Monday, February 16, 2009

ग़ज़ल



सुहाने चाँद-से मुख पर तुम्हारे क्यों उदासी है?
तुम्हारी हर अदा पर तो फ़जा करवट बदलती है।।

पुरानी इन किताबों में, किसी के प्यार की गाथा।
ज़रा पढ़कर इसे देखो, कुँआरी ये कहानी है।।

न रोको आँसुओं को तुम, इन्हें बहने ही दो थोड़ा।
तुम्हारे ज़हन पर काली घटा सदमों की छाई है।।

हवाओं से कहा जाए, न छेड़े सुर यहाँ अपना।
व़फा की मौत से पैदा, यहाँ गहरी उदासी है।।

ज़रा देखो सितारों को, ये' कहना तुमसे कुछ चाहें।
मगर कहने से डरते हैं, तुम्हारी माँग सूनी है।।

व़फा के नाम पर क़समें, न खाओ बेव़फा तुम हो।
फरेबों-मक्र की चादर, तुम्हारे दिल ने ओढ़ी है।।

घटा 'अंबर' पे घिर आई, बुझाए प्यास वो किसकी।
किसी का जिस्म प्यासा है, किसी की रूह प्यासी है।।
संपर्क : 9717095225

Thursday, January 29, 2009

पालतू राजनीति में!!!


शहर भर के पालतू सारी रात वार्तालाप में व्यस्त रहे। गली-मुहल्ले में जा-जाकर, घर-घर जा-जाकर। कई जगह तो नुक्कड़ सभाओं जैसा आलम था। शहर स्तब्ध था। एक-दूसरे को फूटी आँख भी न सुहाने वालों के बीच अचानक प्रेम संबंध! स्तब्ध होने के साथ-साथ शहर भयभीत भी था। शहर सोच रहा था कि पालतुओं के मध्य ऐसा प्रेम व्यवहार, ऐसा सौहार्द पूर्ण वार्तालाप पहले, न तो कभी देखा और न सुना! कहीं कोई मुसीबत न खड़ी कर दें। पालतू आने वाले खतरे को भी दूर से भाँप लेते हैं, पालतुओं के मध्य इतनी सक्रियता, कहीं संभावित खतरे के कारण ही तो नहीं! कारण कुछ भी हो, कोई न कोई खतरा तो अवश्य है। यही सोच-सोचकर शहर भयभीत भी था। बावजूद इसके शहर सोया, मगर श्वान निद्रा में!
दरअसल शहर पालतू-प्रेमी था। किसी कमबख्त का कोई वीरान घर ऐसा होगा, जो पालतुओं से शोभायमान न हो, उनकी मधुर आवाज से गुंजायमान न हो। कमजोर वर्ग कमजोरों पर स्नेहिल हाथ फिराकर पालतू-प्रेमी होने का अहसास कर लेते थे। मध्यवर्गीय अपनी-अपनी हैसियत के हिसाब से बाकायदा एक-दो पाले रखते थे। उच्चवर्ग की तो बात ही अलग थी, जब तक दो-तीन पालतू और दो-तीन बे-पालतू फालतू में दरवाजे पर न हों तो कैसी रईसी! शहर में नेताओं की भी कमी न थी। छुट भइया से लेकर बड़-भइया तक हर किस्म के और हर स्तर के नेता शहर के बाशिंदे थे। और यह भी जग जाहिर है कि नेता के दरवाजे पर एक-दो पालतू न हो, तो काहे की नेतागीरी।
मंत्रीजी और विधायक जी का आवास भी इसी शहर की शोभा बढ़ा रहा था। उनके दरवाजे पर पालतुओं की संख्या! नहीं-नहीं, हमने गिनने की जहमत क्या, कभी हिम्मत भी नहीं की और करते भी, तो क्या गिन पाते। कुछ स्थायी पालतू थे, तो कुछ बे-पालतू किस्म के पालतू अर्थात फालतू! कुछ दरवाजे पर ही जमे रहते तो अधिकांश आवागमनित रहते थे। कुछ जड़-खरीद थे, तो कुछ टुकड़ा देखकर पूंछ हिलाने की परिवर्तित प्रवृति के धनी! शहर में ऐसे पालतुओं की संख्या भी कम न थी, जिन्हें नेता किस्म के जीव म्यूनिसपैलीटी के लॉकअप से समय-समय पर मुक्त कराते रहते हैं। दरअसल नेतागीरी में म्यूनिसपैलीटी के लॉकअप से रिहा पालतू कुछ ज्यादा ही कारगर साबित होते हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मथुरा-वृंदावन में गाय का जैसा महत्व प्राप्त है, वैसा ही महत्व इस शहर में पालतुओं को प्राप्त है।
पालतुओं की सक्रियता के कारण जब समूचा शहर स्तब्ध था, भयभीत था। तब मंत्रीजी का घर चैन की नींद में सो रहा था। दरअसल मंत्रीजी पूरे घटनाक्रम से वाकिफ थे। हुआ यों कि एक दिन मंत्रीजी के पालतू पिल्लू सिंह के मन में ख्याल आया कि जब ऐरे-गैरे भी हमारे बल पर सत्ता के गलियारों में आराम फरमा रहे हैं, तो क्यों न हम भी उन गलियारों का मजा लें। वैसे भी हमारे बल पर सत्ता तक पहुंचने वाले, वहां जाकर हमारा ख्याल कहां रखते हैं! फिर, क्यों न हम वहां जाकर अपने अधिकारों की रक्षा करें। और, एक दिन मंत्रीजी के प्रिय पालतू पिल्लू सिंह ने सक्रिय राजनीति में प्रवेश करने की इच्छा उनके सामने जाहिर की।
प्रिय पिल्लू की इच्छा सुन मंत्रजी स्तब्ध रह गए। आश्चर्यचकित मंत्रीजी बोले, ''तू और राजनीति में! ..तुझे इस पचड़े में पड़ने की क्या आवश्यकता! मैं हूं न!''
मंत्रीजी के वचन सुन पालतू मन ही मन बोला- बात ठीक है, मुझमें और तुम में शक्ल के अलावा अंतर भी क्या है! फिर वह बोला, ''मालिक इसमें हर्ज भी क्या है? एक की जगह दो हो जाएंगे। पालतू ने राजनैतिक पैंतरा चलते हुए कहा, यहाँ भी पालतू हूं, वहां भी पालतू रहूंगा।''
मंत्रीजी ने दूसरा सवालिया निशान लगाया, ''मगर राजनीति के काबिल तेरी हैसियत कहां और न ही चरित्र!''
पूंछ हिलाते हुए पिल्लू बोल, ''मालिक! तुम्हारे विरोधी उस नेता की हैसियत क्या मुझ से बेहतर है? वह भी तो आज सत्ता-सुख भोग रहा है! रही चरित्र की बात, तो आप ही बताओ मालिक राजनीति और चरित्र का परस्पर मेल कैसा? ये तो दोनों ही दो अलग-अलग धु्रवों की अलग विचारधारा हैं! फिर भी एक बात बताओ तुम्हारे विरोधी दल के नेता के मुकाबले मेरा चरित्र कहां कमजोर है? वह तो जिस थाली में खाता है, उसी में छेद करता है।''
पिल्लू दौड़ा-दौड़ा बाहर की ओर गया और वहां से खाने की थाली उठाकर लाया और मंत्रीजी को थाली दिखाकर बोला, ''बरसों से इसी थाली में खाना खा रहा हूं, कहीं एक भी छेद है, इस थाली में!''
पिल्लू ने जीभ से राल टपकाई और बोला, ''मालिक! मैं तुम्हारे टुकड़े खाता हूं और केवल तुम्हारे हर तलवे चाटता हूं और वह! उसने तो तुम्हारे भी तलवे चाटे, और उसके भी और न जाने किस-किस के तलवे चाटकर टिकट ले गया! फिर भी आप मेरे चरित्र को राजनीति के काबिल नहीं मानते।''
पिल्लू भावुक हो गया और आंसू टपकाता हुआ बोला, ''मालिक! उसने तलवे चाटना हमसे सीखा, पूंछ हिलाना हमसे सीखा, काटना हमसे सीखा, भौंकना हमसे सीखा और सभी कुछ हमसे सीखकर फिर उनका दुरुपयोग किया! मैंने अपने चारित्रिक गुणों का कम से कम कभी दुरुपयोग तो नहीं किया! आपने जिस पर गुर्राने के लिए कहा, में उस पर गुर्राया, जिसे काटने के लिए कहा, उसे काटा और वह..!''
मंत्रीजी के दिमाग में बात कुछ-कुछ धंसी। बात तो ठीक कह रहा है। मेरे विरोधी से तो कहीं ज्यादा ही बेहतर है और फिर राजधानी जाकर भी तो पालतू ही रहेगा। वहां भी तो एक अदद भौंकने वाला, गुर्राने वाला, काटने वाला चाहिए ही! वैसे भी राजनीति तो ऐसे गंगा है, जिसमें उतरकर सभी दूध के धुले हो जाते हैं! वहां कोई भेद-भाव तो है नहीं -सब धान सत्ताईस सेर!
सोच-विचार करने के बाद मंत्रीजी बोले, ''ठीक है! तू कहता है, तो राजनीति की पवित्र धारा में तेरा प्रवेश करा देता हूं। मगर कुछ व्यवहारिक अड़चनें आएंगी, उनसे कैसे निपटेगा?''
एकलव्य बन पिल्लू ने मंत्रीजी के चरणों मे ही बैठे-बैठे राजनीति के गुर सीख लिए थे। वह तलवे चाटता-चाटता राजनीति के सभी दाँव पेच और रहस्यों से परिचित हो गया था, अत: उसने आत्मविश्वास के साथ कहा, ''कैसी व्यवहारिक अड़चनें, मालिक! बताएं, आपकी शरण में रहकर राजनीति की पैंतरेबाजी सीखी है, सभी अड़चनें सहज ही हल कर लूंगा।''
मंत्रीजी बोले, ''तुम भाषण देना तो जानते ही नहीं? बिना भाषण के नेतागीरी कैसे संभव, बरखुरदार!''
मंत्रीजी की आशंका सुन पिल्लू ने ठहाका लगाया और मन ही मन बोला-मालिक तुम भी तो मेरी ही तरह भाषण देते हो। तुरंत ही पिल्लू ने अपने आपको सहज किया और बोला, ''माननीय! अधिकांश नेता मेरे ही सुर में भाषण देते हैं। उन्होंने यह कला हम ही से तो सीखी है और आप जानते ही हैं, मैं तो इस कला में निपुण हूं। इस कला के आधार पर ही तो मुझे आपका पालतू होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। ..नहीं, नहीं भाषण देना कोई समस्या नहीं है!'' शंका निवारण कर पिल्लू ने वाणी को विराम दिया और मंत्रीजी के मुख से नई व्यवहारिक दिक्कत सुनने की प्रतीक्षा करने लगा।
''भाषण तो ठीक है, मगर इस देश में तो गरीब, अमीर मध्यवर्गीय सभी तबके के जीव हैं। सभी का समर्थन कैसे प्राप्त करोगे?'' मंत्रीजी ने अगला सवाल किया।
पिल्लू बिना किसी लागलपेट के बोला, ''जैसे आप जुटा लेते हैं, मालिक!''
पिल्लू का उत्तर सुन मंत्रीजी सकपका गए और बोले,''क्या मतलब?''
''साफ तो है, मालिक! गरीब तबके को मैं शोषण से मुक्ति दिलाने की बात करूंगा। उनकी आर्थिक स्थिति मजबूत करने के लिए समाजवाद का नारा बुलंद करूंगा।''
''मगर, बरखुरदार! पूंजीपतियों से क्या कहोगे? उनके बिना तो राजनीति नहीं चला करती!''
''मैं जानता हूं, मालिक! चार-पाँच साल में केवल वोट के लिए ही गरीब आम आदमी की आवश्यकता पड़ती है, किंतु अमीर से तो रोज-रोज कमरबंद घिसना है। अत: उनके कान में कहूंगा- तुम्हारे खिलाफ सर्वहारा संगठित हो रहे हैं, मैं उनसे तुम्हारी रक्षा करूंगा। जहां कहीं आवश्यकता होगी तुम्हारे हित में आवाज उठाऊंगा। और मालिक आगे की बात भी बता देता हूं- सभी एक स्थान पर मिल गए, तो सर्वोदय का सिद्धांत जिंदाबाद! सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय! ..जैसा गाल वैसा तमाचा!''
पिल्लू सिंह की राजनैतिक विचारधारा सुन, मंत्रीजी के चेहरे पर गंभीर भाव काबिज हो गए। पालतू और अपने बीच किसी प्रकार का पर्दा न रखने की गलती पर उन्हें पछतावा आने लगा। और सोचने लगे पछताने से भी अब क्या होता है, चिडि़यां तो अब खेत चुग कर ही दम लेंगी। कोशिश बस यही होनी चाहिए कि नुकसान कम से कम हो। इस पछताने के गलियारे बाहर निकलने का प्रयास करते हुए मंत्रीजी ने शंकायुक्त अंतिम प्रश्न किया, ''यह तो ठीक है कि राजनीति के हर पैंतरे का तुम्हें ज्ञान है, किंतु, प्रिय पिल्लू! राजनीति में पालतुओं के प्रवेश को विरोधी दल के नेता मुद्दा बना लेंगे और राजनीति की शुद्धता, शुचिता को आधार बनाकर इसका विरोध करेंगे। इस मुद्दे पर आम जनता भी उनके साथ हो जाएगी! तब क्या करोगे?''
''बेशक! ..किंतु कोई फर्क नहीं पड़ता! इस मुद्दे को भी आपके ही फार्मूले से ध्वस्त कर दूंगा।'' पिल्लू के मुख पर पहले जैसा ही आत्मविश्वास झलक रहा था।
नेताजी ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा, ''मेरा फार्मूला!''
''हाँ, मालिक! आपका फार्मूला! ..जिस प्रकार राजनीति में प्रवेश पा चुका प्रत्येक अपराधी राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ बोलता है। उसी प्रकार मैं भी जहां आवश्यकता होगी राजनीति में पालतुओं के प्रवेश खिलाफ खुलकर बोलूंगा और अपने साथियों से भी खिलाफत कराऊंगा। मगर मालिक पतनाला तो वहीं गिरेगा जहां मैं चाहूंगा!''
अंतत: मरता क्या न करता की तर्ज पर मंत्रीजी ने उसे राजनीति में प्रवेश करने में प्रिय पालतू पिल्लू सिंह को हर संभव सहायता देने का वचन दे ही दिया। वे जानते थे यदि न भी देते तो भी पिल्लू का राजनीति में प्रवेश-निषेध वैसे ही असंभव था जैसे कि राजनीति में भ्रष्टाचार अथवा अपराध निषेध! मंत्रीजी ने गीली आंखों से उसे आशीर्वाद देते हुए कहा,''जाओ वत्स! पालतू-रथ पर सवार होकर जनसंपर्क करते हुए दिल्ली प्रवेश करो। मैं तुम्हारे स्वागत के लिए वहां तत्पर हूं।''
भोर हुई उनींदा-उनींदा सा शहर जागा। शहर अभी रात के भय और स्तब्धता से मुक्त भी न हो पाया था कि आंख खुलते ही शहर के सभी पालतुओं को सेंटर पार्क की ओर गमन करते पाया। शहर की आंखें फटी की फटी रह गई।
दरअसल सेंटर पार्क में पालतू एकता कमेटी की सभा थी। इसी सभा के आयोजन के लिए शहर के पालतू रात भर जनसंपर्क और गुफ्तगू में मशगूल थे। इसी सभा के बाद मंत्रीजी के पालतू ने बिरादरी की सहमति प्राप्त कर उनके अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्ष का बिगुल बजाना था। और इसी पार्क से रथ पर सवार होकर पालतू-रथ-यात्रा का शुभारंभ भी करना था। और समूचे देश की यात्रा करते हुए समापन राजधानी जाकर करने की योजना थी।
धीरे-धीरे समूचा पार्क पालतुओं से भर गया था। चारों दिशाएं पालतू एकता जिंदाबाद के नारों से गुंजायमान थी। भीड़ की तादाद देखकर गली मोहल्ले के पालतुओं ने जाकर पिल्लू सिंह को सूचना दी। सूचना पाते ही पिल्लू ने अपने कारवां के साथ पार्क की चारदीवारी में प्रवेश किया। उसने आज मलमल कर स्नान किया था। माथे पर तिलक सुसज्जित था और गले में तिरंगा पट्टा। पिल्लू को देखते ही जिंदाबाद के नारे गूंजने लगे। मंच पर आकर पिल्लू ने हाथ हवा में लहराकर सभी का अभिवादन किया और मान-सम्मान की रस्म अदा होने के उपरांत उसने भाषण दिया।
अपने भाषण में उसने सर्वहारा, अक्सरियत, अ़कल्लीयत, दलित, समाजवाद, साम्यवाद, सामाजिक न्याय, सर्वजन हिताय-सर्वजन सुखाय और सर्वोदय जैसे राजनीतिक जुम्लों का खुलकर इस्तेमाल किया। सर्वजन को उनके अधिकारों की रक्षा के प्रति आश्वस्त कर रथयात्रा का शुभारंभ किया। नेता पिल्लू सिंह ने अपने दल में कुछ गधों को भी शामिल करने की मंच से घोषणा की। उनमें से एक वयोवृद्ध को राजधानी:िवजय रथ पर सम्मानित स्थान भी दिया और उसकी मेहनत, ईमानदारी और वफादारी की चर्चा करते-करते उसने दल-बल सहित राजधानी की ओर कूंच किया। और, शहर! ..शहर अतीत और वर्तमान को भुलाकर भविष्य की चिंता में डूब गया।
संपर्क : 9717095225

Monday, January 26, 2009

शहर

गणतंत्र िदवस पर हािर्दक शुभकामनाएं

ग़ज़ल

हमें भी अपने' शहर पर गुमान है।
पर आदमी की मुश्किलों में जान है।।

तड़प-तड़प के मर गया जो आदमी।
सुना है उसका लाड़ला जवान है।।

बहुत सी' हसरतें थी अपने' शहर से।
अजीब शोर बंद हर जुबान है।।

कदम-कदम पे आहटें' हैं मौत की।
वजूद का ये कैसा' इम्तिहान है।।

मुझे ही क्या सभी को जिस पे नाज था।
वो' घर नहीं है आजकल मकान है।।

जो धज्जियां उड़ा रहा है अम्न की।
उसे ही हमने सौंप दी कमान है।।

सुना रहा जो' वक्त 'अम्बर' आजकल।
रँगी हुई वो' खूं में' दास्तान है।।

संपर्क : 9717095225

Tuesday, January 13, 2009



ग़ज़ल
बे-सबब ही झुक गई उनकी नज़र।
चाँद से हमने मिलाई थी नज़र।।

झील-सी आँखों में चाहा झांकना।
क्यों चुराली आपने अपनी नज़र।।

दीप यादों के हुए रौशन मगर।
बंद पलकों से मिली उनकी नज़र।।

झुक गए हैं फूल सारे शाख्‍़ा पर।
क्या इशारा कर गई तेरी नज़र।।

थम के रह जाएगी सारी कायनात।
अब उठाओ तुम झुकी अपनी नज़र।।

फूल सा लेकर बदन वो आ गए।
हो गई हैरान हर इक की नज़र।।

अक्स 'अंबर' का सँवर ही जायगा।
जब भी उठेगी वो शीशे-सी नज़र।।

संपर्क : 9717095225

Monday, January 5, 2009

ग़ज़ल

ये जमीं आसमां, हाँ मिले हैं वहाँ।
वहम ही के सही, सिलसिले हैं वहाँ।।

है तपन से भरी, वो घनी वादियाँ।
आग ओढ़े हुए, का़फिले हैं वहाँ।।

ये नयन क्यों भरे, बादलों की तरह।
बे-सबब तो नहीं, कुछ गिले हैं वहाँ।।

ये हवा क्या चली, खिल गई हर कली।
लब किसी के मगर, क्यों सिले हैं वहाँ।।

हमको तन्हाइयाँ, अब तो डसने लगीं।
और 'अंबर' नए, गुल खिले हैं वहाँ।।
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