Saturday, January 19, 2008

महंगाई का अर्थशास्‍त्र

मस्टराइन ने मास्टर के हाथ में रोटी पकड़ाई।
मास्टर ने त्यौरी चढ़ाई।
कमबख्त! हाथ में सूखी रोटी पकड़ा दी।
शर्म नहीं आई।
कम से कम दाल का पानी ही बना लाती।
मास्टर के तेवर देख मस्टराइन मुस्‍कराई,
अरे, बैठे-ठाले नखरे दिखाते हो।
जमीन पर बैठे-बैठे
आसमान की उड़ान भरते हो।
अरे, ईमान से भी ज्यादा महंगे हैं,
दाल के भाव।
भाव अपने 'लेवल' में लाओ।
मास्टर फिर झल्लाया।
दाल नहीं थी, तो आलू ही भून लाती।
कम से कम रोटी तो निगली जाती।
मस्टराइन को मास्टर पर तरस आया,
गुस्से का भाव बे-भाव पचाया।
फिर मास्‍टर को इस तरह समझाया।
अरे, आजकल आलू के नखरे भी,
तेरे नखरों से कम नहीं हैं।
दिवाली पर तो बनाया ही, था आलू का चौखा।
होली पर फिर मिल जाए, यह भी कुछ कम नहीं है।
मास्टर की अकल में बात धंसी नहीं।
वह फिर बड़बड़ाया।
चल छोड़ दाल-आलू की भाजी,
कुछ नहीं था, तो नमक के साथ प्याज ही रख लाती।
प्याज का नाम सुन मस्टराइन भर्राई,
आंख में कड़वे तेल से आंसू लिए चिल्लाई।
दिमाग फिर गया है तेरा,
दाल-आटे के भाव का नहीं तुझे बेरा।
सुराज में रोटी मिल रही है, खैर मना।
आलू-प्याज को अपना व्यसन न बना।
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