Sunday, February 24, 2008

मृत्यु का अर्थशास्त्र

चचा मुसद्दीलाल एक अर्से से असाध्य रोग से पीड़ित हैं। गली-मुहल्ले के डाक्टर जवाब दे चुके हैं, क्योंकि चचा स्वयं भी इस नश्वर संसार को जवाब देने की स्थिति में पहुंच गए हैं। पुत्र मुन्नालाल ने हैसियत के मुताबिक पिता की दवा-दारू में कोई कसर बाकी नहीं रखी, मगर क्या किया जाए जब ईश्वर को कुछ और ही मंजूर है। पीड़ित मुसद्दीलाल एक दिन मुन्नालाल से बोले, 'मुन्ना एक काम कर, मुझे किसी सरकारी अस्पताल में भर्ती करा दे।'
पिता की बात सुन अपनी हैसियत और भीड़ भरे सरकारी अस्पतालों के दृश्य उसके सामने एक साथ उभर आए और वह कसमसा कर रह गया। उसने पिता की बात का कोई जवाब नहीं दिया। बस मन ही मन अपने को धिक्कारा, काश! कोई मंत्री-संतरी उसकी भी जान-पहचान का होता और वह भी अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी कर पाता।
दो-तीन दिन बीत जाने के बाद चचा मुसद्दीलाल ने अपनी इच्छा पुन: व्यक्त की। अपनी एलआईजी हैसियत और पिता के दुराग्रह के कारण शालीनता के सभी बंधन तोड़ मुन्नालाल बोला, 'सरकारी अस्पताल में भर्ती होना चाहते हो, अभी भी अपने को तहसीलदार समझ रहे हो। जिंदगी के अंतिम चरण में भी विलासिता के ख्वाब देख रहे हो।'
पुत्र के मधुर वचन सुन मुसद्दीलाल की आंखें भर आई और मन ही मन अपने आप को धिक्कारा, 'सरकारी अस्पताल में इलाज भी विलासिता! क्या जमाना आगया है?'
मृत्यु शैया पर पड़े पिता के साथ दु‌र्व्यवहार का किस्सा पूरी कालोनी में चर्चा का विषय बन गया। लोक-लाज वश वृद्ध माता-पिता की सेवा करने वाले सुपुत्रों ने भी मुन्नालाल को धिक्कारा, तो ऐसे सुपुत्र भी आलोचना करने में पीछे नहीं रहे, जो पुण्य प्राप्त करने के आध्यात्मिक स्वार्थ के वशीभूत सेवा करना अपना परम-धर्म मानते हैं। और तो और ऐसे लोगों ने भी मुन्नालाल को खूब लानत-मनानत देकर अपनी गिनती सुपुत्रों में करा ली, जिन्होंने अपने माता-पिता को जीते-जी एक गिलास पानी भी कभी अपने हाथ से नहीं पिलाया। हां, मृत माता-पिता की आत्मा उन्हें परेशान न करें, इस भय से मुक्त रहने के लिए वे उनका श्राद्ध करना कभी नहीं भूले।
खैर बात उड़ते-उड़ते मुसद्दीलाल के मित्र चिंतादास के पास पहुंची और लानत-मनानत देने के लिए उसने मुन्नालाल को तलब किया। चिंतादास ने मुन्नालाल को पुत्रधर्म समझाया, पित्र भक्ति से ओतप्रोत पौराणिक कहानी सुनाई और लानत-मनानत दी और अंत में पिता को अस्पताल में भर्ती कराने की आदेशात्मक सलाह दी।
चिंतादास के वचन सुन मुन्नालाल बोला, 'चचा! तुम्ही बताओ, कोई कोर-कसर छोड़ी है उनके इलाज में, मगर वे तो सोचते हैं, आज भी वैसा ही जमाना है, जैसा उनकी तहसीलदारी के समय था।'
भीगी पलकों के साथ मुन्नालाल आगे बोला, 'चचा सरकारी अस्पताल में भरती कराना अब कोई खाला का घर नहीं है कि जब चाहो मेहमानदारी में चले जाओ। भरती कराने के लिए कम से कम स्वास्थ्य मंत्री की सिफारिश तो चाहिए ही, कहां से लाऊं?'
मुन्नालाल की चिंता चिंतादास को भी उचित लगी और हमें भी। सरकारी अस्पतालों में अब या तो सरकार आराम फरमाने जाते है अथवा ऐसे भाई लोग जेल की हवा में जिनका दम घुटता है। आम आदमी तो हाथ में दवा की पर्ची थामे बस तारीख पर तारीख ही भुगतता रहता है और तब तक भुगतता रहता है, जब तक कि ऊपर वाले की अदालत में उसके मुकदमे का अंतिम फैसला न सुना दिया जाता।
मुन्नालाल करता भी तो क्या करता, वह जानता है कि शहर में अमन-चैन कायम रखने के लिए पुलिस वाले वारदात दर्ज नहीं करते और मृत्यु दर में गिरावट लाने के परम्ं उद्देश्य की प्राप्ति हेतु सरकारी अस्पताल वाले ला-इला़ज मरीज को भर्ती नहीं करते। फिर इस हालात में उसके पिता को कोई क्यों भर्ती करेगा।
दरअसल सरकारी अस्पताल वाले बड़े ही दयालु किस्म के जीव होते हैं। वे नहीं चाहते हैं कि कोई भी व्यक्ति सड़-सड़ कर अस्पताल में मरे, अच्छा यही है कि वह अपने परिजनों के बीच चैन से मृत्यु को प्राप्त हो। यही वजह है कि मरीज को जीवन के अंतिम पायदान तक पहुंचाने का अनुष्ठंान पूर्ण कर उसे अस्पताल से घर भेज दिया जाता है, ताकि वह शास्त्रानुसार मृत्यु को प्राप्त हो सके।
हां, मृत्यु का भी अपना शास्त्र होता है, अर्थशास्त्र! जो व्यक्ति निजी पंचतारा अस्पतालों की सुंदर नर्सो की बांहों में मृत्यु का वरण करते हैं, वे एचआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। सरकारी अस्पतालों के नकचढ़े वार्ड बॉय व नर्सो के प्रवचन सुनते-सुनते इस नश्वर शरीर का त्याग करने वाले मनुष्य एमआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं और आंखों में अस्पताल सुख का सपना संजोए-संजोए घर के एक कोने में बिछी खटिया पर प्राण त्यागने वाले प्राणी एलआईजी मृत्यु को प्राप्त होते हैं। ईडब्ल्यूएस मृत्यु को प्राप्त होने वाले मनुष्य महानगरों की सड़क के किनारे पटरियों पर दम तोड़ने का सुख प्राप्त करते हैं।
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Thursday, February 21, 2008

कटी नाक का सवा हाथ बढ़ना

मुझे ऐसे लोगों पर तरस आता है, जो छोटी-छोटी बात को भी नाक का सवाल बना लेते हैं। बात कैसी भी हो, छोटी हो या बड़ी, नाक का सवाल नहीं बनाया जाना चाहिए। हकीकत में 'नाक' नाक का सवाल है ही नहीं! मेरी नजर में नाक को तरजीह देने वाले लोग अव्यवहारिक होते हैं। नाक बचाने में व्यर्थ ही अपना पूरा जीवन गंवा देते हैं!
वास्तव में नाक बचाने की वस्तु नहीं है, क्योंकि नाक बॉस की नाक का बाल बनने में बाधक है! प्रगति में बाधक है! नाक बचाऊ लोगों की जिंदगी 'जहां है, जैसी है' की स्थिति में ही व्यतीत हो जाती है। मौल-भाव से वंचित रह जाती है।
नाक होने का जिन्हें अहसास तक नहीं होता, ऐसे लोग व्यवहारिक होते हैं। अहसास नहीं होता, इसलिए नाक कटना उनके लिए कोई घटना नहीं है। प्रगति मार्ग पर बेखौफ बिना किसी बाधा के स्केटिंग करते चले जाते हैं। नाक कटे लोग ही सम्मानित व्यक्ति कहलाए जाते हैं। ता-उम्र पूजे जाते हैं। बाद मरने के उनके बुत भी पूजनीय हो जाते हैं। ऐसे लोग ही बाद मरने के भी अमर कह लाए जाते हैं।
नाक दरअसल शरीर का ही एक अंग है, मगर भिन्न प्रकृति का। क्योंकि यह जितनी कटती है, उससे कहीं ज्यादा बढ़ती है, अत: नाक कटने से शारीरिक हानि भी नहीं है। 'नाक कटते ही सवा हाथ बढ़ जाती है' यह शोध सदियों पुराना है। नाक वास्तव में गुलाब के झाड़ के समान है, क्योंकि नाक भी कांट-छांट के बाद ही बढ़ती है, उसके बाद ही फलती-फूलती है। बिना कटी नाक छोटी होती है, कटने के बाद ही बड़ी होती है।
नाक कुत्ते की पूंछ के समान है। सुरक्षित रहेगी, तो कुत्ते की पूंछ की तरह टेढ़ी ही रहेगी, अर्थात प्रगति में बाधक बनी रहेगी। टेढ़ी पूंछ क्योंकि आसानी से हिलती नहीं है, इसलिए टेढ़ी पूंछ का कुत्ता किसी को भाता नहीं है। कुत्ता वही वफादार कहलाया जाता है, जो बात-बात पर पूंछ हिलाता है। पूंछ हिलाने वाला कुत्ता ही अपने पालक की नाक का बाल बनता है।
टेढ़ी पूंछ तो वक्त पड़ने पर हिलाई भी जा सकती है, मगर नाक तो स्वभाव से ही स्थिर है, हिलती ही नहीं है। इस मामले में कुत्ते की पूंछ से भी बदतर है। यही कारण है कि नाकदार व्यक्ति भाग्यविधाता की नाक का बाल बनने से वंचित रह जाता है। ऐसी नाक का क्या लाभ, जो नाक का बाल बनने में बाधक हो। अत: उचित यही होगा कि नाक कटा कर प्रगति का मार्ग प्रशस्त किया जाए।
जिन कुत्तों की पूंछ सीधी नहीं हो पाती अर्थात हिल नहीं पाती, ऐसे नस्ल के कुत्तों की पूंछ बचपन में ही काट दी जाती है। पूंछ कटी नस्ल के ऐसे कुत्ते अपेक्षाकृत ज्यादा उपयोगी होते हैं, ज्यादा कीमती होते हैं। इसी प्रकार नाक कटे इंसान अपेक्षाकृत ज्यादा प्रभावशाली होते हैं, ज्यादा प्रगतिशील होते हैं।
दरअसल नाक और पूंछ कटने के बाद शरीर में कुछ जैविक परिवर्तन होने लगते हैं। कुछ अतिरिक्त हारमोंस बनने लगते हैं। जिनके कारण नाक कटे इंसान और पूंछ कटे कुत्ते उम्दा किस्म के कहलाए जाते हैं।
ऐसे अनेक महानुभाव कुकुरमुत्ते की तरह समाज में पनप रहें हैं, जो कभी साधारण जीव की तरह विचरते थे। आज विशिष्ट जनों की पंक्ति में भी आगे खड़े हैं। जाने-अनजाने या कहा जाए दुर्घटनावश कभी उनकी नाक कटी थी। प्रारंभ में तो शर्म के कारण बेचारों ने मुंह दिखाना बंद कर दिया था। कुरूप होने का अनुभव करने लगे थे। परंतु जैसे-जैसे उनके शरीर में जैविक परिवर्तन और हारमोंस विकसित हुए, वे अपने-आप को पूर्व की स्थिति से ज्यादा तरोताजा महसूस करने लगे और मुंह से नकाब हटाने लगे।
नाक कटे वे महानुभाव आज नाकदार ही नहीं अपने-अपने स्थान पर समाज व राष्ट्र की नाक कहलाए जा रहे हैं। उनमें से अनेक सत्ता में अपना अपूर्व योगदान देकर इस राष्ट्र को गौरव प्रदान कर रहें हैं।
अब आप पूछेंगे, तो क्या इस देश का जुगाड़ ऐसे ही महानुभाव धकेल रहें हैं? इस सवाल के जवाब में मैं कुछ नहीं बोलूंगा, चुप रहूंगा। बस इतना ही कहूंगा आप भी अपनी-अपनी नाक कलम करा लीजिए। कलमी वृक्षों पर लगे फल ज्यादा मीठे होते हैं, उम्दा कहलाए जाते हैं, महंगे भाव बिकते हैं। बाकी आप खुद समझदार हैं।
संपर्क- 9868113044

Tuesday, February 19, 2008

अपराधीकरण नहीं, यह हृदय परिवर्तन है

जब कभी कोई अतीक भाई अंधेरी गलियों से निकल कर उजाले में आता है, चाय के कुल्हड़ में तूफान खड़ा हो जाता है! पता नहीं क्यों? राजनीति के अपराधीकरण पर चिंता व्यक्त की जाने लगती है। कल तक जो खुद अतीक थे, वे भी चिंता के स्वर आलापने लगते हैं। राजनीति की गंगा प्रदूषित होने का शोर मचाने लगते हैं। अब कोई उनसे पूछे, बहती गंगा में हाथ धोने को किसका मन नहीं करेगा! जब गंगा का अवतरण ही पाप धोने के लिए हुआ है, तो फिर कोई अतीक पाप धोने के लिए यदि राजनीति की गंगा में पांव पसारता है तो इसमें हर्ज क्या है?
कोई उन से पूछे, भाइयों के आने से राजनीति का अपराधीकरण कैसे हो गया? गंगा में नाले गिरते हैं, गंगा फिर भी गंगा है। गंगा का नालाकरण तो नहीं हो जाता? हाँ, गंगा में गिरने वाले नालों का गंगाकरण अवश्य हो जाता है! इसी प्रकार राजनीति का अपराधिकरण नहीं, अपराध का राजनीतिकरण हो रहा है।
बे-बात कुल्हड़ में तूफान खड़ा करना राष्ट्र-विरोधी गतिविधि है, इससे राष्ट्र की एकता-अखण्डता और विवधता पर आंच आती है! व्यक्तिगत स्तर पर मैं इसके खिलाफ हूं। मेरा मानना है कि यह राजनीति का अपराधिकरण नहीं हृदय परिवर्तन है। हृदय परिवर्तन के उदाहरणों से हमारा इतिहास लबालब है। अतीक ऐसे ही हृदय परिवर्तन का प्रतीक है। अपराधी प्रवृत्ति का कोई अतीक जब धर्मात्मा बन सकता है, तो राजात्मा क्यों नहीं बन सकता?
कलिंग युद्ध रक्त-पात करने के उपरांत सम्राट अशोक का हृदय परिवर्तन हुआ और बोध-धर्म अपना कर महान कह लाया। मानव-अंगुलियों की माला पहनने वाले अंगुलिमाल का हृदय परिवर्तन हुआ और भगवान बुद्ध ने उसे अपने संघ की सदस्यता प्रदान कर दी थी।
फिर हमारे अतीकों के साथ यह भेदभाव क्यों? सम्राट अशोक जितने रक्त तो आजकल के अतीकों के खाते में नहीं होंगे और न ही उनके गले में अंगुलिमाल जितनी अंगुलियां पड़ी होंगी। फिर यदि किसी अतीक का हृदय परिवर्तन होता है, तो किसी को एतराज क्यों? अरे, भाई! यह गांधी का देश है। गांधी जी ने कहा था, 'पाप से घृणा करो पापी से नहीं'। फिर अतीक भाइयों से घृणा क्यों?
हमारा मत है कि अतीक भाइयों के जरिए देश में समाजवाद आ रहा है! समाजवाद ऐसे ही आएगा! समाजवाद आने दो! भाई लोग यदि राष्ट्र की मुख्यधारा में प्रवेश कर रहे हैं, करने दो! राष्ट्र की मुख्य धारा को सुदृढ़ होने दो! बे-बात की बात में कुल्हड़ में तूफान मत खड़ा करो! कुल्हड़ की पोल खुल जाएगी!
तूफान खड़ा करने वाले ये वो लोग हैं, जिन्हें अतीक भाइयों के राजनीति में आने से आपनी रोटी खतरे में नजर आने लगती है। अरे भाई! यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र में नागरिकों को रोटी सेंकने का मौलिक अधिकार प्राप्त है। अत: अतीकों को भी राजनैतिक रोटियां सेंकने का प्रतीक बनने दो!
संपर्क : 9868113044

Monday, February 4, 2008

अन्तिम इच्छा

''हे, ईश्वर इतनी कृपा करना, अगले जन्म में मुझे किसी श्वान सुंदरी की कोख से जन्म दे देना! यह जन्म तो अकारत ही चला गया। तूने मुझ पर एक आंख से भी कृपा नहीं की! बिना भेदभाव के सभी को एक आंख से देखने का तेरा दावा नेताई निकला। मुझ पर यदि तेरी कृपा होती, तो कम से कम एक श्वानीय-गुण का तो मेरे चरित्र में समावेश करता! जन्म-कुण्डली बनाते वक्त भूल गया था, तो बाद में ही प्रत्यारोपित कर देता। किंतु नहीं, तू ने ऐसा भी नहीं किया! ..मेरे साथ पक्षपात किया! मेरे मित्रों को श्वान-सर्वगुण संपन्न कर दिया और मुझे बैरंग ही मृत्युलोक पोस्ट कर दिया! कोई बात नहीं भूल सुधार कर ले। अगले जन्म के लिए तो मुझे श्वान-कोटे में आरक्षित कर दे!''
शनै:-शनै: उम्र के अंतिम पड़ाव की ओर सरक रहा हूं। कल उस मंजिल को पालूंगा, जहां से नई मंजिल के लिए द्वार खुलते हैं। 'आज मरे कल दूजा दिन' सोच रहा हूं, दूजा-तीजा होने से पूर्व ही ईश्वर के सामने अपनी अन्तिम इच्छा प्रस्तुत कर दूं। इस जन्म के लिए नहीं पूर्व जन्म के लिए। इस जन्म में तो ऐसा कुछ मेरे पास है ही नहीं, जिसे लेकर मेरी औलाद झगड़ा करे और मुझे वसीयत लिखने की आवश्यकता महसूस हो! इसलिए वसीयत नहीं अन्तिम इच्छा पंजीकृत करा रहा हूं! औलाद के लिए कुछ छोड़कर जाओ और वह नश्वर शरीर ठिकाने लगाने से पूर्व ही बटवारे के लिए महाभारत का आयोजन करने लगे। इसके खिलाफ मैं हमेशा से ही रहा हूं!
मैं यह भी सोचता हूं, यह जन्म तो जैसे-तैसे पूर्ण आहुति के समीप है, फिर क्यों ने अगले जन्म के लिए ईश्वर से प्रार्थना की जाए। शायद उसे तरस आजाए, प्रार्थना स्वीकार कर ले। कम से कम अगले जन्म में ही सही सफल व्यक्तियों की सूची में अपना नाम भी दर्ज हो जाए!
मैं जानता हूं, इस जन्म से छुटकारा मिलने के बाद, जब तक अगला जन्म प्राप्त करूंगा, तब तक श्वान-संस्कृति अपने चर्म पर होगी। श्वान-गुण-संपन्न व्यक्ति ही तब शासन में होंगे, प्रशासन में होंगे, प्रत्येक क्षेत्र में अग्रणी होंगे। वैसे कमी आज भी कुछ नहीं है, लेकिन इसे प्रारंभिक अवस्था ही कहना ठीक होगा। उस समय मनुष्य गौण श्वान प्रधान होगा। अनुमान तो यह है कि जो थोडे़-बहुत मनुष्य आज शोष हैं भी, तब तक उनका भी राम नाम सत्य हो जाएगा। तब श्वान-संस्कृति ही राष्ट्र-संस्कृति होगी! उसी पर आधारित सांस्कृतिक राष्ट्रवाद होगा!
कृष्ण-भक्त रसखान ने भी मेरी ही तरह पुनर्जन्म के लिए मौजूदा जन्म में आराध्य कृष्ण भगवान के सामने अन्तिम इच्छा व्यक्त की थी। किंतु मेरी और उनकी अन्तिम इच्छा के मसौदे में अंतर है। पता नहीं क्यों, उन्होंने अगले जन्म में भी मनुष्य-योनि को ही प्राथमिकता दी है। इसके अतिरिक्त उन्होंने गाय, पक्षी और पाषाण के रूप में जन्म लेने की संभावना से भी इनकार नहीं किया, लेकिन श्वान को उन्होंने उपेक्षित ही रखा।
मुझे लगता है, उन्होंने वसीयत अतिभावुक अवस्था में की होगी। भावुक मन से लिए गए निर्णय बौद्धिक नहीं हुआ करते हैं। अत: वे भविष्य का सटीक अनुमान नहीं कर पाए होंगे। भावुकता के स्थान पर यदि वे बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए दूरदृष्टिं का उपयोग करते, तो एक विकल्प श्वान-रूप में उत्पन्न होने का अवश्य रखते! उनके जमाने में मानुष का महत्व श्वानों की अपेक्षा अधिक रहा होगा, इसलिए वे मानुष-जन्म को प्राथमिकता प्रदान कर गए। अब अवश्य पछता रहें होंगे!
किसी न किसी रूप में श्वान के महत्व को कवि श्रेष्ठ रामधारी सिंह दिनकर ने समझा था। 'श्वानों को मिलते दूध-दही, भूखे बच्चे अकुलाते हैं। माँ की गोदी से लिपट-लिपट जाड़े की रात बिताते हैं।' दिनकर जी की ये पंक्तियां श्वान महत्व का सबूत हैं। यह बात अलग है कि इन लाइनों में श्वानों के प्रति ईष्र्या-भाव झलकता है। लेकिन यह भी सत्य है कि समाज में श्रेष्ठ व्यक्तित्व ही ईष्र्या का पात्र होता है।
दिनकर जी की कविता के आधार पर हम यह तो दावा कर ही सकते हैं कि उनके समय से ही श्वान-संस्कृति फलने-फूलने लगी थी। आज तो वह विराट स्वरूप ग्रहण करती जा रही है और जब तक मैं पुनर्जन्म में प्रवेश करूंगा, तब तक तो वल्ले-वल्ले हो जाएगी। तब मैं भी सरकारी-बजट का लाभ प्राप्त करने के योग्य हो जाऊंगा। हालांकि चोरी-छिपे बिस्कुट अभी भी वे ही इस्तेमाल कर रहा हूं, किंन्तु तब साधिकार कर पाऊंगा।
किसी ऐश के सुंदर-कोमल स्पर्श के लिए अब तरसता हूं। जब किसी श्वान-शिशु को सुंदरी के गोल-गोल कपोलों का रसास्वादन करते देखता हूं, तो मन मसोस कर रह जाता हूं! मन में एक हूक सी उठती है, 'हाय! ..श्वान के भाग कहा कहिए, गोल-कपोल पै कर रहा चुम्मा-चाटी!'
ईश्वर मुझ पर कृपा कर दे, मेरी वसीयत पर मुहर लगा दे, तो किसी सुंदरी की गोद में शोभायमान होने का शुभ अवसर मुझे भी प्राप्त हो जाएगा। तब मुझे भी ऐश के साथ जीवन व्यतीत करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। अपनी भी ऐश होगी!
अत: बहुत सोच-विचार कर मैंने श्वान-सुंदरी की कोख से जन्म लेने की इच्छा व्यक्त की है। मगर मैं ईश्वर को किसी मुसीबत में भी नहीं डालना चाहता हूं, क्योंकि मैं जानता हूं कि मेरे जैसी इच्छा करने वाले लोग की तादाद कहीं अधिकहोगी और श्वान-कोख सीमित। अत: मैने एक विकल्प भी रखा है। मेरे भाग्य में यदि अगली बार भी मनुष्य-योनि में ही जन्म लेना लिखा है, तो हे, परमपिता परमात्मा! इतनी कृपा अवश्य कर देना मुझे श्वान सद्गुणों से संपन्न तो कर ही देना!
संपर्क : 9868113044
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Sunday, February 3, 2008

नेता प्रशिक्षण संस्थान

बेरोजगार हूं! कहानी, व्यंग्य, लेख कब तक गढ़ता रहूंगा। इतने दिन से गढ़ रहा हूं, फिर भी बेरोजगार ही कहलाया जा रहा हूं। कभी-कभी लगता है, मैं खुद ही व्यंग्य-कथा का पात्र बनता जा रहा हूं।
कब तक यूं ही हाथ पर हाथ धरे बैठा रहूंगा? बेरोजगार कहलाया जाता रहूंगा? कब तक परिवार के लिए घृणा का पत्र बना रहूंगा? नौकरी की संभावनाएं क्षीण है, क्योंकि नौकरी के लिए आवश्यक योग्यता मुझ में नहीं हैं। कार्य में निपुणता, निष्ठा, ईमानदारी, मेहनत आजकल बेमानी हो गई हैं। नौकरी करनी है, तो चमचई आनी चाहिए, मक्खन लगाना आना चाहिए, हिलाने के लिए एक अदद पूंछ चाहिए, तलवे चाटने के लिए स्वाद-ग्रंथी-विहीन जीभ चाहिए। कुल मिलाकर पांव-पान-पूजा में निपुण होना चाहिए। ऐसी किसी भी योग्यताओं से संपन्न होता, तो बेरोजगार ही क्यों कहलाया जाता?
सोच रहा हूं, अपना ही कोई रोजगार शुरू कर लूं! किस्म-किस्म की दुकानदारियों में संभावनाएं तलाशता हूं। निगाह की सुई शिक्षा के क्षेत्र पर आकर अटकती है। क्योंकि मौजूदा दौर शिक्षा के क्षेत्र में श्वेत-क्रांति का दौर है। शिक्षा से संबंधित दुकान कैसी भी हो चांदी ही चांदी है।
शिक्षा के क्षेत्र में भी वैरायटी बहुत हैं। मसलन आई टी, सीए, एमबीए, पत्रकारिता, चिकित्सा, बीएड आदि-आदि। मगर ऐसी किसी भी दुकान में संभावनाएं कुछ खास नजर नहीं आ रही हैं। हालांकि दुकानदारी इनमें चकाचक है, मगर ऐसी दुकानें खुल भी बहुत गई हैं। एक और ऐसी दुकान खोल कर बेरोजगारी को ही बढ़ावा देना होगा। मैं नहीं चाहता एक अदद अपनी बेरोजगारी समाप्त कर बेरोजगारों की फौज खड़ी करूं!
विचार कर रहा हूं कि शिक्षा के ही क्षेत्र में किसी ऐसी उप-क्षेत्र में भाग्य आजमाया जाए, जिसमें बेरोजगारी की संभावनाएं न के बराबर हों। दिमाग जब इस तरफ दौड़ाता हूं, तो भिखारी, जेबतराशी, चोरी आदि ऐसे क्षेत्र पाता हूं। जिनमें कितने ही प्रशिक्षित विद्वान पैदा हो जाएं, बेरोजगार रहने की संभावनाएं न्यून ही हैं, क्योंकि ये सभी सद्कर्म स्वरोजगार की श्रेणी में आते हैं।
मगर लोचा यहां भी है, क्योंकि इन सभी के प्रशिक्षण दुकानें काफी तादाद में चल रही हैं, इसलिए संबद्ध दुकान खोलने पर प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा। एक बिलकुल अछूता क्षेत्र मेरे जहन में उतरा है, वह है नेतागीरी!
नेता-प्रशिक्षण संस्थान खोलने की तरफ अभी शायद किसी का ध्यान नहीं गया है, इसलिए विश्व में शायद कहीं भी ऐसा प्रशिक्षण संस्थान नहीं है, जो नेतागीरी के लिए युवाओं को प्रशिक्षित करता हो! इसमें बेरोजगारी की गुंजाइश तो बिलकुल है ही नहीं, भविष्य में भी नहीं! अर्थात वर्तमान और भविष्य दोनों चकाचक, मेरा भी और प्रशिक्षित नेताओं का भी।
अंतत: मैं इसी पर अपना ध्यान केंद्रित कर ऊर्जा का भरपूर इस्तेमाल कर रहा हूं। इसके लिए प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी तैयार कर लिया है।
पाठ्यक्रम का पहला पाठ में प्रशिक्षु को 'इंसेल्ट प्रूफ' बनने के तरीके व उसके लाभ से अवगत कराया जाएगा। मेरा मानना है कि 'इंसेल्ट प्रूफ' होना नेता का प्रथम व महत्वपूर्ण गुण है। जो व्यक्ति मान-सम्मान की परवाह करता है, वह कभी भी सफल नेता नहीं बन सकता!
दूसरा पाठ 'समस्या' उत्पादन व उन्हें जीवित रखने से संबंधित है। समस्याएं यदि नहीं होंगी अथवा उनका निराकरण कर दिया जाएगा, तो समूची राजनीति ही भैंस की तरह पानी में चली जाएगी! मुद्दों का अभाव हो जाएगा! चुनाव प्रक्रिया नीरस क्या, समाप्त ही हो जाएगी। यह कहने में भी कोई हर्ज नहीं है कि 'समस्या' नहीं रही तो लोकतंत्र भी खतरे में पड़ सकता है! अत: 'समस्या' का पाठ भी अपने आप में कम महत्वपूर्ण नहीं है!
परोक्ष-अपरोक्ष रूप से समस्या का संबंध 'आश्वासन' से है! समस्या होगी तो उसके निराकरण का भी आश्वासन देना ही होगा। वैसे भी इस देश की अधिसंख्य जनता आश्वासनों के ही सहारे जिंदा है और नेता की नेतागीरी भी! जहां आश्वासन कमजोर पड़ते हैं, वहां आत्महत्याओं का दौर शुरू हो जाता है। इस प्रकार नेताओं पर हिंसक होने का आरोप लगने लगता है। अत: तीसरा पाठ 'आश्वासन' विधि से संबद्ध ही निर्धारित किया गया है! आश्वासन किस प्रकार गढ़े जाएं और किस तरह उन्हें भुला दिया जाए, चुनाव आने पर पुन: उन्हें स्मरण करने व कराने की विधि क्या है? इस पाठ में आदि-आदि पढ़ाए जाने की योजना है।
समस्या और आश्वासन के गणित के लिए 'झूठ' बोलना अति आवश्यक है, इसलिए पाठ्यक्रम में चौथा और महत्वपूर्ण पाठ 'झूठ' से संबंधित है। झूठ बोलने की विधि और झूठ को सच में कैसे तब्दील किया जाए इस पाठ का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा!
'भ्रष्टाचार की 101 विधियां' हमारे पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण भाग है। विधियों के साथ-साथ इस पाठ्यक्रम में भ्रष्टाचार को शिष्टाचार में तब्दील करने की विधियों में भी प्रशिक्षुओं को निपुण किया जाएगा।
मैं चाहता हूं कि मेरे 'नेता प्रशिक्षण संस्थान' से निष्णात हो कर जब प्रशिक्षु सार्वजनिक क्षेत्र में कद रखे, तो सफलता उसके कदम चूमें! जनता उसमें अपना सुनहरी भविष्य देखे।
पाठ्यक्रम अभी फाइनल नहीं किया है, यदि कोई विषय मेरी बुद्धि की पकड़ से छूट गया हो और आपके जहन में उतर रहा हो, तो कृपया मुझे अवगत कराने का कष्ट करें। आपके प्रत्येक नेताई सुझाव का स्वागत है!
संपर्क 9868113044

Saturday, February 2, 2008

आदमी बंदर की औलाद!

डार्विन ने कहा आदमी बंदर की औलाद है! न मालूम डार्विन ने इस प्रकार का दावा किस आधार पर कर दिया? न जाने उनके पास ऐसे कौन से सबूत थे, जिनके आधार पर ऐसा मुंह -फट बयान देने की जुर्रत कर दी! उनके विकासवादी सिद्धांत में किसी प्रकार के ऐसे अवशेष प्राप्त होने का जिक्र भी नहीं मिलता है, जिनसे ऐसा अमानवीय दावा किया जा सके!
एक संभावना यह हो सकती है कि उन्हें आस्ट्रेलिया के क्रिकेट खिलाड़ी एंड्रयू साइमंड्स की शक्ल-ओ-सूरत के आदमी कुछ ज्यादा ही तादाद में मिल गये हों और उसी के आधार पर उन्होंने आपने विकासवाद सिद्धांत का प्रतिपादन कर दिया हो। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने आस्ट्रेलिया क्रिकेट टीम की लूट-खसोट की प्रवृत्ति को आधार बना कर ही अपने सिद्धांत की नीव रख दी हो!
बहरहाल आधार कुछ भी रहा हो, लेकिन इस सिद्धांत को लेकर कई शंकाएं हमारे मन का बंद द्वार खटखटा रहीं हैं। मसलन आदमी यदि बंदर की औलाद है, तो फिर बंदर से आदमी बनने का सिलसिला जारी क्यों नहीं है? अद्भुत इस विकास पर अचानक पूर्ण विराम कैसे लग गया? शंका-सवाल ़िफजूल ही पैदा नहीं हो गए हैं! उन्हें खाली दिमाग की खलल भी कहना उचित न होगा!
सवाल पैदा होने की वजह है कि कम से कम कलियुग में तो हमने किसी बंदर को आदमी बनते नहीं देखा! अलबत्ता आदमियों की हरकतें बंदराना जरूर दिखलाई दे जाती हैं।
कलियुग ही क्यों द्वापर के इतिहास में भी ऐसा कोई प्रसंग हमारे हाथ नहीं लगा, जिसके आधार पर यह कहा जाए कि कृष्ण भगवान के द्वापर में ़फलां-़फलां आदमी बंदर से विकसित होने के ताजा उदाहरण हैं। इतना ही क्यों द्वापर में ऐसे साइमंड्स की शक्ल-ओ-सूरत के आदमियों का भी तो कहीं जिक्र नहीं है।
साइमंड्सी सूरत के कुछ नायक-महानयक त्रेतायुग में अवश्य अवश्य प्राप्त हैं। भगवान राम की सेना में समूची एक ब्रिगेड ऐसे ही वीरों की थी। किंतु भगवान राम के भक्तों की प्रकृति बंदराना नहीं थी। क्रोध आने पर अथवा रावण जैसे राक्षस को मजा चखाने के लिए बंदराना हरकत कभी करनी पड़ गई हो तो उसे उनकी प्रकृति कहना उचित न होगा। दरअसल यह उनका परिस्थिति-जन्य स्वभाव था! रामभक्त भक्त तो आज भी शालीन ही पाए जाते हैं!
त्रेतायुग के इतिहास से संबद्ध किसी भी ग्रंथ में बंदर से विकसित आदमी का कहीं कोई संदर्भ प्राप्त नहीं है। अत: केवल भगवान राम की ब्रिगेड के आधार पर डार्विनी सिद्धांत के औचित्य को स्वीकारना उचित न होगा।

फिर डार्विन के मन में इस प्रकार का मानव विरोधी फितूर आया क्यों? अतत: इस बारे में हमने सोचा क्यों न किसी जहीन बुजुर्ग बंदर से ही इस बारे में बात की जाए? अत: हमने संसद भवन का रुख किया, क्योंकि वहां प्रत्येक किस्म के बंदर सहज उपलब्ध हैं!
वहां पहुंचते ही हमने सुदामा की पोटली की तरह बंदरों की जमात के बीच केले, चने और गुड़ की पोटली खोल दी। पोटली का खोलना था कि कुछ युवा व बाल बंदर उनकी और झपटे। तभी एक बुजुर्ग बंदर शायद उनकी जमात का मुखिया रहा होगा, ने किसी संगीत निर्देशक की तरह हाथ हवा में उठाए और साजिंदों की तरह बंदर शांत हो गए। हम यह देख कर हतप्रभ थे!
हमने बुजुर्ग को प्रणाम किया। बुजुर्ग ने अभिवादन स्वीकार हम से आने का कारण पूछा। हमने औपचारिकता का निर्वाह करते हुए कहा, 'यों ही दर्शन करने चला आया था!'
बुजुर्ग मुस्करा कर बोला, 'आदमी! ..और केवल दर्शनार्थ! ..कोरे दर्शन की इच्छा से तो वह बजरंगबली के मंदिर भी नहीं जाता! ..असंभव! ..नि:सकोच अपना मंतव्य व्यक्त करो, वत्स!'
बुजुर्ग का कटु सत्य सुनकर हमें अपने शुष्क चेहरे पर चंद जल की बूंदों का अहसास हुआ। इतने भर से ही लगा कि हम पानी-पानी हो रहे हैं!
हमें अपने पानी-पानी होने के अहसास पर भी आश्चर्य था, क्योंकि ऐसा होना जल-संकट के इस दौर में किसी भी लिहाज से व्यवहारिक नहीं कहा जा सकता!
हमने मुंह पर हाथ फेरा और बोले, 'मान्यवर! हमने प्रसाद आपकी सेवा में अर्पित किया था, अपने उसे ग्रहण करना उचित क्यों नहीं जाना?'
हमारा प्रश्न सुन कर बुजुर्ग गंभीर भाव से बोला, 'एक नहीं कई कारण हैं। प्रथम तो वर्तमान राजनीति में बंदरों के बीच भेली डालने का चलन बढ़ गया है।'
'..कैसे?' हमने प्रश्न किया।
'..भारतरत्न के नाम पर आडवाणी जी ने भेली डाली, वैसे! दूसरा कारण- हमारी ही संतान अब हमें बोझा समझने लगी है। चने-गुड़ दिखाकर हमें कैद कर रही है! अत: आदमियों से अब डर लगने लगा है, इसलिए सतर्कता आवश्यक है। सतर्कता हटी नहीं कि दुर्घटना घटी नहीं!' बुजुर्ग ने हमारी शंका का समाधान किया।
बुजुर्ग वास्तव में जहीन निकला और बातों-बातों में ही हमारी मूल शंका का संदर्भ भी छेड़ दिया। उसी संदर्भ की पूंछ पकड़ हमने प्रश्न किया, 'मान्यवर! तो क्या आप भी डार्विन के समान आदमी को अपनी ही औलाद मानते हैं?'
बुजुर्ग तपाक से बोला, '..इसमें न मानने की क्या बात है और डार्विन ने ही कौन नया सिद्धांत बघार दिया? ..यह तो हकीकत है!'
'मगर, अब..?' बुजुर्ग ने हमें प्रश्न पूरा नहीं करने दिया और हमारे प्रश्न का आशय समझ मध्य ही में बोला, 'हम ही ने आदमी बनने से तौबा कर ली है। हमारा प्रतिनिधि मंडल विधाता के पास गया था और अपनी व्यथा बता कर बंदर-आदमी विकास प्रक्रिया पर स्टे करा लाया!'
हमारा अगला प्रश्न था, 'ऐसा क्यों? यह तो प्रकृति के विकास में बाधा है!'
हमारा प्रश्न सुन बुजुर्ग के माथे पर बल पड़ गये, 'प्रकृति के विकास में बाधा और हम! प्रश्न करने से पूर्व अपने कर्मो की समीक्षा नहीं की शायद! करते, तो आरोप हम पर न लगाते, बरखुरदार!'
माहौल में आई गर्मी कम करने के लिहाज से मक्खनी अंदाज में हमने प्रश्न किया, '..किंतु आपकी व्यथा क्या थी?'
'हमारी व्यथा का कारण भी तुम आदमी-जाति ही थी!' बुजुर्ग ने अपने आवेग पर नियंत्रण किया और फिर अपनी व्यथा को विस्तार देते हुए बोला, ' लूट-खसोट करने में आदमी व्यस्त है और बदनाम हमें कर रहा है। गुड़ की भेली अपनों के ही बीच डाल कर तमाशा देखता है और अफवाह बंदरों के बीच भेली डालने की उड़ा दी जाती है!'
बुजुर्ग ने आसमान निहारा और फिर विचार की मुद्रा में बोला, 'आदमी की अति-बंदराना हरकत देख हम खुद ही भय खा गए और डार्विन के विकासवाद से तौबा कर ली! हम तो केवल खाली पेट ही लूट-खसोट करते हैं। हमारी औलाद पेट भरने के बाद भी लूट-खसोट जारी रखती है। अत: हमने सोच सुबह जो गलती हो गई सो हो गई, अब सांय काल तो घर लौट आना ही चाहिए!'
बुजुर्ग के चेहरे पर गंभीर भाव वृद्धि को प्राप्त होते जा रहे थे, 'लगता है, आदमी बंदर होता जा रहा है! विकास की प्रक्रिया उल्टी बहने लगी है! यही कारण है कि अब बंदर आदमी के रूप में विकसित होते नहीं दिखलाई पड़ रहे हैं!'
बात का उपसंहार करते हुए बुजुर्ग अंत में बोला, 'सुनों! दृष्टिं में थोड़ा परिवर्तन लाओ तो महसूस करोगे विकास की प्रक्रिया अभी भी चालू हैं, मगर बंदर से आदमी बनने की नहीं, अपितु आदमी से बंदर बनने की!'