दृश्य-पांच
(बापू का हाथ थामे मुन्नालाल एक अन्य आडिटोरियम के बाहर खड़ा है)
बापू (हर्ष के साथ बैनर पढ़ते हुए) : ...देख पुत्र, क्या लिखा है, 'शाकाहार प्रमोशन फैशन शो, अहिंसा परमोधर्म'। ...देख, इसका प्रमोटर महंत चरणदास है। (उत्सुकता के साथ) यहां अवश्य ही सत्य का प्रदर्शन होगा। चल अंदर चल, पुत्र।
मुन्नालाल (मुसकराहट के साथ) : चल बापू महंत चरणदास का सत्य भी देख ले! ..कल तू यह तो नहीं कहेगा कि कुछ दिखलाया नहीं। ...आ चल, अंदर चलें।
(दोनों अंदर जाकर बैठ जाते हैं। हाल के अंदर की साज-सज्जा पूर्व के समान ही है। कुछ देर बाद ही डिस्को लाइटों का प्रकाश रेंप पर अठखेलियां करने लगता है। इसी के साथ भगवा वस्त्र धारण किए महंत चरणदास का रेंप पर पदार्पण होता है)
महंत चरणदास (गंभीर मगर सौम्य मुख मुद्रा में दर्शकों को प्रणाम करते हुए) : भाइयों और बहनों, आज बापू की पुण्य तिथि है। आओ हम संकल्प लें कि भारत को अहिंसा के पुजारी बापू के सपनों का देश बनाएं। ...बापू कहते थे कि अहिंसा सबसे शक्तिशाली हथियार है, मगर यह कमजोर व्यक्ति का हथियार नहीं है। अहिंसा के इसी हथियार के बल पर बापू ने भारत को आजादी दिलाई थी। ...यदि बापू के बताए मार्ग पर चलना है, उनके सपनों के भारत का निर्माण करना है तो पहले हमें मांसाहार का परित्याग कर शाकाहार अपनाना होगा। मांसाहार जीवों के प्रति हिंसा है। शाकाहार उनके प्रति दया भाव है...।
बापू (ताली बजाते हुए मध्य ही में) : ...पुत्र सुन, कैसे शुद्ध विचार हैं, महंतजी के!
मुन्नालाल : मौन!
महंत (भाषण जारी) : ...भाइयों और बहनों, ऐसा नहीं है कि बापू ने कभी मांसाहार नहीं किया। बचपन में एक दिन बापू ने भी दोस्तों के बहकावे में आकर चोरी-छिपे मांस का स्वाद चखा था...।
बापू (पुन: मध्य ही में मुँह बनाते हुए) : छी-छी-छी...!
मुन्नालाल (टोकते हुए) : मध्य में टीका-टिप्पणी नहीं, बापू! ...अभी और देख!
महंत (भाषण जारी) ...मगर उस दिन के बाद से उन्होंने आजीवन शाकाहार व्रत का पालन करने का संकल्प लिया। ..बापू ही की प्रेरणा से मैंने भी शाकाहार का प्रचार करने का बीड़ा उठाया है। शाकाहार के पक्ष में एक आंदोलन चलाया है। आज उसी आंदोलन के तहत बापू की पुण्यतिथि पर इस शाकाहार प्रमोशन का आयोजन किया है। अब मैं आपका ज्यादा वक्त नहीं लूंगा। आपकी उत्सुकता समझ रहा हूं। लीजिए फैशन शो का आनंद लीजिए, शिक्षा ग्रहण कीजिए और बापू का सपना साकार कीजिए।
बापू (हर्ष व्यक्त करते हुए) : देखा शिष्य, महंत सच्चा भक्त लगता है!
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...धीरज रख! ...देखता जा!
(अंग-प्रत्यंगों को विभिन्न प्रकार की फल-सब्जियों के पत्तों से ढके एक-एक कर मॉडल रेंप पर प्रवेश करती हैं)
बापू (ऐनक साफ करते हुए) : ये सब क्या है पुत्र?
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : ध्यान से देख बापू! ...बालाएं, शाकाहार का प्रचार कर रही हैं!
बापू (पुन: ऐनक साफ कर मुंह बनाते हुए) : हे राम, हे राम, हे राम यह क्या हो रहा है? ...ये तो अर्धवस्त्रा भी नहीं ...पूर्ण निर्वस्त्रा हैं! ...हे राम, हे राम, हे राम!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : बापू, कभी तो पॉजेटिव हो जाया कर। ये निर्वस्त्रा कहां?
बापू (क्रोध भाव से) : ...फिर, क्या पूर्णवस्त्रा हैं?
मुन्नालाल (समझाते हुए) : नहीं बापू, क्रोध नहीं! क्रोध हिंसा है, बापू! हिंसा आत्मा का हनन है, बापू...!
बापू (मध्य ही में पुन: क्रोध भाव से) : दर्शन न समझा मुझे, तुरंत यहां से ले चल मुझे!
मुन्नालाल (अनसुना करते हुए) : निर्वास्त्रा नहीं! लोगों में शाकाहार के प्रति रुचि पैदा कर रही हैं, इसलिए ही बालाएं अपने मांस को शाक से ढके हुएहैं।
बापू (कड़वा सा मुँह बना कर दीन भाव से) : ...पुत्र! मेरे प्रति तेरा यह हिंसा भाव क्यों?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...बापू तू भी हद करता है! शाकाहार के प्रचार को हिंसा कहता है। ...हिंसा नहीं, अहिंसा का प्रचार है!
बापू (घृणा भाव से) : नहीं, नहीं, नहीं! ...यह घोर हिंसा है। ...ये बालाएं नहीं, ...बलाएं हैं।
मुन्नालाल (बापू के ही लहजे में) : बापू, बलाएं नहीं ..बालाएं ही हैं। ये तेरी अहिंसा संस्कृति का परिष्कृत रूप प्रस्तुत कर रहीं हैं। ...अहिंसा संस्कृति का आधुनिक स्वरूप देख, बापू!
बापू (क्रोध भाव में) : ...मूर्ख न बनाओ पुत्र। यह संस्कृति नहीं अपसंस्कृति है।
मुन्नालाल (समझाने के लहजे में, बापू के कान के पास अपना मुंह ला कर) : ...बापू! यह अपसंस्कृति नहीं परिष्कृत संस्कृति है...!
बापू (क्रोध व आश्चर्य व्यक्त करते हुए, मध्य ही में) : ...कहा ना मूर्ख न बना। ...अरे, यह कैसी परिष्कृत संस्कृति... ऐसी भ्रष्ट संस्कृति तो अंग्रेजों के जमाने मे भी नहीं देखी!
मुन्नालाल ( व्यंग्य भाव से) : अंग्रेज! ...अरे, तू भी कमाल करता है, बापू! ...आजादी के इस माहौल में अंग्रेजो को याद करता है! ...अरे बापू, संस्कृति और सभ्यता का पाठ तो यहीं से सीखा है, अंग्रेजो ने। अभी भी सीख रहे हैं।
बापू (क्रोध व्यक्त करते हुए) : ...नहीं, नहीं, चल- यहाँ से भी चल। मुझे नहीं दर्शन करने परिष्कृत तेरी इस संस्कृति के, चल-यहां से चल।
मुन्नालाल (दिलासा देते हुए) : बापू, दुराग्रह छोड़! ...आधुनिक संस्कृति यही है। ॥सत्य, अहिंसा और पारदर्शिता के तेरे सिद्धांतों को नए रूप में परिभाषित करती, संस्कृति! ...आधुनिक भी यही है और उत्तम भी यही है!
बापू (मध्य ही में क्रोध भाव के साथ ) : ...मुझ से तर्क-वितर्क न कर पुत्र। ...भ्रष्ट संस्कृति को उत्तमं सिद्ध न कर पुत्र। ...मुझे यहाँ से ले चल पुत्र।
मुन्नालाल (सहज भाव से) : यह कैसे हो सकता है कि तेरे जमाने की संस्कृति ही उत्तमं कह लाई जाए और बदलते जमाने के साथ संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तन न आए!
(बापू चलने के लिए खड़े हो जाते हैं, किंतु मुन्नालाल हाथ पकड़ कर उन्हें बैठाता है) ...धैर्य रख बापू! ...कान, आँख और मुँह से हाथ हटा बापू।
(मौन बापू क्रोध के साथ मुन्नालाल की ओर देखते हैं। मुन्नालाल बोलना जारी रखता है)
...वक्त के साथ करवट बदलती 'करवट बदल' संस्कृति को स्वीकार कर बापू। ...व्यवहारिक बन, वक्त के साथ चलना सीख, बोलना सीख, वक्त के साथ देखना सीख। ...वक्त को पहचान और करवट बदल संस्कृति का अवलोकन कर, बापू।
बापू (विनीत भाव से) : ...मुझ पर दया कर पुत्र, मुझे यहाँ से ले चल पुत्र!
(हॉल से बाहर जाने के लिए बापू पुन: खड़े हो जाते हैं। बापू को लेकर मुन्नालाल हॉल से बाहर आ जता है)
मुन्नालाल (व्यंग्य से) : ...और बता बापू, अब कहाँ चलें? ॥बता, अब किस किस्म के तेरे शिष्यों के पुण्य कार्य के दर्शन कराऊं तुझे।
बापू (घृणा व क्रोध भाव से) : बस-बस बहुत हो गया, पुत्र! ...अब और सहन नहीं होगा। मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है। मुझे वापस राजघाट ले चल, शीघ्र चल, मुझे प्रायश्चित करना है ...उपवास करना है।
मुन्नालाल (दया भाव से) : ...चल बापू, जैसी तेरी इच्छा।
(कल- चुनाव के दौर में बापू ...जारी)
(बापू का हाथ थामे मुन्नालाल एक अन्य आडिटोरियम के बाहर खड़ा है)
बापू (हर्ष के साथ बैनर पढ़ते हुए) : ...देख पुत्र, क्या लिखा है, 'शाकाहार प्रमोशन फैशन शो, अहिंसा परमोधर्म'। ...देख, इसका प्रमोटर महंत चरणदास है। (उत्सुकता के साथ) यहां अवश्य ही सत्य का प्रदर्शन होगा। चल अंदर चल, पुत्र।
मुन्नालाल (मुसकराहट के साथ) : चल बापू महंत चरणदास का सत्य भी देख ले! ..कल तू यह तो नहीं कहेगा कि कुछ दिखलाया नहीं। ...आ चल, अंदर चलें।
(दोनों अंदर जाकर बैठ जाते हैं। हाल के अंदर की साज-सज्जा पूर्व के समान ही है। कुछ देर बाद ही डिस्को लाइटों का प्रकाश रेंप पर अठखेलियां करने लगता है। इसी के साथ भगवा वस्त्र धारण किए महंत चरणदास का रेंप पर पदार्पण होता है)
महंत चरणदास (गंभीर मगर सौम्य मुख मुद्रा में दर्शकों को प्रणाम करते हुए) : भाइयों और बहनों, आज बापू की पुण्य तिथि है। आओ हम संकल्प लें कि भारत को अहिंसा के पुजारी बापू के सपनों का देश बनाएं। ...बापू कहते थे कि अहिंसा सबसे शक्तिशाली हथियार है, मगर यह कमजोर व्यक्ति का हथियार नहीं है। अहिंसा के इसी हथियार के बल पर बापू ने भारत को आजादी दिलाई थी। ...यदि बापू के बताए मार्ग पर चलना है, उनके सपनों के भारत का निर्माण करना है तो पहले हमें मांसाहार का परित्याग कर शाकाहार अपनाना होगा। मांसाहार जीवों के प्रति हिंसा है। शाकाहार उनके प्रति दया भाव है...।
बापू (ताली बजाते हुए मध्य ही में) : ...पुत्र सुन, कैसे शुद्ध विचार हैं, महंतजी के!
मुन्नालाल : मौन!
महंत (भाषण जारी) : ...भाइयों और बहनों, ऐसा नहीं है कि बापू ने कभी मांसाहार नहीं किया। बचपन में एक दिन बापू ने भी दोस्तों के बहकावे में आकर चोरी-छिपे मांस का स्वाद चखा था...।
बापू (पुन: मध्य ही में मुँह बनाते हुए) : छी-छी-छी...!
मुन्नालाल (टोकते हुए) : मध्य में टीका-टिप्पणी नहीं, बापू! ...अभी और देख!
महंत (भाषण जारी) ...मगर उस दिन के बाद से उन्होंने आजीवन शाकाहार व्रत का पालन करने का संकल्प लिया। ..बापू ही की प्रेरणा से मैंने भी शाकाहार का प्रचार करने का बीड़ा उठाया है। शाकाहार के पक्ष में एक आंदोलन चलाया है। आज उसी आंदोलन के तहत बापू की पुण्यतिथि पर इस शाकाहार प्रमोशन का आयोजन किया है। अब मैं आपका ज्यादा वक्त नहीं लूंगा। आपकी उत्सुकता समझ रहा हूं। लीजिए फैशन शो का आनंद लीजिए, शिक्षा ग्रहण कीजिए और बापू का सपना साकार कीजिए।
बापू (हर्ष व्यक्त करते हुए) : देखा शिष्य, महंत सच्चा भक्त लगता है!
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : ...धीरज रख! ...देखता जा!
(अंग-प्रत्यंगों को विभिन्न प्रकार की फल-सब्जियों के पत्तों से ढके एक-एक कर मॉडल रेंप पर प्रवेश करती हैं)
बापू (ऐनक साफ करते हुए) : ये सब क्या है पुत्र?
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : ध्यान से देख बापू! ...बालाएं, शाकाहार का प्रचार कर रही हैं!
बापू (पुन: ऐनक साफ कर मुंह बनाते हुए) : हे राम, हे राम, हे राम यह क्या हो रहा है? ...ये तो अर्धवस्त्रा भी नहीं ...पूर्ण निर्वस्त्रा हैं! ...हे राम, हे राम, हे राम!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : बापू, कभी तो पॉजेटिव हो जाया कर। ये निर्वस्त्रा कहां?
बापू (क्रोध भाव से) : ...फिर, क्या पूर्णवस्त्रा हैं?
मुन्नालाल (समझाते हुए) : नहीं बापू, क्रोध नहीं! क्रोध हिंसा है, बापू! हिंसा आत्मा का हनन है, बापू...!
बापू (मध्य ही में पुन: क्रोध भाव से) : दर्शन न समझा मुझे, तुरंत यहां से ले चल मुझे!
मुन्नालाल (अनसुना करते हुए) : निर्वास्त्रा नहीं! लोगों में शाकाहार के प्रति रुचि पैदा कर रही हैं, इसलिए ही बालाएं अपने मांस को शाक से ढके हुएहैं।
बापू (कड़वा सा मुँह बना कर दीन भाव से) : ...पुत्र! मेरे प्रति तेरा यह हिंसा भाव क्यों?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...बापू तू भी हद करता है! शाकाहार के प्रचार को हिंसा कहता है। ...हिंसा नहीं, अहिंसा का प्रचार है!
बापू (घृणा भाव से) : नहीं, नहीं, नहीं! ...यह घोर हिंसा है। ...ये बालाएं नहीं, ...बलाएं हैं।
मुन्नालाल (बापू के ही लहजे में) : बापू, बलाएं नहीं ..बालाएं ही हैं। ये तेरी अहिंसा संस्कृति का परिष्कृत रूप प्रस्तुत कर रहीं हैं। ...अहिंसा संस्कृति का आधुनिक स्वरूप देख, बापू!
बापू (क्रोध भाव में) : ...मूर्ख न बनाओ पुत्र। यह संस्कृति नहीं अपसंस्कृति है।
मुन्नालाल (समझाने के लहजे में, बापू के कान के पास अपना मुंह ला कर) : ...बापू! यह अपसंस्कृति नहीं परिष्कृत संस्कृति है...!
बापू (क्रोध व आश्चर्य व्यक्त करते हुए, मध्य ही में) : ...कहा ना मूर्ख न बना। ...अरे, यह कैसी परिष्कृत संस्कृति... ऐसी भ्रष्ट संस्कृति तो अंग्रेजों के जमाने मे भी नहीं देखी!
मुन्नालाल ( व्यंग्य भाव से) : अंग्रेज! ...अरे, तू भी कमाल करता है, बापू! ...आजादी के इस माहौल में अंग्रेजो को याद करता है! ...अरे बापू, संस्कृति और सभ्यता का पाठ तो यहीं से सीखा है, अंग्रेजो ने। अभी भी सीख रहे हैं।
बापू (क्रोध व्यक्त करते हुए) : ...नहीं, नहीं, चल- यहाँ से भी चल। मुझे नहीं दर्शन करने परिष्कृत तेरी इस संस्कृति के, चल-यहां से चल।
मुन्नालाल (दिलासा देते हुए) : बापू, दुराग्रह छोड़! ...आधुनिक संस्कृति यही है। ॥सत्य, अहिंसा और पारदर्शिता के तेरे सिद्धांतों को नए रूप में परिभाषित करती, संस्कृति! ...आधुनिक भी यही है और उत्तम भी यही है!
बापू (मध्य ही में क्रोध भाव के साथ ) : ...मुझ से तर्क-वितर्क न कर पुत्र। ...भ्रष्ट संस्कृति को उत्तमं सिद्ध न कर पुत्र। ...मुझे यहाँ से ले चल पुत्र।
मुन्नालाल (सहज भाव से) : यह कैसे हो सकता है कि तेरे जमाने की संस्कृति ही उत्तमं कह लाई जाए और बदलते जमाने के साथ संस्कृति के क्षेत्र में परिवर्तन न आए!
(बापू चलने के लिए खड़े हो जाते हैं, किंतु मुन्नालाल हाथ पकड़ कर उन्हें बैठाता है) ...धैर्य रख बापू! ...कान, आँख और मुँह से हाथ हटा बापू।
(मौन बापू क्रोध के साथ मुन्नालाल की ओर देखते हैं। मुन्नालाल बोलना जारी रखता है)
...वक्त के साथ करवट बदलती 'करवट बदल' संस्कृति को स्वीकार कर बापू। ...व्यवहारिक बन, वक्त के साथ चलना सीख, बोलना सीख, वक्त के साथ देखना सीख। ...वक्त को पहचान और करवट बदल संस्कृति का अवलोकन कर, बापू।
बापू (विनीत भाव से) : ...मुझ पर दया कर पुत्र, मुझे यहाँ से ले चल पुत्र!
(हॉल से बाहर जाने के लिए बापू पुन: खड़े हो जाते हैं। बापू को लेकर मुन्नालाल हॉल से बाहर आ जता है)
मुन्नालाल (व्यंग्य से) : ...और बता बापू, अब कहाँ चलें? ॥बता, अब किस किस्म के तेरे शिष्यों के पुण्य कार्य के दर्शन कराऊं तुझे।
बापू (घृणा व क्रोध भाव से) : बस-बस बहुत हो गया, पुत्र! ...अब और सहन नहीं होगा। मेरा सिर दर्द से फटा जा रहा है। मुझे वापस राजघाट ले चल, शीघ्र चल, मुझे प्रायश्चित करना है ...उपवास करना है।
मुन्नालाल (दया भाव से) : ...चल बापू, जैसी तेरी इच्छा।
(कल- चुनाव के दौर में बापू ...जारी)
ये बापू मरणोपरान्त भी बापू ही रहे। मेनका-रम्भा-ऊर्वशी की तरफ ताका भी न होगा। स्वर्ग को भी नर्क बना कर रख दिया होगा! :)
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