Saturday, November 3, 2007

काश! उल्लू प्रोफेशनल होता





उल्लू से हमने पूछा, भाई! तुम उल्लू क्यों, मूर्खता का पर्याय क्यों?
सहज भाव से वह बोला, बड़े भाई! लक्ष्मी को ढोते फिरते हैं। उसका उपभोग नहीं करते, इसीलिए हम उल्लू हैं, उल्लू कहलाते हैं।
लक्ष्मी! और उसका उपभोग नहीं! ऐसा क्यों?
वह बोला, लंबी कहानी है, तुम्हारे ऋषि-मुनियों की कारस्तानी है, भाई।
ऋषि-मुनियो का नाम सुन हम थोड़ा झिझके। फिर भी साहस किया और बोले, भइया संक्षेप में वर्णन करो।
सुनो, 'देवऋषी बहुत सुंदर प्रवचन दिया करते थे। हमारे पूर्वज उनके प्रवचनों के दीवाने थे। अत: जिस वृक्ष के तले बैठ कर वे प्रवचन देते, हमारे पूर्वज उसकी शाख पर बैठ कर नित्य-प्रति उनके प्रवचन सुनते। उनके प्रवचनों का सार था, जीव को काम, क्रोध, लोभ, मोह इन सभी पांच विकारों से दूर रहना चाहिए, अर्थात निर्विकारी होना चाहिए। तभी से हमारे पूर्वजों ने निर्विकारी होने का व्रत धारण कर लिया।'
'मगर देवऋषि जिन मनुष्य को प्रवचन देते थे, वे तो निर्विकारी नहीं?' हमने अपनी शंका मित्र उल्लू के समक्ष प्रस्तुत की।
हां! ठीक कहते हो मनुष्य निर्विकारी नहीं। दरअसल जैसे-जैसे सूर्य भगवान का रथ मंजिल की तरफ बढ़ा हमारे पूर्वज ऊंघने लगे, इसलिए वे प्रवचन का मर्म सुनने से अनभिज्ञ रह गए। मनुष्य संपूर्ण प्रवचन सुन कर ही अपने-अपने घर लौटे। सुना है, भइया! देवऋषि ने प्रवचन के अंत में मर्म बताया था, 'नैतिकता जीवन में उतारने के लिए नहीं केवल बखान करने के लिए है, उल्लू सीधा करने के लिए है। तभी से मनुष्य उल्लू सीधा करता आ रहा है और हम उल्लू बनते आ रहे हैं।'
महाशय, प्रवचन की मुद्रा में आ गए और अपनी बात को विस्तार देते हुए बोले, 'तुम्हारा कोई देवता या ऋषि-मुनि ऐसा है, जो किसी विकार से प्रभावित न रहा हो। कोई प्रेम प्रसंग में लिप्त रहा तो कोई क्रोध की ज्वाला में दहकता रहा। लोभ व मोह तो लगभग सभी पर हावी रहे। देवासुर संग्राम जब-जब भी हुआ कोई न कोई विकार ही आधार बना। फिर मनुष्य की क्या बिसात।'
'मगर लक्ष्मी की सवारी बनने का सौभाग्य कैसे प्राप्त हुआ?' हमने शंका-युक्त प्रश्न किया।
बड़े भाई बोले, 'यह भी उन्हीं देवऋषि का कमाल था, भइया। समुद्र मंथन के दौरान लक्ष्मीजी का उदय रात्रि प्रहर में हुआ। उन्हें एक सवारी की आवश्यकता हुई। महिला थी, रात्रि का समय था अत: सभी विकारों से मुक्त ऐसी सवारी की खोज हुई जिसे रात्रि में भी स्पष्ट दिखाई देता हो, अर्थात जिसकी 'हैड लाइट' ज्यादा तेज हों। देवऋषि ने हमारा नाम का प्रस्ताव रखा और विष्णु सहित लक्ष्मी ने उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया।'
हम बोले, 'यह तो ठीक है कि विकारी नहीं हो, मगर तामसी प्रवृति के तो हो, निशाचर हो, दिन में सोते हो रात में जागते हो, दिन में दिखलाई भी नहीं पड़ते?'
वे मुस्कुराए और बोले, 'गीता पढ़ी है? पढ़ी होती तो पता होता रात्रि में जागना संत प्रवृति है। गीता में लिखा है, 'या निशा सर्व भूतानाम तस्यां जागृति संयमी। - रात्रि में जब सभी चर-अचर निद्रालीन हो जाते हैं, उस समय संयमी जागृत अवस्था में होते हैं।' तामसी प्रवृति के होते तो विकारी भी होते और विकार में अंधे जीव के लिए रात्रि के अंधकार की तरह दिन के उजाले का भी कोई अर्थ नहीं।
तुम्ही बताओ, अपने प्रेमियों के घर लक्ष्मी जब जाती ही रात्रि में हैं, तो इसमें हमारा क्या दोष? रात-रात भर लक्ष्मी को ढोएं और दिन में सोए भी नहीं, यह कैसे संभव है? दिन में दिखलाई तो देता है, मगर हम दिखलाई नहीं पड़ते, क्योंकि रात्रि की थकान उतारने के लिए एकांत किसी स्थान में विश्राम-अवस्था में होते हैं।'
हमारा अगला सवाल था, 'लक्ष्मी उल्लू पर सवार हो कर जिसके घर जाती है, वह विकारी हो जाता है। यह आरोप भी क्या मिथ्या है?'
'स्वार्थी मनुष्य ने बेचारी लक्ष्मी को भी नहीं बख्शा। यह आरोप भी यदि सत्य होता तो सर्वप्रथम विकारी हम होते। विकारी होते तो हम भी उल्लू नहीं लक्ष्मीपति होते।' महाशय फिर मुस्कुराए और बोले, 'फिर लक्ष्मी और उल्लू से जुड़े किस्सों के साथ बरखुरदार लक्ष्मी और विष्णु भगवान के तलाक के किस्से भी आम होते।'
'दरअसल मनुष्य बहुत स्वार्थी है, कोई भी लक्ष्मीपति नहीं चाहता कि लक्ष्मी उसके अलावा किसी और के घर जाए, इसलिए ही ऐसी अफवाहें उड़ा दी हैं। उल्लू पर बैठ कर लक्ष्मी का आना यदि अशुभ होता, तो बड़े भाई लक्ष्मीपति उल्लू न पालते। लक्ष्मीपति जब चैन की नींद सोता है, तब रात-रात भर जाग कर उल्लू उसके लिए लक्ष्मी ढोता है।'
महोदय ने आंखें मटकाई और बोले, 'सुनो! लक्ष्मी वाहक के इस रहस्य को अब तो सरस्वती पुत्र भी भांप गए हैं। उन्होंने अब हंस के साथ-साथ उल्लू सीधा करना भी सीख लिया है। हंस दिखाकर उल्लुओं को आकर्षित करते हैं, दोनों को एक ही पिंजरे में रखते हैं। लगता है, सरस्वती और लक्ष्मी के बीच अब वैर-भाव समाप्त हो गया है, अब तो सहोदर बहनों की तरह दोनों संग-संग रहने लगी हैं।'
उल्लू-चालीसा सुन हम सोचने लगे, 'काश! उल्लू भी प्रोफेशनल होता स्थान, काल और पात्रानुसार सद्ंगुण परिभाषित करता, तो उल्लू होते हुए भी उल्लू न कहलाता। वह भी लक्ष्मीपति होता।'
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