Friday, October 19, 2007

नेता का जमीन से जुड़ना


वर्षो बीत गए बुधवा को दरी बिछाते-बिछाते। कई नेताओं की दरी उसने सफलता पूर्वक बिछाई, मगर खुद की दरी बण्डल ही बनी रखी रही। जब कभी उसे अपनी बंडल-किस्मत का खयाल आता, चेहरा सड़ी तोरई की तरह लटका जाता। किसी के हाथ में चुनावी टिकट देखता तो स्वयं को बैरंग-लिफाफे की तरह महसूस करने लगता। बावजूद इसके फटे पोस्टर की तरह वह पार्टी कार्यालय की दीवार पर चिपका रहा। शायद इसी उम्मीद के साथ कि देर-सबेर किसी भले नेता की निगाह पोस्टर पर भी पड़ेगी और उस पर लिखी इबारत पढ़ी जाएगी। कभी-कभी वह सोचता, यदाकदा ही सही, जब अंधों के हाथ भी बटेर लग ही जाती है, अपन तो नैनसुख हैं। आज नहीं तो कल, कोई बटेर अवश्य ही मेरी हथेली पर मजमा लगाएगी।
जहन में नेताई कीड़ा कुलबुलाने का वाकया भी कम दिलचस्प नहीं है। पार्टी-कार्यकत्र्ताओं की बैठक में उसने एक बार सुन लिया था कि जमीन से जुड़ा व्यक्ति ही नेता बन पाता है और सफल भी वही होता है। नेताई इस फार्मूले ने एक दिन बुधवा की अक्ल की खिड़की पर दस्तक दी और दरी बिछाते-बिछाते बुधवा के ऊपर बुद्धिजीवी भूत हावी हो गया। उसने ठोढ़ी दाई हथेली पर टिकाई, मैल-संपन्न आंखें बंद की और अतीत खंगालने में मशगूल हो गया, ''मां कहती थी की तेरे होने के समय प्रसव-कर्म खेत के किनारे जमीन पर ही संपन्न हुआ था। पालना और पोटी-पॉट के लिए भी जमीन का ही सदुपयोग किया गया। कुछ बड़ा हुआ तो बिछावन भी जमीन पर ही बिछा। राजनीतिक की शुरुआत मैंने दरी बिछाने से की! अरे, वाह! मेरा तो अतीत, वर्तमान सभी जमीन से जुड़ा है। मैं तो पैदाइशी जमीन से चिपका हूं।'' इस प्रकार वह बुधवा से नेता बुद्धप्रकाश सिंह बनने के ख्वाब देखने लगा।
वह दरी बिछाता रहा, ख्वाब देखता रहा। बिहारी की विरहिणी नायिका के बसंत की तरह कई चुनाव आए और चले गए, मगर गले में पुष्प-हार पड़ने के आसार नहीं पैदा हुए। अलबत्ता एक दिन दरी झाड़ते-झाड़ते उसके हाथ कार्यकत्र्ता का बिल्ला अवश्य लग गया। बिल्ला पाकर वह कुछ इस अंदाज में प्रसन्न हुआ, जैसे साठ वर्षीय किसी जवान को चने के खेत में प्रेमवती प्राप्त गई हो। बुधवा ने बिल्ला अपने सीने पर जड़ लिया और वह स्वयं को पार्टी कार्यकर्ता मानने लगा। पर नेता न बन पाया। शहर में एक दिन स्वामी अवधूतानन्द का आगमन हुआ। उसके एक शुभचिंतक ने उसे स्वामीजी की शरण में जाने की सलाह दी। स्वामीजी और राजनीति के मध्य गोबर में गुबरीले वाले घनिष्ठ संबंध थे। बुधवा ने सलाह का अनुसरण किया और वह स्वामी शरणम् गच्छामि हो गया।

बुधवा स्वामीजी के समक्ष चारों-खाने ऐसे चित हुआ, मानों वह जमीन से चिपक कर जमीन से जुड़े होने का सबूत पेश करा रहा हो। दण्डवत् भक्ति से द्रवित स्वामीजी बोले - कहो भक्त क्या कष्ट है? बुधवा ने अपना कष्ट उनके सामने उड़ेल दिया। कष्ट सुनकर स्वामीजी बोले- पुत्र नेता बनना है, तो जमीन से जुड़ जाओ। बुधवा ने जन्मजात जुडे़ होने के सारे सबूत स्वामीजी के समक्ष प्रकट कर दिए। सबूत सुनकर स्वामीजी मुस्कराते हुए बोले- पुत्र! जमीन तुम्हारी हकीकत बन गई है, परंतु तुम जमीनी हकीकत के ज्ञान से वंचित हो। जमीन के साथ तुम्हारे वैसे ही संबंध है, जैसे लक्ष्मी के साथ उल्लू के। उल्लू दिन-रात लक्ष्मी ढोता है, पर उसका उपभोग नहीं करता। यही कारण है कि उल्लू आजतक उल्लू है, लक्ष्मीपति नहीं बन पाया। जमीनी हकीकत का भान करो, एक दिन अवश्य नेता बन जाओगे।
स्वामीजी से मंत्र प्राप्त कर बुधवा ने जमीन पर पकड़ और मजबूत कर ली, फिर भी बुधवा के सामने किसी ने घास नहीं डाली। गधों के आगे घास डालने के उदाहरण कम ही मिलते हैं। मिलते भी हैं तो सूखी घास डालने। निराश बुधवा पुन: स्वामीजी की शरण में गया, व्यथा सुनाई। व्यथा सुन स्वामीजी को उसकी बुद्धि पर तरस आया और गंभीर भाव से बोले- पुत्र! जमीनी हकीकत से तुम अभी भी अनभिज्ञ हो। ध्यान से सुनों- पुत्र! भगवान वामन अवतार ने ढाई पग में संपूर्ण पृथ्वी नाप ली थी। तुम एक इंच जमीन भी नहीं नाप पाए। अपने पग का विस्तार करो, पुत्र।
जमीनी हकीकत का रहस्य अब बुधवा के जहन में गीली मिट्टी में खूंटे की तरह धंस गया था। उसने ढाई पग से पहले ग्रामसभा की जमीन नापी। उसके बाद ढाई पग का विस्तार होता चला गया। वह सरकारी-गैरसरकारी जमीन नापता रहा। आज वह नेता बुधप्रकाश सिंह के नाम से प्रसिद्ध है। प्रदेश का शहरी विकास मंत्री है। अब वह नेता भी है, भूपति भी है और लक्ष्मी-पति भी।

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