गीता पर आधारित मेरा नया उपन्यास 'योगक्षेम' परमेश्वरी प्रकाशन (किताब घर) नईदिल्ली से प्रकाशित।
प्रसंगवश
श्रीमद्भगवत गीता को मैंने जितना पढ़ा और समझा,
मुझे
प्रतीत हुआ कि गीता धर्मग्रन्थ नहीं, महान मनोवैज्ञानिक ग्रन्थ है और भगवान
कृष्ण महान मनोवैज्ञानिक। स्वाभाविक भी है, क्योंकि गीता का
उद्भव एक मनोवैज्ञानिक समस्या के निदान हेतु हुआ है। कुरुक्षेत्र के मैदान में
परस्पर युद्ध के तत्पर कौरव व पाण्डव सेनाओं के योद्धाओं का अवलोकन कर अर्जुन के
मन में स्वजन मोह उत्पन्न होना और फलस्वरूप मानसिक विषाद से पीड़ित होना, मानसिक
समस्या ही थी। और, मानसिक व्याधा की निवारण मनोवैज्ञानिक पद्धति
से होना ही संभव था। अत: अर्जुन को मोह और विषाद से मुक्त करने के लिए कृष्ण ने
मनोविज्ञान का ही सहारा लिया। यह कहना
अनुचित न होगा कि द्वापर युग से लेकर आज तक कृष्ण जैसा न कोई मनोविज्ञानी हुआ है
और न ही गीता जैसे दूसरे किसी महान मोनोवैज्ञानिक ग्रन्थ की रचना हुई। मनोवैज्ञानिक
ग्रन्थ के अतिरिक्त और धर्म से परे यदि गीता को यदि अन्य कोई विशेषण दिया जासकता
है, तो कहा जा सकता है कि गीता महान मनोविैज्ञानिक ग्रन्थ के अतिरिक्त
अप्रतिम आध्यात्मिक ग्रन्थ भी है। यथार्थ में अर्जुन के मन में व्याप्त शंकाओं के
निवारण हेतु कृष्ण उसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के दर्शन से अवगत
कराते हुए, उसे मानसिक उस उच्चतल पर ले जाते हैं, जहाँ
पहुँचकर व्यक्ति को अपने यथार्थ स्वरूप का भान हो जाता है। उसे आत्म-चेतना के
दर्शन हो जाते हैं और वह 'स्व' में जीने लगता
है। उसी को 'ब्रह्मंस्थिति' कहते है और आत्मसाक्षात्कार का मार्ग
ही अध्यात्म है। इस प्रकार गीता में कृष्ण मनोवैज्ञानिक पद्धति का अनुसरण करते हुए
अर्जुन को अध्यात्म की शिक्षा प्रदान करते हैं। इस प्रकार अजुर्न मोह, अहंकार
के मानसिक सन्ताप से मुक्त हो कर स्वधर्म का अनुसरण करते हुए युद्ध के लिए पुन: तत्पर
हो जाता है। यथार्थ में गीता 'जीवन
पद्धति' का आख्यान है, सुख से परे आनन्दमय जीवन जीना का मार्ग
प्रशस्त करती है। इस प्रकार यह कहने में
भी संकोच नहीं है कि श्रीमद्भगवत गीता किसी धर्म, सम्प्रदाय अथवा
जाति विशेष का ग्रन्थ नहीं है, अपितु मानव केद्रित दर्शन का ग्रन्थ
गीता जन-जन के कल्याण हेतु समस्त मानव जाति के लिए अद्भुत ग्रन्थ है।
मानव-मात्र के उपयोगी गीता ग्रन्थ का अध्ययन करने के पश्चात मेरे मन में यह
इच्छा हुई कि मूल पाठ को सुरक्षित रखते हुए गीता को से सुगम व रोचक ढंग से
प्रस्तुत किया जाए, ताकि यह ग्रन्थ जन-जन तक पहुँच सके और जन-मानस
उसकी शिक्षाओं के अनुरूप कल्याण-मार्ग का अनुसरण करते हुए जीवन को आनन्दमय बना
सकें। रोचक रूप में प्रस्तुत करने का एक कारण यह भी था कि मैंने गीता को
जानने-समझने के लिए प्राप्त जितने भी विद्वानों, गीता-मनीषियों
के गीताभाष्यों का अध्ययन किया, उनमें गीता की पाण्डित्य पूर्ण विस्तृत
व्याख्या तो अवश्य प्राप्त हुई किन्तु जन-मानस की साधारण बुद्धि के अनुरूप प्रतीत
नहीं हुई। पाण्डित्य पूर्ण होने के कारण शुष्कता का पुट भी अधिक लगा, अत:
मुझे अधिकांश भाष्य सर्वग्राही प्रतीत नहीं हुए। इसका कारण मेरी अपनी बौधिक-क्षमता
की सीमा भी हो सकती है। अब मेरे समक्ष समस्या यह थी कि रोचक बनाने के लिए गीता को
किस रूप में प्रस्तुत किया जाए? काफी विचार करने के उपरान्त मैंने गीता
को उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने का निर्णय लिया। इस सम्बन्ध में अनेक
विद्वानों के साथ विचार-विमर्श किया कुछ ने मेरे विचार की सरहाना की, तो
कुछ ने यह कहते हुए कि गीता स्वयं एक उपन्यास ही है, मेरे विचार को
नकार दिया। कुछ का मत था कि विचार तो उचित है, किन्तु, इसमें
मौलिकता का अभाव रहेगा। उनका आशय सम्भवतया गीता के मूलपाठ से था। गीता के मूलपाठ
के साथ यदि छेड़छाड़ की गई तो उसके मूल स्वरूप ही भ्रष्ट हो जाएगा और यदि
मूलपाठ के साथ छेड़छाड़ नहीं की तो उपन्यास
में मौलिकता का अभाव रहेगा और यह मौलिक कृति नहीं कह लाएगी। उनकी आशंका अपने स्थान
पर उचित थी और मेरे लिए चुनौती। चुनौती स्वीकारते हुए मैंने गीता पर आधारित
उपन्यास ही लिखने का अन्तिम निर्णय लिया लक्ष्य प्राप्ति के लिए मैं चिन्तन-मनन
में व्यस्त हो गया और महत्वपूर्ण दो विचार मेरे चिन्तन में अवतरित हुए। प्रथम-
गीता के विभिन्न श्लोकों के सम्बन्ध में व्याप्त भ्रान्तियों का निराकरण। द्वितीय-
गीता में निहित शिक्षा का अधुनिक परिपेक्ष में विस्तृत व्याख्या। इसके अतिरिक्त एक
प्रमुख विचार यह था कि जब तक कृष्ण और अजुर्न के मध्य वार्तालाप चलता रहा, तब
तक कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए तत्पर सेनानायक व सैनिक क्या करते रहे।
मुझे यह अनुभव हुआ कि प्रथम दो विचार तो गीता को सरल व सर्वग्राही बनाने में सहायक
सिद्ध होंगे और अन्तिम विचार गीता की रोचक प्रस्तुती में सहायक सिद्ध होगा।
यद्यपि सम्पूर्ण गीता भगवान कृष्ण और अर्जुन तथा हस्तिनापुर सम्राट
धृतराष्ट्र और संजय के मध्य वार्तालाप पर आधारित है। तथापि गीता के प्रथम व
द्वितीय अध्याय के अतिरिक्त अर्जुन ने यदाकदा ही कृष्ण के समक्ष अपना मन्तव्य और
प्रश्न के रूप में अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत की है। जहाँ तक धृतराष्ट्र का प्रश्न है,
उसकी
जिज्ञासा से केवल गीता का शुभारम्भ होता है। उसके उपरान्त वह मौन ही रहा। उपरान्त
इसके गीता के मूलपाठ सुरक्षित रखते हुए कृष्ण वचनों की विस्तृत व्याख्या और
विभिन्न शंकाओं का समाधान प्रस्तुत करने के उद्देश्य से प्रस्तुत इस कृति में
अर्जुन मुख से विभिन्न प्रश्न कराए गएं। कुछ स्थानों पर कृष्ण मुख से ही 'अर्थात, यथार्थ' में
जैसे शब्दों का उपयोग कर कृष्ण-वचनों की सरल व्याख्या करने का प्रयास किया गया है।
इसके अतिरिक्त प्रचलित शंका-आशंका और व्याख्या
करते समय उत्पन्न प्रश्नों का उत्तर प्रस्तुत करने के लिए धृतराष्ट्र से भी
प्रश्न कराए गए है, जिनके उत्तर गीता के आधार पर धृतराष्ट्र सारथी
संजय ने दिए हैं। इस प्रकार अर्जुन व धृतराष्ट्र के माध्यम से गीता को सर्वग्रही व
उपन्यास का रूप और विस्तार प्रदान करने का प्रयास किया गया है। जहाँ तक
कुरुक्षेत्र में उपस्थित विभिन्न योद्धाओं की गतिविधियों का चित्रण करने का प्रश्न
है, उसमें महाभारत की कथा को आधार बनाते हुए कल्पना का सहारा लिया गया है,
क्योंकि
महाभारत की विभिन्न कथाएं आधार बनाई गई र्ह, इसलिए कल्पना,
कोरी
कल्पना न हो कर इस कृति को रोचकता प्रदान करती हैं।
गीता
में कुल सात सौ श्लाक हैं अथवा सात सौ एक
इस सम्बन्ध में गीता मनीषियों के मध्य विचार-भिन्नता है। विवादास्पद वह श्लोक
अध्याय 13 का प्रथम श्लोक ''प्रकृति पुरुषं चैव क्षेत्रं
क्षेत्रज्ञमेव च। एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।'' अर्जुन
कृष्ण से कहता है- कृष्ण ! मैं प्रकृति व पुरुष, क्षेत्र व
क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान व ज्ञेय के विषय में जानने की इच्छा रखता हैँ। अधिकांश
विद्वानों का मानना है कि यह श्लोक क्षेपक है। इस श्लोक को क्षेपक स्वीकार करते
हुए अधिकांश विद्वान गीता भाष्य के 13 वें अध्याय का शुभारम्भ कृष्ण- वचन से ही करते हैं, जिसमें
कृष्ण अर्जुन की उसी जिज्ञासा का समाधान करते हैं, अर्जुन ने जो
जिज्ञासा क्षेपक के माध्यम से व्यक्त की है। इस औपन्यासिक कृति में अर्जुन की
जिज्ञासा क्षेपक होने या न होने का विचार किए बिना ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई
है, क्योंकि यह प्रासंगिक लगती है। इसके विपरीत 18 वें अध्याय के
कुछ श्लोकों को क्षेपक के रूप में स्वीकारते हुए इस कृति में स्थान नहीं देने की
भी धृष्टता की है, क्योंकि वे श्लोक जिन्हें स्थान नहीं दिया गया
है, औचित्यहीन दृष्टिगोचर हुए और ऐसा अनुभव हुआ कि कृष्ण जैसे मूर्धन्य
विचारक के मुख से ऐसे औचित्यहीन वचन कहलाना उनकी गरिमा पर प्रश्न चिन्ह अंकित करना
ही होगा। कुल मिलाकर गीता के मूलपाठ को सुरक्षित रखते हुए इस औपन्यासिक कृति को
रोचक व सर्वग्राही बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है, अन्तिम
निर्णय सुधि पाठक ही करेंगे।
धन्यवाद