Saturday, April 26, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -चार

(गतांक से आगे...)

भाग-दो
दृश्य-एक
(फ्लैश लाइट मंच के केंद्र पर फोकस और इसी के साथ छाया प्रकट होती है)
छाया (करुण स्वर में, रुक-रुक कर) : .
..ठहरिए, अभी मत जाइए। बापू के आदर्शो, सिद्धांतों के परिहास की कहानी अभी समाप्त नहीं हुई है। यह तो शुरूआत थी, एक बानगी थी। विस्तृत कहानी तो अब शुरू होगी। (कुछ देर रुकने के बाद) अभी तो आपने बापू के ही नाम पर बापू के आदर्शो को नीलाम होते देखा है। उनके आदर्शो की हत्या होते देखा है। बापू को नीलाम होते अभी कहां देखा है? .. हां, हां, मैं सत्य कह रहा हूं। बापू की बोली लगती है, सरे बाजार, क्योंकि उनकी नजर में बापू कोई प्राणी नहीं, एक ब्रांड है, ...हाँ ब्रांड है! देश के सौदागरों की निगाह में। ...प्राणी होता तो भी क्या था, सौदागर तो सौदागर हैं। क्रय-विक्रय उसकी प्रकृति है। व्यापार में जीव-निर्जीव, अपने-पराए का भेद नहीं किया जाता, इसलिए बापू को भी नीलाम किया जाता है। ...बापू पर कब्जा जमाने के सरेआम दावे किए जाते हैं, उसका अपहरण किया जाता है। क्योंकि उनकी निगाह में बापू 'बापू' नहीं एक अचेतन पदार्थ है, एक पिण्ड है। एक ऐसा पिण्ड, लाठी के बल पर जिसका अपहरण किया जा सकता है।
(आँखों में आए आँसू पोंछ अपने को संयत करते हुए) ...ठहरिए, जनाब! मैं ने कहा था ना कि बापू कैद में हैं। वही कहानी अब मैं आपको सुनाने जा रहा हूं। आओ, आपको बापू समाधि राजघाट लिए चलता हूं।
(सिर पर हाथ फेर कर कुछ याद करने का प्रयास करते हुए बोलना शुरू किया) ...इस कहानी की शुरूआत एक फरवरी की सुबह से होती है। लगभग एक सप्ताह पूर्व ही आम चुनाव की घोषणा हुई थी। राजनैतिक हलकों में भी चहल-पहल शुरू हो गई थी। राजनैतिक हलचल से बापू को अवगत कराने के उद्देश्य से उस दिन सुबह ही सुबह मैं राजघाट पहुंच गया था...।
(छाया मंच से अदृश्य। मंच पर पुन: बापू समाधि का दृश्य)
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : अरे, मुन्नालाल! तू फिर, कोई पाप-पुण्य तिथि आ गई क्या?
मुन्नालाल (हँसते हुए) : ...नहीं बापू आज नहीं, मगर आने वाली है। जानकारी देने आया था।

बापू (मुसकराते हुए) : ...तुझ पर अब विश्वास नहीं रहा पुत्र! अवश्य कोई नई खुराफात सूझी होगी। ...खैर कोई बात नहीं, आ बैठ जा।

मुन्नालाल (क्रोध के क्रत्रिम भाव प्रकट करते हुए) : हकीकत बयान करने को खुराफात कहता है, बापू। ॥मैं खुराफाती हूं, तो ले चला जाता हूं।
(मुन्नालाल वापस लौटने का नाटक करता है। स्नेह से उसका हाथ पकड़ बापू अपने पास बैठाते हैं।)
बापू (आदेशात्मक लहजे में, मुसकराते हुए) :
...बैठ! छोटी-छोटी बात पर भी नाराज तो जिन्ना की तरह हो जाता है। .॥नारजगी थूक। अच्छा चल बता, क्या खबर है।

मुन्नालाल (अचंभित होते हुए) : अरे-रे-रे, देख बापू! ..देख तेरे भक्त आज फिर आ धमके। जरूर कोई...!
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए, मध्य ही में) : ...किंतु पुत्र आज न दो अक्टूबर है और न तीस जनवरी! फिर मेरे ये शिष्य मुझे घेरने क्यों आ रहे हैं?
मुन्नालाल (सहज भाव से) : अवश्य कोई आवश्यकता आन पड़ी होगी।
बापू (उत्सुकता दिखते हुए) : कैसी आवश्यकता, पुत्र?
मुन्नालाल (सहजभाव से) : ...हूं! यही तो खबर है, बापू!
बापू ( जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...क्या पुत्र? ...बोल-बोल, जल्दी बोल, फिर वे आ घेरेंगे।
मुन्नालाल ( रहस्यात्मक लहजे में, धीरे से) : चुनाव आ गए हैं ना, बापू।
बापू (व्यंग्य भाव से) : ...चुनाव, पुत्र! ..फिर मुझ से वोट माँगने आ रहे हैं क्या?
मुन्नालाल (हँसते हुए) : वोट! गलतफहमी न पाल बापू! ...कहते हैं, गलतफहमी पालना शेर पालने से भी ज्यादा खतरनाक होता है।
बापू (सहज भाव से) : ले नहीं पालता! किंतु, ये तो बता, गलतफहमी कैसे?
मुन्नालाल : तेरे पल्ले वोट हैं ही कितनी, जो तेरे पास आकर अपना वक्त खराब करेंगे।
बापू : अरे सभी के पास एक ही तो वोट होती है, वह मेरे पास भी है।
मुन्नालाल (हँसते हुए) : बस बापू यही तो गलतफहमी है! तू वोट देने नहीं जाएगा, तेरी वोट तो फिर भी पड़ जाएगी... !

बापू (मध्य ही में आश्चर्य से) : मगर, यह कैसे?
मुन्नालाल (उपेक्षा भाव से) : क्या करेगा जानकर! बता दिया तो फिर तेरे किसी आदर्श की हत्या हो जाएगी। खामोख्वां क्यों मन को रंज की भटं्टी में ढकेलता है। उन्हें जरूरत बस तेरे आशीर्वाद की है!
बापू (पुन: आश्चर्य से) : आशीर्वाद, पुत्र! ...मगर क्यों? ...चुनाव से आशीर्वाद का क्या संबंध?
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : संबंध है, क्योंकि तेरे ब्राण्ड में अभी जान है। ...इसलिए तेरा आशीर्वाद लेने की जरूरत है।
बापू (झल्लाते हुए) : तू साफ-साफ क्यों नहीं बताता, पुत्र! ब्राण्ड, आशीर्वाद पता नहीं क्या क्या बके जा रहा है।
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : साफ तो है! जनता आज भी तेरा सम्मान करती है। आशीर्वाद लेने का नाटक कर नेता तेरे नाम की दुहाई देंगे। जनता भोली है, तेरा नाम सुनते ही उनकी झोली में वोट डाल देगी।
(नेताओं के दो अलग-अलग समूह समाधि स्थल पर प्रवेश करते हैं और समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित कर हाथ जोड़ अलग-अलग दिशाओं में खड़े हो जाते हैं)
बापू (दया भाव से) :
देख, मेरे भक्तों को देख! ...उन्हें करबद्ध देख! ...देख, किस प्रकार याचक भाव से खड़े हैं!
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : हाँ, देख रहा हूँ और समझ भी रहा हूँ। ...चुनाव के समय ही तो याचक की मुद्रा में आते हैं, बाकी दिन तो..!
बापू (गंभीर मुद्रा में) : ...बाकी क्या? ...तेरे अंदर से पता नहीं ईर्ष्‍या भाव कब समाप्त होगा। ...ठीक है तो तू ठहर मैं उन्हें आशीर्वाद दे कर आता हूं।
मुन्नालाल (व्यंग्य भाव से) : ...सोच-समझ कर आशीर्वाद देना बापू... !
बापू (मुसकरा कर) : हाँ, हाँ, सोच लिया! ...आशीर्वाद तो देना ही है। निराश करना हिंसा भाव है। (शय्या पर लेटे-लेटे बापू दोनों पक्षों के नेताओं पर दृष्टिं डाल कर आश्चर्य से मन ही मन बोलते हैं) ...अरे! यह क्या? इधर के भी उधर के भी! कृष्ण के शयन कक्ष में जैसे दुर्योधन भी और अर्जुन भी ...एक साथ। ...मगर यह क्या, दोनों ही का रंग-रूप एक समान। (बापू ने स्वयं को संयत किया और दोनों ओर खड़े नेताओं से बोले) ...हे, राष्ट्र की धरोहर.. राष्ट्र पुत्रों कहो, यहां आने का कारण क्या है? क्या कोई संकट आन पड़ा है? ...कहो पुत्र, कहो?
नेता (एक सुर में) : महासंग्राम के लिए शंखनाद हो चुका है, बापू। संग्राम की तैयारियां शुरू हो गई हैं। सेनाएं सजने लगी हैं...।
बापू (मध्य ही में व्यंग्य भाव से) : महासंग्राम! ...भीष्म पितामह के समान शरशय्या पर पड़ा तुम्हारा यह बापू , संग्राम में तुम्हारी क्या सहायता कर सकता है, पुत्रों?
नेता (विनीत भाव से) : ...खाली सिंहासन प्रतीक्षा में है, बापू!
बापू (आश्चर्य व व्यंग्य के मिश्रित भाव से) : सिंहासन मेरी प्रतीक्षा में!
नेता (पूर्व भाव से) : नहीं बापू! सिंहासन जानता है, आप राजनीति से संन्यास ले चुके हो।
बापू (पूर्व भाव से) : ...फिर?
नेता : मौन!
बापू (सहज भाव से) : अच्छा, समझा! सिंहासन खाली है! ...तो उस पर जा कर बैठ क्यों नहीं जाते, पुत्र!
एक अन्य नेता (विनय भाव से) : नहीं बापू, ऐसा नहीं है। संग्राम में जो विजयी होगा, वही सिंहासन का स्वामी होगा।
बापू (पूर्व भाव से) : ...विजयी!
नेता : ...जनता जिसके प्रति अपना विश्वास व्यक्त करेगी वही विजयी कह लाएगा।
बापू (मुसकराते हुए) : कैसा विश्वास... किसका विश्वास!
नेता (चेहरे पर विवशता का भाव लाते हुए) : जनता का विश्वास, बापू! ...लोकतंत्र में कानून यही कहता है।
बापू (पूर्व भाव से) : ...जाओ परस्पर सौदा कर लो। पदों का बंटवारा कर लो, पुत्र। ...गठजोड़ कर सत्ताजोड़ करो और सत्ता का सुखोपभोग करो। जनता तो भोली है, जैसा समझाओगे वैसे ही मान जाएगी। उसके पास दूसरा कोई विकल्प भी तो नहीं है, पुत्रों! जाओ ...सिंहासन खाली नहीं रहना चाहिए।
दूसरी तरफ का नेता : ...नहीं बापू, ...लोकतंत्र की मर्यादाओं का कुछ तो पालन करना ही होगा। संग्राम की औपचारिकताओं का तो निर्वाह करना ही होगा। ...अंत में सत्ताजोड़ तो अवश्यंभावी है ही...।
बापू : ...तो आदेश करो, पुत्रों! मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता हूं?
सभी नेता (एक सुर में) : ...बस आपके आशीर्वाद की इच्छा है, बापू।
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) ..केवल आशीर्वाद!
नेता (एक सुर में) : ...हां, बापू! केवल आशीर्वाद ...शेष तो बस...!
(आशीर्वाद देने के लिए बापू ने ऊपर की ओर हाथ उठाए, मगर ठिठक कर रह गए)
बापू (मन ही मन ) :
विजयी भव का आशीर्वाद इनमें से किसे दूँ। ...इनमें कौन अर्जुन और कौन दुर्योधन? चेहरा-मोहरा छोड़ अन्य कोई भी तो अंतर नहीं दोनों पक्षों के सेना-नायकों में। कथनी-करनी समान, लहजा समान, रीति-नीति समान। मानों एक ही तस्वीर को अलग-अलग फ्रेम में सजा दिया गया हो। ...मुन्नालाल ठीक ही कहता है, हे राम, हे राम, हे राम...।
(आशीर्वाद दिए बिना ही बापू के दोनों हाथ पूर्व स्थिति में आ जाते हैं। हर्ष व्यक्त करते हुए सभी नेता बापू को प्रणाम कर चले जाते हैं। आश्चर्यचकित बापू उन्हें निहारते रह जाते हैं)
मुन्नालाल (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) :
यह क्या बापू, दोनो ही को विजय का आशीर्वाद... !
बापू (पश्चाताप की मुद्रा में) : ...नहीं पुत्र! मैंने तो उनमें से किसी को भी आशीर्वाद नहीं दिया। मैं तो विचार ही करता रह गया कि विजय का आशीर्वाद उनमें से किसे दूं और क्यों? ...वे तो चले गए, शायद नाराज हो कर। ...याचक खाली हाथ लौट गए पुत्र, घोर अनर्थ!
मुन्नालाल : तू भी अजीब है, बापू। पल में गुस्सा, पल में पश्चाताप!
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ पुत्र, मुझे क्रोध नहीं करना चाहिए था। ..क्या बिगड़ जाता, यदि मैं आशीर्वाद दे देता?
मुन्नालाल (कटाक्ष करते हुए) : ...दे देता बापू, मना किसने किया था।
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ, पुत्र! मना तो किसी ने नहीं किया था, किंतु, ...तेरे प्रभाव में कभी-कभी कुछ ज्यादा ही आ जाता हूँ। तू बात ही ऐसी करता है।
मुन्नालाल (मुस्कराते हुए) : इच्छा तेरी ही नहीं हुई! दोष मुझे दे दिया।
बापू : मौन!
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ...मगर, तू चिंता न कर बापू! तू दे या न दे, मगर वे तेरा आशीर्वाद लेकर ही गए हैं। वे नेता हैं, अपने-अपने पक्ष में तेरे आशीर्वाद के लिए भी कोई न कोई फार्मूला निकाल ही लेंगे।
बापू (आश्चर्य व्यक्त करते हुए) : ...वह कैसे पुत्र?
मुन्नालाल (सहज भाव से) : सुन बापू, जनता किसी एक दल के प्रति अपना पूर्ण विश्वास व्यक्त करे या न करे फिर भी उसके विश्वास मत के नाम पर गठजोड़ की रीति-नीति से सरकार बना ही लेते हैं। ...तेरा तो बस आशीर्वाद है और यह भी किसने देखा है कि तू ने आशीर्वाद दिया भी या नहीं। आशीर्वाद की मुद्रा में हाथ तो ऊपर उठाए थे ना। बस, इतना ही काफी है?
बापू (जिज्ञासा व्यक्त करते हुए) : ...मगर एक बात तो बता पुत्र, केवल आशीर्वाद ही क्यों लेने आए? अन्य किसी प्रकार की सहायता क्यों नहीं मांगी?
मुन्नालाल (मुसकराते हुए) : बापू! आशीर्वाद के अलावा अब तेरे पास और बचा भी क्या है? आशीर्वाद भी तब तक, जब तक जनता में तेरा सिक्का चल रहा है। ..अब तू ही बता, क्या तेरी बकरी में इतनी ताकत बची है कि वह किसी का विजय रथ खींच सके। ..तेरी लाठी में अब इतनी शक्ति कहां कि उसके दम पर बूथ कैपचर किया जा सके। ..बदलते मूल्यों की बदलती परिभाषा के तहत तेरे आदर्श, तेरे सिद्धांत अब बेमानी हो चुके हैं। ..सड़क से उठाकर सिंहासन तक पहुंचाने के लिए अब वे कारगर नहीं हैं।
बापू (गर्व के साथ) : मगर, पुत्र मैं चुनाव प्रचार..!
मुन्नालाल (उपेक्षापूर्ण मुसकराहट के साथ) : ..तू और चुनाव प्रचार, कैसी-कैसी बात सौचता है, बापू! उन्हें ग्लैमर हीन फादर आफ दी नेशन की नहीं, ग्लैमरयुक्त मिस इंडिया, मिस व‌र्ल्ड, मिस यूनिवर्स और स्वप्न सुंदरियों की आवश्यकता है। ..तेरे जैसे ग्लैमर हीन व्यक्ति की नहीं।
बापू (निराशा भाव से) : मगर, पुत्र क्या ऐसी स्थिति..!
मुन्नालाल (बापू को बीच ही में टोकते हुए) : ..अच्छा तू ही बता बापू, कूल्हे मटका कर भीड़ जुटा लेगा?
बापू (झिड़कते हुए) : ..क्या बकता रहता है, फिजूल की..!
मुन्नालाल : ..फिजूल की नहीं, बापू उसूल की है, उसूल की!
बापू (क्रोध भाव के साथ) : अपने उसूल, अपने पास रख..!
मुन्नालाल : साफ-साफ कह ना बापू, कूल्हे मटकाना बस की बात नहीं।
बापू (क्षुब्ध भाव से) : बात न बना! ..उसके बिना भी सफलता पूर्वक चुनाव प्रचार किया जा सकता है।
मुन्नालाल (दया भाव से) : ..चुनाव प्रचार में उतरने की इच्छा जाहिर कर बची-खुची दाव पर न लगा, बापू। ..बस समाधि में लीन, हरि-कीर्तन करता रह। दरबार में जो आए उसे आशीर्वाद देता रह, बस!
बापू (विश्वास के साथ) : नहीं, मैं तेरे कथन से पूर्ण सहमत नहीं हूं, पुत्र। ..आशीर्वाद लेने आए अपने शिष्यों को तेरे कहने पर ही भला-बुरा कह दिया। आलोचना कर बेमतलब उनके हृदय को पीड़ा पहुंचाई..।
मुन्नालाल (पूर्व भाव से) : ..इतना रंज न कर बापू! वे इसी के हकदार थे।
बापू (पश्चाताप की मुद्रा में) : ..नहीं-नहीं, पुत्र नहीं, मेरे शिष्य आज भी मेरा आदर करते हैं। आज नहीं तो कल कोई न कोई दल अवश्य अपने प्रचार के लिए मुझे आमंत्रित करने आएगा।
मुन्नालाल (उपेक्षा भाव से) : ..कल भी दूर नहीं है, बापू! ..कल भी देख ले!
(मुन्नालाल ने बापू को प्रणाम किया और कल पुन: आने का वायदा कर घर की ओर चल पड़ा। बापू भी करवट बदल आराम करने लगे)
(कल—एक राजनैतिक दल के दफ़तर में ...जारी)