Monday, December 31, 2007

राजनीति में मूंछों का अल्पसंख्यक होना

ईमानदारी की तरह राजनीति में मूंछों का भी महत्व घटता जा रहा है। बालीवुड से राजनीति की तरफ पलायन करने वाले अभि-नेता भी मूंछ विहीन हैं।
मुझे नहीं मालूम की ईमानदारी व मूंछों के बीच कोई रिश्ता है या नहीं, मगर दोनों का साथ-साथ महत्वहीन होना पारस्परिक रिश्तों की तरफ इशारा अवश्य करता है। हमारी चिंता व चिंतन का विषय यहां ईमानदारी नहीं केवल मूंछें हैं, क्योंकि संवेदनशील दो मसले एक साथ उठाना हमारी कूवत से बाहर की बात है। आप यदि पसंद करे और आपके स्वभाव के अनुकूल हो तो मूंछों पर किए गए हमारे शोध से प्राप्त निष्कर्षो को आप ईमानदारी की दुर्गति पर भी लागू कर सकते हैं। ऐसा करने के लिए हम आपको मौलिक अधिकार प्रदान करते हैं।
ऐसा नहीं है कि राजनीति से मूंछें डॉयनासोर अथवा गिद्ध गति को प्राप्त हो चुकी हैं। थोड़ी-बहुत मूंछें हैं, मगर उनमें से अधिकांश को मूंछें नहीं अपितु मूंछों के अवशेष ही कहना ज्यादा उचित होगा। ऐसी मूंछों की स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर नहीं है। अत: उन्हें दलित मूंछें भी कहा जा सकता है।
भेड़ों के झुंड में ऊंट की तरह यदाकदा कुछ उच्च वर्गीय मूंछें भी दलित मूंछों की राजनीति करती दिखलाई पड़ जाती हैं, मगर उनका दायरा भी सीमित ही है और ताव नामक वंशानुगत गुण का असर उन पर कभी-कभार ही दिखलाई पड़ता है। कुल मिलाकर यह कहना अनुचित न होगा कि राजनीति में मूंछें अल्पसंख्यक होती जा रही हैं।
ऐसा क्यों हो रहा है, मूंछें अल्पसंख्यक क्यों होती जा रहीं हैं? ठहरे पानी में जलकुंभी की तरह यह प्रश्न एक अर्से से हमारी बुद्धि की पोखर पर काबिज है। उसे हम जितना हल करने का प्रयास करते हैं, जलकुंभी में गधे की तरह उसमें हम उतना ही फंसते जा रहे हैं। प्रश्न हल होने का नाम नहीं ले रहा है और हम हल करने की जिद्द नहीं छोड़ पा रहे हैं, अत: मूंछों से जुड़ा यह प्रश्न हमारे लिए 'मूंछ का सवाल' बन गया है।
गहन मंथन और विभिन्न किस्म के नेताओं से इस्क्लूसिव बात करने के उपरांत हम कुछ निष्कर्ष हमारे हाथ लगे, जिनका खुलासा आपके समक्ष प्रस्तुत है-
1. राजनीति अब मूंछों की लड़ाई नहीं रह गई है। स्थायित्व शब्द राजनीति में अर्थहीन हो गया है, इसलिए स्थायी दुश्मनी और दोस्ती का राजनीति में कोई अर्थ नहीं है, फिर चेहरे पर क्यों फिजूल ही में खर-पतवार उगाए जाएं?'
2. हालिया जमाने में हाल मूछंदर नेता का प्रगति कर पाना मुश्किल काम है। खुदा-न-खस्ता प्रगति कर भी ले तो बेचारा मलाई कैसे चाटेगा, क्योंकि मलाई चाटने के वक्त मूंछें आड़े आ जाती हैं। मूंछों के बावजूद मलाई चाटने का दु:साहस किया भी तो आधी मलाई मूंछों पर चिपक कर रह जाएगी। मलाई भी पूरी हाथ नहीं लगेगी और जग हंसाई मुफ्त में हो जाएगी। जिसे पता नहीं, उसे भी पता चल जाएगा कि नेता मलाई चाट है।
3. मलाई चाटना नेता की मजबूरी है। मलाई न चाटे तो आकाओं को रोज-रोज मक्खन लगाने के लिए इतना मक्खन कहां से लाएगा? मक्खन लगाने और मलाई चाटे बिना राजनीति नहीं चला करती। अत: राजनीति में अस्तित्व बरकरार रखने के लिए मूंछें नहीं, मलाई आवश्यक है। देवता भी मलाई प्रेमी होते थे अत: मूंछ नहीं रखते थे। आधुनिक देवता भी उसी देवत्व परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं।
4. राजनीति में कदम जमाने और जमे कदम उखाड़ने के लिए किसी की नाक का बाल बनना भी परम आवश्यक है और मूंछ इस परम आवश्यकता की पूर्ति में बाधक हैं। फिर मूंछ का भार फिजूल में ही वहन क्यों किया जाए?
5. राजनीति में मूंछों के अल्पसंख्यक होने का एक मात्र कारण पूंछ का विकसित होना है, क्योंकि राजनीति में पूंछ वालों की ही पूछ है। अत: मूंछें साफ होती गई और पूंछ लंबी होती चली गई।
इस प्रकार राजनीति में मूंछ अल्पसंख्यक होती जा रही है। आप चाहें तो राजनीति में ईमानदारी विलुप्त होने के पीछे भी मेरे इन्हीं शोध निष्कर्ष को लागू कर सकते हैं।
संपर्क : 9868113044

Saturday, December 29, 2007

कहानी जंगल की

व्यंग्य निठारी काण्ड पर लिखा था। निठारी काण्ड जिसमें एक-एक कर लगभग 32 बच्चे लापता हो गए थे। एक वर्ष पूर्व आज ही के दिन 29 दिसंबर 2006 को इस काण्ड का खुलासा हुआ था। नोएडा-निठारी गांव के सेक्टर 31 स्थित नाले से लगभग 19 मासूम बच्चों के कंकाल मिले थे। पता चला कि मासूमों को हवस का शिकार बना कर नर-पिशाच उनकी हत्या कर देते थे और शव के टुकड़े-टुकड़े कर नाले के हवाले कर दिए। ये सभी अमानवीय कर्म इसी सेक्टर की डी-5 कोठी में हुए। कोठी के मालिक मोनिंदर सिंह पंढेर और उसके नौकर सुरेंद्र सिंह कोहली पर गाजियाबाद की एक अदालत में इस काण्ड से संबद्ध लगभग 19 मुकदमे चल रहे हैं। आरोप है कि सुरेंद्र बच्चों को बहका-फुसला कर कोठी के अंदर लाता था और हत्या करने के बाद शव के साथ दुष्कर्म करता था। इस पूरे मामले में कोठी मालिक पंढेर का भी हाथ बताया जाता है।

जंगल का राजा उदार हृदय था। यह उसके उदारता का ही परिचायक था कि बंदर उसके राजनैतिक सलाहकार व कार्यकत्र्ता थे और लकड़बग्घे व जंगली कुत्ते उसके राज्य में कानून-व्यवस्था कायम रखने का काम संभाले हुए थे। उसके राज में भेड़ियों की गिनती प्रभावशाली जीवों में होती थी, यह भी राज के उदार हृदय होने की जीवंत उदाहरण है। उस जंगल का एक हिस्सा काफी संपन्न व धन-धन्य से परिपूर्ण था। भेड़िये, लकड़बग्घे, कुत्ते और तेजतर्रार बंदर वहाँ अपनी-अपनी नियुक्ति कराने व बसने की जुगत में लगे रहते थे।
रोजी-रोटी की तलाश में जंगल के दूसरे हिस्सों से भेड़-बकरियों के कुछ परिवार भी वहाँ आकर बस गए। वे दिन भर मेहनत-मजदूरी करते और अपने परिवार को पालते। रोजगार के साधन उपलब्ध होने के कारण भेड़-बकरियों के दिन चैन से कटने लगे। मगर दुर्भाग्य की उनका सुख-चैन ज्यादा दिन तक कायम न रह सका।
दरअसल जंगल में भेड़िये तो पहले ही से प्रभावी थे। ऐसे ही प्रभावशाली एक भेड़िये की निगाह निरीह भेड़-बकरियों के मेमनों पर पड़ गई। मेमने की लजीज मांस और वह भी सहज रूप से मिल जाए, भेड़िये के लिए इससे सुखद बात और क्या हो सकती थी। अत: भेड़िये ने मेमनों पर हाथ साफ करना शुरू कर दिया।
एक मेमना गायब हो गया, उसके माता-पिता को चिंता हुई, किंतु सोच कर शांत बैठ गए कि इधर-उधर कहीं चरने चला गया होगा, आ जाएगा। मेमना जीवित होता, तो अवश्य आता, किंतु उसे तो भेड़िया अपना भोजन बना चुका था।
मेमना वापस नहीं लोटा, उसकी माँ रोने लगी, उसकी आवाज जंगल में सुनाई दी। रोने की आवाज कानून के रखवाले लकड़बग्घों के कान तक पहुंची, किंतु कुछ हुआ नहीं, क्योंकि भेड़-बकरियों का रोने से लकड़बग्घों की संवेदना जागृत नहीं होती है। कहते हैं कि यह प्रकृति का नियम है।
पहले दिन एक परिवार के रोने की आवाज जंगल में गूंजी, धीरे-धीरे एक-एक कर रोने की बहुत सारी आवाजें उसमें शामिल होने लगी। दरअसल भेड़िया एक-एक कर 25-30 मेमने खा गया था।
जब भी किसी का बच्चा गायब होता, उसके माता-पिता कानून के रखवाले लकड़बग्घों के पास जाते, लकड़बग्घे उन्हें टला देते। टाल देना उचित भी था, क्योंकि जंगल के विशिष्ट जीवों की सुरक्षा उनकी प्राथमिकता थी, उसी का भार उनके ऊपर काफी था। वैसे भी कानून-व्यवस्था का भेड़-बकरियों से कोई खास सरोकार होता भी नहीं है। एक-दो मेमने यदि कहीं गुम हो भी गए तो जंगल की सुरक्षा को कौन खतरा पैदा हो गया!
रोने की आवाज धीरे-धीरे जोर पकड़ने लगी, आवाज राजा के राजनैतिक कार्यकर्ता बंदरों के कानों तक पहुंची। कुछ कान खड़े हुए, किंतु व्यर्थ। पता किया, अरे यह तो भेड़- बकरियों के रोने की आवाज है! उनका दर्द सुना जाए, मगर क्यों, बंदर-बांट के लिए उनके पास कुछ भी तो नहीं है!
बंदरों का सरदार बोला, छोड़ो अभी चुनाव भी तो आस-पास नहीं हैं, हों भी तो क्या है, बाहर से आए हुए हैं, उनके वोट भी कितने हैं! भेड़-बकरियों का दुख भूल सभी बंदर अपने आकाओं की सेवा-सुश्रुसा में लग गए।
भेड़-बकरियों के परिवार रोते रहे, भेड़िया निर्भय पूर्वक उनके बच्चों का शिकार करता रहा। पीड़ित परिवार के रोने की आवाज से आजिज कानून-व्यवस्था के रखवाले लकड़बग्घों ने भेड़िये को गिरफ्तार किया भी, किंतु भेड़िये के सामने लकड़बग्घे की क्या औकात और उस पर भी भेड़िया रुसूख वाला हो। भेड़िया मुक्त कर दिया गया और मेमने निगलने का उसका क्रम जारी रहा।
रोने वालों की तादाद बढ़ती चली गई और रोने की आवाज चीख में तब्दील होने लगी। उनकी श्रेणी के भयभीत अन्य जीव भी उनकी आवाज में आवाज मिलाने लगे। आस-पास के जंगलों के जीवों का ध्यान आकर्षित हुआ। उसी दौरान जंगल के चुनाव भी नजदीक आ गए। जंगल का समूचा तंत्र सक्रिय हो गया, राजा को चुनाव में फिर विजयी बनाना था।
सुना गया है, हत्यारे भेड़िया पुन: गिरफ्तार कर लिया गया है। पीड़ित परिवारों के सामने हरी घास के कुछ तिनके भी डाल दिए गए हैं। यह कहानी निठारी के जंगल की है।
अब देखना यह है कि आगे क्या होता है। आगे कुछ होगा, तभी कहानी आगे बढ़ेगी, वरन् कहानी यहीं समाप्त समझो।
संपर्क : 9868113044

Friday, December 28, 2007

तसलीमा : अतिथि देवो भव!

तसलीमाऽऽऽ! .. अतिथि देवो भव! यह पूरा देश तुम्हारा है, तसलीमा! तुम बंगाल से आंध्र तक श्रीनगर से कन्या कुमारी तक दिल्ली से झूमरीतलैया तक जहां चाहो रह सकती हो। हमें कोई एतराज नहीं। मगर तसलीमा तुम्हारी सुरक्षा भी तो आवश्यक है, ना! तुम्हारे जैसे बहुमूल्य रत्न को हम खोना नहीं चाहते, अत: तिहाड़ सहित किसी भी प्रदेश की जेल चुन सकती हो। वहां कोई कट्टरपंथी तुम्हें टेढ़ी नजर से देखने की भी जुर्रत नहीं कर पाएगा और एकांत में तुम्हारी लिखाई-पढ़ाई भी ठीक तरह से चलती रहेगी। ठीक है, ना तसलीमा !
तसलीमाऽऽऽ! ..क्या कहा तुमने? धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में बिना किसी अपराध के कैद! अरे, नहीं, नहीं! .. मन से नकारात्मक विचारों का त्याग करो! हां! ..हमारा राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष है। हम सभी धर्मो को एक निगाह से देखते हैं, अर्थात 'सर्वधर्म समभाव'। अत: खुदा के बंदों की भावनाओं का खयाल तो करना ही पड़ेगा ना, तसलीमा! वरन् लोग कहेंगे कि भारत सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत से विचलित हो गया!
वैसे भी तसलीमा तुम जानती ही हो, 'खुदा महरबान तो गधा पहलवान!' तुमने खुदा के बंदों को ख्वाहमख्वाह नाराज कर दिया। अब देखना! खुदा के बंदे नाराज होंगे, तो भला खुद नाराज क्यों नहीं होगा!
तुम्ही बताओ तसलीमा, क्या जरूरत थी खुदा और उसके बंदों को नाराज करनी की! खुदा जब नाराज है, तो भला तुम पहलवान कैसे हो सकती हो। हमारी बात मानो और एकांतवास में चली जाओ, वहां रह कर खुदा की इबादत करना। खुदा को महरबान करना, खुदा के बंदों को खुश करना। फिर जब खुदा की महरबानियों से गधा पहलवान हो सकता है, तुम तो नेक इनसान हो, तुम्हें पहलवान बनने से कौन रोक सकता है।
तसलीमाऽऽऽ! ..नहीं, तुम उदास न हो! चेहरे पर खिंची इन उदास रेखाओं को सूखे रेत में खिंची लकीरों की तरह झाड़ दो।
हाँ! ..अवश्य! हमने कब मना किया? इस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है! तभी तो..! तुम्हारी स्वतंत्रता तनिक बाधित हो गई! अब देखो! तुम्हारी अभिव्यक्ति पर उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति दे मारी! अब उनकी अभिव्यक्ति की अनदेखी कर देते तो जाहिर सी बात है, हम पर अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार के हनन का आरोप लग जाता! सरकार किसी की भी हो, इतना संगीन इलजाम अपने ऊपर कैसे ले सकती है!
हां! अभिव्यक्ति तुम्हारी भी है! हम इससे कब इनकार करते हैं! किंतु, तसलीमा! तुम्हारी अभिव्यक्ति बांग्लादेश से जुड़ी है और उनकी अभिव्यक्ति इसी देश से। उनकी अभिव्यक्ति तुम्हारी अभिव्यक्ति पर तनिकभारी पड़ती है। वैसे भी तुम्हारी अभिव्यक्ति को यदि हम तरजीह देते तो हमारे मित्र बांग्लादेश की सरकार हम पर आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने की तोहमत जड़ देती। कूटनीतिक संबंध भी तो कोई चीज होते हैं, न तसलीमा!
हां, तसलीमाऽऽऽ! ..तुमने सत्य कहा! हम स्वीकारते हैं, हमारी अदालत स्वीकारती है, हाजिर-नाजिर जान कर तुमने जो भी कहा सत्य कहा! परंतु तुमसे किसने कहा था, सत्य उच्चारण के लिए!
सुनो, तसलीमा! सत्य हमेशा ही अप्रिय होता है और भारतीय संस्कृति में अप्रिय सत्य वाचन निषेध है। हम भी तो इसीलिए कभी सत्य-उच्चारण नहीं करते। असत्य बोलना हमारी प्रकृति नहीं है। सांस्कृतिक-मजबूरी है! अब तुम्ही बताओ तुम्हारा सत्य झुठला कर हमने कौन जुर्म किया? अरे, भाई! अपनी संस्कृति का ही तो अनुसरण किया! कौन नहीं चाहेगा अपनी संस्कृति का पोषण करना?
तसलीमाऽऽऽ! ..तुम नहीं जानती कि धर्म कोई भी हो सभी भावनाओं की खोखली जड़ों पर टिकें हैं। जरा सी आहट होती है, तो भावनाएं आहत हो जाती हैं, धर्म खतरे में पड़ जाते हैं। तुम्हारा सत्य आहत नहीं, भावनाओं को हताहत करने वाला है! हिंसा के लिए हमारी संस्कृति में कोई स्थान नहीं है। हम और हमारी संस्कृति अहिंसावादी है, मगर हमारे दिल में तुम्‍हारे लिए स्‍थान है। तुम जहां चाहो वहीं रहो, मगर----!
संपर्क : 9868113044

Wednesday, December 26, 2007

कुछ नए मुहावरे गढ़ो

जमाना बदल गया है, चाल बदल गई। बहुत कुछ पुराना पड़ गया है। पुराना औचित्यहीन हो गया है। नया प्रासंगिक है। कुछ नए मुहावरे गढ़ो। पुराने मुहावरों की लकीर कब तक पीटते रहोगे। कब तक लकीर के फकीर बने रहोगे। पुराने मुहावरों से युक्त साहित्य बासी-बासी से लगता है। गरीबी रेखा के नीचे का बाशिंदा सा लगता है। साहित्य राजनीति नहीं है कि गरीब और गरीबी को हटाने का शोर तो मचाया जाए, मगर स्वहित के कारण उन्हें बरकरार रखा जाए।
राजनीति में गरीबी और गरीब की स्थिति वही है, जैसी मु़गले-आजम में बेचारी अनारकली की थी। किंग अकबर ने उसका जीना मुहाल कर दिया था और प्रिंस सलीम ने उसका मरना। बेचारी कनीज अनारकली जीवन और मृत्यु के बीच फुटबाल बनी रही और फिल्म दी एण्ड हो गई।
अकबर की तरह महंगाई गरीब का जीने नहीं दे रही है और राजनीति उसे मरने नहीं दे रही है, क्योंकि नेता प्रिंस सलीम की तरह गरीब से प्यार करते हैं, क्योंकि गरीब के बूते ही उनकी राजनीति चलता है। लेकिन साहित्य राजनीति नहीं है, अत: अप्रासंगिक गरीब मुहावरों से कैसा मोह। अत: नए मुहावरे गढ़ो साहित्य को गरीबी रेखा से ऊपर लाओ।
थोड़ा विचार कीजिए, 'पानी उतरे चेहरे' अथवा 'चेहरे का पानी उतर गया' जैसे घिसे-पिटे मुहावरों का अब औचित्य क्या? जब समूचा ब्रह्मंाण्ड जल संकट से जूझ रहा है। पृथ्वी के चेहरे से पानी उतर कर रसातल की और गमन कर रहा है। पानी को लेकर चौथे विश्व युद्ध की संभावनाएं व्यक्त की जारी हैं। संकट के ऐसे हालात में पानीदार चेहरों का मिलना, क्या रेगिस्तान में कमल खिलना सा नहीं लगता है?
खुदा-न-खास्ता कहीं पानीदार चेहरा मिल जाए तो उसको रोमन अंदाज में ममी बनाकर सुरक्षित रख देना चाहिए ताकि आने वाली शुष्क संतान देख सके कि कभी इनसानी चेहरे भी पानीदार हुआ करते थे। मेरा मानना है कि जल-संकट के इस जमाने में चेहरे पर पानी चढ़ा कर रखना जमाखोरी है, जन-विरोधी है। वैसे भी अब रहीम दास जी का जमाना तो रहा नहीं कि पानी बिना मोती, मानस, चून के उबरने पर सवालिया निशान लगा हो? इस जमाने में तो वे ही मानस तरक्की करते हैं, जिनके चेहरे पानी उतरे होते हैं। आज के जमाने में चेहरे का पानी तरक्की में बाधक है। फिर कोई क्यों चेहरा पानी से तर रखेगा। तब 'चेहरों का पानी उतरना' अथवा नकारात्मक दृष्टिं से 'पानी उतरे चेहरे' जैसे मुहावरों का औचित्य क्या?
जहाँ तक रही चून (आटा)की बात तो गरीबी में कौन कमबख्त आटा गीला करना चाहेगा? मोती भी अब मानस चेहरों की तरह कहां पानीदार मिलते हैं। नकली पानी चढ़े मोती ही अब सच्चे मोती कह लाते हैं!
मुहावरा 'शर्म से पानी-पानी होना' भी अब दकियानूसी लगता है। पानी-संकट के दौर में मामूली सी बात पर पानी-पानी होकर पानी जाया करने का औचित्य क्या? सीधी-सीधी राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मामला सा लगता है। शर्म तरक्की में बाधक है। बिंदास होना प्रगति का सूचक है। बदले ऐसे हालत में पानीदार मुहावरों का त्यागना ही उचित है। मुहावरा 'चुल्लू भर पानी में डूबना' भी अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है। शर्म-हया से मुक्त बिंदास जमाने में चुल्लू भर पानी की आवश्यकता क्या रह गई है?
वृद्धि के संदर्भ में सुरसा जी का मुंह, हनुमान जी की पूंछ और द्रोपदी के चीर से संबद्ध मुहावरे मुझे प्राणी-अत्याचार से लगते हैं।
सुरसा जी ने अपने मुंह के विस्तार का कमाल हनुमान जी को समुद्र लांघने के दौरान केवल एक बार दिखलाया था। उसके बाद उसका मुंह फिर कभी वृद्धि को प्राप्त हुआ हो इसका संदर्भ कहीं नहीं मिलता। उसी प्रकार बेचारे हनुमान जी ने रावण दरबार में आसन न मिलने पर ही अपनी पूंछ का कमाल दिखलाया था।
द्रौपदी का चीर भी महंगाई की तरह वृद्धि को प्राप्त नहीं होता रहा था! चीरहरण के समय कृष्ण भगवान की कृपा से चीर का कमाल देखने में आया था। पता नहीं एकबार की घटना के आधार पर मुहावरे क्यों गढ़ दिए गए और तब से आज तक क्यों संदर्भ बे संदर्भ बार-बार उन्हें उछाल कर उन पर अत्याचार किया जा रहा है?
द्रौपदी के चीर का अब औचित्य क्या? आजकल की द्रौपदियों ने तो चीर की पीर का मर्म समझ कर चीर का परित्याग ही कर दिया है। चीर होगा तो चीर की पीर भी होगी! न चीर होगा और न ही किसी दुर्योधन-दु:शासन को चीरहरण करने का कष्ट करना पड़ेगा! जब चीर ही अपना अस्तित्व अपनी प्रासंगिकता खो चुका है, तब द्रौपदी के चीर की लकीर पीटने का औचित्य क्या? मुझे तो ऐसा लगता है कि दुर्योधन ने जिस सद्कार्य को एक बार किया था, आज के साहित्यकार इस मुहावरे का प्रयोग कर उस सद्कार्य को बार-बार दोहरा रहे हैं! इस मुहावरे को उछाल कर आधुनिक द्रौपदियों को पीर पहुंचाने का औचित्य क्या है?
सुरसा जी का मुंह, हनुमान जी की पूंछ और द्रौपदी का चीर एक बार वृद्धि को प्राप्त हुए थे। महंगाई निरंतर वृद्धि को प्राप्त हो रही है, तो क्यों न वृद्धि के संदर्भ में महंगाई को खींचा जाए!
'गधे के सिर से सींग का गायब होना!' भला कोई पूछे, जब गधे के सिर पर कभी सींग रही नहीं तो गायब होने का अर्थ क्या? बेमतलब बेचारे गधे को बदनाम किया जा रहा है। एक निरीह जीव पर अत्याचार किया जा रहा है। पता नहीं क्यों और किसने गायब होने के संदर्भ में औचित्यहीन मुहावरा गढ़ दिया? साहित्यकारों को चाहिए कि बेमतलब के ऐसे सभी मुहावरों के प्रयोग पर प्रतिबंध का फतवा जारी कर दें। उसके स्थान पर 'चोली से दामन गायब' मुहावरा प्रचलन में लाया जा सकता है।
दरअसल घनिष्ठ संबंध दर्शाने के लिए 'चोली दामन के संबंध' को मुहावरे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जबकि पारदर्शी इस युग में चोली दामन के मध्य संबंध विच्छेद हो गया है! जब संपूर्ण तन-मन से ही दामन गायब है, तो मुहावरे के जरिए चोली के ऊपर दामन का बोझ डाल कर उसके प्रति यह हिंसा क्यों?
यूं तो चोली भी अब निरंतर संकुचन की दिशा में प्रगति पर है। चोली अब चोली नहीं रही और दामन भी बे-दम है, फिर मुहावरे के रूप में चोली-दामन के संबंध को बदनाम क्यों किया जाए?
गधे को मुक्ति प्रदान कर उसके स्थान पर 'चोली से दामन गायब' मुहावरा ही उचित रहेगा। ऐसा करने से साहित्य को एक नया मुहावरा भी मिल जाएगा और साहित्य में सौंदर्य भी बरकरार रहेगा!
मेरा सुझाव है कि घनिष्ठ संबंधों की व्याख्या करने के लिए 'राजनीति में भ्रष्टाचार' जैसे सटीक संबंधों को मुहावरों के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। दूध-दूध नीं रहा पानी-संकट के कारण जनमानस त्राहिमान-त्राहिमान कर रहा है, फिर चोली-दामन के संबंध की तरह दूध में पानी का एकाकार औचित्यहीन हो गया है! दूध-पानी-मिश्रण के स्थान पर 'राजनीति में अपराध' के सुदृढ़ मिश्रण को मुहावरे के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए! उदाहरण के रूप में, ''आओ, प्रिय! हम-तुम राजनीति में भ्रष्टाचार'' अथवा ''राजनीति में अपराध की तरह'' एकाकार हो जाएं!
अब कोई साहित्यकारों से पूछे कि प्रियतमा के मुखड़ा चांद सा क्यों? उस चांद पर, जहां जीवन की संभावना तक नहीं! जब मैं कहता हूं, 'प्रिय तुम्हारा मुखड़ा चांद सा है!' तो लगता कि वह प्राण -प्रिय नहीं प्राण-प्यासी है! अरे, भाई! 'सेक्सी-सेक्सी' कोई जीवंत उपमा तलाश करो! उदाहरण के रूप में, ''प्रिय! तुम्हारा मुख प्रियंका चोपड़ा, मल्लिका सहरावत, बिपासा बसु, आदि-आदि के मुख जैसा सेक्सी सेक्सी है!'' प्रियतमा भी खुश और प्रियतम् भी!
बॉस के सभी इंक्रीमेंटी वायदे 'नेताई आश्वासन' निकले। कितना प्रगतिशील एवं आधुनिक मुहावरा हो सकता है। साहित्य से बासीपन समाप्त करो। कुछ-कुछ आधुनिक, कुछ प्रगतिशील मुहावरे खोजो। साहित्यकारों, भाषाविदों को मेरे सुझाव पर सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिए और साहित्य को सेक्सी-सेक्सी बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देना चाहिए।
संपर्क : 9868113044

Monday, December 24, 2007

मौत का सौदागर






गुजरात में मोदी भइया जीत गए! ..बधाई!! मोदी भइया को नहीं, सोनिया मइया और राहुल भइया को! दोनों ने जी तोड़ मेहनत की थी! मेहनत रंग लाई, मोदी भइया ने विजय पाई! सोनिया-परिवार यदि मेहनत न करता तो इस बार मोदी भइया के गले में हार का हार ही पड़ने की संभावना थी। मोदी जी को भी सोनिया -परिवार का शुक्रगुजार होना चाहिए और उन्हें धन्यवाद ज्ञापित करना चाहिए!
केवल मोदी भइया को विजयी बनाने का श्रेय ही सोनिया मइया के खाते में नहीं जाता, संसदीय शब्दकोष को शब्द-संपन्न करने का श्रेय भी इस बार उन्हीं के खाते में जाता है! सोनिया मइया ने सदियों से उपेक्षित शब्दों को संसदीय सम्मान दिया है। मसलन बेईमान, झूठा और मौत का सौदागर आदि आदि। ये ऐसे बदकिस्मत शब्द थे, जिन्हें अभी तक संसदीय शब्दकोष में शामिल होने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ था। बस बेचारे गली-मोहल्लों में ही भटकते फिर रहे थे। सोनिया मइया के प्रयास से उपेक्षित इन शब्दों को तो सम्मान प्राप्त हुआ ही है। संसदीय शब्दकोष की भी गरिमा बढ़ी है। इससे पूर्व ऐतिहासिक और सामाजिक मूल्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले शिखण्डी, दलाल व मसखरा जैसे शब्दों को संसदीय शब्दकोष में प्रवेश दिलाकर उसकी गरिमा में चार नहीं दर्जनों चांद जड़े गए थे।
प्रचार नकारात्मक और सकारात्मक प्रचार-प्रचार होता है। नकारात्मक प्रचार सकारात्मक कहीं ज्यादा प्रभावी होता है। 'बदनाम हुए तो क्या नाम न होगा!' नकारात्मक प्रचार का यह मूलमंत्र है। जो व्यक्ति नकारात्मक प्रचार के इस मूलमंत्र को मोदी भइया की तरह आत्मसात कर लेता है, मजबूरन ही सही विजय श्री उसी का वरण करती है। मैदान चुनाव का हो या युद्ध का येन केन प्रकारेण विजय प्राप्त होनी चाहिए। गुजरात चुनाव में वही हुआ भी। हो सकता है, जब सोनिया मइया ने 'मौत का सौदागर' जैसे मुहावरों का प्रयोग किया था, तब मोदी भइया को उसका स्वाद नीम चढ़े करेले सा लगा होगा, मगर अब..! और अब मधुमेह की व्याधि से मुक्ति मिल गई ना। मधु-वर्ष संपन्न करने के लिए पूरे पांच वर्ष की अनुमति मिल गई ना! सोनिया मइया मौत के सौदागर का रहस्य सार्वजनिक न करती तो गुजरात की जनता मौत के सौदागर को पूरे पांच वर्ष राज्य करने का लाइसेंस न देती।
इस बार संसदीय शब्दकोष को शब्द-संपन्न करने से मोदी भइया तनिक चूक गए और सोनिया मइया सफल हो गई। सोनिया जी इस देश की सफलतम् नेत्रियों में से एक हैं! मोदी जी इस बार गच्चा क्यों खा गए? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है। दरअसल मोदी जी कमल के समान कोमल भावना से संपन्न भाजपा-नेता हैं। भाजपाई भावनाएं छुईमुई के पौधे से भी ज्यादा छुईमुई होती हैं, संवेदनशील होती हैं। छुईमुई के पौधे की भावनाएं तर्जनी देखकर आहत होती हैं, किंतु भाजपा की कोमल भावनाएं तर्जनी के विचार-मात्र से आहत हो जाती हैं। सूरज बादलों के साथ लुकाछिपी का खेल खेलता है और कमल यह सोचकर मुरझा जाता है कि सूरज डूब गया। ऐसा ही हुआ मोदी जी के साथ।
मोदी भइया अब तो उदासी का त्याग करो। मुरझाए कमल को सूरज के दर्शन कराओ। देश तुम्हें याद रखेगा, मान जाओ! हम जानते हैं, 'देश मुझे याद न रखे' मोदी भइया का यह कहना भी कोमल भावना आहत होने की ओर संकेत करता है। मेरे जैसा टटपूंजिया भी जब ऐसी सद्इच्छा रखता है कि यह देश मुझे याद करे, तब यह कैसे संभव है कि मोदी जी इसके इच्छुक न हों। भावनाएं जब आहत हो जाती हैं तो कमजोर मन की इच्छाएं भी निराशा के वशीभूत अनिच्छा में तबदील हो जाती हैं। मोदी जी की आहत भावनाओं पर मरहम लगाने के उद्देश्य से मैं कहना चाहूंगा, निराश न हों, क्योंकि देश कृतघ्न प्रकृति के नहीं हुआ करते हैं। यह देश गांधी को याद करता है तो गौडसे को भी नहीं भूला है। उसे राम याद है तो रावण भी उसकी स्मृति में शेष है। देश कृष्ण का स्मरण करता है तो कंस को भी नहीं भूला है। हिटलर अभी तक विश्व-स्मृति में है। नेपोलियन को कौन भूला है। मुसोलिन को भी उसके देशवासी याद करते हैं। यह बात अलग है कि इन महानुभावों का स्मरण कर देश के तंत्रिकातंत्र में कंपन उत्पन्न हो जाता है, किंतु देश की स्मृति में आज भी वे शेष हैं। व्यक्ति अपने सद्कर्मो के कारण याद किये जाते हैं और सद्कर्मो का खाता आपका भी चकाचक है। अत: मोदी जी चिंता का त्याग करो, देश तुम्हें याद रखेगा। यह देश कृतघ्न नहीं है! तुम भी कृतघ्नता का त्याग करो और सोनिया मइया के नाम बधाई संदेश ई मेल कर दो!
फोन-9868113044

Saturday, December 22, 2007

देश पै घोड़े-गधे राज करैं सै

बाबा की बारात रथ में गई थी। साथ में रौनक बढ़ाने के लिए हाथी, घोड़े और सुंदर-सुंदर बैल और मनोरंजन के लिए नाचने वाली रण्डियां। जमाना बदला बाप की बारात रथ में नहीं बैलगाड़ी में गई। हाथी तो नहीं मगर बैल व घोड़ों ने अवश्य बारात की शोभा चकाचक की। मनोरंजन के लिए नौटंकी कंपनी साथ ले जाई गई थी। जमाने ने फिर करवट ली खुद की बारात में न हाथी थे, न बैल, न घोड़े। मनोरंजन के परंपरागत साधन भी नहीं थे, किंतु इनके स्थान पर नेता व नेतानियों की फौज अवश्य बारात की शोभा में एक दर्जन चांद जड़ रही थी। बैलगाड़ी व रथ के स्थान पर बारात के आवागमन के लिए हैलीकॉपटर का सदुपयोग किया गया था।
लड़के का बाबा तो पूर्व में ही पुत्रों को अंतिम-संस्कार संपन्न करने का सुअवसर प्रदान कर मोक्ष को प्राप्त हो गया था, किंतु लड़की के बाबा परिवार वालों को इस पुण्य कर्म का अवसर प्रदान करने में कोताही बरत रहा था। उसके पुत्र-पौत्र तीक्ष्ण इच्छा के साथ उस दिन के इंतजार में थे, जिस दिन बुढ़ऊ का क्लांत हृदय शांत हो और उन्हें भी अपने पूजनीय के कपाल पर वार करने का पवित्र अवसर प्रदान हो जाए। खैर ऐसा अवसर प्रदान करना न बुढ़ऊ के हाथ में था और न ही उसके शुभचिंतकों के। यह सभी विधि के हाथ में है। हो सकता है कि क्लांत हृदय को शांति प्रदान करने का पुण्य कार्य भी विधाता शुभचिंतकों से ही करा दे। कहा जाता है कि शुभचिंतकों के हाथों मृत्यु का पुण्य कर्म संपन्न होने से स्वर्ग-संसद के लिए मृतक का चुनाव तो निर्विरोध हो ही जाता है। पुण्यकर्म संपन्न करने वाले शुभचिंतकों को भी कई जन्मों के पुण्य अग्रिम रूप में एक मुश्त प्राप्त हो जाते हैं।
बहरहाल लड़की का बाबा अभी तक इसी नश्वर संसार का बाशिंदा है। लड़की के बाबा ने पौत्री की बारात देखी और माथा पकड़ कर बैठ गया। उसने मन ही मन लड़की के ससुर को कोसा और बिरादरी से मुंह छिपाने के लिए कोठे में मुंह देकर बैठ गया। शोक की उस अवस्था में भी बुढ़ऊ आखिर कब तक रहता। उसे पता था कि उसका भाग्य कैकेयी के समान नहीं है कि कोई दशरथ आएगा और कोप भवन में विश्राम करने का कारण उससे पूछेगा। फिर उसके वचन-पूर्ण करेगा और कोप भवन के कोप से उसे निजात दिला देगा।
क्रोध में रंग-बिरंगा बुढ़ऊ कोठे से बाहर आया और लड़की के बाप को टेरने लगा- ओ राम्मे, राम्मे ओ-ओ राम्मे! भुनभुनाता राम्मे बुढ़ऊ के पास आया और बोला- के आफत आग्गी बाप्पू? चों मक्का के खेत के तोत्ते से उड़ा रा सै? दीख ना रहा दरवाज्जे पै छोरी की बरात खड़ी सै!
बुढ़ऊ बापत्वाधिकार के साथ बोला- मैं तोत्ते ना उड़ारा! म्हारे ही तोत्ते तो तेरे समधी नै उड़ दिए। तोते की तरह आंख घुमाकर राम्मो बोला- के बिध बाप्पू? समधी नै के खता कर दी तेरी साण मै? बुढ़ऊ झुंझलाया- तेरी चारो ही फूट री कै, दिक्ख ना?
शतुरमुर्ग की तरह बुढ़ऊ ने गरदन ऊंची की और बारात की ओर देख कर बोला- राम्मो पहलै तै जे बता कि छोरी की सगाई कित कर आया? तै नै वाके खेत-खलिहान भी ना देखा के? बला टालने के लहजे में राम्मो प्यार से बोला- बाप्पू! फिर वा ई बकबक ..अर बता तै समधी ने के तेरी खाट के निच्चे आग रख दी?
बुढ़ऊ की आंखें भर आई। राम्मो भी समझ गया कि बापू का मरम कुछ ज्यादा ही दरदीला हो रहा है। बापू को ढांढस बंधाते हुए वह बोला- तू तो खम्मोखां आंसू टपका रा सै। बतात्ता तो है नी के बात हुई, बता चल बता!
राम्मू तू देखना रिया इस उजड़ी-उजड़ी बरात नै। बरात मै एक भी तो हाथी, घोड़ा, बैल ना! बुढ़ऊ ने नथनों से टपकते पानी को रोकने के लिए नाक हाथ से रगड़ी और फिर बोला- अर हाथ, बैल घोड़े लावे की हैसियत ना थी तो गधा ही ले आता! बुढ़ऊ ने नाक से सुड़क-सुड़क की आवाज की और आगे बोला- गधा भी ना ला सकै था तो गधे की मरी पूंछ ही ले आत्ता! अर दिके कम सै कम बिरादरी में हंसाई तै ना होत्ती। बुढ़ऊ का दर्द केवल इतना ही नहीं था। उसे इस बात का भी रंज था कि मनोरंजन के लिए भी बारात के साथ कोई प्रबंध नहीं है। अत: वह उसने आगे कहा- राम्मो! मैनै अपनी जिंदगानी में ऐसी उजड़ी बरात पहलै कभी ना देक्खी। अरै हम तेरी बरात मै रण्डी ना ले जा सके तो नौटंकी वाले कंपनी तै ले गिए थे। वा तो कुछ भी ना लाया। बैरंग ही बरात ले आया सै! वा कै बिलकुल ही टोट्टा ब्यारा सै तो नाच वे के लाईया अपनी मां नै ई ले आत्ता।
राम्मू बुढ़ऊ के दर्द से वाकिफ हो गया। उसका मन हंसने को किया पर हंसी होठों पर आने से पहले ही रोक ली और बोला- बाप्पू तू चिंता ना कर। समधी अ अभी बुला के तेरे सामने ही जुत्ते मारूं! राम्मो नै समधी को बुलवाया और आंख मार कर उसे बापू के मर्म की कथा सुनाई। कथा सुन कर समधी हंसी नहीं रोक पाया और वह सहज भाव से बोला- चौं रे छोरी के बाब्बा, हमने के बिध तरी जग हंसाई करा दी। देख रिया नी, इबजा हाथी-घोड़न का जमाना ना रिहा! ना अब बरात मै रण्डी-भड़वे चलै सै। बाब्बा इबजा नेता-नेतानियों का जमाना सै। सो तेरी पोत्ती की बरात मै एक दर्जन नेता-नेत्तानी आई सै!
छोरी के ससुर की बात सुन अचंभे से बुढ़ऊ का मुंह फटा रह गया। फिर फटे मुंह और रुंधे गले से वह बोला- के! तेरे कहवे का मतलब जै है तै, इबजा हाथी, बैल घोड़े-गधों की जगह बरात में नेता चलन लगे अर नाचने वालियों की जगह नेतानी! मुस्कराते हुए लड़की का ससुर बोला- हाँ ताऊ! बुढ़ऊ की हंसी छूट गई और हंसते-हंसते बोला- ठीक कहवै है छोरा! या ई लईयां देस का भट्टा बैठ रि या सै! देस पै घोड़े-गधे अर नचनियां जो राज करैं सै।
संपर्क- 9868113044

Thursday, December 20, 2007

धर्म मार्ग ही उत्‍तम अर्थ मार्ग

प्रभाव :- मेरे यह व्यंग्य पढ़ कर न जान कितने सज्जनों ने अर्थ की खातिर धर्म मार्ग अपनाया होगा। कांग्रेस के एक नेता तो मेरे संज्ञान में हैं। व्यंग्य पढ़ कर उन्होंने मुझे फोन पर बधाई दी थी। उसके बाद पता चला कि कुर्ता-पायजामे का त्याग कर नाम के आगे आचार्यश्री लगाया और साधुओं का बाना धारण कर प्रवचन देना शुरू कर दिया है। आज उनके पास दौलत भी है और शौहरत भी। अब बड़े-बड़े नेता आचार्यश्री के पांव छू कर आशीर्वाद लेते हैं। धर्म भी चकाचक, अर्थ भी चकाचक और नेतागीरी भी।

उसने कहां-कहां धक्के नहीं खाए। कौन-कौन से ब्रांड के पापड़ नहीं बेले, मगर अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग प्राप्त करने में वह असफल ही रहा। दरअसल वह कोई सस्ता, सुंदर और टिकाऊ रास्ता चाहता था। ऐसा रास्ता जिसमें अर्थ तो बरसे मगर छप्पर सुरक्षित रहे। काजल की कोठरी से काजल तो समेटे मगर कुर्ता चमकता रहे। इसके लिए उसने सत्यनारायण की कथा भी नियमित रूप से कराई। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के उद्देश्य से उल्लुओं को भी खूब चबेना चबाया। अर्थ प्राप्ति हुई भी हुई, मगर दाग ने पीछा नहीं छोड़ा।
अर्थ प्राप्ति के सुगम व सुरक्षित रास्ते के रूप में उसने पत्रकारिता के पेशे में भाग्य अजमाया। नेताओं की परिक्रमा की उनके लिए दलाली की। अर्थ भी खूब बटोरा, मगर संतोष की प्राप्ति नहीं हुई। एक अज्ञात भय से भयभीत रहा। दलाली करते-करते पत्रकारिता का त्याग कर समाज सेवकी का पेशा अख्तियार किया। वहां भी सेवा की मेवा खूब बटोरी, मगर अज्ञात भय ने वहीं भी पीछा नहीं छोड़ा।
समाज सेवकी से उसने राजनीति के बाजार में प्रवेश किया और नेता बन बैठा। अर्थ की धारा उसकी तरफ और भी तीव्र गति से प्रवाहित होने लगी। मगर कभी पक्ष तो कभी विपक्ष और कभी स्टिंग ऑपरेशन तो, कभी सीबीआई उसे पीछा करते दिखलाई देते रहे।
दाग से कैसे पीछा छुड़ाए, यह प्रश्न बराबर उसे विचलित करता रहा। एक के बाद एक असफलता से हताश कभी-कभी वह सोचता, 'पता नहीं अंधे के हाथ बटेर कैसे लग जाती है? लगती भी है या बिना लगे ही मार्केटिंग कर दी जाती है। मार्केटिंग का फण्डा है ही कुछ ऐसा अपने-अपने अंधों के हाथ बटेर थमा कर उपलब्धि रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी जाती हैं।'
हैरान-परेशान, परेशान मुन्नालाल ने एक दिन एक ही झटके में कुर्ता-पयजामा उतार खूंटी पर टांग दिया और राजनीति के बाजार से अपना कारोबार समेट सुरक्षित किसी नए व्यवसाय की तलाश में लेफ्ट-राइट शुरू कर दी। दोस्तों के सामने अपनी पीड़ा रखी, जन-परिवारजनों के साथ सलाह-मश्विरा किया और अंतत: स्वामी अभेदानंद की शरण में जाने का निश्चय किया। अध्यात्म में उसकी रुचि बालकाल से ही थी, इसलिए उसने सोचा अर्थ प्राप्ति का न सही धर्म मार्ग ही सही। उसका ऐसा फैसला करना स्वाभाविक भी था, क्योंकि एक सीमा तक चूहों का भक्षण करने के बाद परलोक सुधारने के मंशा से बिल्लियां अक्सर तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़ती हैं।
स्वामी अभेदानंद के समक्ष वह चरणागत् हुआ और उद्देश्य निवेदन किया। राजनीति को धर्ममय बनाए रखने के लिए धर्म गुरु व राजनीतिज्ञों के बीच सांठगांठ आवश्यक है। इसी धर्म का निर्वाह करते हुए स्वामीजी ने मुन्नालाल को शिष्य के रूप में ग्रहण कर पवित्र आशीर्वाद से धन्य किया। मुन्नालाल भी पूर्ण समर्पण भाव से उनकी सेवा में लग गया।
उसकी सेवा से प्रसन्न हो कर एक दिन स्वामीजी बोले, 'पुत्र मुन्नालाल! तुम्हारे प्रश्न, तुम्हारी शंकाएं ऐसे छद्ंम ज्ञानियों के समान हैं, जो ज्ञान विहीन होते हुए भी ज्ञानी कहलाए जाते हैं, परंतु तुम्हारे अंतर्मन में धर्म व अर्थ दोनों के बीज सुषुप्त अवस्था में विद्यमान हैं। मैं तुम्हारे बुद्धि चातुर्य और सेवा दोनों से प्रसन्न हूं, अत: तुम्हें अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग बतलाता हूं। पुत्र! अर्थ प्राप्ति का केवल मात्र एक ही सुगम व सुरक्षित मार्ग है और वह है, धर्म मार्ग। केवल धर्म मार्ग ही बिना किसी अवरोध के सीधा कुबेर के आश्रम की ओर जाता है।
स्वामीजी के ऐसे वचन सुन मुन्नालाल हैरान था, उसे लगा कि वह आसमान से गिरकर खजूर पर लटक गया है और स्वामीजी उसे खजूर के पत्ते पर ही दंड-बैठक करने की सलाह दे रहें हैं। वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए बोला, ''स्वामीजी, धर्म मार्ग और अर्थ! धर्म मार्ग तो मनुष्य को मोक्ष प्राप्ति की ओर ले जाता है। अर्थ तो धर्म मार्ग में अवरोध उत्पन्न करता है। पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत भी कुछ ऐसा ही कहता है।''
मुन्नालाल के वचन सुन स्वामीजी मुस्करा दिए और बोले, ''वत्स! अभी तक तुम किसी योग्य गुरु के पल्ले नहीं पड़े हो, तभी ऐसे तुच्छ विचार रखते हो। मोक्ष की ओर नहीं पुत्र! धर्म मार्ग अर्थ की ही ओर जाता है। पुरुषार्थ चतुष्टय का सिद्धांत भी यही प्रतिपादित करता है। अपने मस्तिष्क के साफ्टवेयर को तनिक एक्टिवेट करो और सोचो पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में धर्म के बाद क्या अर्थ नहीं आता? अरे, मूर्ख मोक्ष तो उपरांत में आता है। पुरुषार्थ चतुष्टय सिद्धांत भी यही कहता है, धर्म मार्ग अपना कर अर्थ प्राप्त करो और अर्थ तुम्हें काम व मोक्ष प्रदान करेगा।''
मुन्नालाल बोला, ''मगर गुरुजी! धर्म मार्ग अर्थ प्राप्ति का सुगम व सुरक्षित मार्ग कैसे है?''
स्वामीजी बोले, '' आभामंडल! पुत्र आभामंडल, इसी आभामंडल के कारण कुबेर हमारे यहां पानी भरता है और उसी
के प्रभाव से समूचा जनतंत्र हमारे समक्ष नतमस्तक है। बडे़-बडे़ पूर्व, भूतपूर्व व अभूतपूर्व मंत्रियों से लेकर संतरी तक हमारे समक्ष चरणागत्ं हैं। फिर असुरक्षा का प्रश्न कहां? आभामंडल लक्ष्मण रेखा है, कोई भी दाग उसे लांघ नहीं पाएगा। न आयकर, न सेवाकर, न व्यवसाय कर। बस धर्म मार्ग पर चल और दोनों कर से अर्थ एकत्रित कर। जाओ पुत्र धर्म मार्ग का अनुसरण करो, उसे ही अपना व्यवसाय बनाओ और इस व्यवसाय में 'कॉर्परेट कल्चर' का समावेश करते हुए कुबेर के खजाने का निर्भय पूर्वक उपभोग करो।'
संपर्क – 9868113044

Wednesday, December 19, 2007

लाइलाज बीमारी बासिज्म



जर्मन शैपर्ड पिल्लू सिंह मुन्नालाल के परिवार का एक प्रमुख सदस्य है। मुन्नालाल दरअसल जीव प्रेमी है। श्रीमती मेनका गांधी उसकी प्रेरणा स्त्रोत हैं। पिल्लू सिंह को उसने कुत्ते के रूप में पाला था। मगर व्यवहार व सदगुणों के कारण मुन्नालाल के परिवार के आदम सदस्य आज उसे कुत्ता कहना अपनी हिमाकत समझते हैं। क्योंकि उसे कुत्ता कह कर संबोधित करना उसका अपमान मानते हैं।
पिल्लू सिंह वास्तव में एक पारिवारिक जीव है। वह स्वयं भी उसी प्रकार व्यवहार करता है, जिस प्रकार परिवार के अन्य सदस्य। हां, कभी-कभी आदम सदस्य अवश्य परिवार विरोधी हरकतें कर बैठते हैं, यह उनकी आदमीय कमजोरी है। उसे आदम प्रकृति भी कहा जा सकता है, मगर मजाल कि पिल्लू सिंह कभी किसी तरह की ओछी हरकत करते देखा गया हो! इसकी वजह उसका परा-आदम स्वभाव है और यही स्वभाव आदम व जीवों में अंतर करता है।
मनुष्यों के समान उसकी भी अपनी इच्छाएं हैं और उन्हें व्यक्त भी करता है। मगर शालीनता के साथ। जब कभी उसे लघु या दीर्घ किसी शंका के निवारण की आवश्यकता महसूस होती है तो वह अपनी पीठ परिवार के आदम सदस्यों के शरीर से रगड़ने लगता है। भूख-प्यास परेशान करने लगे तो चेहरे पर तरह-तरह की आकर्षक मुद्राएं उतारने लगता हैं, दुम हिलाने लगता है। दुम हिलाने का यह सदगुण मनुष्य ने शायद पिल्लू सिंह की प्रजाति के जीवों से ही ग्रहण किया है।
सदगुण किसी से भी ग्रहण किया जाए, हर्ज की बात नहीं है। मगर उसका दुरुपयोग गलत है और मनुष्य दुम हिलाने के इस सद्ंगुण का खुला दुरुपयोग कर रहा है,यह घातक है। गनीमत है कि दुम हिलाने संबंधी इस सदगुण का पेटेंट करने का फितूर अभी तक मनुष्य के दिमाग में नहीं उठा है। वरन् बेचारे पिल्लू सिंह के भाई-बिरादर बस दुम लटकाए ही घूमते। दुम का भार वे सहन करते और हिलाया करता मनुष्य। मनुष्य यदि पेटेंट करा लेता है तो यह संपूर्ण जीव जगत के अधिकारों पर कुठाराघात होगा। मेनका जी को अभी से इसके प्रति सचेत रहना चाहिए।
पिल्लू सिंह न केवल अपनी इच्छाएं व्यक्त करने में शालीनता का निर्वाह करता है, अपितु आदेश-निर्देश देते समय भी शालीनता का पालन करना उसकी प्रकृति में शामिल है। सुबह जब हॉकर अखबार डालकर चलने लगता है, तब पिल्लू कुंई-कुंई कर मेरे तलवे चाट कर मुझे जगाता है तब मुझ लगता कि जैसे मधुर स्वर में कह रहा है 'बीती विभावरी जाग री अंबर पनघट में डुबो रही तारा घट ऊषा नागरी। तू अब तक सोया है, मतवाले! अखबार फेंक गए अखबार वाले।'
आदम-जात ने तलवे चाटने का गुण भी उसी की पारिवारिक विरासत से चुराया है, मगर वह उसका भी दुरुपयोग कर रहा है।
मेरे साथ ही नहीं, अपनी मम्मी यानी के मेरी पत्‍‌नी व पुत्रों के साथ भी उसका व्यवहार सद्ंभावना से परिपूर्ण ही रहता है। पड़ोस में गप्पें करते-करते पत्‍‌नी यदि कभी समय सीमाओं का उल्लंघन कर देती है तो वह मेरी तरह नहीं चिल्लाता 'अजी कहां हो, मुन्ना जाग गया है। देखों दूध में उबाल आ गया है, जल्दी आओ नहीं तो पतीली से बाहर आ जाएगा।'
मुन्ना सोया ही कब था, जो जागेगा। दूध तो मदर डेयरी से घर तक आया ही नहीं, फिर उबाल क्या रीते पतीले में आएगा। मगर ऐसा ही होता है। मुन्ना बिना सोए ही जाग जाता है और दिल में उठा उबाल रीते पतीले के दूध में उठने लगता है। यह भी आदम स्वभाव है।
इसके विपरीत पिल्लू भाई, शालीनता के साथ अपनी मम्मी का पल्लू पकड़ घर ले आता है। शायद इस भाव के साथ, 'बहुत देर हो गई है, घर चलो, नहीं तो पापा के रीते पतीले में उबाल व तूफान दोनों एक साथ उठने लगेंगे'
चीखने-चिल्लाने से शायद उसे नफरत है, इसलिए वह कभी नहीं चिल्लाता। घर का कोई आदम सदस्य कभी चिल्लाता भी है, तो उसकी आंखें आंसुओं से भर जाती हैं और चिल्लाने वाले सदस्य के पैरों में लेट जाता है, शायद इस भाव के साथ, 'अरे, भाई! चिल्लाओ मत, मेरा सिर फटता है। आदम जात में यही सबसे बड़ा दोष है कि चिल्लाते बहुत हैं। पता नहीं सहज भाव से अपनी बात कहना हमसे कब सीखेंगे। अरे, बरखुरदार! चीखने-चिल्लाने की अपेक्षा अपनी बात सहज-भाव से ज्यादा अच्छी तरह समझाई जा सकती है।'
पिल्लू सिंह को लेकर मुन्नालाल आज-कल काफी चिंतित है। चिंता का कारण है, उसके व्यवहार में आदम-जात गुणों की घुसपैठ। उसके स्वभाव में यह परिवर्तन अचानक दृश्यमान होने लगा है। शालीनता उसके स्वभाव से इस तरह गायब होती जा रही है, जिस तरह सरकारी दफ्तरों से ईमानदारी। अपनी इच्छा-अनिच्छा अब वह सहज भाव से नहीं, चिल्ला-चिल्ला कर व्यक्त करने लगा है। पड़ोसी कहने लगे हैं, अब तो आपका पिल्लू भी भौंकने लगा है। भौंकने-चिल्लाने में भी पिल्लू सिंह की मंशा वही पुरानी है, बस लहजे में बदलाव आया है।
चिंतित मुन्नालाल ने उसके बारे में जाने माने मनोविश्लेषक से परामर्श ली, तो उसकी चिंता महंगाई की तरह विस्तार को प्राप्त हो गई। परीक्षण के बाद मनोविश्लेषक ने बताया, 'पिल्लू सिंह आदम स्वभाव से संक्रमित है, मगर उसका चिल्लाना और भी ज्यादा घातक बीमारी 'बासि़जम' का लक्षण है। बासि़जम के लक्षण जब जीव की प्रकृति बन जाते हैं, तब किसी भी तरह के प्रशिक्षण से इलाज असंभव हो जाता है। मुन्नालाल जी, आपके परिवार के बीच रहते-रहते चिल्लाना उसका स्वभाव नहीं प्रकृति बन गई है। किसी भी जीव का स्वभाव तो बदला जा सकता है, प्रकृति नहीं।'
मनोविश्लेषक से मिलने के बाद मुन्नालाल किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया है। आखिर वह करे भी तो क्या करे। पहले आफिस में बॉस और घर में पत्नी की ही कर्कश आवाज झेलनी पड़ती थी अब कमबख्त पिल्लू सिंह के डायलॉग भी उसी तर्ज पर सुनने पड़ रहे हैं। मुन्नालाल आखिर जाए तो कहां जाए? आप कोई सुझाव सुझा सकें तो अति कृपा होगी।
फोन-9868113044

Monday, December 17, 2007

कॉलगर्ल संस्कृति और उदारीकरण


आजकल समाचारों में बाजारों में, सत्ता के गलियारों में कॉलगर्ल छाई हुई हैं। उन्मुक्त रूप से टपक रहीं हैं, जैसे चमन के अंगूर, इलाहाबाद के अमरूद, कंधार के अनार, देहरादून की लीची और मलिहाबाद के आम। मांग भी भरपूर, आमद भी चकाचक। दलाल स्ट्रीट में रौनक, सेंसेक्स का ग्राफ आसमान की ओर, आखिर माजरा क्या है?
कॉलगर्ल शब्द कानों में पड़ते ही मुन्नालाल ने मुंह ऐसे बनाया मानो दशहरी आम चूस रहा हो। प्राकृतिक रूप से मुंह में उत्पन्न रस को पेट के अंदर धकेलते हुए वह बोला, ' इसमें आश्चर्य की क्या बात है, यह तो मांग व आपूर्ति का सिद्धांत है। आपूर्ति के नए-नए क्षेत्र तलाश करो, बाजार में माल फेंकों तो मांग खुद-ब-खुद बढ़ जाएगी। देख नहीं रहे हो कॉलगर्ल का बाजार अब पहले की तरह सीमित नहीं रहा है। सत्ता के गलियारों में इस प्रोडक्ट को एक नया बाजार मिला है। नेता से अफसरशाह तक, वार्ताकार से पत्रकार तक अर्थात सत्ता से जुड़ा प्रत्येक व्यक्ति अब इसका मुरीद हो गया है। संभ्रांतों की भीड़ में शामिल होने की इच्छा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति का यह प्रोडक्ट स्टेटस सिंबल हो गया है।'
मुन्नालाल का यह दृष्टिंकोण बाजारवादी था अर्थात व्यावसायिक था, मगर समाज के प्रत्येक क्षेत्र में उनके बढ़ते इस वर्चस्व का आखिर कारण क्या है, हमारे चिंतन का यही विषय था। हमारे चिंतन के विषय पर गौर फरमाते हुए चिंतनधर्मी मुसद्दीलाल बोले कुछ खास कारण नहीं, बस संस्कृति करवट बदल रही है। कालगर्ल और संस्कृति, मुसद्दीलाल का यह गठजोड़ी समीकरण सुन हमारा मुंह चील के घोंसले की तरह फटा रह गया। कालगर्ल और संस्कृति का यह गठजोड़ हमें वामपंथी व दक्षिणपंथियों के बीच गांठ लगे गठबंधन सा लगा। संस्कृति की करवट बदल सलवटें सुलझाने का असफल प्रयास करते-करते हमने पूछा, 'क्यों चचा, यह संस्कृति का करवट बदलना कैसे?'
करवट बदल चचा ने जवाब दिया, 'सांस्कृतिक विरासत का इतना भी ज्ञान नहीं, बरखुरदार! अरे भइया, देव-युग में इंद्र की अप्सराओं के चर्चे क्या नहीं सुनी? मध्ययुगीन विष कन्याओं के किस्से-कहानी भूल गए, देव-दासियां, नगरवधू कुछ तो याद होगा? इतिहास का थोड़ा-बहुत तो ज्ञान होगा? कॉलगर्ल उसी विरासत का आधुनिक स्वरूप है। मुन्ना! धरा पर इंद्रलोक अर्थात स्वर्ग उतर रहा है। देवकाल का अवतरण हो रहा है।'
चचा के देव-विचार हमारे जहन में कॉलगर्ल की मुस्कान से छा गए और संस्कृति के साथ-साथ हम भी करवट बदल गए। हमने महसूस किया कॉलगर्ल के सामाजिक-धार्मिक धंधे में कानून के बैरिकेड स्वर्ग अवतरण में बाधा डाल रहे हैं। संस्कृति के विकास में रोड़े अटका रहें हैं और आर्थिक विकास का मार्ग का अवरुद्ध कर रहे हैं। बैरिकेड हटा दिए जाने चाहिए। संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकारों के तहत लाइसेंस प्रदान कर दिए जाने चाहिए।
वे तुच्छ मानसिकता के लोग हैं, जो कॉलगर्ल संस्कृति को अपसंस्कृति बताकर उसकी आलोचना करते हैं। कॉलगर्ल को 'कालगर्ल' कहना उनके प्रति अन्याय है। कॉलगर्ल काल रूप नहीं, जीवन हैं, जीवन की ऊर्जा हैं। चाणक्य काल में भी इन अप्सराओं के साथ ज्यादती हुई। अमृत कन्याओं को विषकन्या नाम देकर उनके साथ अन्याय किया गया। ये काल-गरल नहीं, मधु-कन्याएं हैं।
राष्ट्र के विकास में उनके योगदान को नकारा नहीं, सराहा जाना चाहिए। जहां राजनीति फेल हो जाती है, कूटनीति चूक जाती है और 'अर्थ' अर्थहीन हो जाता है, वहां ये संस्कृति-महिलाएं ही तो चुटकी बजाकर चुटकी में कार्य पूर्ण कराती हैं। न जाने कितने नेता उनकी पूंछ पकड़ कर राजनीति के एवरेस्ट पर ध्वज फहरा रहें हैं और न जाने कितने नेता उन्हीं की पूंछ के सहारे फतह की आश में सांस रोके मंजिल की ओर गतिमान हैं।
संस्कृति के प्रवाह को कौन रोक पाया है, भला। संस्कृति को सीमाओं में कौन बंध पाया है। वे लोग प्रतिक्रियावादी हैं जो कालगर्ल संस्कृति को वेश्याकरण का नाम देते हैं। वेश्याकरण नहीं, यह उदारीकरण के दौर में संस्कृति का वैश्वीकरण है। नगरवधू की सीमाओं के बंधन लांघ यह राष्ट्रवधू और अंतरराष्ट्रीय-वधू का युग है। संस्कृति की प्रगति की राह से बैरिकेड हटाओ वसुधैव कुटुंबकम् के सिद्धांत को चरितार्थ होने दो। अ‌र्द्धवस्त्रा को निर्वस्त्रा होने दो 'नारी की पूजा-देवताओं का वास' का आदर्श साकार होने दो। संस्कृति करवट बदल रही है, उसे करवट बदलने दो।
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Sunday, December 16, 2007

महंगाई ने गरीब की ही तो प्रतिष्ठा बढ़ाई है



           
       पता नहीं क्यों लोग महंगाई का नाम सुनकर ऐसे बिदकते हैं, जैसे लाल कपड़े को देखकर सांड़। विचार कीजिए जन्म से मृत्यु तक, रसोई से दफ्तर तक, पनघट से मरघट तक महंगाई ही तो मनुष्य का साथ देती है। महंगाई सर्वागनी है, अंग-अंग वासनी है, कण-कण व्यापनी है। हरदम साथ चिपके रहने वाली प्रेयसी के समान है। महंगाई न हो तो सब कुछ बेकार सा लगता है। जीवन निराश सा प्रतीत होता है। पैसा हाथ का मैल है। महंगाई डिटर्जेट है, हाथ साफ करती है। 'पानी बाढ़े नाव में घर में बाढ़े दाम दोनो हाथ उलीचये यही सज्जन को काम।' महंगाई घर में दाम बढ़ने ही नहीं देती, इस प्रकार उलीचने के कष्टदायक कर्म से बचाती है। मनुष्य को सज्जन बनाती है। पैसा मनुष्य को अहंकारी बनाता है, उसमें माया-मोह उत्पन्न करता है। मनुष्य का पतन करता है। महंगाई मनुष्य को निरहंकारी बनाती है। मनुष्य को पतन से आत्मिक-उन्नति के मार्ग पर अग्रसर करती है।
महंगाई सरकार की माया है। माया सरकार की हो अथवा ईश्वर की दोनों ही अपरंपार हैं। सरकारें बदलती रहती हैं, महंगाई ज्यों की त्यों जमी रहती है। सरकार रामलाल की हो या मुन्नालाल की महंगाई हमेशा विद्यमान रहती है। सभी कुछ परिवर्तनशील है, केवल परिवर्तन और महंगाई के अलावा। महंगाई ही सत्य है, शेष सभी असत्य।
जब कभी महंगाई का जिक्र होता है, अपना मन ईलु-ईलु करने लगता है, प्रफुल्लित हो जाता है। जब कभी सुनता हूं, प्याज फुदकने लगी है, आलू चढ़ने लगा है, दाल उछलने लगी है, तब-तब मेरा मन भी बल्ली की ऊंचाई से उछलने लगता है। महंगाई के बढ़ने से मुझे आत्मिक-सुख प्राप्त होता है। मंदे जमाने में कटोरे भर-भर दाल पीने के बाद भी मैं हीन भावना से ग्रस्त रहता था। मुर्गमुसल्लम खाने वालों के सामने तेवर ढीले करके चलता था। क्योंकि तब घर की बीमार मुर्गी की तुलना गरीब की दाल से की जाती थी।आज गरीब की दाल मुर्गी के सिर पर बैठी है। आज जब कभी भी दाल के पानी में रोटी का टुकड़ा भिगोने का सुअवसर पाता हूं, हीन भावना का नहीं गर्व का अहसास करता हूं।
एक जमाना था, जब आग पर भुने आलू खा कर पेट की आग बुझाता था, तब स्वयं को गरीबी रेखा के नीचे पाता था। आज जब आलू के झोल से रोटी सटकता हूं, तो लग्जूरिअस लाइफ जीने का अहसास करता हूं।
मंदे जमाने में निगाह नीची कर प्याज और नमक के साथ रोटी सटकता था। महंगाई के कारण उस कष्टकारी सटकने से अब निजात मिल गई है। क्योंकि प्याज अब सटकने की नहीं, सजाने की वस्तु है, इसलिए उसे ड्राइंग रूम में सजाता हूं। उसे देख-देख कर अमीर होने का अहसास करता हूं।
महंगाई बढ़ा कर सरकार ने गरीब को इज्जत बख्शी है। आलू, प्याज, दाल को अमीर की डाइनिंग टेबुल तक पहुंचा कर गरीब के खाजे को ही तो प्रतिष्ठा दिलाई है। सरकार की सकारात्मक दृष्टिं से विचार करें तो महंगाई ने गरीब ही की तो प्रतिष्ठा बढ़ाई है!
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Saturday, December 15, 2007

सेक्सी युग की सेक्सी संस्कृति


हमारा पौत्र तीन वर्ष का जवान है। उम्र से कहीं ज्यादा बन-ठन कर रहता है। उसकी माँ को उसे नहलाने, कपड़े बदलने, परफ्यूम लगाने व कंघी आदि करने के लिए वैसे हाय-तौबा नहीं करनी पड़ती, जैसी की हमारी माँ को बचपन में हमारे साथ करनी पड़ती थी। हमारी हालत तो ऐसी थी कि जब कभी हमारी माँ नहलाने के लिए हमें पानी भरी बाल्टी के पास ले जाती थी। हमें लगता था कि कसाई किसी निरीह गाय को बूचड़खाने ले जा रहा है। नहाने से पहले ही हम रौ-रौ कर कम से कम मुंह तो आंसुओं से ही धो डालते थे। अब हालात बदल गए हैं। हमारी बहू को पुत्र-स्नान से पूर्व की चिल्ल-पौं सुनने की जहमत नहीं उठाने पड़ती, क्योंकि हमारा पौत्र आंख खुलते ही नित्य-नैमेतिक कर्म कराने के लिए अपनी माँ को मजबूर कर देता है।
एक दिन हमारे एक मित्र पत्नी सहित दोपहर के भोजन पर घर पधारे। उनकी पत्नी ने हमारे पौत्र को देखा और उसकी ओर आकर्षित हुई। उसे उन्होंने गोद में बिठाया और बतियाने लगी। बतियाने के इस क्रम में उन्होंने पौत्र से पूछा- बेटे बड़े होकर क्या बनोगे। पौत्र ने बिंदास जवाब दिया, ''सैक्सी!'' उसकी हाजिर जवाबी और जवाब सुनकर हमारा व पत्नी सहित मित्र का चेहरा कंडोम के विज्ञापन वाले उस ड्राइवर की तरह लटक गया, जिसे उसके साथी 'कंडोम' बिंदास बोलने के लिए प्रेरित करते हैं। इसके साथ ही क्षण भर के लिए ड्राइंगरूम में सन्नाटा छा गया। इसी बीच उनकी पत्नी उठ कर रसोई की तरफ चली गई और चेहरे की सुर्खी कुछ कम करते हुए मित्र बोले- मुन्नालाल जी आपके पौत्र का सौंदर्य बोध गजब का है।
हम बोले- हाँ! कमबख्त शाहरुख खान का फैन है। जब से उसने टीवी पर देखा है, शाहरुख खान सैक्सी नंबर वन घोषित हुआ है, उसी दिन से इसने सैक्सी बनने की ठान ली है। पहनने के लिए सैक्सी कपड़े चाहिए, खाना भी सैक्सी होना चाहिए, खिलौने के लिए भी सैक्सी-सैक्सी की रट लगाए रहता है। चेहरे पर निराशा के भाव ओढ़ कर हम आगे बोले- क्या बताएं, जनाब! दुनिया के सुपुत्रों की तरह इसका सौंदर्य बोध भी पालने में ही नजर आने लगा था। कमबख्त हर एक महिला की गोद में खेलना पसंद नहीं करता था। जब कभी रोता था, तो पड़ोसन को बुलाना पड़ता था। उसकी गोद में जाकर कहीं भैरवी-राग आलापना बंद कर सौ जाता था। हम सोचते रहे कि पुनर्जन्म के संस्कार हैं, मगर अब पता चला कि पड़ोसिन हमारी खूबसूरत है, सैक्सी लगती है, इसलिए ही उसे पसंद थी। दादी को तो उसने पालने की उम्र में ही रिजेक्ट कर दिया था। न तब उसकी गोद में जाता था और न ही अब उसके आसपास फटकता। राज पर से पर्दा अब उठा, दरअसल हमारी बुढि़या उसे सैक्सी नहीं दीखती। हाँ! एक दिन जरूर उसने दादी की अंगुली पकड़ी थी। उस दिन शादी में जाने के लिए उसने बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम वाली कहावत चरितार्थ की थी। उस दिन साहबजादे बोले थे- दादी अम्मा आज तो बड़ी सैक्सी-सैक्सी लग रही हो। हमारे पौत्र की कैफियत सुनकर मित्र बोले- अच्छा है! आगे-आगे सैक्स और सैक्सी लोगों का ही सेंसेक्स आसमान छूएगा। हम जैसे रसहीन चेहरों का सेंसेक्स तो उतार पर ही है।
भोजन कर मित्र व उनकी पत्नी चली गई, लेकिन पौत्र ने हमें उलझा दिया। हम तभी से सेक्स-संस्कृति के संबंध में सोच रहे हैं- कितनी सेक्सी-सेक्सी हो गया है जमाना। राजनीति सेक्सी, समाज सेक्सी, शिक्षा सेक्सी, व्यापार सेक्सी! कौन सा क्षेत्र है, जहां सेक्स का वर्चस्व नहीं है! सेक्स धर्म है, सेक्स कर्म है, सेक्स मोक्ष प्राप्ति का सुगम मार्ग है। 21 वीं सदी के अन्त तक केवल सेक्स शेष रह जाएगा, बाकी सभी गौण। तब सेक्स मूल्यों के साथ सेक्स-प्रधान होगी संस्कृति! हम सेक्स के सुनहरी भविष्य की कल्पना में डूबे थे, तभी हमारा पौत्र हमारे पास आया और तोतली जुबान में गुनगुनाने लगा- दे दे चुम्मा, चुम्मा दे दे..! शायद किसी फिल्म का गीत है।
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Friday, December 14, 2007

गुड डील नहीं गुड फील चाहिए

''अमेरिका के साथ परमाणु-डील किसी भी दृष्टिंकोण से व्यावहारिक नहीं है। न पार्टी हित में है, न सरकार हित में और न ही बैसाखी-दलों के हित में। जहाँ तक प्रधानमंत्री जी का सवाल है, इस डील के बाद से मोहनी सूरत पर व्याप्त उदासी चिल्ला-चिल्ला कर हाल-ए-दिल खुद-ब-खुद ही बयान कर रही है। बेचारे अपना डील-डोल भुला डील कर बैठे।'' राजनीति के मर्मज्ञ लाल बुझक्कड़ जी परमाणु डील पर अपना व्याख्यान झाड़ रहे थे। हम अपना राष्ट्रवादी-चिंतन लिए जनता की तरह चुप सुन रहे थे। हमारे राष्ट्रवाद ने मौसमी अंगड़ाई ली और हम बोले- मगर राष्ट्र-हित में तो है! लाल बुझक्कड़ खिलखिला कर बोले- कैसी दकियानूसी बातें करते हो! राष्ट्र को गुडफील चाहिए, गुड डील नहीं! राष्ट्रहित में होता, तो वामपंथी क्यों विलाप करते। कहीं तुम्हें उनके राष्ट्रवादी होने पर शक तो नहीं? अंगरेजी राज से लेकर आज तक उनसे बड़ा, क्या कोई राष्ट्रवादी हुआ है? ..कोई नहीं, इतिहास गवाह है!
वे आगे बोले- सुनों बरखुरदार! प्रधानमंत्री अल्पमत में बहुमत के ख्वाब देख बैठे। डील करने से पहले कनस्तर के दाने तो गिन लेते। ''घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने'' वाली कहावत चरितार्थ कर दी, तुम्हारे प्रधानमंत्री ने। जब दाने ही नहीं थे, तो भड़भूजा क्या अम्मा का सिर भूने। प्रधानमंत्री जी जब जानते हैं कि जनता ने पार्टी को खण्डित जनादेश दिया है, फिर कुलांचे भरने की क्या जरूरत थी। अरे, भाई बैसाखियों के सहारे कुलांचे भरोगे, तो गिरोगे ही। उन्हें ''जैसा तेरा नाचना-गाना, वैसा मेरा वार-फेर'' के सिद्धांत का पालन करना चाहिए था। ऐसा करते तो कम से कम पांच वर्ष सुखी जीवन व्यतीत कर लेते। जनता ने उन्हें सत्ता-सुख भोगने का आदेश दिया था। वे काम में वक्त जाया करने लगे। बरखुरदार! हमारी धर्म-संस्कृति में 'काम' से दूर रहने की हिदायत दी गई है। काम में लिप्त हो जाओगे तो पतन निश्चित है।
हमें लगा चचा लाल बुझक्कड़ के सामने तर्क पेश करना, वामपंथियों के साथ सिर खपाने के समान है, अत: हम मौन बने रहे।
चचा ने मुख पर कुछ इस प्रकार गंभीर भाव उतारे मानों किसी रहस्य पर से परदा उठा रहे हों। फिर बोले- गठबंधन सरकारें काम करने के लिए नहीं, काम का शोर मचाने के लिए हुआ करती हैं। गुड़ भले ही न दे, मगर गुड़ जैसी बात करने के लिए होती हैं। इन्हें भी गुड़ बांटे बिना गुड़ का अहसास कराना चाहिए था। बातों ही बातों में जनता को गुडफील कराना चाहिए था। अब देखो न! अपने बाजपेयी जी कविता सुना-सुना कर मस्ती में पांच साल काट गए। उनका अनुसरण करते तो रात के अंधेरे में भी सन-साइन का अहसास होता। बैठे-बिठाए दिन में तारे न गिनने पड़ते। जनता को गुडफील कराने के लिए देश में मुद्दों की कमी थोड़े ही है। अरे, भाई कुछ न मिला था, तो गरीबी हटाने के परंपरागत मुद्दे को ही उठा लेते। टका एक खर्च न करते, बस शोर मचाते। वोटर खुश हो जाता, मुद्दा ज्यों का त्यों बचा रह जाता, अगली बार फिर काम आ जाता। गरीबी से रंजिश थी तो प्याज को ही मुद्दा बना लेते। लालकिले से प्याज के दाम घटाने की घोषणा कर देते। सीधा जनता-जनार्दन से जड़ा मुद्दा था। सरकारों को जब कुछ नहीं मिलता, तो महंगाई बढ़ा कर, महंगाई का ही मुद्दा उठा लेती हैं। चार आने बढ़ाती है, एक आना कम कर देती है। चारों ओर गुडफील-गुडफील हो जाती है। महंगाई को तो सत्ता के भवसागर से पार उतरने के लिए गाय की पूंछ समझो।
बस और कुछ भी नहीं एक अनुभव का टोटा है। व्यक्ति वही जीनियस कहलाता है, जो दूसरों को ठोकर खिलाकर खुद अनुभव का लाभ उठाले। कोई नहीं मिला था, तो राव साहब के अनुभव से सीख ले सकते थे। न डील, न फील मौनी बाबा बनकर ही पूरे पांच साल सरकार चला गए। उनमें समर्पण-अर्पण दोनों भाव थे। देश और जनता के प्रति समर्पित और सहयोगियों के प्रति अर्पित। कहने वाले घोटाले-बाज कहते रहे। वे गए तो क्लीन चिट लेकर गए। समर्पण-अर्पण का भाव उनसे सीख लेते तो आज संघी भाइयों के कटाक्ष न सुनने पड़ते। वामपंथियों के नखरे न सहने पड़ते। अमेरिका के साथ डील करनी ही, तो भइया ब्ल्यू-लाइन डील कर लेते। डील की फील भी हो जाती और वामपंथी भी जुबान न खोलते।

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