Friday, March 14, 2008

युग-धर्म


सुना है,
सुनता आ रहा हूं।
आत्मा अमर है,
शरीर नश्वर है।
होते होंगे,
राम के त्रेता में,
कृष्ण के द्वापर में।
अब तो यह फ़लसफ़ा बेमानी सा लगता है।
दादी-नानी के मुंह से,
परियों की कहानी सा लगता है!
मैंने तो,
हर दिन, हर पल,
आत्मा को मरते देखा है।
---पढ़ा है,
पढ़ता आ रहा हूं।
आत्मा बदलती है, शरीर
पुराने कपड़ों की तरह।
बदलती होगी,
मैंने नहीं देखा!
हाँ, देखा है, बस!
आत्मा का आवरण
बदलते शरीरों को देखा है!
--यह त्रेता नहीं,
द्वापर नहीं,
कलियुग है!
आत्मघात ही,
इसका युग-धर्म है।
आत्मघात ही,
इसका युग-आदर्श है!
--- इसलिए ही,
मैं अंतरात्मा की आवाज पर
नित् आत्म-हत्या करता हूं।
तन-मन में
नित नई आत्मा भरता हूं।
फिर-फिर,
भ्रूण हत्या करता हूं।
क्योंकि इस युग में,
आत्मा नहीं,
शरीर अमर है।

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