Wednesday, May 21, 2008

ज्ञान के प्रकाश से अंतरात्मा को प्रकाशित करो

रात्रि का समय था। हवा शांत थी, गर्मी अशांत थी। भव्य पंडाल में सत्यानंद जी प्रवचन-प्रसारण चल रहा था, 'हे मां! हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चल। असत्य से सत्य की ओर तथा मृत्यु से अमृत की ओर ले चल।' तभी बिजली धोखा दे गयी। चरों ओर अंधकार छा गया। माइक गला बंद हो गया। भक्तजनों में खलबली मच गयी। परनिंदा में माहिर भक्तजन् सरकार को कोसने लगे। कुछ अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने की सद्-इच्छा से इधर-उधर हाथ-पांव पटकने लगे। एक भक्त ने जींस की जेब से लाइटर निकालकर अंधकार से प्रकाश की ओर गमन करने का सार्थक प्रयास किया। मंच पर गैस की लालटेन को माचिस दिखलाई गई। इस प्रकार अंधकार से प्रकाश की ओर जाने का एक दौर संपन्न हुआ। प्रवचन की धारा पुन: प्रवाहित होने लगी।

भक्तजनों के तेवर देख महाराज ने प्रवचन की दिशा में मामूली सा परिवर्तन किया। ब्रह्मं सत्य, जगत मिथ्या की तर्ज पर महाराज ने ओजस्वी वाणी से अमृत वर्षा करते हुए कहा, 'भकतजनों! प्रकाश असत्य है। अंधकार ही सत्य है। जीवन के सभी पुण्य कार्य अंधकार में ही संपन्न होते हैं। प्रकाश में संपन्न पुण्य कार्य भी पाप-कर्म में परिवर्तित हो जाते हैं। अंधकार मिटाने के लिए हमें प्रकाश की व्यवस्था करनी पड़ती है, किंतु प्रकाश से निपटने के लिए अंधकार की व्यवस्था नहीं की जाती, अपितु प्रकाश को ही समाप्त कर दिया जाता है। अत: अंधकार ही शाश्वत है, प्रकाश नश्वर है।'

महाराज ने वाणी को विराम देकर दीर्घ श्वास का पान किया और फिर बोले, 'विडंबना यह है कि प्रकृति परिवेश में जीना त्याग कर हमने अपने चारों ओर कृत्रिम परिवेश का जाल बुन लिया है। यही दुख का कारण है। प्रकाश की इच्छा रखते हो, तो अपने मन मंदिर में ज्ञान के दीप प्रज्ज्वलित करो। आज पुन: हम प्रकृति की ओर लौट रहे हैं। हमें सरकार और बिजली विभाग का आभारी होना चाहिए कि वे हमें प्रकृति की ओर गमन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। हे भक्तजनों! प्रकाश की आशा उससे करनी चाहिए जो स्वयं प्रकाश-पुंज हो। स्वयं ही जिसका भविष्य अंधकार में है, वह किसी को किस प्रकार आलोकित कर सकता है, अत: सरकार से प्रकाश की आशा का त्याग कर, सूर्य और चंद्रमा के प्रकाश से जीवन को आलोकित करो।'

प्रवचन के मध्य ही एक भक्त ने प्रश्न उछाला, 'महाराज! पानी-संकट?' महाराज बोले, 'सत्य वचन! पानी का घोर संकट है। ऐसा संकट न त्रेता में था और न ही द्वापर में, जैसा कि कलियुग में है। आंखों का पानी सूख गया है। चेहरों का पानी उतर गया है। रहीम दास जी का वचन असत्य हो गया है। अब पानी-विहीन मोती और पानी-विहीन मानुष्य ही सच्चे कह लाए जाते हैं। पानी-विहीन ही उबरते हैं। अत: पानी संकट का लाभ उठाओ। पानी का मोह त्याग, तुम भी महान बन जाओ!' प्रवचन के मध्य ही प्यासे होंठ और शुष्क वाणी से एक अन्य भक्त ने उच्चार किया, 'किंतु महाराज! पेय जल संकट?' भक्त का प्रश्न सुन महाराज मुस्करा दिए और बोले, 'पुत्र! शरीर और मन की तृष्णा कभी नहीं बुझती है। उसका त्याग करो और ज्ञान की पवित्र धारा से अंतरात्मा की तृष्णा को शांत करो।'

सत्यानंद महाराज अंधकार-प्रकाश, सत्य-असत्य और तृष्णा-त्याग पर अंधकार में प्रकाश डाल रहे थे। तभी उनका कर-कमल कनपटी पर पटका। भक्तों के झुंड से एक आवाज भिनभिनाई 'मच्छर' है। एक अन्य आवाज उठी- डेंगू का होगा! तभी करुणा-भाव से एक भक्त का हाथ महाराज की कनपटी की ओर उठा। महाराज संभले और बोले, ' अहिंसा परमोधर्म:! जीवों पर दया करो।' एक भक्त बोला, 'मलेरिया विभाग निकम्मा है। मच्छरों ने हमारा जीना दूभर कर दिया है!'

करुण रस की वर्षा करते हुए महाराज ने भक्त की जिज्ञासा शांत की, 'वत्स! मच्छर हमारे शत्रु नहीं, मित्र हैं। 'चैन की नींद सोना है, तो जागते रहो' का पवित्र संदेश प्रसारित कर हमें निद्रा से जागृत अवस्था में लाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं। साधुवाद की पात्र है सरकार जिसने मच्छरों को नष्ट न करने की शपथ लेकर 'अहिंसा परमोधर्म:' का निर्वाह किया है।' इतना कह कर महाराज ने पुन: कनपटी सहलाई और बोले, 'भक्तजनों! तुम आत्मा हो और आत्मा अमर है। फिर डेंगू के मच्छर से कैसा भय! मच्छर तुम्हारे नश्वर शरीर को तो हानि पहुंचा सकता है, किंतु आत्मा को तो नहीं। तुम आत्मा हो।' महाराज ने पुन: दीर्घ श्वास का पान किया और बोले, 'तमसो मां ज्योतिर्गमय!' तभी बिजली विभाग की कृपा हुई और पण्डाल प्रकाशमान हुआ। इसके साथ ही अंधकार से प्रकाश की यात्रा का समापन हुआ।

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