क्या...?
राय साहब (बात पर बल देते हुए) : सर, खुद मैंने बॉयोडेटा पढ़ा है, उपाध्याय लेकर आया था।
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : बॉयोडॉटा तो नकली भी हो सकता है! क्या तुमने...?
राय साहब (सहज भाव से) : सर मैंने तो नहीं, मगर उपाध्याय ने देखा है। (विश्वास के साथ) वे बापू ही हैं।
अध्यक्ष (कुछ सोचते हुए) : मगर बापू को यदि टिकट...! ( रुक कर) ...वे मुझ से सीधे संपर्क करते!
राय साहब (रहस्य भाव से) : ...मगर सर, इसमें विपक्ष की भी तो कोई साजिश हो सकती है!
अध्यक्ष (चिंता व आश्चर्य भाव से) : विपक्ष की साजिश! ...कैसी?
राय साहब (पूर्व भाव से) : विपक्ष ने ही उन्हें उकसाया हो और पार्टी को बदनाम करने के लिए टिकट की लाइन में लगने की सलाह दे दी हो!
अध्यक्ष (गंभीर होते हुए) : हूँ ऽऽऽ! , मामला गंभीर लगता है। (कुछ रुकने के बाद) ...अच्छा, तुम कन्फर्म हो ना?
राय साहब (विश्वास के साथ) : जी सर!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : ...तो ऐसा करो, ...मैं कार्यालय पहुंचता हूँ ...कार्यकारणी की आपात बैठक कॉल करलो।
(पार्टी अध्यक्ष सहित कार्यसमिति के सभी सदस्य कार्यालय के मुख्य सभागार में एकत्रित होते हैं। सभागार के फर्श पर गद्दों के ऊपर सफेद रंग की चादर बिछी है और दीवार के साथ-साथ गोल तकिए रखे हुए हैं। बीच में एक डेस्क रखी है। डेस्क के पास पार्टी अध्यक्ष बैठते हैं और उनके दाएं-बाएं कार्यसमिति के अन्य सदस्य बैठ जाते हैं। सभागार की दीवार पर राष्ट्रीय नेताओं के साथ बापू का चित्र टंगा है)
अध्यक्ष (गंभीर मुद्रा में) :
एक गंभीर मैटर पर डिसकस करने के लिए आप लोगों को कष्ट दिया है!
शेष सभी (जिज्ञासा भाव के साथ ) : क्या ऽऽऽ..!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से, निगाह बापू के चित्र की तरफ उठाते हुए) : गांधीजी ने टिकट के लिए अप्लाई किया है!
शेष सभी (आश्चर्य के साथ) : जी, क्याऽऽऽ...!
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : हाँऽऽऽ...!
अग्रवाल साहब (आश्चर्य और हर्ष के साथ) : सच में गांधीजी ही हैं, तो चुनाव में रंग आजाएगा। ...घर बैठ-बिठाए चुनाव जीता-जिताया समझो।
सिंह साहब (मुंह पिचकाते हुए) : रंग या रंग में भंग...।
अग्रवाल साहब (मध्य ही में) : ...क्या कह रहे हो सिंह साहब! रंग में भंग नहीं, भंग में रंग कहो। ...बापू को चुनाव मैदान में उतार दिया तो लोगों के सिर चढ़ कर बोलेगा, उनका जादू!
ओझा साहब (उपेक्षा भाव से) : आउट आफ डेट! ...अब गांधी का क्रेज कहां रहा है, लोगों में।
सिंह साहब (व्यंग्य भाव से) : हाँ, ठीक कहते हैं, ओझ्झा साहब! ...गांधी-गरदी का जमाना खत्म हुआ अगरवाल साहब...!
अग्रवाल (उत्तेजित होते हुए) : ...फिर किस गरदी का जमाना है, जनाब? ...नेता गरदी चलानी है तो गांधी...!
ओझा साहब (मुसकराते हुए, मध्य ही में) : ...हीरो गरदी! (थोड़ा रुक कर अपनी बात दोहराते हुए) ...हीरो गरदी का वक्त है, हीरो गरदी का!
अग्रवाल साहब (पूर्व भाव से) : ...मैं सहमत नहीं हूँ! ...जनता में आज भी बापू के प्रति क्रेज है और रहेगा...।
ओझा साहब (व्यंग्य करते हुए) : ...अक्ल की बात पर पहले भी कभी सहमत हुए हो? ....जो आज होगे। ...अक्ल की बातों से तो लगता है, आपको परहेज है, अग्रवाल साहब!
(ओझा साहब का कटाक्ष सुन कर अग्रवाल साहब तिलमिला कर रह जाते हैं। उनकी स्थिति देख अध्यक्ष हस्तक्षेप करते हैं)
अध्यक्ष (नसीहत देने के लहजे में) :
...देखो! प्रॉबलम गंभीर है, एक-दूसरे पर कटाक्ष का समय नहीं। ...आपसी मतभेद भुलाकर प्रॉबलम साल्व करना ही उचित होगा।
ओझा साहब (गंभीर मुद्रा में) : ...गांधी को फटे हाल देखेंगे तो विपक्ष को बैठे-बिठाए एक मुद्दा जरूर मिल जाएगा।
अध्यक्ष (जिज्ञासा भाव से) : ...वह कैसे?
ओझा साहब (नाक-भौं चढ़ाते हुए) : ...विपक्ष सवाल करेगा, ''जिनके शासन में राष्ट्रपिता भी गरीबी रेखा के नीचे हो, वे आम आदमी की गरीबी कैसे दूर करेंगे।''
सिंह साहब (उत्साह के साथ) : बात तो पते की है, ओझा साहब! गरीबी हटाओ नारे की भी ऐस्सी की तैस्सी हो जाग्गी जनाब! ...रहन दो जनाब!
अध्यक्ष (गंभीर भाव के साथ समर्थन करते हुए) : ...बात तो ठीक है, ऐसी हालत में बापू को जनता के सामने लाना प्रैक्टिकल न होगा...।
उपाध्याय (मध्य ही में) : ...मगर जनाब, बापू तो अंग्रेजी राज में भी ऐसी ही वेशभूषा में रहते थे ...तब तो... !
अध्यक्ष (सहज भाव से) : ...हाँ, ठीक कहते हो, अग्रवाल साहब! ...मगर तब देश की जनता फ्रीडम के लिए फाइट कर रही थी। उसे एक फकीर की आवश्यकता थी। अब (क्षणिक मौन के बाद) अब ऐसा कोई इश्यू नहीं है, इसलिए नई
जेनरेशन...!
अग्रवाल साहब (प्रस्ताव पर जोर देते हुए, मध्य ही में) : ...टिकट न सही, चुनाव प्रचार के लिए तो इस्तेमाल किया ही जा सकता है...।
ओझा साहब (तुनक कर) : ...स्वप्न सुंदरी के सामने टिक पाएगा, ग्लैमरहीन तुम्हारा बापू ..।
सिंह साहब (क्षोभ व्यक्त करते हुए) : दीण-दुणिया की कुछ तो खैर-खबर रक्खा करो, अगरवाल साहब! ...चुनाव परचार के लिए दूसरो ने चौक्खी एक दरजन सुपन सुंदरियां किराए कर लेल्ली हैं। ..अब बताओ गांध्धी की औकात है उनका मुकाबिला करने की। ...सही कहत्ते हैं, ओझझा साहब... कित टिकेंग्गे थारे बापू!
राय साहब (झंझलाते हुए) : ...ओ हो! ...हमने तो इसे भी 'हाउस' बना लिया है। ...मीनिंगलैस बहस का टाइम नहीं है। ...यह बताया जाए कि ऐसे हालत में किया क्या जाए...?
ओझा साहब (अपनी बात पर बल देते हुए) : टिकट देना तो उचित नहीं है...!
उपाध्याय (मध्य ही में, गर्दन हिला कर) : ...और खाली हाथ लौटाना उचित होगा?
अग्रवाल साहब (गंभीर) : विपक्ष के हाथ लग गए बापू तो, करा-धरा सब गुड़-गोबर हो जाएगा, यह भी सोच लेना!
अध्यक्ष (चिंता व्यक्त करते हुए) : कोई तो रास्ता निकालना ही होगा! फैसला शीघ्र किया जाना चाहिए! ...बापू को ज्यादा देर वेट कराना उचित नहीं...।
उपाध्याय (गंभीर भाव) : हाँ, जनता को पता चल गया तो संभालना मुश्किल हो जाएगा!
सिंह साहब (क्रोध का प्रदर्शन करते हुए) : ...पहले जनता को ही बता आओ... बाकी काम तो फिर निपटा लेगें। ...जनता पर बड़ा भरोसा है।
उपाध्याय (क्रोध भाव के साथ) : ...हां, इसी भरोसे अभी तक एक भी चुनाव नहीं हारा हूँ, जनाब... !
ओझा (नकल उतारते हुए) : ...बापू की ऊंगली पकड़ लो जनाब, ...हार का मजा भी मिल जाएगा!
अध्यक्ष (झुंझलाते हुए) : उफऽऽऽ...! फिर वही ..कभी तो गंभीर हो जाया करो! (एक लंबी सांस खीचने के बाद) उपाध्यायजी ठीक कहते हैं, पब्लिक को पता चल गया तो लॉ एण्ड आर्डर की स्थिति संभालना मुश्किल हो जाएगा।
ओझा साहब (गंभीर हो कर) : ...तो, क्या अध्यक्षजी आप मानते हैं कि जनता में अभी भी बापू को लेकर क्रेज है?
अध्यक्ष (समझाने के लहजे में) : पूरी तरह तो इग्नोर नहीं किया जा सकता। अगर ऐसा होता तो हम बापू को बाहर से ही टरका देते। (चिंता भाव से) यहाँ माथा-पच्ची क्यों करते!
सिंह साहब (उपेक्षा भाव से) : तो इसका मतलब...!
अध्यक्ष (मध्य ही में चिंता भाव से) : इसका मतलब साफ है! ...यह ऐसा साँप हमारे गले में पड़ गया है, जिसे उतार कर फेंकना भी खतरनाक है और गर्दन में लटकाए-लटकाए घूमना भी!
ओझा साहब (गंभीर हो कर) : फिर तो अध्यक्ष जी 'साँप मरे, ना लाठी टूटे' वाला कोई जतन खोजना होगा।
अध्यक्ष (झुंझलाते हुए) : तब से मैं और क्या कह रहा हूँ? ...इसी प्राबॅलम को साल्व करने के लिए ही तो हम यहाँ इकठ्ठा हुए हैं, मगर...!
अग्रवाल साहब (गंभीर मुद्र के साथ मध्य ही में) : ...अब आप ही बताइए, अध्यक्ष जी क्या किया जाए? ...आपका फैसला सर्वमान्य होगा।
सिंह साहब (मुस्कराहट के साथ) : ...इसमें नया क्या है? ...अध्यक्षजी का फैसला तो सबको मान्य होगा ही... !
ओझा साहब (अग्रवाल की और देख कर) : ...यह तो हमारी पार्टी की परंपरा है!
सिंह साहब (होठों पर ऊंगली रख ओझा की ओर संकेत करते हुए) : ...मगर फैसला सुनाने से पहले महातमा जी के दर्शन हम भी तो करलें।
ओझा (मुसकराते हुए) : बात तो ठीक है, खाम -ओ-ख्वाँ ही लाठी पीटते रहने से क्या लाभ!
अध्यक्ष (राय साहब की ओर संकेत करते हुए) : सिंह साहब ठीक कहते हैं। बापू को ससम्मान यहाँ ले आया जाए।
(राय साहब के साथ बापू का सभागर में प्रवेश। अध्यक्ष सहित सभी सदस्य खड़े हो जाते हैं और सभी की निगाहें एक बार बापू की तरफ उठती हैं तो दूसरी बार दीवार पर टंगे बापू के चित्र की ओर। एक ही क्षण में यह क्रम स्वत: ही कई बार दोहराया जाता है। आश्वस्त हो कर सभी बापू को प्रणाम करते हैं)
अध्यक्ष (आदर के साथ) :
आइए बापू ...आपका स्वागत है (समीप के आसन की ओर संकेत कर) यहाँ बैठिए बापू।
बापू (हर्ष के साथ मन ही मन) : ...ओह! कितने शालीन हैं मेरे शिष्य ...इनके हाथों में अवश्य देश सुरक्षित रहेगा। ...कमबख्त! मुन्नालाल झूँठ बोलता था!
अध्यक्ष (विनय भाव से) : बापू! ...आदेश करें!
बापू (संकोच के साथ) : पुत्र! ...चुनाव लड़ना चाहता हूँ।
अध्यक्ष (विनम्र भाव से) : बापू! यह तो पार्टी व हमारे लिए हर्ष का विषय है! आपको चुनाव में उतारा जाए, इस प्रस्ताव पर कार्यसमिति के सभी सदस्य सहमत हैं, किंतु... !
(सहमति की बात सुनते ही सदस्य एक दूसरे का मुंह ताकने लगते हैं)
बापू (सहज भाव से) : .
..किंतु, क्या पुत्र?
अध्यक्ष ( तनाव के भाव के साथ) : ...किंतु, बापू आपको इसकी क्या आवश्यकता?
बापू (पूर्व भाव से) : पुत्र! ...राष्ट्र सेवा करना चाहता हूँ!
अध्यक्ष (आश्चर्य के साथ) : राष्ट्र सेवा! ...किंतु उसके लिए चुनाव लड़ने की क्या आवश्यकता?
बापू (मुसकरा कर) : ...बात-बात पर किंतु, पुत्र! (विराम) मैंने सुना है, पुत्र राष्ट्र सेवा के लिए सांसद बनना आवश्यक है!
अध्यक्ष (तनाव के साथ) : नहीं-नहीं, बापू! ऐसा कुछ भी नहीं है। राष्ट्र सेवा एमपी बने बिना भी की जा सकती है, लोकनायक जे.पी. की तरह।
बापू (मुसकराते हुए) : अपने कथन पर विचार कर देख लो, मुझे कोई एतराज नहीं है। (विराम) विचार कर लो, कहीं फिर किसी आपातकाल..!
अध्यक्ष (मध्य ही में घबराते हुए) : ...नहीं-नहीं मेरे कहने का अर्थ यह नहीं था, मै तो...।
बापू (मध्य ही में) : ...फिर मैं तुम्हारी ही तरह राष्ट्र सेवा...!
अध्यक्ष (विनीत भाव के साथ) : ...बापू, मगर लोग क्या कहेंगे कि चुनाव जीतने के लिए हमने बापू का दुरुपयोग किया।
बापू (उपेक्षा भाव से) : कहने दो, पुत्र! ...लोग तो अब भी कह रह हैं। कुछ न कुछ तो कहेगें ही!
अध्यक्ष (चिंता व्यक्त करते हुए) : किंतु विपक्ष इसे मुद्दा बना लेगा। (एक क्षण रुकने के बाद) अब आप ही बताओ बापू , बैठे-बिठाए मुद्दा देकर क्या संप्रदायिक पार्टी को लाभ पहुंचाना उचित होगा ..?
ओझा साहब (मध्य ही में गंभीर भाव से) : ...बापू, आप तो पहले ही सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके हो! ...अब आप ही बताओ बापू क्या फिर भी चुनाव लड़ना आपकी गरिमा के अनुकूल होगा?
अध्यक्ष (रहस्यमय भाव चेहरे पर लाते हुए) : ...ठीक ही कहा, ओझा साहब ने बापू!
ओझा (अध्यक्ष के कान में) : अरे, भाई! बापू को संग्रहालय में रख देते हैं। सभी समस्याओं से छुटकारा मिल जाएगा।
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : ...हाँ-हाँ बापू, चुनाव न लड़ा कर आप हमारे पास ही विश्राम करें! आप भी सुरक्षित रहेंगे और आपकी गरिमा भी। ..हम आपका आदर करते हैं ना, बापू!
(बापू मौन रह कर अन्य सदस्यों के चेहरों के भाव पढ़ने का प्रयास करते हैं। अध्यक्ष व राय साहब कक्ष के एक कोने में जाकर मंत्रणा करते हैं)
राय साहब (कान के पास मुँह लगा कर) :
नहीं-नहीं, सर संग्रहालय में नहीं। ...संग्रहालय में रखेंगे तो बापू डंप हो जाएंगे।
अध्यक्ष (जिज्ञासा भाव से) : क्या मतलब...?
राय साहब (शब्दों को खींचते हुए ) : ...सऽऽऽर, मतलब साफ है, ब्रांड में अभी जान है, ...क्यों न इसको कैस किया जाए?
अध्यक्ष (पूर्व भाव से) : फिर...क्या किया जाए, राय साहब?
राय साहब : कार्यालय प्रांगण में क्यों न स्थापित कर दिए जाए?
अध्यक्ष : उससे क्या होगा?
राय साहब : निगाहों के सामने रहेंगे तो गड़बड़ी भी नहीं कर पाएंगे। विपक्ष में शामिल होने का खतरा भी टल जाएगा!
अध्यक्ष (चिंतन की मुद्रा में) : ...हूँऽऽऽ!
राय साहब (मुस्करा कर) : ...सऽऽऽर, आंगन में खड़े-खड़े कुछ तो वोट बटोरेंगे।
(अध्यक्ष सहमति में गरदन हिलाते हैं और दोनों पुन: अपने स्थान पर लौट आते हैं)
अध्यक्ष (गंभीर भाव से) :
बापू! आपके लिए कार्यालय परिसर में व्यवस्था कर देते हैं। ..वहीं अपने भक्तों का आशीर्वाद देते रहना!
बापू (मुसकराते हुए) : जैसी तुम्हारी इच्छा, पुत्रों!
राय साहब (हर्ष के साथ) : हाँ, बापू! ..तुम्हारी गरिमा भी बने रहेगी और चुनाव का आनंद भी!
बापू (मुसकराते हुए) : ...भीष्म पितामह के सामान, पुत्र!
अध्यक्ष (हर्ष के साथ) : हाँ, हाँ, बापू! युद्ध से भी मुक्ति मिल जाएगी और युद्ध का आनंद भी प्राप्त होता रहेगा!
बापू (सहमति में सिर हिलाते हुए) : हाँ, यही उचित रहेगा, पुत्र!
(बला टली के अंदाज में सभी ने अध्यक्ष के प्रस्ताव हर्ष व्यक्त किया और एक-एक कर सभागार से रवाना हुए। कार्यालय प्रांगण में बापू की प्रतिमा स्थापित करने की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई। उधर अनिष्ट की आशंका से ग्रस्त बापू भी मौका पाते ही वहां से रफू-चक्कर हो गए।)
(कल : बापू और राष्ट्रपति भवन पर तैनात सिपाही ..जारी)

Sunday, April 27, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -पांच


गतांक से आगे...
दृश्य दो
(मंच पर छाया प्रकट, फ्लैश लाइट उस पर केंद्रित)
छाया :
बापू को आराम करने की सलाह दे कर मैं घर लौट आया, मगर रात भर सौ न सका। यह सोच-सोच कर करवट बदलता रहा, बापू आखिर किस हाल में होंगे। बापू रात भर सौ न पाए होंगे। वे लोकतंत्र और लोकतंत्र के वाहक नेताओं को लेकर रात भर चिंतित रहे होंगे और मैं बापू की चिंता को लेकर चिंतित रहा। भोर हुई और मैं फिर बापू के चरणों में जा बैठा। बापू को प्रणाम किया हाल-चाल पूछा और उनके कहने पर उन्हें लोकतंत्र और उसके कथित शिष्यों की हकीकत से रू-ब-रू कराने एक पार्टी के कार्यालय ले गया।
(छाया मंच से अंतर्धान। बापू और मुन्नालाल रास्ते में)
बापू (उत्सुकता के साथ) :
पुत्र, यह क्या! ये लोग क्यों चिल्ला रहे हैं? क्या कष्ट है, इन्हें?
मुन्नालाल ( सहज भाव से) : बापू, यह लोकतंत्र का जुलूस है।
बापू (क्षुब्ध भाव से) : ...फिर वही, लफ्फाजी! ...अवश्य सत्याग्रही होंगे!
मुन्नालाल (बात पर बल देते हुए) : सत्याग्रही नहीं बापू! ...जुलूस ही है।
बापू (आश्चर्य से) : ...लोकतंत्र का जुलूस, पुत्र! ...अभी से! क्या लोकतंत्र ऐसी स्थिति में आ गया है?
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...अभी से नहीं बापू! तेरे समाधिस्थ होने के तुरंत बाद से ही।
बापू (पूर्व भाव से) : ...किंतु पुत्र..!
मुन्नालाल (बापू का हाथ पकड़) : ...किंतु-परंतु छोड़ बापू। अभी जुलूस देखा है, अब लोकतंत्र का तमाशा दिखलाता हूं!
(मुन्नालाल व बापू दोनो पार्टी कार्यालय परिसर में। पार्टी कार्यालय परिसर में टिक्टार्थियों की भीड़ है। अलग-अलग समूह में एकत्रित लोग आपस में बातें कर रहे हैं। वरिष्ठं किस्म के नेता पार्टी कार्यालय के अंदर-बाहर आ-जा रहे हैं। कार्यकर्ता अपने-अपने नेताओं के समर्थन में रुक-रुक कर नारे लगा रहें हैं।)
बापू (उत्सुकता से) :
...और यह भीड़, पुत्र!
मुन्नालाल (सहज भाव से) : ...टिकट लेने वालों की भीड़ है, बापू।
बापू (फिर उत्सुकता से) : कैसा टिकट? ..किसका टिकट, किसी सरकस का?
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : ...हाँ, सरकस का!
बापू (पूर्व भाव से) : ...मगर मुझे, यहाँ क्यों लाया पुत्र?
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : सरकस दिखलाने...!
बापू (मध्य ही में) : ...मजाक न कर, पुत्र! साफ-साफ बता!
मुन्नालाल : ...बता तो रहा हूँ। सरकस दिखलाने, लोकतंत्र कासरकस!
बापू : समझा नहीं, पुत्र। ...लोकतंत्र ..लोकतंत्र का सरकस ...टिकट? ..क्या झमेला है?
मुन्नालाल ( मुसकराते हुए) : समझने की कोशिश कर। ...ये सभी राष्ट्रभक्त हैं, आज के भामाशाह, बापू। राष्ट्रसेवा करने के लिए टिकट मांग रहें हैं।
बापू (आश्चर्य से) : राष्ट्रसेवा के लिए भी टिकट, पुत्र! ...राष्ट्रसेवा के लिए भी टिकट की आवश्यकता?
मुन्नालाल (व्यंग्य से) : हां, बापू! आवश्यकता है! ...मांग जब आपूर्ति से ज्यादा हो जाए तो टिकट लगाना लाजिम हो ही जाता है और जब उससे भी काम न चले तो टिकट की नीलामी करनी पड़ती है।
बापू (हर्ष व्यक्त करते हुए) : राष्ट्रसेवा का ऐसा जज्बा तो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान भी देखने को नहीं मिला! ..धन्य है, भारत माँ तू और तेरे ये सपुत्र। ..मगर पुत्र तू उन्हें भामाशाह क्यों कह रहा है?
मुन्नालाल (बापू के अंदाज में) : यह बता दिया तो फिर कहेगा, 'धन्य है, भारत माँ तू और तेरे ये सपुत्र। ऐसे भामाशाह तो महाराणा प्रताप के समय भी नहीं थे।'
बापू (उत्सुकता व्यक्त करते हुए) : ...मगर क्यों पुत्र?
मुन्नालाल : ...क्योंकि ये तेरे राष्ट्रभक्त टिकट भी नीलामी में ले रहे हैं!
बापू (संशय व्यक्त करते हुए) : ...नीलामी! मगर क्यों?
मुन्नालाल : यहाँ भी वही माँग- आपूर्ति का सिद्धांत..!
बापू (क्षुब्ध भाव से) : ...मुझे विश्वास नहीं होता!
मुन्नालाल : ...विश्वास नहीं होता, चल तुझे उन्हीं से मिलवा देता हूँ। तू खुद समझ जाएगा। .. तब तुझे विश्वास हो जाएगा।
(मुन्नालाल एक-एक कर टिकट के उम्मीदवार कुछ नेताओं से बापू को मिलवाता है।)
मुन्नालाल :
बापू इन से मिल, ये शर्मा साहब हैं। ...टिकट के लिए शर्मा जी ने पचास लाख तक की बोली लगा दी है। इससे भी आगे बढ़ने का इरादा रखते हैं। ...चुनाव में चार करोड़ खर्च करने का वायदा कर चुके हैं।
बापू (आश्चर्य से) : ...इतना रुपया, मगर कहाँ से?
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : कभी लाटरी का धंधा करते थे, आज सट्टा और जुआ खिलवाकर जनता की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ कर रहे हैं। ये राष्ट्रसेवा को भी जूआ का ही खेल मानते हैं...।
बापू (मध्य ही में आश्चर्य से) : ...किंतु पुत्र, दोनों साधन तो अपवित्र हैं! सट्टंा और जूआ खेलना तो पाप है ...उसकी कमाई राष्ट्रसेवा में?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...किंतु साध्य तो पवित्र है। फिफटी -फिफटी ही सही, कुछ तो पवित्र है!
बापू (क्षुब्ध भाव से) : नहीं, पुत्र-नहीं, साधन और साध्य दोनों की पवित्रता आवश्यक है।
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...इनका हृदय परिवर्तन हो गया है, अत: सट्टें की कमाई को राष्ट्रसेवा में निवेश करने की इच्छा रखते हैं। इसमें हर्ज क्या है बापू!
बापू (पूर्व भाव से) : नहीं, नहीं पुत्र..!
मुन्नालाल (मध्य ही में) : ...अधीर न हो बापू! देखता जा..आ तेरा दूसरे भामाशाह से परिचय करता हूँ।
(शर्मा जी से मिलवाकर मुन्नालाल बापू को एक अन्य नेता के पास ले जाता है)
मुन्नालाल (परिचय कराते हुए) :
बापू, इनसे मिल, ये सुराना साहब हैं। बहुत बडे़ व्यापारी हैं।
सुराना (हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए) : ...जी बस मैं तो सेवक हूँ, राष्ट्र सेवा का संकल्प लिया है।
मुन्नालाल (विनम्र भाव से) : ...क्या उम्मीद है?
सुराना (विश्वास के साथ) : उम्मीद तो पक्की है, किंतु दलाल साहब का पलड़ा भी कम भारी नहीं है।
(सुराना साहब के नाम की आवाज लगती है और तेज कदमों के साथ सचिव के कमरे के कमरे का ओर बढ़ जाते हैं। आशीर्वाद के लिए बापू का हाथ आसमान की ओर उठता है)
मुन्नालाल : ...आशीर्वाद जाया न कर बापू। इनकी भी तो कैफियत सुन!
बापू (सहज भाव से) : ...मगर सुरानाजी तो भले आदमी जान पड़ते हैं, पुत्र!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : हाँ, भले आदमी तो हैं! ...बेचारे कबाड़ी का धंधा करते-करते अब राजनीति को कबाड़ में तब्दील करने का व्यापार करने लगे हैं।
बापू (आश्चर्य से) : क्या मतलब?
मुन्नालाल (समझाते हुए) : बहुत जल्दी धैर्य खौ बैठता है, बापू! ...सुन, टिकट के लिए अब तक सबसे बड़ी बोली इन्हीं की है। किंतु हाईकमान ने अभी हाँ नहीं की है, इसलिए बोली अभी और बढ़ने की उम्मीद है।
बापू (क्रोध व्यक्त करते हुए) : फिजूल की बात! देख, सामने देख पार्टी का नाम पढ़ 'समाजवादी पार्टी' आगे पढ़ 'सामाजिक न्याय, समता, सुचिता, पारदर्शिता!' क्या एक भी चरित्रवान चेहरा नहीं है? ...कभी-कभी बहुत नेगेटिव हो जाता है।
मुन्नालाल (रहस्यमयी मुद्रा में) : ...अच्छा ले इनसे मिल, बहुत पॉजेटिव आदमी हैं! .. सिंह साहब हैं, समाजवादी विचारधारा के अनुयायी हैं। शराब की तस्करी इनका धंधा है। बहुत दयालु प्रकृति के हैं। ...धंधे में टांग अड़ाने वाले कई महानुभावों की आत्माओं का मिलन परमात्मा से करा चुके हैं।
बापू (चौंकते हुए) : हिंसा... !
मुन्नालाल : ..फिर वही घिसे-पिटे जुमले! अरे बापू, सिंह साहब के भी हृदय का डायलेसिस हो चुका है, अत: राष्ट्रप्रेम जागृत हो गया है। ...इनके लिए राष्ट्रसेवा के सामने संपूर्ण धन बे-धन है। अर्थात कोई कीमत नहीं रखता।
बापू (क्षुब्ध भाव से) : अब लौट चले पुत्र!
मुन्नालाल : ...बस, राष्ट्र के एक और महान सेवक से मिललें, फिर चलते हैं!
बापू (पूर्व भाव से) : चल ठीक है... !
मुन्नालाल (हाथ जोड़ कर अभिवादन करते हुए) : ...ये दलाल साहब हैं, दिन-रात जनता की सेव में लगे रहते हैं।
दलाल साहब (अभिवादन की औपचारिकता पूरी कर मुस्कराते हुए) : आप...?
मुन्नालाल : ...ये महात्मा गांधी हैं।
दलाल साहब (उपेक्षा भाव के साथ) : अच्छा...!
(मुँह फेर कर दलाल साहब वहाँ से चले जाते हैं)
मुन्नालाल (क्षुब्ध भाव से) :
दलाल साहब के नखरे देख, बापू!
बापू (सहज भाव से) : कोई बात नहीं पुत्र, कोई काम याद आ गया होगा, जल्दी में हैं।
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : हाँ, बेचारे अतिव्यस्त हैं, दलाली करते हैं,ना!
बापू (पूर्व भाव से) : ...छोड़, पुत्र! ...इनकी कैफियत बता।
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : हाँ, ले बापू, इनकी भी कैफियत सुन। देश के अग्रणी नेताओं में से हैं!
बापू (पूर्व भाव से) : ...लगता तो है!
मुन्नालाल (क्षुब्ध भाव से) : हाँ, सो तो है! ...गाय-भैंसों की दलाली करते-करते राजनीति की पैंठ में उतर आए हैं। राजनैतिक हलकों में इनका बड़ा नाम है, बड़ा आदर है। सरकार बनाना-गिराना इनके बांए हाथ का खेल है। जनप्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त और गाय-भैंसों की दलाली इनके लिए समान है।
बापू (नाक-भौं सिकोड़ते हुए) : छी-छी-छी, ऐसा आदमी और राजनीति में। तरक्की का कारण...?
मुन्नालाल (कृत्रिम गंभीर भाव के साथ) : तरक्की? ...अरे बापू, जितना गुड़ डालोगे उतना ही मीठा होगा! यही इनकी तरक्की का मूल मंत्र है, यही आदर्श। ...पैसा इनके लिए हाथ का मैल है।
बापू (क्षुब्ध भाव से) : हे राम, हे राम! क्या इनका भी हृदय-परिवर्तन..?
मुन्नालाल (जोर से हँसते हुए) : हाँ, बापू! दलाल साहब भी परिवर्तित हृदय वाले हैं!
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : अच्छा...!
बापू (क्षुब्ध भाव से) : हृदय परिवर्तन तो ठीक है.. मगर साध्य और साधन की पवित्रता, पुत्र?
मुन्नालाल (खिन्न भाव से) : ...डेंगू के कारण मौत हो गई।
बापू (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : मगर महाराणा प्रताप...?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : महाराणा प्रताप! ...उस ऊदबिलाऊ की खोज में जंगल-जगंल भटक रहा है, जिसने उसके पुत्र के हाथ से घास की रोटी का टुकड़ा छीन लिया था।
(बापू ने क्षुब्ध भाव से मुन्नालाल की ओर देखा)
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) :
...बापू चलें या अभी और?
(लाठी टेकते-टेकते बापू का खिन्न भाव के साथ राजघाट की तरफ प्रस्थान। मुन्नालाल भी उनके पीछे-पीछे चल देता है।)
(कल : बापू का टिकट के लिए आवेदन ...जारी)
संपर्क- 9868113044

Saturday, April 26, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -चार

(गतांक से आगे...)

भाग-दो
दृश्य-एक
(फ्लैश लाइट मंच के केंद्र पर फोकस और इसी के साथ छाया प्रकट होती है)
छाया (करुण स्वर में, रुक-रुक कर) : .
..ठहरिए, अभी मत जाइए। बापू के आदर्शो, सिद्धांतों के परिहास की कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। यह तो शुरूआत थी, एक बानगी थी। विस्तृत कहानी तो अब शुरू होगी। (कुछ देर रुकने के बाद) अभी तो आपने बापू के ही नाम पर बापू के आदर्शो को नीलाम होते देखा है। उनके आदर्शो की हत्या होते देखा है। बापू को नीलाम होते अभी कहां देखा है? .. हां, हां, मैं सत्य कह रहा हूं। बापू की बोली लगती है, सरे बाजार, क्योंकि उनकी नजर में बापू कोई प्राणी नहीं, एक ब्रांड है, ...हाँ ब्रांड है! देश के सौदागरों की निगाह में। ...प्राणी होता तो भी क्या था, सौदागर तो सौदागर हैं। क्रय-विक्रय उसकी प्रकृति है। व्यापार में जीव-निर्जीव, अपने-पराए का भेद नहीं किया जाता, इसलिए बापू को भी नीलाम किया जाता है। ...बापू पर कब्जा जमाने के सरेआम दावे किए जाते हैं, उसका अपहरण किया जाता है। क्योंकि उनकी निगाह में बापू 'बापू' नहीं एक अचेतन पदार्थ है, एक पिण्ड है। एक ऐसा पिण्ड, लाठी के बल पर जिसका अपहरण किया जा सकता है।
(आँखों में आए आँसू पोंछ अपने को संयत करते हुए) ...ठहरिए, जनाब! मैं ने कहा था ना कि बापू कैद में हैं। वही कहानी अब मैं आपको सुनाने जा रहा हूं। आओ, आपको बापू समाधि राजघाट लिए चलता हूं।
(सिर पर हाथ फेर कर कुछ याद करने का प्रयास करते हुए बोलना शुरू किया) ...इस कहानी की शुरूआत एक फरवरी की सुबह से होती है। लगभग एक सप्ताह पूर्व ही आम चुनाव की घोषणा हुई थी। राजनैतिक हलकों में भी चहल-पहल शुरू हो गई थी। राजनैतिक हलचल से बापू को अवगत कराने के उद्देश्य से उस दिन सुबह ही सुबह मैं राजघाट पहुंच गया था...।
(छाया मंच से अदृश्य। मंच पर पुन: बापू समाधि का दृश्य)
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : अरे, मुन्नालाल! तू फिर, कोई पाप-पुण्य तिथि आ गई क्या?
मुन्नालाल (हँसते हुए) : ...नहीं बापू आज नहीं, मगर आने वाली है। जानकारी देने आया था।

बापू (मुसकराते हुए) : ...तुझ पर अब विश्वास नहीं रहा पुत्र! अवश्य कोई नई खुराफात सूझी होगी। ...खैर कोई बात नहीं, आ बैठ जा।

मुन्नालाल (क्रोध के क्रत्रिम भाव प्रकट करते हुए) : हकीकत बयान करने को खुराफात कहता है, बापू। ॥मैं खुराफाती हूं, तो ले चला जाता हूं।
(मुन्नालाल वापस लौटने का नाटक करता है। स्नेह से उसका हाथ पकड़ बापू अपने पास बैठाते हैं।)
बापू (आदेशात्मक लहजे में, मुसकराते हुए) :
...बैठ! छोटी-छोटी बात पर भी नाराज तो जिन्ना की तरह हो जाता है। .॥नारजगी थूक। अच्छा चल बता, क्या खबर है।

मुन्नालाल (अचंभित होते हुए) : अरे-रे-रे, देख बापू! ..देख तेरे भक्त आज फिर आ धमके। जरूर कोई...!
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए, मध्य ही में) : ...किंतु पुत्र आज न दो अक्टूबर है और न तीस जनवरी! फिर मेरे ये शिष्य मुझे घेरने क्यों आ रहे हैं?
मुन्नालाल (सहज भाव से) : अवश्य कोई आवश्यकता आन पड़ी होगी।
बापू (उत्सुकता दिखते हुए) : कैसी आवश्यकता, पुत्र?
मुन्नालाल (सहजभाव से) : ...हूं! यही तो खबर है, बापू!
बापू ( जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...क्या पुत्र? ...बोल-बोल, जल्दी बोल, फिर वे आ घेरेंगे।
मुन्नालाल ( रहस्यात्मक लहजे में, धीरे से) : चुनाव आ गए हैं ना, बापू।
बापू (व्यंग्य भाव से) : ...चुनाव, पुत्र! ..फिर मुझ से वोट माँगने आ रहे हैं क्या?
मुन्नालाल (हँसते हुए) : वोट! गलतफहमी न पाल बापू! ...कहते हैं, गलतफहमी पालना शेर पालने से भी ज्यादा खतरनाक होता है।
बापू (सहज भाव से) : ले नहीं पालता! किंतु, ये तो बता, गलतफहमी कैसे?
मुन्नालाल : तेरे पल्ले वोट हैं ही कितनी, जो तेरे पास आकर अपना वक्त खराब करेंगे।
बापू : अरे सभी के पास एक ही तो वोट होती है, वह मेरे पास भी है।
मुन्नालाल (हँसते हुए) : बस बापू यही तो गलतफहमी है! तू वोट देने नहीं जाएगा, तेरी वोट तो फिर भी पड़ जाएगी... !

बापू (मध्य ही में आश्चर्य से) : मगर, यह कैसे?
मुन्नालाल (उपेक्षा भाव से) : क्या करेगा जानकर! बता दिया तो फिर तेरे किसी आदर्श की हत्या हो जाएगी। खामोख्वां क्यों मन को रंज की भटं्टी में ढकेलता है। उन्हें जरूरत बस तेरे आशीर्वाद की है!
बापू (पुन: आश्चर्य से) : आशीर्वाद, पुत्र! ...मगर क्यों? ...चुनाव से आशीर्वाद का क्या संबंध?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : संबंध है, क्योंकि तेरे ब्राण्ड में अभी जान है। ...इसलिए तेरा आशीर्वाद लेने की जरूरत है।
बापू (झल्लाते हुए) : तू साफ-साफ क्यों नहीं बताता, पुत्र! ब्राण्ड, आशीर्वाद पता नहीं क्या क्या बके जा रहा है।
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : साफ तो है! जनता आज भी तेरा सम्मान करती है। आशीर्वाद लेने का नाटक कर नेता तेरे नाम की दुहाई देंगे। जनता भोली है, तेरा नाम सुनते ही उनकी झोली में वोट डाल देगी।
(नेताओं के दो अलग-अलग समूह समाधि स्थल पर प्रवेश करते हैं और समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित कर हाथ जोड़ अलग-अलग दिशाओं में खड़े हो जाते हैं)
बापू (दया भाव से) :
देख, मेरे भक्तों को देख! ...उन्हें करबद्ध देख! ...देख, किस प्रकार याचक भाव से खड़े हैं!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : हाँ, देख रहा हूँ और समझ भी रहा हूँ। ...चुनाव के समय ही तो याचक की मुद्रा में आते हैं, बाकी दिन तो..!
बापू (गंभीर मुद्रा में) : ...बाकी क्या? ...तेरे अंदर से पता नहीं ईर्ष्‍या भाव कब समाप्त होगा। ...ठीक है तो तू ठहर मैं उन्हें आशीर्वाद दे कर आता हूं।
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : ...सोच-समझ कर आशीर्वाद देना बापू... !
बापू (मुसकरा कर) : हाँ, हाँ, सोच लिया! ...आशीर्वाद तो देना ही है। निराश करना हिंसा भाव है। (शय्या पर लेटे-लेटे बापू दोनों पक्षों के नेताओं पर दृष्टिं डाल कर आश्चर्य से मन ही मन बोलते हैं) ...अरे! यह क्या? इधर के भी उधर के भी! कृष्ण के शयन कक्ष में जैसे दुर्योधन भी और अर्जुन भी ...एक साथ। ...मगर यह क्या, दोनों ही का रंग-रूप एक समान। (बापू ने स्वयं को संयत किया और दोनों ओर खड़े नेताओं से बोले) ...हे, राष्ट्र की धरोहर.. राष्ट्र पुत्रों कहो, यहां आने का कारण क्या है? क्या कोई संकट आन पड़ा है? ...कहो पुत्र, कहो?
नेता (एक सुर में) : महासंग्राम के लिए शंखनाद हो चुका है, बापू। संग्राम की तैयारियां शुरू हो गई हैं। सेनाएं सजने लगी हैं...।
बापू (मध्य ही में व्यंग्य भाव से) : महासंग्राम! ...भीष्म पितामह के समान शरशय्या पर पड़ा तुम्हारा यह बापू , संग्राम में तुम्हारी क्या सहायता कर सकता है, पुत्रों?
नेता (विनीत भाव से) : ...खाली सिंहासन प्रतीक्षा में है, बापू!
बापू (आश्चर्य व व्यंग्य के मिश्रित भाव से) : सिंहासन मेरी प्रतीक्षा में!
नेता (पूर्व भाव से) : नहीं बापू! सिंहासन जानता है, आप राजनीति से संन्यास ले चुके हो।
बापू (पूर्व भाव से) : ...फिर?
नेता : मौन!
बापू (सहज भाव से) : अच्छा, समझा! सिंहासन खाली है! ...तो उस पर जा कर बैठ क्यों नहीं जाते, पुत्र!
एक अन्य नेता (विनय भाव से) : नहीं बापू, ऐसा नहीं है। संग्राम में जो विजयी होगा, वही सिंहासन का स्वामी होगा।
बापू (पूर्व भाव से) : ...विजयी!
नेता : ...जनता जिसके प्रति अपना विश्वास व्यक्त करेगी वही विजयी कह लाएगा।
बापू (मुसकराते हुए) : कैसा विश्वास... किसका विश्वास!
नेता (चेहरे पर विवशता का भाव लाते हुए) : जनता का विश्वास, बापू! ...लोकतंत्र में कानून यही कहता है।
बापू (पूर्व भाव से) : ...जाओ परस्पर सौदा कर लो। पदों का बंटवारा कर लो, पुत्र। ...गठजोड़ कर सत्ताजोड़ करो और सत्ता का सुखोपभोग करो। जनता तो भोली है, जैसा समझाओगे वैसे ही मान जाएगी। उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं है, पुत्रों! जाओ ...सिंहासन खाली नहीं रहना चाहिए।
दूसरी तरफ का नेता : ...नहीं बापू, ...लोकतंत्र की मर्यादाओं का कुछ तो पालन करना ही होगा। संग्राम की औपचारिकताओं का तो निर्वाह करना ही होगा। ...अंत में सत्ताजोड़ तो अवश्यंभावी है ही...।
बापू : ...तो आदेश करो, पुत्रों! मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?
सभी नेता (एक सुर में) : ...बस आपके आशीर्वाद की इच्छा है, बापू।
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) ..केवल आशीर्वाद!
नेता (एक सुर में) : ...हां, बापू! केवल आशीर्वाद ...शेष तो बस...!
(आशीर्वाद देने के लिए बापू ने ऊपर की ओर हाथ उठाए, मगर ठिठक कर रह गए)
बापू (मन ही मन ) :
विजयी भव का आशीर्वाद इनमें से किसे दूँ। ...इनमें कौन अर्जुन और कौन दुर्योधन? चेहरा-मोहरा छोड़ अन्य कोई भी तो अंतर नहीं दोनों पक्षों के सेना-नायकों में। कथनी-करनी समान, लहजा समान, रीति-नीति समान। मानों एक ही तस्वीर को अलग-अलग फ्रेम में सजा दिया गया हो। ...मुन्नालाल ठीक ही कहता है, हे राम, हे राम, हे राम...।
(आशीर्वाद दिए बिना ही बापू के दोनों हाथ पूर्व स्थिति में आ जाते हैं। हर्ष व्यक्त करते हुए सभी नेता बापू को प्रणाम कर चले जाते हैं। आश्चर्यचकित बापू उन्हें निहारते रह जाते हैं)
मुन्नालाल (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) :
यह क्या बापू, दोनो ही को विजय का आशीर्वाद... !
बापू (पश्चाताप की मुद्रा में) : ...नहीं पुत्र! मैंने तो उनमें से किसी को भी आशीर्वाद नहीं दिया। मैं तो विचार ही करता रह गया कि विजय का आशीर्वाद उनमें से किसे दूं और क्यों? ...वे तो चले गए, शायद नाराज हो कर। ...याचक खाली हाथ लौट गए पुत्र, घोर अनर्थ!
मुन्नालाल : तू भी अजीब है, बापू। पल में गुस्सा, पल में पश्चाताप!
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ पुत्र, मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए था। ..क्या बिगड़ जाता, यदि मैं आशीर्वाद दे देता?
मुन्नालाल (कटाक्ष करते हुए) : ...दे देता बापू, मना किसने किया था।
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ, पुत्र! मना तो किसी ने नहीं किया था, किंतु, ...तेरे प्रभाव में कभी-कभी कुछ ज्यादा ही आ जाता हूँ। तू बात ही ऐसी करता है।
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : इच्छा तेरी ही नहीं हुई! दोष मुझे दे दिया।
बापू : मौन!
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...मगर, तू चिंता न कर बापू! तू दे या न दे, मगर वे तेरा आशीर्वाद लेकर ही गए हैं। वे नेता हैं, अपने-अपने पक्ष में तेरे आशीर्वाद के लिए भी कोई न कोई फार्मूला निकाल ही लेंगे।
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : ...वह कैसे पुत्र?
मुन्नालाल (सहज भाव से) : सुन बापू, जनता किसी एक दल के प्रति अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त करे या न करे फिर भी उसके विश्वास मत के नाम पर गठजोड़ की रीति-नीति से सरकार बना ही लेते हैं। ...तेरा तो बस आशीर्वाद है और यह भी किसने देखा है कि तू ने आशीर्वाद दिया भी या नहीं। आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ तो ऊपर उठाए थे ना। बस, इतना ही काफी है?
बापू (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...मगर एक बात तो बता पुत्र, केवल आशीर्वाद ही क्यों लेने आए? अन्य किसी प्रकार की सहायता क्यों नहीं मांगी?
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : बापू! आशीर्वाद के अलावा अब तेरे पास और बचा भी क्या है? आशीर्वाद भी तब तक, जब तक जनता में तेरा सिक्का चल रहा है। ..अब तू ही बता, क्या तेरी बकरी में इतनी ताकत बची है कि वह किसी का विजय रथ खींच सके। ..तेरी लाठी में अब इतनी शक्ति कहां कि उसके दम पर बूथ कैपचर किया जा सके। ..बदलते मूल्यों की बदलती परिभाषा के तहत तेरे आदर्श, तेरे सिद्धांत अब बेमानी हो चुके हैं। ..सड़क से उठाकर सिंहासन तक पहुंचाने के लिए अब वे कारगर नहीं हैं।
बापू (गर्व के साथ) : मगर, पुत्र मैं चुनाव प्रचार..!
मुन्नालाल (उपेक्षापूर्ण मुसकराहट के साथ) : ..तू और चुनाव प्रचार, कैसी-कैसी बात सौचता है, बापू! उन्हें ग्लैमर हीन फादर आफ दी नेशन की नहीं, ग्लैमरयुक्त मिस इंडिया, मिस व‌र्ल्ड, मिस यूनिवर्स और स्वप्न सुंदरियों की आवश्यकता है। ..तेरे जैसे ग्लैमर हीन व्यक्ति की नहीं।
बापू (निराशा भाव से) : मगर, पुत्र क्या ऐसी स्थिति..!
मुन्नालाल (बापू को बीच ही में टोकते हुए) : ..अच्छा तू ही बता बापू, कूल्हे मटका कर भीड़ जुटा लेगा?
बापू (झिड़कते हुए) : ..क्या बकता रहता है, फिजूल की..!
मुन्नालाल : ..फिजूल की नहीं, बापू उसूल की है, उसूल की!
बापू (क्रोध भाव के साथ) : अपने उसूल, अपने पास रख..!
मुन्नालाल : साफ-साफ कह ना बापू, कूल्हे मटकाना बस की बात नहीं।
बापू (क्षुब्ध भाव से) : बात न बना! ..उसके बिना भी सफलता पूर्वक चुनाव प्रचार किया जा सकता है।
मुन्नालाल (दया भाव से) : ..चुनाव प्रचार में उतरने की इच्छा जाहिर कर बची-खुची दाव पर न लगा, बापू। ..बस समाधि में लीन, हरि-कीर्तन करता रह। दरबार में जो आए उसे आशीर्वाद देता रह, बस!
बापू (विश्वास के साथ) : नहीं, मैं तेरे कथन से पूर्ण सहमत नहीं हूं, पुत्र। ..आशीर्वाद लेने आए अपने शिष्यों को तेरे कहने पर ही भला-बुरा कह दिया। आलोचना कर बेमतलब उनके हृदय को पीड़ा पहुंचाई..।
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ..इतना रंज न कर बापू! वे इसी के हकदार थे।
बापू (पश्चाताप की मुद्रा में) : ..नहीं-नहीं, पुत्र नहीं, मेरे शिष्य आज भी मेरा आदर करते हैं। आज नहीं तो कल कोई न कोई दल अवश्य अपने प्रचार के लिए मुझे आमंत्रित करने आएगा।
मुन्नालाल (उपेक्षा भाव से) : ..कल भी दूर नहीं है, बापू! ..कल भी देख ले!
(मुन्नालाल ने बापू को प्रणाम किया और कल पुन: आने का वायदा कर घर की ओर चल पड़ा। बापू भी करवट बदल आराम करने लगे)
(कल—एक राजनैतिक दल के दफ़तर में ...जारी)

Friday, April 25, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -तीन


दृश्य-पांच
(बापू का हाथ थामे मुन्नालाल एक अन्य आडिटोरियम के बाहर खड़ा है)
बापू (हर्ष के साथ बैनर पढ़ते हुए) :
...देख पुत्र, क्या लिखा है, 'शाकाहार प्रमोशन फैशन शो, अहिंसा परमोधर्म'। ...देख, इसका प्रमोटर महंत चरणदास है। (उत्सुकता के साथ) यहां अवश्य ही सत्य का प्रदर्शन होगा। चल अंदर चल, पुत्र।
मुन्नालाल (मुसकराहट के साथ) : चल बापू महंत चरणदास का सत्य भी देख ले! ..कल तू यह तो नहीं कहेगा कि कुछ दिखलाया नहीं। ...आ चल, अंदर चलें।
(दोनों अंदर जाकर बैठ जाते हैं। हाल के अंदर की साज-सज्जा पूर्व के समान ही है। कुछ देर बाद ही डिस्को लाइटों का प्रकाश रेंप पर अठखेलियां करने लगता है। इसी के साथ भगवा वस्त्र धारण किए महंत चरणदास का रेंप पर पदार्पण होता है)
महंत चरणदास (गंभीर मगर सौम्य मुख मुद्रा में दर्शकों को प्रणाम करते हुए) : भाइयों और बहनों, आज बापू की पुण्य तिथि है। आओ हम संकल्प लें कि भारत को अहिंसा के पुजारी बापू के सपनों का देश बनाएं। ...बापू कहते थे कि अहिंसा सबसे शक्तिशाली हथियार है, मगर यह कमजोर व्यक्ति का हथियार नहीं है। अहिंसा के इसी हथियार के बल पर बापू ने भारत को आजादी दिलाई थी। ...यदि बापू के बताए मार्ग पर चलना है, उनके सपनों के भारत का निर्माण करना है तो पहले हमें मांसाहार का परित्याग कर शाकाहार अपनाना होगा। मांसाहार जीवों के प्रति हिंसा है। शाकाहार उनके प्रति दया भाव है...।
बापू (ताली बजाते हुए मध्य ही में) : ...पुत्र सुन, कैसे शुद्ध विचार हैं, महंतजी के!
मुन्नालाल : मौन!
महंत (भाषण जारी) : ...भाइयों और बहनों, ऐसा नहीं है कि बापू ने कभी मांसाहार नहीं किया। बचपन में एक दिन बापू ने भी दोस्तों के बहकावे में आकर चोरी-छिपे मांस का स्वाद चखा था...।
बापू (पुन: मध्य ही में मुँह बनाते हुए) : छी-छी-छी...!
मुन्नालाल (टोकते हुए) : मध्य में टीका-टिप्पणी नहीं, बापू! ...अभी और देख!
महंत (भाषण जारी) ...मगर उस दिन के बाद से उन्होंने आजीवन शाकाहार व्रत का पालन करने का संकल्प लिया। ..बापू ही की प्रेरणा से मैंने भी शाकाहार का प्रचार करने का बीड़ा उठाया है। शाकाहार के पक्ष में एक आंदोलन चलाया है। आज उसी आंदोलन के तहत बापू की पुण्यतिथि पर इस शाकाहार प्रमोशन का आयोजन किया है। अब मैं आपका ज्यादा वक्त नहीं लूंगा। आपकी उत्सुकता समझ रहा हूं। लीजिए फैशन शो का आनंद लीजिए, शिक्षा ग्रहण कीजिए और बापू का सपना साकार कीजिए।
बापू (हर्ष व्यक्त करते हुए) : देखा शिष्य, महंत सच्चा भक्त लगता है!
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...धीरज रख! ...देखता जा!
(अंग-प्रत्यंगों को विभिन्न प्रकार की फल-सब्जियों के पत्तों से ढके एक-एक कर मॉडल रेंप पर प्रवेश करती हैं)
बापू (ऐनक साफ करते हुए) : ये सब क्या है पुत्र?
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : ध्यान से देख बापू! ...बालाएं, शाकाहार का प्रचार कर रही हैं!
बापू (पुन: ऐनक साफ कर मुंह बनाते हुए) : हे राम, हे राम, हे राम यह क्या हो रहा है? ...ये तो अर्धवस्त्रा भी नहीं ...पूर्ण निर्वस्त्रा हैं! ...हे राम, हे राम, हे राम!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : बापू, कभी तो पॉजेटिव हो जाया कर। ये निर्वस्त्रा कहां?
बापू (क्रोध भाव से) : ...फिर, क्या पूर्णवस्त्रा हैं?
मुन्नालाल (समझाते हुए) : नहीं बापू, क्रोध नहीं! क्रोध हिंसा है, बापू! हिंसा आत्मा का हनन है, बापू...!
बापू (मध्य ही में पुन: क्रोध भाव से) : दर्शन न समझा मुझे, तुरंत यहां से ले चल मुझे!
मुन्नालाल (अनसुना करते हुए) : निर्वास्त्रा नहीं! लोगों में शाकाहार के प्रति रुचि पैदा कर रही हैं, इसलिए ही बालाएं अपने मांस को शाक से ढके हुएहैं।
बापू (कड़वा सा मुँह बना कर दीन भाव से) : ...पुत्र! मेरे प्रति तेरा यह हिंसा भाव क्यों?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...बापू तू भी हद करता है! शाकाहार के प्रचार को हिंसा कहता है। ...हिंसा नहीं, अहिंसा का प्रचार है!
बापू (घृणा भाव से) : नहीं, नहीं, नहीं! ...यह घोर हिंसा है। ...ये बालाएं नहीं, ...बलाएं हैं।
मुन्नालाल (बापू के ही लहजे में) : बापू, बलाएं नहीं ..बालाएं ही हैं। ये तेरी अहिंसा संस्कृति का परिष्कृत रूप प्रस्तुत कर रहीं हैं। ...अहिंसा संस्कृति का आधुनिक स्वरूप देख, बापू!
बापू (क्रोध भाव में) : ...मूर्ख न बनाओ पुत्र। यह संस्कृति नहीं अपसंस्कृति है।
मुन्नालाल (समझाने के लहजे में, बापू के कान के पास अपना मुंह ला कर) : ...बापू! यह अपसंस्कृति नहीं परिष्कृत संस्कृति है...!
बापू (क्रोध व आश्चर्य व्यक्त करते हुए, मध्य ही में) : ...कहा ना मूर्ख न बना। ...अरे, यह कैसी परिष्कृत संस्कृति... ऐसी भ्रष्ट संस्कृति तो अंग्रेजों के जमाने मे भी नहीं देखी!
मुन्नालाल ( व्यंग्य भाव से) : अंग्रेज! ...अरे, तू भी कमाल करता है, बापू! ...आजादी के इस माहौल में अंग्रेजो को याद करता है! ...अरे बापू, संस्कृति और सभ्यता का पाठ तो यहीं से सीखा है, अंग्रेजो ने। अभी भी सीख रहे हैं।
बापू (क्रोध व्यक्त करते हुए) : ...नहीं, नहीं, चल- यहाँ से भी चल। मुझे नहीं दर्शन करने परिष्कृत तेरी इस संस्कृति के, चल-यहां से चल।
मुन्नालाल (दिलासा देते हुए) : बापू, दुराग्रह छोड़! ...आधुनिक संस्कृति यही है। ॥सत्य, अहिंसा और पारदर्शिता के तेरे सिद्धांतों को नए रूप में परिभाषित करती, संस्कृति! ...आधुनिक भी यही है और उत्तम भी यही है!
बापू (मध्य ही में क्रोध भाव के साथ ) : ...मुझ से तर्क-वितर्क न कर पुत्र। ...भ्रष्ट संस्कृति को उत्तमं सिद्ध न कर पुत्र। ...मुझे यहाँ से ले चल पुत्र।
मुन्नालाल (सहज भाव से) : यह कैसे हो सकता है कि तेरे जमाने की संस्कृति ही उत्तमं कह लाई जाए और बदलते जमाने के साथ संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तन न आए!
(बापू चलने के लिए खड़े हो जाते हैं, किंतु मुन्नालाल हाथ पकड़ कर उन्हें बैठाता है) ...धैर्य रख बापू! ...कान, आँख और मुँह से हाथ हटा बापू।
(मौन बापू क्रोध के साथ मुन्नालाल की ओर देखते हैं। मुन्नालाल बोलना जारी रखता है)
...वक्त के साथ करवट बदलती 'करवट बदल' संस्कृति को स्वीकार कर बापू। ...व्यवहारिक बन, वक्त के साथ चलना सीख, बोलना सीख, वक्त के साथ देखना सीख। ...वक्त को पहचान और करवट बदल संस्कृति का अवलोकन कर, बापू।
बापू (विनीत भाव से) : ...मुझ पर दया कर पुत्र, मुझे यहाँ से ले चल पुत्र!
(हॉल से बाहर जाने के लिए बापू पुन: खड़े हो जाते हैं। बापू को लेकर मुन्नालाल हॉल से बाहर आ जता है)
मुन्नालाल (व्यंग्य से) : ...और बता बापू, अब कहाँ चलें? ॥बता, अब किस किस्म के तेरे शिष्यों के पुण्य कार्य के दर्शन कराऊं तुझे।
बापू (घृणा व क्रोध भाव से) : बस-बस बहुत हो गया, पुत्र! ...अब और सहन नहीं होगा। मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है। मुझे वापस राजघाट ले चल, शीघ्र चल, मुझे प्रायश्चित करना है ...उपवास करना है।
मुन्नालाल (दया भाव से) : ...चल बापू, जैसी तेरी इच्छा।
(कल- चुनाव के दौर में बापू ...जारी)

Thursday, April 24, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) - दो

(गतांक से आगे)----
(मुन्नालाल घुटनों के बल समाधि में प्रवेश करता है और बापू के चरण स्पर्श कर दबाने लगता है। आशीर्वाद के लिए बापू का दायां हाथ उसकी तरफ उठता है)
बापू (मुसकराते हुए) :
अच्छा, मुन्नालाल! आज तक मेरी पुण्य तिथि मनाई जाती है और वह भी श्रद्धा के साथ? इसका मतलब मैं आज भी प्रासंगिक हूं?
मुन्नालाल (ग्लानि भाव से) : ...श्रद्धा नहीं, श्राद्ध कह, बापू और पुण्य तिथि पर ही क्यों? ...प्रतिदिन मनाते हैं, तेरे भक्त। ...तेरे श्राद्ध के नाम पर ही तो हलवा-पूरी खा रहें हैं, देश के कर्णधार।
बापू (झुंझलाते हुए) : पुत्र, कभी तो पॉजेटिव हो जाया कर। जब भी आता है नीन-मेख ही निकालता आता है। ...पता नहीं तू और इस देश के अखबार कब पॉजेटिव होंगे?
मुन्नालाल : ...नेगेटिव को नेगेटिव कहना क्या पॉजेटिव नहीं है, बापू? ...बापू, मैं नेगेटिव नहीं, पॉजेटिव ही हूं। ...तेरे समक्ष असत्य नहीं सत्य ही का बखान कर रहा हूं। ...हां, बापू! तेरे नाम के सहारे ही मलाई मार रहे हैं, तेरे कथित शिष्य।
बापू (क्रोध का इजहार करते हुए) : ऐसा है तो, साधन और साध्य की पवित्रता...? (क्षोभ व्यक्त करते हुए) ...फिर तो, साधन भी अपवित्र और साध्य भी, हे राम, हे राम, हे राम!
मुन्नालाल (हँसते हुए) : अब तू भी नेगेटिव हो गया है, बापू!
बापू (मुन्नालाल को बीच ही में टोकते हुए) : ...वह कैसे पुत्र?
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : बापू! इतना भी नहीं समझता। ...अरेऽ ...बापू, दोनों ही तो पवित्र हैं, साधन भी और साध्य भी।
बापू (शब्दों पर जोर देते हुए) : ...वह कैसे पुत्र?
मुन्नालाल (रहस्यमयी अंदाज में) : बताता हूं, बताता हूं, धैर्य रख, बताता हूं। ...देख बापू! तेरे नाम पर खा रहें हैं, इसलिए तू साधन हुआ और तुझ से पवित्र और कौन हो सकता है, बापू? ॥तेरे शिष्य खुद खा रहे हैं, अर्थात 'चेरेटि बिगेंस फ्रॉम होम'। (विराम) बापूऽऽऽ! ॥ऐसे ही तो समाजवाद आएगा और आर्थिक समानता की तेरी अवधारण पूरी होगी। ...है-ना, साधन और साध्य दोनों पवित्र!
बापू (पीड़ा के साथ आसमान के तरफ मुंह उठाकर) : ...हे राम, हे राम, हे राम!
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : अच्छा, बापू! तू प्रासंगिकता की बात कर रहा था, ना? अरे, फिक्र न कर बापू! जब तक तेरे नाम का सिक्का चलता रहेगा, तब तक तू प्रासंगिक ही रहेगा।
बापू : अच्छा एक बात बता मुन्नालाल! ...जनता उनके खिलाफ सत्याग्रह क्यों नहीं करती?
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : करती तो है, बापू! ...अभी चार दिन पहले ही तो बसों में आग लगाई थी। चांदनी चौक लूटा था।
बापू (आश्चर्य व क्षोभ के साथ) : अरे, मूर्ख! मैं उपद्रव की नहीं, सत्याग्रह की बात कर रहा हूं!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : अरे, पूज्य बापू! ...मैं भी तो सत्याग्रह की ही बात कर रहा हूं। ...लोकतांत्रिक सत्याग्रह की!
बापू (क्षोभ व्यक्त करते हुए) : यह कैसा सत्याग्रह! ...यह तो दुराग्रह है ...हिंसा का प्रदर्शन है...!
मुन्नालाल (पुन: व्यंग्य भाव से) : अरे नहीं बापू! ...दुराग्रह नहीं, हिंसा भी नहीं, बस वक्त के साथ बदलती परिभाषा है। (मुसकराते हुए) तेरे लिए तो खुशी की बात है बापू, बदलते इस दौर की बदलती परिभाषा में भी तेरा नाम नहीं भूले हैं, तेरे भक्त। बदलते इस दौर के सत्याग्रह के साथ भी तेरा ही नाम जुड़ा है!
बापू (क्षुब्ध भाव से) : हे राम, हे राम, हे राम! ऐसा है तो मुझे नहीं चाहिए अब और नाम। ॥यही सत्य है तो उनसे कह दे भूल जाएं मुझे।
मुन्नालाल : कैसे कह दूं, उनकी भावना को ठेस पहुंचेगी। ...बैठे-बिठाए यह तो हिंसा हो जाएगी।
बापू (जिज्ञासा भाव से) : ...मगर, मुन्नालाल! मेरी खादी, स्वदेशी और अहिंसा की क्या गति है।
मुन्नालाल (व्यंग्य से) : सभी सदगति को प्राप्त हैं, बापू!
बापू (जिज्ञासा भाव से) : ...कहना क्या चाहता है, पुत्र?
मुन्नालाल : वही, जो यथार्थ है।
बापू (उत्तेजना के साथ) : साफ-साफ कह ना!
मुन्नालाल : मतलब साफ है बापू, तेरी खादी प्रमोट हो रही है। स्वदेशी की धूम है। अहिंसा के पक्ष में आंदोलन जारी है।
बापू (उत्सुकता व्यक्त करते हुए) : बता-बता, जरा विस्तार से बता। मेरे इन आदर्शो को लेकर क्या चल रहा है। मेरे शिष्य उन्हें किस तरह प्रमोट कर रहें हैं।
मुन्नालाल (रहस्यमय लहजे में) : बापू! तेरी खादी, स्वदेशी व अहिंसा को लेकर आज दिल्ली में अलग-अलग फैशन शो आयोजित हो रहीं हैं। चलेगा देखने...?
बापू (हर्ष के साथ उत्सुक्ता व्यक्त करते हुए) : ...हाँ, हाँ, अवश्य पुत्र! ...चल-ले चल, चल- चलते हैं। देखूं तो सही मेरे शिष्य मेरी खातिर क्या-क्या कर रहें हैं।
मुन्नलाल : चल बापू, चल!
(दोनों चलने के लिए तैयार होते हैं, तभी रामधुन बजनी शुरू हो जाती है। नेता एक-एक कर बापू की समाधि पर आने लगते हैं)
मुन्नालाल :
ठहर बापू! ...तेरे कथित शिष्य तुझे पुष्पांजलि अर्पित करने आने लगे हैं।
बापू (सिर हिला कर सहमति व्यक्त करते हुए) : ...हां, ठीक है, उन्हें जाने दे। ...तब चलेंगे।
(दोनों पुन: बैठ जाते हैं। नेता एक-एक कर समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित कर चले जाते हैं)
दृश्य-चार
(भव्य आडिटोरियम का भव्य रेंप। रेंप के पा‌र्श्व में एक विशाल बैनर टंगा है। जिस पर ऊपर की तरफ लिखा है, 'खादी प्रमोशन फैशन शो' उसके नीचे लिखा है 'बापू के सपनों का भारत' और उसके बाद प्रमोटर का नाम लिखा है, 'रोहित भारती'। बैनर पर लिखी इबारत पढ़ कर बापू प्रसन्न हो जाते हैं)
बापू (प्रसन्न भाव से) :
देख-देख, मुन्नालाल देख, क्या लिखा है, 'खादी प्रमोशन फैशन शो'। देख मेरा नाम भी लिखा है। (बैनर पर लिखी इबारत रुक-रुक कर पढ़ते हुए) ...'बापू के सपनों का भारत'। ये हैं मेरे सच्चे भक्त। देख, शिष्य रोहित अपने आपको भारतीय कहने में गर्व महसूस करता है। ...देख मुन्नालाल उसके नाम के आगे भारती लिखा है।
मुन्नालाल (व्यंग्य लहजे में) : हां, धैर्य धारण कर और देखता रह बापू।
(मादक संगीत और डिस्को लाइटों से आडिटोरियम जग-मागाने लगता है)
बापू (प्रसन्नता भाव से) : ...अरे, वाह! (मुन्नालाल की ओर मुँह कर) ...देख मुन्नालाल ...देख!
मुन्नालाल (मुसकरा कर) : ...देख रहा हूँ, बापू! ...तू भी देखता जा!
बापू (पूर्व भाव से) : देख पुत्र, कितना सुंदर है, ...अति सुंदर!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : ...हाँ, बापू, सत्यं शिवं सुंदरम्! ...सत्य भी है, शुभ भी और सुंदर भी! ...(झटके के साथ) ...ले, यह भी देख ...सत्यं शिवं सुंदरम् की हकीकत देख!
(पाश्चात्य संगीत का स्वर तेज होता है और उसके साथ ही कैटवॉक करती अर्धनग्न एक मॉडल रेंप पर प्रवेश करती है। उसके अंग-प्रत्यंग खादी की कतरनों ढ़के हैं। अर्धनग्न मॉडल को देख बापू आंखें बंद कर मन ही मन हनुमान चालीसा का पाठ करने लगते हैं।
'जै-जै हनुमान गुसाई, कृपा करो गुरुदेव की नाई
जो सत बार पाठ करे कोई, छूटे ही बंध महा सुख होई'
कुछ देर बाद बापू आंखें खोलते हैं, एक और मॉडल इठलाती हुई उनकी नजरों के सामने से गुजरती है। उसके कपड़ों का साइज और भी कम है। बापू बेचैनी सी महसूस करते हैं। एक के बाद एक कई मॉडल एक साथ रेंप पर आती हैं। बापू से रहा नहीं जाता)
बापू (ग्लानि भाव से) :
...मुझे कहां ले आए, पुत्र?
मुन्नालाल : मौन!
बापू (आवेश में झिंझोड़ते हुए) : कुछ बोलते क्यों नहीं, पुत्र? ॥ क्यों मौन हो पुत्र? मेरा ब्लड प्रेसर हाई-फाई हो रहा है।
मुन्नालाल : पुन: मौन!
बापू (अधीर होते हुए) : धैर्य जवाब दे रहा है, पुत्र! ...मस्तिष्क शून्य होता जा रहा है, किंतु तू मौन?
मुन्नालाल (उपेक्षा भाव से) : ...देखता रह ना, बापू!
बापू (निरीह भाव से) : ...क्या कह रहे हो पुत्र! बस देखता रहूं। कब तक निहारता रहूं, इन अर्धनग्न बालाओं को? ...अब और नहीं देखा जाता। मुझे यहां से ले चल, पुत्र।
मुन्नालाल (तसल्ली देते हुए व्यंग्य लहजे में) : बापूऽऽ, धैर्य रख और बदलते दौर का बदलता स्वरूप देख। अपनी खादी की लोकप्रियता देख और उसका सम्मान देख!
बापू (विनीत भाव से) : ये चकाचौंध! ... नृत्य करती अर्धनग्न बालाएं! ...पहले यह तो बता पुत्र, यह सब है क्या?
मुन्नालाल (बापू की तरफ मुंह कर,आश्चर्य से) : भूल गया बापू! बताया तो था खादी प्रमोशन के लिए फैशन शो है। बालाएं तेरी खादी का प्रचार कर रहीं हैं!
बापू (क्रोध व आश्चर्य के मिश्रित भाव से) : यह कैसा प्रमोशन! ...इनके तन पर तो वस्त्र ही नहीं! यह तो पाप है।
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...तन पर कपड़े होते तो देखने कौन आता? ...कोई देखने न आता तो तेरी खादी का प्रमोशन क्या खाक होता?
बापू (मध्य ही में क्षुब्ध भाव से) : ...किंतु, अर्धनग्न! ...यह तो पाप है!
मुन्नालाल (समझाने के लहजे में) ...कैसा पाप, कैसा पुण्य! यह तो मार्केटिंग का फण्डा है। इसमें पाप क्या, बापू?
बापू (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : मार्केटिंग? यह क्या...?
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : ...यह-वह कुछ नहीं बापू, बस मार्केटिंग है, मार्केटिंग! ...नेताओं को जब-कभी भीड़ जुटानी होती है, तब तेरे नाम का जयकारा लगते हैं, ना ...बस उसी तरह!
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए क्षुब्ध भाव से) : अर्धनग्न बालाएं! खादी का यह कैसा प्रमोशन, कैसी मार्केटिंग? भ्रष्ट, सभी कुछ भ्रष्ट! ...नहीं-नहीं, मुझे यहां से ले चल। मुझसे यह सब, अब और नहीं देखा जाता, पुत्र!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : नग्न शरीर और भ्रष्ट बापू...!
बापू (मध्य ही में झुंझलाते हुए) : ...हां, हां, सभी कुछ भ्रष्ट!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : चल तू कहता है तो मान लेता हूं, बापू! ...किंतु तू ही तो कहता था, 'बुरा मत देख' और तू ही भ्रष्ट नग्न शरीर देख रहा है! ...उनका नग्न शरीर न देख, बापू। गिलास आधा खाली नहीं आधा भरा देख। उनके अंगों पर पड़ी खादी की कतरने देख।
बापू (आग्रह पूर्वक) : यहां से ले चलो, पुत्र। ये अर्धनग्न बालाएं! अब और सहन नहीं होता, मुझसे।
मुन्नालाल (समझाने के लहजे में) : अर्धनग्न अश्लील शब्द है, बापू। ...उन्हें अश्लील कह कर अपनी जुबान गंदी न कर, उन्हें घृणा का पात्र न बना। ...वे अर्धनग्न नहीं, अर्धवस्त्रा हैं, अर्धवस्त्रा।
बापू (घृणा भाव से) : यहां सभी कुछ असत्य है। ...तुम मुझे यहां से ले चलो पुत्र।
(शरीर का वजन लाठी पर टिका बापू चलने के लिए खड़े होने लगते हैं)
मुन्नालाल (हाथ पकड़ कर बिठते हुए) :
बैठ, बापू और अपने सत्य के प्रयोग देख। असत्य नहीं, ये सत्य के प्रयोग हैं, बापू। ...सत्य हमेशा पारदर्शी होता है, ना बापू, इसलिए यहां सब कुछ पारदर्शी है, बापू। (मुसकराते हुए मुन्नालाल आगे बोला) ...बालाएं सत्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत कर रहीं हैं। ...तेरा अनुसरण कर रहीं हैं, तेरे सत्य का अनुसरण कर रहीं हैं।
बापू (खीजते हुए) : सत्य का यह कैसा अनुसरण, मेरा कैसा अनुसरण, पुत्र?
मुन्नालाल (तसल्ली देते हुए) : तू ही तो कहता था बापू! मनुष्य को मन से, वचन से, कर्म से सत्यवादी होना चाहिए, पारदर्शी होना चाहिए। ...अर्धवस्त्रा ये बालाएं पारदर्शिता के मध्यम से सत्य ही का तो प्रदर्शन कर रहीं हैं।
बापू (पुन: खीजते हुए) : सत्य, पारदर्शिता, प्रमोशन, अर्धवस्त्रा॥? तेरा यह दर्शन मेरी समझ से बाहर है, पुत्र!

मुन्नालाल (बापू को दिलासा देते हुए) : ...धीरज धर बापू, और देख-थोड़ा और देख। ...मेरा दर्शन नहीं, नए जमाने का नया दर्शन! तुझे तेरा दर्शन जीवित रखना है तो नए जमाने के दर्शन को स्वीकार कर, थोड़ा अपने को परिवर्तित कर!
बापू (क्रोध व्यक्त करते हुए) : नहीं, नहीं, यहां से चल। ...मुझे स्वीकार नहीं है, तेरे जमाने का यह चिथड़ा दर्शन?
मुन्नालाल (आश्चर्य भाव के साथ व्यंग्य करते हुए) : नए जमाने के वस्त्रों को चिथड़े कहता है, बापू! ...यह भी तेरी ही संस्कृति का अनुसरण है। ...तू ढाई गज में एक तन लपेटे है और ये ढाई गज में चार तन। है, ना तेरी ही संस्कृति का अनुसरण! ...तुझ से भी चार कदम आगे!
बापू (क्रोध में पुन: खड़े होते हैं) : ...नहीं, नहीं, नहीं, अब मैं यहां एक पल भी नहीं रुकूंगा।
मुन्नालाल (शरीर झटकते हुए) : ठीक है, ठीक है, नहीं देख पा रहा तो चल बापू।
(बापू माथे पर आए पसीने पौंछते हुए मुन्नालालके संग उठकर आडिटोरियम के बाहर चले आते हैं)
(..जारी)