Wednesday, January 30, 2008

गांधी की प्रासंगिकता


दिनांक 30 जनवरी, रात्रि के ठीक 12 बजे,
मुन्ना लाल ने जा जगाया बापू को।
बापू! ओ-बापू, नेक करवट तो बदल, बापू! मुन्नालाल ने टेर दी।
बापू ने आंखों पर से पलकों का परदा उठाया। खकारा और जीर्ण-शीर्ण धोती का पल्लू संभाला।
फिर बोला- पुत्र! इस वक्त?
मुन्नालाल फुसफुसाया- आज तुम्हारा श्राद्ध है, बापू।
इसमें नया क्या है? हर रोज ही तो मनाया जाता है! कुत्ते हलवा-पूरी खा रहे हैं। मेरे श्राद्ध के नाम पर ही तो। ..बेमतलब की बात! जगा तो ऐसे दिया, मानो आधी रात को फिर कोई 'बुद्ध' मुस्करा दिया हो! बापू ने झुंझलाते हुए कहा।
नहीं बापू! ऐसा नहीं है। बापू के तेवर भांप मुन्नालाल ने सुर नीचा किया और फिर बोला-मैंने सोचा था सुबह होते-होते तो तेरे भक्त आ घेरेंगे तुझे, इसलिए यही वक्त उचित लगा मन-तन की दो बातें करने के लिए।
बापू ने कहा, हूं! तो आ बैठ।
बापू के चरणों में बैठ मुन्नालाल बोला, 'क्यों बापू! क्या लोकतंत्र की पुनर्समीक्षा..?'
मुन्नालाल अपनी बात पूरी कर पाता तभी खड़ा हो स्साले! की आवाज के साथ रायफल की बट उसकी कमर पर पड़ी। मुन्नालाल बिलबिला उठा। तब तक बापू भी अपनी धोती संभाल सावधान की मुद्रा में आ चुका था।
मुन्नालाल की चीख और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार वाले अनुच्छेद में निहित भाषा सुन बापू फौरन भांप गया, 'लोकतंत्र का कोई प्रहरी आ धमका है।'
मुन्नालाल का पक्ष लेते हुए बापू बोला-महाशय! यह मेरा अनुचर है। मुझ से दो बातें करने आया था, श्रद्धांजलि के रूप में सरकारी संपत्ति नष्ट करना का इरादा नहीं है, इसका। मुझे भी कोई खतरा नहीं है इससे, आप निश्चिंत रहे।
मूछों पर हाथ फेर सिपाही बोला- अच्छा एक नहीं दो-दो, तू कौन है बे!
मैं-मैं ऽऽऽऽ! मुझे नहीं पहचाना? बापू ने रिरयाते हुए कहा।
सिपाही बोला, 'हां! तू त्तो ऐसे ही गांधी का सगा भतिज्जा से? अरे, चूक है गई तुझे ना पिछान्ना। चलो सोहरों, दोन्नों दरोग्गा जी के पास चलो, भूल सुधार वां ही हो जाग्गी।'
बापू ने विनय भाव से फिर कहा, जनाब मेरी बात मानो, यकीन करो मैं ही तो गांधी हूं, महात्मा गांधी!
सिपाही बोला- हां, स्साला! इस देश का तो हर तीसरा आदमी गांधी है या फिर गांधी का चेल्ला। हवालात में एक रात काटेगा, बस गांधी बनने का सारा भूत उतर जागा।
सिपाही ने दोनो की कलाई थामी और जा पहुंचा थाने।
कुर्सी पर पद्मासन लगाए दरोगा निर्लिप्त भाव से गांधी छाप नोटों पर उंगलियां चलाने में मगन था। सिपाही ने दरोगा के हुजूर में सलाम ठोका। समाधिस्थ दरोगा का ध्यान भंग हुआ।
मौलिक अधिकार की भाषा का सटीक इस्तेमाल करता हुआ दरोगा सिपाही पर चिल्लाया- अबे ओ भूतनी के, किन कंगालों को पकड़ लाया?
मंजन के विज्ञापन की तरह दांत निपोरता सिपाही बोला, साहब ये दोनो गांधी समाधि से पकड़े हैं। बूढ़ा अपने आप को गांधी बताता है!
दरोगा ने गांधी छाप टकसाल जेब में ठूंसी और गधे की तरह आसमान की तरफ मुंह फाड़ते हुए बोला, सालो पर रख दे देसी कट्टा, ठूंस दे हवालात में। सुबह खबर लेंगे।
बापू ने अंतिम प्रयास किया- जनाब जरूर कोई गलत फहमी हुई है। मैं गांधी ही हूं, जनाब, मोहन दास वल्द करम चंद। जनाब, वही गांधी जिसकी हत्या गोडसे ने की थी। चाहे तो दीवार पर टंगे फोटो से मेरी शक्ल का मिलान कर लो।
दरोगा बोला, ठीक है! मान लेता हूं, तू ही गांधी है। मगर किस ने सलाह दी थी दीवार से उतर कर जमीन पर आने की। दीवार से उतरने की हिमाकत की है तो सजा भी भुगत और कुछ नहीं तो अपना वायदा ही पूरा कर।
बापू बोला- कैसा वायदा, जनाब?
भूल गया! दरोगा आगे बोला- दीवार पर टंगा फोटो यदि तेरा ही है तो फोटो में पंजा भी तेरा ही होगा?
बापू बोला हां, जनाब!
दरोगा ने हाथ फैलाते हुए कहा- ठीक है तो फिर ला! हाथ पर अपने फोटो वाला नोट रख। तेरा वायदा भी पूरा हो जाएगा, नोट जेब में रहेगा तो तेरी शक्ल भी याद रहेगी।
बापू बोला- मगर जनाब! मैने तो जीते जी भी कभी नोटों के हाथ नहीं लगाए, अब तो बात ही अलग है।
दार्शनिक अंदाज में दरोगा बोला- यही तो तेरी भूल थी। अपने भक्तों की तरह यदि तू भी आजादी को कैश करता तो कोई भी गोडसे तेरी हत्या न करता! मरने के बाद तेरी आत्मा नीलाम न होती और न ही इस तरह रात हवालात में काटनी पड़ती। पकड़ा जाता भी यदि कभी तो नोट दे कर छूट जाता। अपने भक्तों की तरह एक के बाद एक घोटाले करने पर भी ईमानदार कहलाता। नोट नहीं तो कोई बात नहीं हवालात में रह, सुरक्षित रहेगा। यहां कोई भी गोडसे तुझे घायल तक नहीं कर पाएगा।
दरोगा ने इशारा किया। सिपाही ने हुकुम बजाया और दोनो को हवालात में डाल दिया। गांधी और गांधी के अनुचर ने पूरी रात हरि कीर्तन कर गुजारी।
भोर हो चुकी थी। गांधी की आत्मा हवालात में कैद थी और आत्मविहीन समाधि पर देश के कर्णधार श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे।
थाने में बैठा दरोगा गांधी की प्रासंगिकता पर मंथन कर रहा था। 'एक भी नोट नहीं कमबख्त की जेब में। जमानत के लिए भी कोई नहीं आया। कितना अप्रासंगिक हो गया है, बेचारा।'
दूसरी तरफ नेता भाषण झाड़ रहा था- बापू आज भी प्रासंगिक है। उसका सिक्का आज भी लुढ़क रहा है। लाठी में आज भी दम है उसकी। बकरी भी जवान है। दूध भी उसका सूखा नहीं। क्योंकि बापू आज भी प्रासंगिक है!
भाषण समाप्त हुआ नेता घर पहुंचा। घर पर दरोगा मिला। पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते हुए दरोगा बोला, सरकार गलती हो गई। आज नौकरी बचा लो माई-बाप।
नेता बोला अबे, रिरयाता ही रहेगा या कुछ बकेगा भी, चोट्टी के।
सरकार वचन दो नौकरी नहीं जाने दोगे! दरोगा ने कहा।
नेता बोला- ठीक है, ठीक है बक तो सही।
जनाब गलती हो गई, वो है ना कमबख्त सिपाही राम सिंह, बापू और उसके चेले को पकड़ लाया। मेरी आंख पर भी पट्टी बंधी थी।
वक्त खराब था सरकार, बापू को हवालात में डाल दिया। सरकार गलती हो गई।
दरोगा की बात सुन नेताजी अवाक रह गए। कड़कती ठंड में भी गंजी चांद पसीना-पसीना हो गई। पसीना पोंछा, फिर कुछ सोचा और उछल पड़ा, अंधे के हाथ बटेर लग गई हो जैसे।
फटे होंठ कान तक खींच कर बोला- अरे दरोगा कमाल कर दिया, तूने। तेरा तो मुंह चूमने को मन करता है।
पतझड़ की सी लता की तरह दरोगा हवा में झोंके खाने लगा।
नेताजी ने दरोगा को तसल्ली दी। घबरा मत तेरी नौकरी नहीं तुझे तो पद्मश्री दिलाऊंगा हां, पद्मश्री। मगर कुछ ऐसा करना, रिहा न हो पाए बापू।
बात दरोगा के सिर से ऐसे गुजर गई जैसे भारत के नागरिक के सिर पर से देसी नेता का अंग्रेजी भाषण।
नेताजी ने दरोगा को फिर तसल्ली दी ठीक कह रहा हूं मैं। रिहा मत करना बापू को। बहुत सम्मान है, उसका हमारे मन में। देख, किसी तरह की तकलीफ न हो उसको। मगर रिहा मत करना। रिहा हो गया तो सत्ता खतरे में पड़ जाएगी। बकरी का दूध सूख जाएगा, नीलामी बंद हो जाएगी।
बापू कैद है! ..कैद ही रहने दे! ..क्योंकि बापू आज भी प्रासंगिक है!
बापू तब से कैद ही है! नेता स्वराज का सुख भोग रहा है और दरोगा पद्मश्री का!

Monday, January 28, 2008

राष्ट्रभाषा हिन्दी का अपमान

रात स्टार प्लस टीवी चैनल पर एक अवार्ड फंक्शन के दौरान हिन्दी भाषा की खुल कर खिल्ली उड़ाई जा रही थी और हिन्दी फिल्म जगत की जानीमानी हस्तियों के साथ कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ल, भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा व महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलास राव देशमुख हिन्दी के अपमान पर मुस्करा रहे थे।
स्टार प्लस पर 'नोकिया 14 एन्युअल स्टार स्क्रीन अवार्ड' वितरण समारोह की झलकियां दिखलाई जा रही थी। मंच संचालन एक महिला के साथ साजिद खान कर रहे थे। समारोह के प्रारंभ में साजिद खान ने स्वयं को परिमल त्रिपाठी के रूप में प्रस्तुत किया और मंच-संचालन राष्ट्रभाषा हिन्दी में करने की घोषणा की। घोषणा के साथ ही समारोह में उपस्थित लोगों के चेहरों पर मुस्कान दौड़ने लगी। इसी के साथ शुरू हो गया हिन्दी के उपहास का क्रम। साजिद खान अंग्रेजी का हिन्दी में भ्रष्ट अनुवाद कर करके लोगों को हंसाने लगे। इस भ्रष्ट अनुवाद के तहत गीतकार के स्थान पर पद-लेखक, डायलॉग के लिए वार्तालाप और डिस्ट्रिब्यूशन का अनुवाद विभाजन के रूप में कर मनोरंजन किया जाता रहा। यह क्रम काफी देर तक चलता रहा।
खेदपूर्ण और शर्मनाक बात यह है कि उस समारोह में जिनके बीच हिन्दी का अपमान किया जा रहा था, वे सभी हिन्दी के बल पर ही स्टार बने हैं और हिन्दी ही की कमाई से अरबपति बने हुए हैं। इससे भी ज्यादा शर्मनाक बात यह है कि कांग्रेस सांसद राजीव शुक्ला और भाजपा सांसद शत्रुघ्न सिन्हा जिनकी मातृभाषा शायद हिन्दी ही होगी! वे भी साजिद की चुटकियों पर हंसते रहे। जबकि यह उन दोनों के लिए यह निहायत ही अपमानजनक वाकया होना चाहिए था। श्री सिन्हा तो उस भाजपा के नेता है, जो हिन्दी, हिन्दु, हिन्दुस्तान पर गर्व करने का दावा करती है।
यह राजभाषा हिन्दी अथवा हिन्दी भाषा-भाषी इस राष्ट्र के करोड़ों लोगों का ही अपमान नहीं है, अपितु समूचे राष्ट्र का अपमान है। सरकार से मेरा आग्रह है कि जिस प्रकार राष्ट्रगान, राष्ट्रध्वज के अपमान के लिए दण्डित करने का प्रावधान है, उसी प्रकार राजभाषा हिन्दी का अपमान करने वालों के खिलाफ भी कानून बनाया जाना चाहिए। वोट बैंक लालच में यदि सरकार ऐसा करने में असमर्थ है, तो फिर हिन्दी से राजभाषा का कथित सम्मान भी वापस ले ले। हिन्दी अपने बल पर अपना सम्मान सुरक्षित कर लेगी।

Saturday, January 26, 2008

गणतंत्र का नारको

'सुबह राजपथ जाऊंगा और गणतंत्र की परेड देखकर देशभक्ति का परिचय दूंगा', ऐसा विचार कर मुन्नालाल लिहाफ ओढ़कर लेट गया। धीरे-धीरे नींद ने उसे आगोश में ले लिया। वह नारको टेस्ट की स्थिति में पहुंच गया। उसका अवचेतन जागृत होने लगा और इसके साथ नारको एनालिसिस भी शुरू हो गया।
वह राजपथ पर खड़ा है। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र की झांकियां एक-एक कर उसके सामने से गुजर रही हैं। वह भावविभोर है। बबूल के पेड़ से रिसते चिपचिपे गोंद की माफिक उसके शरीर के एक-एक रोएं से राष्ट्रवाद फूट-फूटकर बाहर आ रहा है।
परेड का आंखों-देखा हाल बयान करने वाले उद्घोषक की आवाज उसके कानों में पड़ी, 'इस समय सलामी मंच के सामने है मनोहर झांकी 'गणतंत्र की सुरक्षा'। राष्ट्रभक्ति का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत करती, इस झांकी में देश के कर्णधारों को गणतंत्र की सुरक्षा में जी-जान से जुटे देखा जा सकता है।'ं
झांकी के आगे-आगे 'हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल कर, इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल कर' राष्ट्रीय धुन के साथ राजपथ पर एक बैंड प्रकट होता है और उसके पीछे -पीछे रेंगती झांकी। मुन्नालाल के सामने भारत महान का विशाल नक्शा है। उसमें देश की संपन्नता दर्शाई गई है और सुरक्षा के लिए श्वेत वस्त्रधारी चील, कौए और कुछ गिद्ध उसके चारों ओर मंडरा रहे हैं। सुरक्षा झांकी सलामी मंच के सामने से गुजरती हुई आगे बढ़ जाती है।
मुन्नालाल के कानों में 'सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा' की धुन गूंजती है और इसी के साथ सलामी मंच के सामने लोकतांत्रिक परंपरा की झांकी का आगमन होता है। झांकी का नाम भी 'लोकतांत्रिक परंपरा' ही है। झांकी में मरियल-से दो बैल एक जीर्ण-शीर्ण छकड़ा खींच रहे हैं। उस पर मलिन-सा मानव तन खड़ा है, जिसके पेट के अंदर स्प्रिंग जैसा गुच्छा-सा दिखाई पड़ रहा है, शायद उसकी आंतें हैं।
इसके अलावा, उसके पेट में और कुछ भी नहीं है। उसके हाथ में झुनझुना-सा एक खिलौना है, जिससे वह विभिन्न चित्र अंकित कागजों पर बार-बार ठप्पा लगा रहा है। उसी छकड़े पर दो नेता भी हैं। दोनों नेता उस व्यक्ति को अपनी-अपनी ओर खींच रहे हैं। इस खींचतान में व्यक्ति न रो पा रहा है और न ही हंस पा रहा है।
गुमसुम-सा खड़ा वह व्यक्ति कभी हाथ के झुनझुने की ओर देख लेता है तो कभी-कभी निरीह भाव से नेताओं की ओर। इसी छकड़े पर टंगे एक बैनर पर लिखा है, 'पहले हम पर-अधीन थे, अब स्व-अधीन हैं। हम पहले भी अधीन थे, अब भी अधीन हैं।'
उद्घोषक घोषणा करता है, 'अब आप जिगर थाम के बैठिए'। मुन्नालाल जिगर पर हाथ रखता है, किंतु निराश होकर वह तुरंत जिगर के स्थान से हाथ हटा लेता है। उसे याद आता है, पत्नी के इलाज के एवज में जिगर तो डॉक्टर को दे दिया था।
'जय जवान-जय किसान' की धुन निकालता बैंड सलामी मंच के सामने से गुजरता है। उसके पीछे-पीछे विकास पथ पर अग्रसर देश की तस्वीर प्रस्तुत करती झांकी मंच के सामने आती है। झांकी में उजडे़ खेत हैं। खेतों में 'सेज' बिछी है। उन पर विराजमान संपन्न लोग खा-पी रहे हैं, जश्न मना रहे हैं।
उसके पीछे विशाल ठूंठ खड़ा है। उसका खंडहर बता रहा है कि कभी यह भी हराभरा विशाल वृक्ष था। उस पर दो मानव शरीर लटके हैं, जिनके गले में रस्सी के फंदे पड़े हैं। जुबान अपनी हद का अतिक्रमण कर मुंह से बाहर लटक रही है, हाथ की मुट्ठियां भींची हैं। फटी धोती के टुकड़ों से उनके शरीर के गोपनीय भाग ढके हैं, शेष शरीर वस्त्र विहीन हैं। पास ही में एक हल उलटा पड़ा है।
'जय जवान-जय किसान' की धुन के साथ हरित क्रांति की प्रतीक यह झांकी भी परंपरा का निर्वाह करते हुए मंच के सामने से गुजर गई। प्रतीक गान 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता' की धुन के साथ मंच के समक्ष नई झांकी का आगमन हुआ। सुसज्जित एक वाहन पर सिर झुकाए एक नारी विलाप कर रही है। उसके दोनों हाथ वक्षस्थल को ढकने का असफल प्रयास कर रहे हैं। दो व्यक्ति शरीर पर लिपटा उसका चीर खींच रहे हैं। पास ही अ‌र्द्धवस्त्रा दो सुंदरियां उसकी ओर देखकर मुस्करा रही हैं। पा‌र्श्व में टंगे बैनर पर लिखा है, 'नारी सम्मान'।
उद्घोषक की आवाज में सहसा ही उत्साह का संचार होता है, 'बच्चे राष्ट्र की धरोहर हैं'। इस उद्घोषणा के साथ ही वातावरण में 'बच्चे देश का भविष्य हैं' की धुन गूंजने लगती है और धुन के साथ ही वाहन पर बने मंच पर भविष्य का निर्जीव तन पड़ा दिखाई देता है। वीभत्स से दिखने वाले एक व्यक्ति के हाथ में छुरा है। छुरे का इस्तेमाल वह 'भारत के भविष्य' का भविष्य संवारने में कर रहा है। ऐसे ही कुछ और तन भी इधर-उधर बिखरे पड़े हैं।
सबसे अंत में 'मेरी दिल्ली मेरी शान' झांकी झलक मुन्नालाल के जहन में अवतरित होती है। दिल्ली पुलिस का बैण्ड 'दिल्ली पुलिस सदैव आपके साथ' की मातमी धुन के साथ झांकी की अगवानी कर रहा है। झांकी पर एक बैनर टंगा है। जिस पर लिखा है, 'जनसंख्या नियंत्रण में अव्वल प्रदेश, दिल्ली प्रदेश' एक बड़े से खुल ट्रक पर सजी-संवरी एक ब्लू-लाइन बस शोभायमान है। उसके टायरों के तले रिटायर शरीर पड़े हैं।
धुन धीरे-धीरे चीत्कार में बदलने लगती है। उसी चीत्कार के मध्य से मुन्नालाल के कान में एक मर्मस्पर्शी आवाज गूंजती है, 'चल खुसरो घर आपने सांझ भई चंहु ओर'। एक झटके के साथ मुन्नालाल चारपाई से खड़ा हो गया। आंखें मली, सूरज का चेहरा मलिन था, सुबह उदास थी।


Tuesday, January 22, 2008

मेरे घर में संसदीय प्रणाली!

मेरे परिवार के लोकतांत्रिक ढांचे पर जब से संसदीय प्रणाली काबिज हुई है। मेरा घर, घर नहीं विधानसभा अखाड़ा बन गया है।
माइक नहीं है, मगर चकला-बेलन का उन्मुक्त प्रयोग होता है। थपथपाने के लिए बैंच नहीं, मगर थाली-परांत का बेझिझक इस्तेमाल किया जा रहा है।
आपातकालीन किसी भी स्थिति से निपटने के लिए बहू चप्पल-सैंडल पैरों में नहीं हमेशा हाथ में रखती है। बेटा बूट के तस्मे कसना हद दरजे की बेवकूफी समझता है। पौत्र बात-बात पर गर्दभ स्वर में हूट करने के वोकल व्यायाम में जुटा है।
पत्नी जब-जब भी सम्मानित सदस्यों के घेरे में घिर जाने के भय से आशंकित होती है, तब-तब सदस्यों को सदन से निष्कासित करने की धमकी देने लगती है।
सम्मानित सदस्यों की बहुमूल्य राय में मैं 'आउट डेटिड' हो गया हूं। दर्शक दीर्घा (घर के दरवाजे पर बनी बैठक) मेरे लिए आरक्षित कर दी गई है। उसके अलावा मैं कहीं कदम नहीं रख सकता क्योंकि ऐसा करने पर मेरे खिलाफ 'प्रिव्लेज' का मामला बनना तय है।
पतली गली से बर्हिगमन। संसदीय भाषा का अखंड पाठ। सदन कूप के अंदर जौहर दिखलाना। मां को आदरणीय कह-कह कर उल्टे लोटे पानी पिलाना। मेरे परिवार की परम्परा सी बन गई है। कुल मिलाकर मेरा परिवार ऐसे सभी मानदंड आत्मसात कर घर को आदर्श सदन बनाने पर तुला है, जिन्हें अपना कर सम्मानित कोई भी सदस्य 'बैस्ट पार्लियामंटेरियन' का खिताब हासिल करने की लालसा रखता है।
बात एक रात की है। पौत्र ने पानी पीने वाली लुटिया बजाई। भूकंप के झटको से लड़खड़ाती कच्ची दीवार की मानिंद जर-जर हमारा शरीर अज्ञात किसी आशंका से कांपने लगा। पता नहीं आज किस की लुटिया टांगने का मुहूर्त आ गया है।
लुटिया की कर्कश आवाज कानों में पड़ते ही घर में अचानक चहलकदमी शुरू हो गई। सदन का कोरम पूरा करने की मंशा से परिवार के सदस्य एक दूसरे को हॉल की तरफ खींचे ला रहे थे।
हॉल मेरे घर का वह सदन है, जहां बैठ कर सम्मानित सदस्य घर-परिवार की चिंता में मगरमछी आंसू बहाते हैं। अधिकार और मौलिक अधिकार के नाम पर कुत्ते-बिल्लियों की तरह लड़ते हैं।
कोरम पूरा करने की गंभीरता भांप हमने अंदाजा मारा हो-न-हो मसला जरूर अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ा होगा। वैसे अविश्वास मेरे परिवार का स्थायी धर्म है। एक दूजे पर विश्वास करना हमारे यहां अधर्म है। फिर भी विश्वास और अविश्वास पर यदाकदा सदन की बैठक बुला ही ली जाती है।
मसला कुछ भी न था। मसला, फिर भी था। मसला बस शक्ल दिखाने से जुड़ा था। इसलिए बैठक का एजेंडा मामूली था।
'जन गण मन' के उपरांत सदन की बैठक शुरू हुई। लघु पुत्र खड़ा हुआ और बिन प्रसंग ही चीखने लगा। अध्यक्ष की कुर्सी पर विराजमान उसकी अम्मा ने व्यवस्था देते हुए बैठने का इशारा किया।
बेटे ने जिद्द पकड़ी।
अध्यक्ष ने पैंतरा बदला- 'अच्छा चल पहले तू ही बोल ले। प्रश्नकाल बाद में शुरू कर लेंगे।' अध्यक्ष ने व्यवस्था परिवर्तन कर नई व्यवस्था फेंकी।
दीर्घ पुत्र ने नियम-उपनियमों की पुस्तक हवा में लहराते हुए 'प्वाइंट आफ आर्डर' उछाला।
सत्तापक्ष का पक्ष लेते हुए अध्यक्ष
गुर्राई-'सदन सर्वोच्च है। कोई भी नियम उससे ऊपर नहीं है।'
दीर्घ बैठ गया, यह सोच कर कि अध्यक्ष की इस व्यवस्था से वह स्वत: ही सभी कायदे-कानून से ऊपर हो गया।
अपने पति का अपमान समझ बहू ने हवा में बेलन घुमाया। पति ने 'चीफ व्हिप' के लहजे में बैठने का इशारा किया। बहू बड़बड़ाती बैठ गई।
लघु ने बोलना शुरू किया-'हमारे जन्म दिन की वीडियो फिल्म नहीं बनाई गई। बड़े भइया का यह रवैया पक्षपात पूर्ण है। सदन को इसकी निंदा करनी चाहिए।'
बिना बारी के ही बहू ने प्रतिवाद किया-'हमारी शादी की फिल्म बनवाने के नाम पर तुम्हारे बाप ने तोंबा सा मुंह बना लिया था। तब तो तुमने भी मुंह पर टेप चिपका ली थी। अपने साथ गुजरी तो कैसे बकरे की तरह मिम्यां रहे हो।'
अध्यक्ष ने व्यवस्था दी-'बाप सदन में नहीं है, इसलिए उसका नाम लेना सदन की मर्यादा के खिलाफ है। इसे कार्यवाही से निकाल दिया जाए।'
साड़ी का पल्लू कमर में खोंसती बहु बोली, 'सदन में न सही दर्शक दीर्घा में तो बैठा-बैठा खकार रहा है। एक सदस्य ने सम्मानित दूसरे सदस्य पर आरोप लगाया है, इसलिये मामला सदस्य के विशेषाधिकार हनन का बनता है, ससुर जी को सदन में तलब किया जाए।'
लघु के दिल में बाप प्रेम जागृत हुआ। उसने जूता भाभी की तरफ उछाला और वक्तव्य हवा में धकेला, 'बाप को तोंबा कहती है।'
अध्यक्ष ने सदन की गरिमा का हवाला दिया।
मगर अध्यक्ष की यह व्यवस्था भी शोर-गुल में डूब कर रह गई। बाप का पक्ष लेते हुए लघु फिर चिल्लाया, 'सदन चाहे जाए भाड़ में, मगर बाप को तोंबा नहीं कहने दूंगा।'
जवाब में बहू ने लघु के सिर पर बेलन दे मारा।
अम्मा ने अपना सिर बचाते हुए सदन की कार्यवाही पंद्रह मिनट के स्थगित कर दी।
यानी के सिर फुटव्वल के लिए पंद्रह मिनट की खुली छूट दे दी। सदन की बैठक फिर शुरू हुई।
पौत्र ने सम्मानित दोनों सदस्यों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन का प्रस्ताव पेश किया।
अम्मा ने मामला रफा-दफा करने की गर्ज से प्रस्ताव विशेषाधिकार समिति के सुपुर्द कर अपना दामन विवाद से बचाया। निरीह जनता की तरह दर्शक दीर्घा में बैठे-बैठे हम खून के घूंट पीते रहे और कुछ इस तरह सोचते रहे-''वाह रे, सदन! जिन नियमों के कारण तू सर्वोच्च कह लाया, उन्हीं का हंता कहलाया।
नियम बनाना तो तेरा अधिकार था। नियम तोड़ने का अधिकार तुझे किसने दे दिया। सदन की गरिमा का कभी कुछ तो ख्याल रखा होता। अपने हित त्याग कभी तो समूचे परिवार के बारे में भी सोचा होता।''

Sunday, January 20, 2008

महंगाई का अर्थशास्‍त्र- दो

उम्मीदवार ने दरवाजा खटखटाया,
मतदाता ने दरवाजा खोला।
फिर अरहर की दाल से पीले दांत
निपोर कर बोला।
अरे! यह क्या?
तुम तो प्याज की तरह बाजार से गायब थे।
नई फसल की तरह इस आवक के पीछे राज क्या है?
कुछ तो बतलाओ वत्स, बात क्या है?
उम्मीदवार ने पहाड़ी आलू सा मुंह खोला।
फिर यूं बोला-
तेरे द्वार पर आया हूं,
बस वही एक अदद वोट मंगने आया हूं।
मतदाता भाव बढ़ाते हुए बोला-
वोट देना मजबूरी है।
इसलिए वोट तो जरूर मिलेगा।
मगर आलू-प्याज का हिसाब देना पड़ेगा।
अभी तक इमली के पत्ते पर दंड लगाई है।
मतदाता को खूब राह दिखाई है।
बच्चू! अब मतदाता की बारी है।
अब हम तुम्हें तेल दिखाएंगे,
तेल की धार दिखाएंगे।
दाल आटे का भाव बताएंगे।
महंगाई की मार क्या होती है,
इसका अहसास कराएंगे।
उम्मीदवार ने आदतन पाला बदला।
बातों-बातों में बातों का रस घोला।
फिर कुछ इस तरह बोला।
माई-बाप, मेरे आका, मेरे मालिक।
महंगाई तो प्रकृति का प्रकोप है,
उस पर नहीं किसी का जोर है।
चाहता तो मैं भी हूँ,
हर चीज टके सेर बिक जाए।
ईमान की तरह हर चीज सस्ती हो जाए।
मगर फिर 'अंधेर नगरी चौपट राजा'
की कहावत तुम्हीं दोहरा ओगे।
फिर मुझे ही मूर्ख ठहराओगे।
प्याज के दाम बढ़ा कर हमने ज्यादती नहीं की है।
बस गरीब के 'खाजे' को अहमियत दी है।
तुम्ही तो कहते थे,
किसी भी राज ने गरीब को सम्मान नहीं दिया है।
हमने प्याज के भाव बढ़ा कर,
उसे मेवों का सा सम्मान दिया है।
गरीब पर कम से कम एक तो उपकार किया है।
इस पर भी आंख दिखाते हो,
वोट न देने का डर जताते हो।
वोट न दोगे, वोट फिर भी तेरी ही पाऊंगा
सुन! असली न सही,
बोगस वोट से जीत कर दिख लाऊंगा।
ऊपर वाले की दुआ रही,
तो तेरे ही नाम के वोट से
संसद पहुंच जाऊंगा !
संपर्क – 9868113044

Saturday, January 19, 2008

महंगाई का अर्थशास्‍त्र

मस्टराइन ने मास्टर के हाथ में रोटी पकड़ाई।
मास्टर ने त्यौरी चढ़ाई।
कमबख्त! हाथ में सूखी रोटी पकड़ा दी।
शर्म नहीं आई।
कम से कम दाल का पानी ही बना लाती।
मास्टर के तेवर देख मस्टराइन मुस्‍कराई,
अरे, बैठे-ठाले नखरे दिखाते हो।
जमीन पर बैठे-बैठे
आसमान की उड़ान भरते हो।
अरे, ईमान से भी ज्यादा महंगे हैं,
दाल के भाव।
भाव अपने 'लेवल' में लाओ।
मास्टर फिर झल्लाया।
दाल नहीं थी, तो आलू ही भून लाती।
कम से कम रोटी तो निगली जाती।
मस्टराइन को मास्टर पर तरस आया,
गुस्से का भाव बे-भाव पचाया।
फिर मास्‍टर को इस तरह समझाया।
अरे, आजकल आलू के नखरे भी,
तेरे नखरों से कम नहीं हैं।
दिवाली पर तो बनाया ही, था आलू का चौखा।
होली पर फिर मिल जाए, यह भी कुछ कम नहीं है।
मास्टर की अकल में बात धंसी नहीं।
वह फिर बड़बड़ाया।
चल छोड़ दाल-आलू की भाजी,
कुछ नहीं था, तो नमक के साथ प्याज ही रख लाती।
प्याज का नाम सुन मस्टराइन भर्राई,
आंख में कड़वे तेल से आंसू लिए चिल्लाई।
दिमाग फिर गया है तेरा,
दाल-आटे के भाव का नहीं तुझे बेरा।
सुराज में रोटी मिल रही है, खैर मना।
आलू-प्याज को अपना व्यसन न बना।
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Thursday, January 17, 2008

भारतरत्न के बारे में बौद्धिक सुझाव

भारतरत्न न हुआ आलू-प्याज हो गया। जिसे देखो वही सरकारी सस्ते गल्ले की दुकान पर लाइन लगाए खड़ा है। बेचारी यूपीए सरकार को मुसीबत में डाल रहा है। अभी तक तो परमाणु डील मसले पर सरकार गिराने की धमकी से निजात नहीं मिल पाई थी। कल से भारतरत्न के मुद्दे पर भी सरकार गिराने की धमकियां मिलना शुरू हो जाएंगी। सरकार न हुई गरीब की जोरू हो गई। जिसे देखो वही भाभी बनाने पर आमादा है। एक अनार सौ बीमार। भाभी बेचारी क्या करे? भारतरत्न आवंटन के बारे में हमारे कुछ सुझाव हैं। इन सुझावों के सहारे हम किसी भी झोला छाप डाक्टर की तर्ज पर शर्तिया इलाज की गारंटी देते हैं। सरकार एक बार आजमा कर तो देखे। फिर बताए, इलाज से पहले और इलाज के बाद का हाल!
हमारा पहला सुझाव है कि भारतरत्न नेताओं को न देकर किसी बुद्धिजीवी को दिया जाए। बुद्धिजीवियों में फिलहाल नटरवरलाल से बड़ा और निर्विवाद दूसरन नाम नहीं है। नटवरलाल से हमारा आशय माननीय नटवरसिंह से नहीं है। हम ठग सम्राट नटवारलाल के नाम की पैरवी कर रहे हैं। यह वह नाम है, जो पूरी जिंदगी बुद्धि चातुर्य की ही कमाई खाता रहा। बुद्धि के बल पर अच्छे-अच्छे तीसमारखांओं को चूना लगाता रहा। अर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने के नए-नए फार्मूले इजाद करता रहा। देश-विदेश में भारत का नाम रौशन करता रहा। हमारा तो यहां तक मानना है कि यदि माननीय नटवरलाल को विदेशमंत्री बना दिया जाता, तो वे पाकिस्तान की तो हैसियत क्या है, नकली दस्तावेजों के सहारे अमेरिका को भी भारत का उपनिवेश बनाने की क्षमता रखते हैं। अब आप ही बताइए कि नटवरलाल जी के नाम का सुझाव देकर मैंने कोई गलत तो नहीं की।
मुझे रेलमंत्री लालू प्रसाद की सूझबूझ पर भी तरस आता है। पता नहीं, क्यों उन्होंने अभी तक भारतरत्न के लिए नटवरलाल जी के नाम का प्रस्तावित नहीं किया। भारतरत्न यदि नटवरलाल जी को मिल जाता है, तो सर्वाधिक लाभ उन्हें ही होगा। संपूर्ण बिहार उनकी जै-जै कार करेगा। राबड़ी देवी जी को पुन: सिंहासन पर विराजमान करने का रास्त सुगम हो जाएगा।
लाभ कांग्रेस को भी कम नहीं होगा। पूर्वाचल से जुड़ी देश भर की तमाम वोट कांग्रेस के खाते में आने के आसार बढ़ जाएंगे, विवाद से मुक्ति मिल जाएगी। यदि दक्षिण भारत को मक्खन लगाना है, तो तेलगी भाई और हर्षद मेहता के नाम पर विचार करने में भी कोई हर्ज नहीं है। वे दोनो भी बुद्धिजीवियों की श्रेणी में अग्रिम पंक्ति दबाए हुए हैं। हर्षद मेहता से बड़ा अर्थशास्त्री मैं न मानमोहन सिंह जी को मानता हूं और न ही वित्त मंत्री चिदंबरम साहब को। जो, शेयर बाजार को मुठ्ठी में कर ले, दुनियां-जहान के बैंकों की रकम अपने नाम से शेयर बाजार मे लगवा दे। आर्थिक क्षेत्र में ऐसा धमाकेदार कार्य हर्षद भाई की खोपड़ी के अलावा और किसके बूते की बात है!
तेलगी भाई को मैं उद्योग जगत का सरताज मानता हूं। पूरे देश में उन्हीं के तो टिकट चलते थे। इन दोनों महानुभावों के लिए किसी सबूत की आवश्यकता नहीं है। इन तीनों महानुभावों में से यदि किसी को भारतरत्न से सम्मानित किया जाता है, तो भारत की अरबी-जनसंख्या यूपीए व कांग्रेस के गुनगान करना न भूलेगी। भारतरत्न के सम्मान में भी वृद्धि होगी!
आलू-प्याज और गाड़ियों के वीआईपी नंबर की तरह भारतरत्न की बढ़ती मांग को देखते हुए, सरकार को चाहिए कि उसकी सार्वजनिक नीलामी का प्रावधान कर दे। मेज के नीचे अन्य पुरष्कारों का तो

कारोबार सा चलता ही है। भारत रत्न का भी शुरू हो जाए तो हर्ज क्या है? विकल्प के रूप में यह मेरा दूसरा सुझाव है। सरकार यदि इस सुझाव को स्वीकारती है, तो सारे टंटे ही समाप्त हो जाएगें। 'लेना एक न देना दो' जिसकी जेब में दम होगा, वही अपने सीने पर भारतरत्न चस्पा करने का हकदार हो जाएगा। देखो न जब से भारत की राजधानी दिल्ली में बीआईपी नंबर की बोली लगने का प्रावधान हुआ है, मारामारी समाप्त हो गई है। वरना मेरे जैसा टटपूंजिया भी अपने स्कूटर पर वाआईपी नंबर का जुगाड़ करने की हसरत रखता था। 'सरकार उरला हलवाई, परला पंसारी' की तर्ज पर बैठे-बैठे बस तमाशा देखे। कोई माई का लाल अपने लाल को भारतरत्न दिलाने के लिए सरकार को गरीब की जोरू समझ कर आंख न दिख लाएगा। सुझाव विपत्तिकारक हैं ना, आपकी क्या राय है?
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Wednesday, January 16, 2008

चोली-दामन का संबंध!

दो विषय अथवा वस्तुओं के पारस्परिक संबंधों की पुष्टिं तब तक अधूरी-अधूरी सी लगती है, जब तक उनके घनिष्ठ संबंध की व्याख्या 'चोली दामन' के संबंध के साथ संयुक्त न कर दी जाए। मसलन राजनीति-भ्रष्टाचार, राजनीति-अपराध, राजनीति-छलछद्म के मध्य पारस्परिक संबंधों की घनिष्ठता की सटीक व्याख्या करने के संदर्भ में चोली-दामन के संबंधों की घनिष्ठता का जिक्र करना आवश्यक हो जाता है, वरन् संबंध अधूरे-अधूरे से लगते हैं। चोली-दामन के मध्य जितने पुराने संबंध है, उतना पुराना ही यह मुहावरा है। हो भी क्यों ना, यह मुहावरा मानवीय कोमल भावनाओं को सीधे-सीधे जो छूता है।
जब कभी चोली-दामन अथवा अकेली चोली का जिक्र चलता है, तो 'चोली के पीछे क्या है?' का प्रश्न सहज ही उत्पन्न हो जाता है। यह मानव-जिज्ञासा का प्रश्न है। जिस शायर ने 'चोली के पीछे क्या है?' के प्रश्न को सार्वजनिक किया है, उसी ने बताया है, 'चोली के पीछे दिल है।'
दिल है, जो धड़कता है। दिल धड़कता है, तो अंग-अग फड़कता है। उन्नीस वी सदी तक दिल की इस धड़कन को छिपाने का रिवाज था। उम्र के एक नाजुक मोड़ पर युवा दिल जब धड़कना प्रारंभ करते थे, तो दिलदार उसे छिपाने का प्रयास करने लगते थे। जिसे शरम-हया पता नहीं किन-किन दकियानूसी शब्दों से नवाजा जाता था। इतना अवश्य है कि दिल की धड़कन छुपाई जाती थी और उसे शालीनता माना जाता था। हमारा मानना है कि शरम-हया नहीं, वास्तव में यह दमनकारी कृत्य था! इस कृत्य के लिए दामन का सहारा लिया जाता था!
अपवाद स्वरूप दो-चार दिलदार उस समय भी चोरी-छिपे एक-दूसरे को धड़कते दिल की आवाज सुनाने में अवश्य सफल हो जाते होंगे, किंतु सामान्यतया ऐसा नहीं होता था। अधिसंख्य युवा-युवतियां दामन के दमन से प्रभावित थे। दिल की धड़कने छुपाने के लिए बालाएं चोली के ऊपर दामन का प्रयोग करती ही थीं। चोली से दामन सरकने नहीं देती थीं, क्योंकि धड़कते दिल की धड़कने छुपाने में अकेली चोली कामयाब नहीं थी। संभवतया उसी जमाने में इस मुहावरे का जन्म हुआ होगा।
चोली-दामन की यह घनिष्ठता उन्नीस वे दशक तक रही। बीसवीं सदी के आते-आते युवा हृदयों ने दामन के दमन के खिलाफ आवाज उठानी शुरू कर दी और पारदर्शिता के वैश्विक आदर्श की ओर कदम बढ़ाना शुरू कर दिया। अत: चोली पर से दामन की पकड़ ढीली होने लगी और दामन चोली स्थल से खिसकते-खिसकते घाघरे की दिशा में लटकने लगा।
जो संबंध कभी चोली-दामन के मध्य थे, वह घाघरे और दामन के मध्य स्थापित होने लगे। इस प्रकार चोली-दामन के इस मुहावरे की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगा।
बीसवीं सदी के बहिर्गमन द्वार तक आते-आते ब्रिटेन साम्राज्य की तरह स्वयं घाघरा भी सिकुड़ कर मिनीस्कर्ट के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस प्रकार दामन के दमन से उसने भी मुक्ति प्राप्त कर ली। बालाओं के तन से दामन ऐसे गायब हो गया, जैसे राजनीति से नीति। मगर बदकिस्मती से मुहावरा अभी तक प्रचलन में है। शायद किसी भाषा-विज्ञानी का ध्यान इस और नहीं गया है।
अब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं। आज के जवां दिलों के लिए शालीनता धड़कते दिल की धड़कन छुपाने में नहीं उसे व्यक्त करने में है, क्योंकि यह पारदर्शिता का युग है। मेढ़क की तरह फुदकता दिल युवजन हथेली पर लिए घूमते हैं। बागीचों में पार्को में, प्राचीन एतिहासिक इमारतों के साय में और आधुनिक मॉल्स में जहां कहीं भी मौका मिल जाए, एक-दूजे को दिल की धड़कनों से वाकिफ कराने में मशगूल हो जाते हैं। क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का युग है, इसलिए स्वच्छंद रूप से व्यक्त कर रहे हैं। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों को नए आयाम दे रहे हैं। पुराने मूल्यों को उनके अंजाम तक पहुंचा रहे हैं।
सौंदर्य-बोध और पारदर्शिता के इस युग में दामन का औचित्य है भी क्या? दामन युवा शब्दकोष से बहिर्गमन कर गया है, चोली का आकर भी निरंतर सिकुड़ने की प्रगति पर है। फिर न जाने क्यों चोली-दामन के संबंध को फिजूल महत्व देकर क्यों प्राचीन मुहावरे की लकीर पीटी जा रही है। हमारा सुझाव है-'गधे के सिर से सींग गायब' थोड़ा अभद्र लगता है, अमानवीय लगता है, अत: इस मुहावरे के स्थान पर 'चोली से दामन गायब' के मुहावरे को प्रचलन में लाया जाए। उदाहरण के रूप में कहा जा सकता है, इक्कीसवीं सदी में शरम-ओ-हया ऐसे गायब हो गई जैसे चोली से दामन।
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Sunday, January 13, 2008

हस्तिनापुर साम्राज्‍य में चुनाव-अंतिम

दुर्योधन और यक्ष प्रश्न
टिकट प्राप्त करने की अंतिम परीक्षा के लिए दुर्योधन सूर्यकुंड के नजदीक पहुंचा और मंजूषा एक किनारे रख बोला, 'हे, महामहिम यक्ष! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं। आप जहां कहीं भी हैं, कृपया प्रकट हो करे मुझे कृतार्थ करें। मैं हस्तिनापुर युवराज दुर्योधन इंद्रप्रस्थ संसदीय क्षेत्र के लिए टिकट प्राप्ति की इच्छा से आपकी शरण में आया हूं।'
दुर्योधन के वचन सुन कुंड के अंदर से आवाज आई, 'युवराज दुर्योधन पहले यह बताओ कि कुंड के किनारे रखी यह मंजूषा कैसी?'
विनम्र भाव से दुर्योधन बोला, 'हे, यक्ष! राजनीति की भाषा में इसे सूटकेस कहते हैं। इसमें आपके सेवार्थ पुष्पम्ं-पत्रम्ं अर्थात एक खोका स्वर्ण-मुद्राएं हैं।' जल के अंदर से दो हाथ बाहर आए और मंजूषा उठाकर जल ही में 'सागर में गागर' की तरह विलुप्त हो गए।
एक क्षण के उपरांत श्वेत-वस्त्र धारण कर यक्ष कुंड से बाहर आए और बोले, 'हे, युवराज! आपके श्रद्धा-भाव से हम अति-प्रसन्न हुए। आप अवश्य ही टिकट पाने के अधिकारी हैं। किंतु हमारे प्रश्नों के दौर से गुजरने की औपचारिकता पूर्ण करनी ही होगी। ऐसा करना हमारी वैधानिक बाध्यता है।'
दुर्योधन बोला, 'महाराज मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देने ही यहां आया हूं। मंजूषा तो श्रद्धा के वशीभूत औपचारिकता का निर्वाह है। पूछिए, आप प्रश्न पूछिए।'
-यक्ष का पहला प्रश्न था- राजनीति में सफलता प्राप्त करने का मूलमंत्र क्या है?
'पांव-पान-पूजा!'
-धर्म किसे कहते हैं?
'शक्तिवान पुरुष का वचन ही धर्म है!'
नेता का धर्म क्या है?
'केवल अर्थ!'
-धर्म प्राप्ति का एक मात्र साधन क्या है?
'भ्रष्टाचार! भ्रष्टाचार धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों पुरुषार्थो की प्राप्ति का एकमात्र साधन है!'
-मोक्ष क्या है?
'नेता का सत्ता में और सत्ता का नेता में विलीन होना ही मोक्ष है!'
-धर्म से बढ़कर क्या है?
'सत्ता धर्म से बढ़ कर है, क्योंकि यह भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत है!'
-सबसे बड़ा सुख क्या है?
'सत्ता हथियाना!'
-सत्ता हथियाने का एक मात्र साधन?
'असत्य ही सत्ता प्राप्त करने का एक मात्र साधन है!'
-यश प्राप्ति का एक मात्र साधन?
'असत्य की साधना!'
-नेता की आत्मा कौन है?
'कुर्सी ही नेता की आत्मा है और वह परिवर्तनशील है!'
-भाग्य द्वारा प्राप्त नेता का मित्र कौन है?
'चमचा ही भाग्य द्वारा प्राप्त मित्र है!'
-वह क्या है, जिसके नियंत्रण से नेता को प्रसन्नता होती है?
'अफरसाही पर नियंत्रण पाकर नेता को प्रसन्नता का अनुभव होता है!'
-किसका त्याग कर नेता सर्वप्रिय हो जाता है?
'मान-सम्मान का त्याग कर नेता सर्वप्रिय हो जाता है!'
-किस वस्तु के त्याग से नेता को शोक नहीं होता?
'आदर्श व सिद्धांत के त्याग से नेता को शोक नहीं होता!'
-नेता की सफलता में अवरोध कौन-कौन से हैं?
'मूंछ और नाक सफलता में बाधक हैं!'
-तप क्या है?
'कुर्सी साधना ही तप है!'
- शक्ति का स्रोत?
'विश्वासघात!'
-सबसे बड़ी क्षमा क्या है?
'अनियमितताओं पर धन का पर्दा डालना ही सबसे बड़ी क्षमा है!'
-लज्जा के कारण?
'जनहित के कार्य और विचार लज्जा के कारण हैं!'
-सबसे बड़ी दया क्या है?
'परिवार हित की इच्छा सबसे बड़ी दया है!'
-सरलता किसे कहते हैं?
'समाज सेवक का अभिनय ही सरलता है!'
-कर्म-अकर्म की पहचान क्या है?
'स्वहित कर्म और जनहित अकर्म हैं!'
-अपने-पराए की पहचान क्या है?
'जो व्यक्ति आपके आगे पूंछ हिलाए उसे अपना और जो मूंछों पर ताव दे उसे पराया जान!'
-मूर्ख कौन है?
'जो नेता अधिकारों को छोड़ कर्तव्यों की तरफ दौड़ता है और जनहित के कार्यो को तत्परता के साथ पूर्ण करता है, वह मूर्ख है! ऐसा नेता उस मूर्ख व्यक्ति के समान है जो उसी डाली को काट रहा है, जिस पर वह बैठा है!'
- नेता का कौन सा ऐसा धन है, जो दोनो हाथों लुटाने पर भी बढ़ता ही जाता है?
'वायदे और आश्वासन ही एक मात्र ऐसे धन हैं, जिन्हें जितना लुटाया जाता, उतना ही वृद्धि को प्राप्त होते हैं!'
- राजा का कर्तव्य?
'अपनी व परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करना!'
- कौन राजा सुखी है?
'जिसकी प्रजा दुखी है!'
-कौन राजा दुखी है?
'जिसकी प्रजा सुखी है!'
-उत्तम राजा कौन है?
'जो दुख के सागर में डूबी प्रजा को सुख का अहसास कराए!'
प्रश्नोत्तर अध्याय समाप्त कर यक्ष बोला, 'वत्स दुर्योधन हम आपके व्यवहार और बुद्धि कौशल से प्रसन्न हुए। एक अच्छे नेता के सभी गुण तुम्हारे अंदर विद्यमान हैं। जाओ वत्स जाओ, अपने चुनाव क्षेत्र में जाओ और मतदाताओं को सुख का अहसास कराओ। टिकट तुम्हारे पीछे-पीछे आ रहा है। ईश्वर तुम्हारा कल्याण करे।'

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Saturday, January 12, 2008

हस्तिनापुर साम्राज्य में चुनाव

हम प्रसन्न हुए दुर्योधन!
युद्धिष्ठिर चुनाव की तैयारी में हैं, अफवाह वेग से यह समाचार समस्त हस्तिनापुर राज्य में फैल गया। इस समाचार ने कौरव शिविर में भी चिंता का प्रसारण कर दिया। समाचार सुनते ही दुर्योधन मामा शकुनि की शरण में गया और इंद्रप्रस्थ क्षेत्र से ही चुनाव मैदान में उतरने की इच्छा व्यक्त की। भांजे की इच्छा सुन शकुनि मुसकराते हुए बोला-चुनाव और तुम! नहीं, भांजे! चुनाव-संघर्ष में उतरना तुम्हारे जैसे स्वाभिमानी व्यक्तियों के बूते की बात नहीं है। उसके लिए अहंकार का त्याग कर अपमान सहन करने की क्षमता अर्जित करनी होगी और वह तुम्हारा अहंकार तुम्हें करने नहीं देगा।
अट्टहास कर दुर्योधन बोला- चिंता न करे, मामाश्री! भांजा तुम्हारा ही हूं। द्यूत-क्रीड़ा के सभी हुनर मैंने कण्ठस्थ कर लिए हैं। शकुनि ने आशंका व्यक्त करते हुए कहा- किंतु भांजे! टिकट का निर्धारण करने वाली चुनाव समिति में नेता होते हैं और नेता शकुनि से भी दो पग आगे ही होते हैं। शकुनि की शंका सुन आत्मविश्वास के साथ दुर्योधन बोला- बस, मामाश्री आशीर्वाद दो, लोकतंत्र का ऐसा कौन सा पाशा है, जिसे तुम्हारा यह भांजा फेंकना नहीं जानता है। शकुनि का आशीर्वाद प्राप्त कर दुर्योधन भी संगठन कार्यालय की ओर कूंच कर गया।
प्रत्याशी चयन समिति के समक्ष राजकुमार दुर्योधन प्रस्तुत हुआ। समिति सचिव आसन ग्रहण करने के लिए राजकुमार दुर्योधन की तरफ संकेत करता, उससे पहले ही उसने स्वर्ण जड़ित मंजूषा उसके समक्ष रख दी।
आश्चर्य चकित समिति अध्यक्ष ने पूछा, 'वत्स दुर्योधन! यह क्या?'
राजकुमारोचित्त अट्टहास करते हुए दुर्योधन बोला, 'श्रद्धेय! संगठन-कोष के लिए एक हजार स्वर्णमुद्राएं हैं।' चुनाव समिति के सदस्यों ने अध्यक्ष की तरफ देखा और उसने मंजूषा अंदर पहुंचाने का संकेत किया। इसके बाद सवाल-जवाब का दौर शुरू हुआ।
अध्यक्ष का पहला प्रश्न था, 'राजकुमार! इंद्रप्रस्थ में तो जनाधार पांडवों का है। वहां से आपके विजयी होने की संभावना क्षीण लगती हैं!'
दुर्योधन ने फिर अट्टहास किया और बोला, 'जनाधार! यह किस चिड़िया का नाम है? चुनाव जनाधार के नहीं बाहुबल से जीते जाते हैं। इंद्रप्रस्थ संसदीय क्षेत्र में उतने भी मतदान-केंद्र नहीं हैं, जितने की मेरे भ्राता हैं। प्रत्येक मतदान-केंद्र पर एक-एक भ्राता नियुक्त करने के उपरांत भी भ्राता शेष रह जाएंगे।'
'अच्छा! दुर्योधन, तुम्हारे साथ पहलवान कितने हैं?'
दुर्योधन बोला, 'सौ क्या अपर्याप्त हैं? सौ भ्राताओं के अतिरिक्त कर्ण जैसे महारथी मेरे ध्वज वाहक होंगे।'
सचिव ने सवाल किया, 'मगर राजकुमार! कर्ण तो दानवीर है, यदि माता कुंती ने उससे पुन: कुंडल व कवच मांग लिए तो बना बनाया पूरा खेल क्या बिगड़ नहीं जाएगा?'
गदा हवा में लहराते हुए दुर्योधन बोला, 'नहीं, वह युग बीत गया है, जब कर्ण फाख्ता उड़ाया करते थे। मित्र कर्ण बार-बार त्रुटि दोहराने के आदि नहीं हैं। माता कुंती यदि विवश करती भी हैं, तो नकली कुंडल-कवच लाकर उन्हें दे दिए जाएंगे।'
राजकुमार दुर्योधन की हाजिर जवाबी और उसके चेहरे पर प्रकट आत्मविश्वास के भाव देख समिति के सभी सदस्य आश्चर्यचकित थे। सचिव ने अध्यक्ष की तरफ निहारा और उसके कान में फुसफुसाय, 'आदमी काम का लगता है, महाराज!'
अध्यक्ष ने सिर हिला कर सचिव का समर्थन किया। साथ ही अध्यक्ष ने सवाल किया, 'यह तो उचित है कि तुम्हारे पास पर्याप्त बाहुबल है और उसके सहारे तुम मतदान केंद्रों पर बलात अधिकार कर कूटमत की रणनीति में अवश्य ही सफल हो जाओगे, किंतु सफलता प्राप्त करने के लिए कूटनीति का ज्ञान रखने वाला भी तो कोई होना चाहिए। क्या तुम्हारे पास ऐसा कोई कूटनीतिज्ञ है?'
दुर्योधन ने एक लंबी सांस ली और अध्यक्ष की तरफ इस प्रकार देखा, मानो उसके सामान्य ज्ञान पर तरस आ रहा हो। हथेली से अपना भाल रगड़ते हुए वह बोला, 'महाराज! क्या आप मामाश्री शकुनि से परिचित नहीं हैं? संपूर्ण आर्याव‌र्त्त में उनसे बड़ा कूटनीतिज्ञ कोई दूसरा कोई है?'
विशालकाय मूंछों को उंगलियों से रगड़ते हुए दुर्योधन ने आगे कहा, 'मामा शकुनि अपनी हथेलियों के बीच जब चौपड़ के पासे रगड़ते हैं, तो अच्छे-अच्छों को पसीने छूट जाते हैं। अरे, मेरा मामा तो वह हस्ती है, जो बर्फ से बने घर में भी आग लगा दें। अल्पमत को बहुमत में और बहुमत को अल्पमत में परिवर्तित कर दे। संदेह के बीजारोपण कर स्पष्ट बहुमत प्राप्त सरकार को भी सत्ताच्युत कर दे और अल्पमत को सत्तासीन कर दे। मामा शकुनि मेरे चुनाव प्रभारी रहेंगे।'
'मगर दुर्योधन! तुमने द्रौपदी का चीरहरण किया था, विरोधी दलों ने उसे चुनावी-विषय बना कर उछालना प्रारंभ कर दिया, तो तुम्हारा ही नहीं समूचे आर्यावर्त के चुनाव का ढेर हो जाएगा!' अध्यक्ष ने आशंका व्यक्त की।
कुटिल मुस्कान का नमूना पेश करते हुए दुर्योधन ने आत्मविश्वास के साथ कहा, 'किस युग की बात कर रहे हो, श्रद्धेय! तब केवल दुर्योधन ही चीरहरण करता था, इसलिए समाचार बन जाता था। अब तो प्रतिदिन चीरहरण होते हैं, चीरहरण की घटनाएं अब कोई समाचार नहीं है, अत: चीरहरण आज न कोई विवादास्पद विषय है और न ही समाचार।'
अध्यक्ष ने नई शंका प्रस्तुत की, 'किंतु आपराधिक चरित्र होने के कारण तुम्हारा नामांकन अवैध घोषित किया जा सकता है।'
'फिर फिजूल की बकवास! मेरे विरुद्ध साक्ष्य देने की संपूर्ण आर्याव‌र्त्त में आज तक किसी ने साहस नहीं किया है। साक्ष्य नहीं तो दण्ड नहीं और दण्ड नहीं तो फिर अपराधी किस प्रकार?' इतना कह कर दुर्योधन ने पुन: अट्टहास किया।
अगला प्रश्न हवा में तैरने से पूर्व ही दुर्योधन बोला, 'अध्यक्ष जी सुनो, काकाश्री भीष्म पितामह मेरे पक्ष में प्रचार करेंगे और जब वे मेरे समर्थन में बोलेंगे तो समूचा इंद्रप्रस्थ मेरे पीछे होगा।'
सचिव ने आशंका व्यक्त की, 'मगर भीष्म पितामह का नैतिक समर्थन तो पांडवों के साथ है! वैसे भी वे शर-श्य्या पर हैं!'
बुद्धिजीवियों की सी गंभीरता चेहरे पर उतार दुर्योधन बोला, 'पितामह हस्तिनापुर की रक्षा के प्रति प्रतिज्ञाबद्ध हैं और मैं युवराज हूं, अत: पांडवों के मोह से ग्रसित होने के उपरांत भी मेरे पक्ष में प्रचार करना उनकी बाध्यता है।'
दुर्योधन ने दीर्घ श्वास लेकर आत्मविश्वास को शक्ति प्रदान की और बोला, 'पितामह का शर-श्य्या पर होना हमारे हित में हैं, क्योंकि शर-शय्या पर उन्हें किसी और ने नहीं पांडु-पुत्र अर्जुन ही ने सुलाया है। अत: प्रचार कर इसका लाभ उठाया जाएगा। पितामह की पीड़ा का लाभ उठाऊंगा और सहानुभूति मत प्राप्त करूंगा।'
दुर्योधन आगे बोला, 'दिव्य दृष्टिं प्राप्त संजय हमारा प्रचार माध्यम होगा।'
अध्यक्ष ने आशंका व्यक्त की, 'किंतु संजय तो राजकीय संचार माध्यम है, तुम्हारा व्यक्तिगत तो नहीं!'
'राजकीय क्या होता है? व्यवस्था कर ली जाएगी! चुनाव में उपयोग के लिए मार्ग निकाल लूंगा। स्वर्ण मुद्राएं किस काम आएंगी। सर्वाधिक शक्ति संपन्न होती हैं, स्वर्ण मुद्राएं!'
चुनाव समिति के सदस्यों ने परस्पर विचार-विमर्श किया और फिर अध्यक्ष ने परिणाम सुनाया, 'वत्स हम प्रसन्न हुए। सफल नेता के सभी गुण आप में विद्यमान हैं। टिकट आप ही को मिलना चाहिए हम अपनी संस्तुति उच्चाधिकार समिति के पास प्रेषित कर देते हैं। किंतु टिकट प्राप्ति से पूर्व आपको यक्ष-प्रश्न के दौर से निपटना होगा। जाओ वत्स तुम्हारा कल्याण हो।'
(कल दुर्योधन यक्ष-प्रश्‍नों का उत्‍तर देगा)

Friday, January 11, 2008

हस्तिनापुर साम्राज्य में चुनाव-एक

युधिष्ठिर का आवेदन
सिंहासन के लिए कुरुवंश में व्याप्त अतंर्कलह के कारण हस्तिनापुर साम्राज्य में लोकतांत्रिक-शक्तियों ने सिर उठाना प्रारंभ कर दिया था। मामा शकुनी के प्रछन्न नेतृत्व में अतिवादी पहले ही राजशाही के विरुद्ध क्रांति का बिगुल फूंक चुके थे। यथार्थ में मामा एक साथ दो मोर्चो पर सक्रिय था। एक तरफ वे बहनोई धृतराष्ट्र और भांजे दुर्योधन के हृदय में पाण्डु-पुत्रों के विरुद्ध घृणा के बीज बो रहा था। राज-परिवार के अंतर्कलह का कारण घृणा के ही बीज थे। इसके साथ ही वे प्रछन्न रूप में राजशाही के विरुद्ध प्रजा के मध्य में अतिवादियों को हवा दे रहा था। बहन गांधारी का विवाह हस्तिनापुर-कुमार नेत्रहीन धृतराष्ट्र के साथ बलात करने से व्यथित वह अपमान का बदला लेना चाहता था। मामा गंधार देश का राजकुमार था और यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि विदेशी-हाथ सदैव से ही भारतवर्ष के सामने समस्याएं उत्पन्न करता रहा है।
यह देखकर मामा अतिप्रसन्न था कि अतिवादी व विनम्रवादी दोनों ही गुट राजशाही के विरुद्ध मैदान में आ गए हैं। उसी समय विनम्रवादियों ने अतिवादियों से रक्त-क्रांति बंद कर लांकतात्रिक-मार्ग अपना ने का विनम्र निवेदन किया। विनम्रवादियों का तर्क था कि राजपरिवार की अंतर्कलह के कारण संभावित महाभारत युद्ध में जन-धन की भीषण हानि होगी और रक्तक्रांति में भी प्रजा का ही रक्त बहेगा। अत: हस्तिनापुर को महाभारत से बचाने के लिए गृहयुद्ध जैसे स्थिति उत्पन्न करने का कोई औचत्य नहीं है। अतिवादियों ने उनका निवेदन स्वीकार कर लिया और प्रजा-संसद का गठन कर कुरुवंश दोनों गुटों के मध्य रक्तहीन क्रांति के माध्यम से हस्तिनापुर साम्राज्य में राजशाही समाप्त कर लोकतंत्रिक पद्धति से चुनाव करने की घोषणा कर दी।
घोषणा के साथ ही हस्तिनापुर की प्रजा में प्रसन्नता व्याप्त हो गई। हस्तिनापुर के जिन मार्गो पर कभी राजसी वस्त्र धारक नर-नारी विचरण करते दिखलाई पड़ते थे, अब वहां खादी के वस्त्र और सफारी सूट धारक नेता दृष्टिंगोचर होने लगे थे। इसी के साथ कौरव व पाण्डव दोनो ही आजीविकाहीन अवस्था को प्राप्त हो गए। यद्यपि कौरवों में अभी राजसी अहम् के कुछ बीज शेष थी, क्योंकि संपत्ति की गर्मी अभी पूर्णतया समाप्त नहीं हुई थी।
पाण्डव तो पूर्व में भी आजीविका-संकट से त्रस्त थे, इसलिए धर्मराज युधिष्ठिर ने भ्राताओं को चुनाव स्वीकार करने का सुझाव दिया। युधिष्ठिर ने कहा हमें भी किसी राजनैतिक दल में सम्मिलित हो कर चुनाव के माध्यम से भाग्य की परीक्षा लेनी चाहिए, अधिक से अधिक विजयी नहीं होंगे, किंतु बनवास की त्रासदी तो सहन नहीं करनी पड़ेगी। जैसी की आशा थी सभी पाण्डु-पुत्रों ने भ्राता युधिष्ठिर का सुझाव सहर्ष स्वीकार कर लिया और युधिष्ठिर टिकट प्राप्ति की इच्छा लेकर एक दल के कार्यलय पहुंच गए।
पार्टी कार्यालय के विशालकाय हरित मैदान में टिकट पाने की आशा मन में संजोए रथी-महारथियों की भारी भीड़ जमा थी। कार्यालय में इंद्रप्रस्थ संसदीय क्षेत्र के टिकट के दावेदारों के साक्षात्कार चल रहा था। प्रिय द्रौपदीव चारों भ्राता के संग धर्मराज युधिष्ठिंर भी टिकट की पंक्ति में पंक्तिबद्ध हो गए। क्षणिक उपरांत के पश्चात आवाज लगी, 'धर्मराज युधिष्ठिंर हाजिर होऽऽऽ!' युधिष्ठिंर के मुख पर प्रसन्नता के भाव उत्पन्न हो गए। मुकुट अर्जुन को पकड़ाया, वस्त्रों की धूल झाड़ी, केश संवारे और प्रणाम के साथ चयन समिति के दरबार में हाजिर हुए। चयन समिति के एक सदस्य ने बैठने का इशारा किया। परंपरागत शालीनता का परिचय देते हुए युधिष्ठिंर ने धन्यवाद का उच्चारण कर आसन ग्रहण किया।
अब बारी प्रश्न करने की थी। पहला प्रश्न अध्यक्ष ने किया, 'वत्स! अपका जनाधार?'
- महाराज, मैं धर्म मार्ग का अनुयायी हूं। अत: इंद्रप्रस्थ में ही नहीं समूचे आर्याव‌र्त्त में धर्मराज के नाम से विख्यात हूं। धर्म ही मेरा आधार है।
अध्यक्ष मुस्कुराते हुए बोला, 'वत्स! राजनीति और धर्म, नहीं-नहीं! यह तो विवादास्पद विषय है। राजनीति में धर्म मिश्रित कर हम अपने दल को संप्रदायिकता के अलंकरण से विभूषित कराने की इच्छा नहीं रखते हैं। यह बताओ इंद्रप्रस्थ में तुम्हारी जाति व संप्रदाय के मतदाताओं की संख्या कितनी है? जनाधार का आकलन जाति व संप्रदाय के आधार पर ही किया जाता है।'
- महाराज, हम पांच भाई हैं..।
यधिष्ठिर गर्व के साथ भाइयों के नाम का भी उच्चारण करना चाहते थे, किंतु अध्यक्ष ने मध्य ही में हस्तक्षेप किया। पांच का अंक सुनते ही अध्यक्ष कसैला-कसैला सा ऐसा मुंह बनाया, मानों किसी ने उसके मुख में करेले का पानी भर दिया हो। इसके साथ ही उसके मुख से निकला, 'बस पांच! ..अच्छा, बाहुबल?'
- भ्राता अर्जुन आर्याव‌र्त्त के सर्वश्रेष्ठं धनुर्धर हैं। मंझले भ्राता भीम गजराज के समान बलशाली हैं। दोनों ही बंधु हमारे बाहुबल हैं। धर्मराज ने गर्व के साथ उत्तर दिया।
समिति के सचिव ने आश्चर्य-भाव के साथ कटाक्ष किया, 'वही अर्जुन! विपक्ष के प्रहार से बचने के लिए जिसने बृहन्नला का रूप धारण किया और हथेली बजा-बजा कर अपनी रक्षा की? ..नहीं, नहीं! पूर्व में अनेक बृहन्नला हमारी पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर चुके है, बस और नहीं!'
क्षणिक मौन के उपरांत सचिव ने अगला प्रश्न किया, 'अच्छा यह बताओ, अर्जुन की रक्षा हेतु क्या इस चुनाव-संग्राम में भी तुम्हारी माता कर्ण से कुंडल व कवच प्राप्त करने में सफल हो पाएगीं?'
सचिव का प्रश्न सुन धर्मराज के चेहरे पर निराशा के भाव व्याप्त हो गए और पृथ्वी की दिशा में इस प्रकार शीश झुका दिया, मानो प्रिय द्रौपदी पुन: चीरहरण की त्रासदी से गुजर रही हो।
अगला प्रश्न अध्यक्ष ने किया, 'अच्छा, यह बताओ धर्मराज! चुनाव प्रचार के लिए क्या कोई सुंदरी तुम्हारे पास है या ऐसा कोई विषय या संदर्भ जिसके आधार पर तुम्हें सहानुभति-मत प्राप्त हो सकें?'
धर्मराज बोले, 'द्रौपदी, महाराज! हमारे पांचों भाइयों की संयुक्त पत्‍‌नी। वह अद्ंभुत सुंदर है। सहानुभूति प्राप्त करने के लिए उसके चीरहरण को विषय बनाया जा सकता है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि सहानुभूति-लहर हमारे पक्ष में होगी।'
सचिव ने फिर नाक-भौं सिकोड़ी और आश्चर्य व्यक्त किया, 'द्रोपदी! पांच भाइयों की संयुक्त पत्‍‌नी! धर्मराज हमारी पार्टी को कुलवधू नहीं नगर-वधुओं की आवश्यकता है।'
सचिव ने दीर्घ श्वास ली और पुन: बोला, 'चीरहरण ही नहीं, चीर ही अब चर्चा का विषय नहीं रहा है। चीर की पीर से परिचित द्रौपदियां अब चीर का परित्याग कर चुकी हैं। वत्स! तन पर जब चीर ही नहीं, तो फिर चीरहरण पर सहानुभूति कैसी? चीर विहीन अनेक द्रौपदियां हमारी पार्टी की सदस्या हैं और हमारी पार्टी स्वयं भी चीर-वीर जैसी औपचारिकताओं से परहेज करती है। अत: हमारे लिए चीरहरण न संकट का कारण है और न ही विवाद का विषय। वैसे भी चीरहरण के समय ही तुम उस पर विवाद उत्पन्न नहीं कर पाए, पांचों भाई सिर लटकाए बैठे रहे। संवाददाता सम्मेलन तो क्या, एक ज्ञापन तक जारी नहीं कर पाए। सहानुभूति तब नहीं बटोर पाए, तो अब क्या खाक बटोर पाओगे? अन्य कोई आधार?'
'महारथी भीष्म पितामह, तातश्री विदुर, कुलगुरु कृपाचार्य और गुरु द्रोण का नैतिक समर्थन हमारे साथ है।' धर्मराज ने गर्व के साथ बखान किया।
कुटिल मुस्कान के साथ सचिव पुन: बोला, 'यह महा-संग्राम है, वत्स! नीतिशास्त्र पर व्याख्यान देने के लिए महासभा का आयोजन नहीं। केवल नैतिक समर्थन नहीं, सक्रिय भागीदारी चाहिए। ऐसे महारथियों का हम क्या करेंगे, जिनका नैतिक समर्थन तुम्हारे साथ हो, किंतु युद्ध कौरवों के पक्ष में करें! नहीं, नहीं हमें ऐसे नैतिक समर्थन वाले नेता नहीं चाहिए।'
निराश युधिष्ठिंर ने टिकट की चौपड़ पर अंतिम पाशा फेंका, 'महाराज! भगवान कृष्ण का संपूर्ण आशीर्वाद हमारे साथ है।'
चयन समिति के अध्यक्ष ने ठहाका लगाया, 'वर्तमान राजनीति से अनभिज्ञ हे, धर्मराज! शायद तुम्हें वास्तविकता का ज्ञान नहीं है। वत्स! वर्तमान राजनीति का मुद्दा कृष्ण नहीं राम हैं। जब कभी राम का आशीर्वाद प्राप्त हो जाए तो टिकट की इच्छा लेकर हमारे पास आ जाना। तुम्हारे आवेदन पर हम सहानुभूति पूर्वक विचार करेंगे।'
(कल टिकट के लिए दुर्योधन का आवेदन पढ़े)

Tuesday, January 8, 2008

अबोध!!!

रेत जिस सहजता से इकट्ठा होता है,
उसी सहजता से बिखर जाता है।
कल नहीं जानता था, अबोध था।
पांव पर रेत चढ़ाता, घर बनाता।
खुश होता,
स्रजनात्मक अभिव्यक्ति पर।
वह मेरा सहज विजय-भाव था,
अहम् नहीं।
रेत का घर रेत की तरह बिखर जाता।
रोता..!
वह मेरा पराजय भाव था।
अहम् का बिखरना नहीं।
तब नहीं जानता था।
रेत का घर, रेत होता है।
घर नहीं!
तब मैं अबोध था!
आज जानता हूं,
अबोध नहीं हूं!
फिर भी सपने बुनता हूं,
महल बनाता हूं।
किंतु यह स्रजनात्मक अभिव्यक्ति नहीं,
अहम् भाव है।
क्योंकि मैं अब अबोध नहीं, जानता हूं।
फिर भी खुश होता हूं, अहम् भाव पर।
महल ढह जाते हैं,
सपने बिखर जाते हैं।
फिर भी रेत के महल खड़े करता हूं,
सपने बुनता हूं।
सच में आदमी कल भी अबोध था,
आज भी अबोध है!
रेत के महल खड़े करता है।
रेत की तरह बिखर जाते हैं।
सपने बुनता है,
सपनों की तरह बिखर जाते हैं।
अतीत के सहारे, वर्तमान का निर्माण।
और रेत के गलियारों में,
कहीं खो जाता है, वर्तमान का यथार्थ!
संपर्क – 9868113044

Thursday, January 3, 2008

माया महा ठगिनि हम जानी

'वत्स, क्या? ..वर्तमान संदर्भ में मायाऽऽऽ!' कर्णेन्द्रियों में माया शब्द के प्रवेश मात्र से ही आचार्य श्री का तन-मन ऐसे मुरझा गया, जैसे शिशिर ऋतु में सूखाग्रस्त क्षेत्र की लताएं अथवा किसी मनुवादी प्रमाणपत्र प्राप्त आईएएस अधिकारी!
विचलित मन के साथ भय के रथ पर सवार आचार्य श्री बोले, 'हे, पुत्र! माया तो पुरातन काल से ही विवादास्पद रही है। अब, मेरे मुख से टिप्पणी प्रसारित कराकर मुझे क्यों इस विवाद में घसीटता है। जाओ, धर्म-ग्रंथों का अध्ययन करो माया का रहस्य समझ आ जाएगा।'
आचार्य को ढांढस बंधाते हुए मुन्नालाल बोला, 'हे, जगद् गुरु! राजनीति की उर्वरा भूमि में गहराई तक धंसी आपकी जड़ों से मैं पूर्ण परिचित हूं। वोट बैंक पर लटका ताला तोड़ने में आपको महारथ हासिल है। राजनीति के इस हस्तिनापुर में आप भीष्म पितामह के समान है। राजनीतिज्ञों के लिए आप किसी कुशल व्यवसायी की काली पूंजी के समान हैं। फिर भला किसकी हिम्मत है कि कोई आपको विवाद के दलदल में घसीटने की चेष्टा करे। अत: निरर्थक भय का त्याग कर माया के रूप-स्वरुप का विस्तृत विवेचन करने की कृपा करें।'
मुन्नालाल के सत्यं प्रियम् वचन सुन आचार्य बोले, 'पुत्र! राजनीति का चरित्र बहुत विचित्र है। राजनीति वेश्या के समान है, जो नित्य बिस्तर बदलती रहती है। उसके लिए आज मैं उपयोगी हूं, कल अन्य कोई धर्म गुरु उपयोगी हो सकता है।'
रहस्यवाद और मजबूरीवाद का समानुपाती मिश्रण चेहरे पर पोत आचार्य आगे बोले, 'पुत्र! मेरा नाम राजर्षि सम्मान की सूची में प्रथम स्थान पर है, अत: मुझे माया जाल में उलझा कर उस सूची से मेरा नाम साफ कराने का प्रबंध न कर।'
आचार्य श्री की व्यथा-कथा सुन मुन्नालाल ने मक्खन की मात्रा में वृद्धि की और मालिश करते हुए बोला, 'हे, आचार्य! आप भी यदि 'माया' शब्द मात्र से व्यथित हो जाएंगे। आप ही यदि भयवश संयम का त्याग कर देंगे। तब इस देश की राजनीति कि दिशा-दशा क्या होगी, इसकी कल्पना मात्र से ही मेरा मन ऐसे कांपने लगता है, जैसे पवन वेग से पीपल के सूखे पात।'
त्वचा रोम के रास्ते मक्खन की चिकनाई आचार्य के अंतर्मन में प्रवेश हुई और शुष्क मन चिकनाई प्राप्त कर मुलायम हुआ। इस प्रकार मुन्नालाल का मक्खनी प्रयोग सफल हुआ। बगुले की भांति आचार्य श्री ने दाएं-बाएं गर्दन घुमाई और माया की दिशा में उड़ान भरी। 'प्रिय, पुत्र! तेरी बाल हट के सम्मुख मैं पराजित हुआ और निर्धारित विजन-मिशन को एक तरफ रख माया के रहस्य पर मद्धम-मद्धम प्रकाश डालता हूं। लेकिन मेरी नसीहत पर भी तू गंभीरता से विचार करना।'
''देवो न जानति कुतो मुनष्य:''
हे, प्रिय पुत्र! मनुष्य की तो औकात क्या मान्यवर राम जी भी अपनी माया का रहस्य नहीं जान पाए। रामजी की माया है, पुत्र!रामजी की माया। तू फिजूल ही क्यों इस लफड़े में पड़ता है।' 'पुत्र, बड़ी विचित्र है माया की 'माया'! पुत्र! क्षण-प्रतिक्षण रूप परिवर्तन करना उसकी प्रकृति है। पुरातन काल से ही ऋषि-मुनि मायाजाल से दूर रहने की नेक सलाह देते आए हैं। मगर मोह के वशीभूत मनुष्य उसके मायाजाल में उसी प्रकार फंसता चला जाता है, जैसे अन्न के दाने देखकर जाल में कबूतर। '
प्रिय पुत्र! शंकराचार्य ने माया को असत्य कहा, भ्रम कहा, रज्जू में सर्प के समान कहा और दादा कबीर ने उसे मोहिनी कहा। उसका मोहिनी रूप देखकर मनुष्य उसी प्रकार अपना कंट्रोल खो बैठता हैं, जिस प्रकार हल्दीराम की भुजिया का खुला पैकेट देखकर टीवी बाला। माया के मोहिनी रूप से आकर्षित मनुष्य उसके साथ गठजोड़ कर बैठता है और फिर मनु के वंशज का तमगा प्राप्त कर दर-दर भटकता फिरता है।'
'माया विषकन्या है, पुत्र! वह राजा को रंक बनाने की क्षमता रखती है। कल्याण की भावना से जंजाल में फंसे व्यक्ति को भी नहीं बख्शती। अच्छे-अच्छे तीसमारखाओं की तासीर बदल कर माया उन्हें मुलायम बनाने की क्षमता रखती है।'
'परम प्रिय मुन्नालाल! दादा कबीर भी माया के मोह में फंसे होंगे, उनके अनुभव से ऐसा ज्ञात होता है।'
''कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ॥''
स्पष्ट है कि स्वार्थ का त्याग कर केवल कल्याण भावना के साथ ही दादा ने माया शिविर में प्रवेश किया होगा। मगर शिविर में प्रवेश पाते ही वह भी ठगे रह गए होंगे। अपने अनुभव के आधार पर तभी तो उन्होंने कहा, 'माया महा ठगिनि हम जानी। तिरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुर बानी॥''
'अंततोगत्वा दादा की स्थिति क्या हुई, ''कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर॥'' 'प्रिय पुत्र माया की चपत लगने के बाद मनुष्य दादा कबीर की ही तरह निष्काम-प्रवृति का हो जाता है।'
'उस दिन से आज तक बाजार में खड़ा कबीर चिल्ला-चिल्लाकर मनुष्य को माया से दूर रहने की नसीहत दे रहा है। मगर मनुष्य अनसुनी कर केवल यही दोहरा रहा है, ''माया तेरे तीन नाम परसी, परसा, परसुराम'' और उसके जंजाल में फंसता चला जा रहा है। अत: हे, पुत्र! तू माया का मोह त्याग, अन्य कोई शिविर तलाश। दीमक के समान माया तेरा जनाधार चाटती जा रही है। व्यर्थ में ही क्यों अपना जनाधार नष्ट कर रहा है, कबीर की मान, 'माया को महा ठगिनि जान।'
संपर्क : 9868113044