Thursday, November 15, 2007

उधार की जिंदगी जीता इनसान


सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी इनसान उधार की जिंदगी जी रहा है। जब कभी उसके जीवन-परिचय के पन्ने उलटता-पलटता हूं। मन वेदना से भर जाता है। सिर धुनने लगता हूं। उसके पास अपना कुछ भी तो नहीं है, न चाल, न चेहरा और न ही चरित्र! इनसान उल्लू का पठ्ठा हो सकता है। सूअर का बच्चा हो सकता है। गधे का बच्चा हो सकता है और बंदर की औलाद भी! न जाने क्यों इनसान आज तक भी इनसान का बच्चा नहीं बन पाया। बस यही सोच-सोच कर मैं शहर के अंदेशे में काजी जी की तरह दुबला हुए जा रहा हूं।
वैसे उधार का खाने वाले ही सफल कह लाए जाते हैं, परंतु सफलता का यह पैमाना इनसानों के मध्य ही प्रचलित है। सृष्टिं के अन्य प्राणियों के लिए सफलता-असफलता की कसौटी नहीं। जैसे कोई चोर कुछ विशिष्ट सद्गुणों के कारण चोरों के बीच सफल-असफल हो सकता है, किंतु वे ही गुण आम इनसान के बीच उसे सफलता अथवा असफल की डिग्री नहीं दिलाते हैं।
अपनी प्रेयसी को जब-कभी सर्वागीण निहारता हूं, तो उसकी संपूर्ण सुंदरता किसी महाजन के यहां गिरवी सी रखी नजर आती है। वह कोकिला कण्ठ है। उसका चेहरा चांद सा है। आंखें मीन के समान हैं। नाक तोते जैसी, होंठ गुलाब-पुष्प की पंखुड़ी के समान और केश काली घटाओ का अहसास कराती हैं और गरदन सुराही का आभास कराती है। मद मस्त हथनी का सा यौवन लिए जब वह ठुमक-ठुमक कर चलती है, तो कभी बिल्ली की चाल (कैट वॉक), तो कभी हिरनी की चाल के समान दिव्य आनंद की अनुभूति होती है। चपल-चंचला मेरी प्रेयसी कभी जलपरी सी लगती है, तो कभी आकाश-परी के समान।
जब कभी मैं इश्क की चाशनी से बाहर निकलता हूं, तो सोचता हूं- हे, अप्रतिम सुंदरी! तुम आनंद प्रदायनी हो, परमानंदनी हो, तुम दिव्य हो! ..परंतु हे, परमानंदनी, हे दिव्यानंदनी! तुम सृष्टिं की सभी महिलाओं में सुंदरतम् हो, किंतु यह क्या? तुम्हारा विराट व्यक्तित्व सृष्टिं के विभिन्न जीव-जंतु और मृत पिण्डों के अलंकार व उपमाओं से लदा है। तुम्हारे अंदर क्या कुछ भी ऐसा नहीं है, जिसका वर्णन मैं किसी इनसानी उपमा के आधार पर कर सकूं? हे, परम प्रिय! तुम यथार्थ स्वरूप में कब आओगी, तुम इनसान कब कह लाओगी?
समस्या प्रेयसी तक ही सीमित नहीं है। हमारे मित्र भी किसी की बेटी-बहू से कम नहीं है, क्योंकि उनके जीवन-परिचय में भी इनसानी सद्गुण एक भी नहीं है! हाथी की सूंड़ सी बलिष्ठ भुजाओं वाले मेरे मित्र, शेर के समान सीना लिए घूमते हैं। जब वे बोलते हैं, तो सिंह-गर्जन का अहसास होता है। सूर्य के तेज से चमकते मुखमण्डल पर धनुष कमान से झुकी भंवें अर्जुन के गाण्डीव का अहसास कराती हैं। उनमें चीते की सी चपलता है। जब हाथी की मदमस्त चाल से वे चलते हैं, तो धरती भी हिल जाती है। उनके व्यक्तित्व में वे सभी जानवरीय सद्गुण विद्यमान हैं, जिनके कारण कोई इनसान महान कहलाया जाता है। मसलन स्वान निद्रा, बको ध्यानम् और काग चेष्टा! इनसान और इनसानी व्यक्तित्व से उनका भी दूर-दूर का वास्ता नहीं है।
कहते हैं, आदिकाल में इनसान इनसानी सद्गुणों से ओतप्रोत था। मगर जब से उसके अंदर सभ्यता ने घुसपैठ की है, इनसानी गुणों का त्याग कर उसने सृष्टिं के अन्य प्राणियों की उपमाएं ओढ़ ली हैं और अब वह इनसान कम जीव-जंतुओं का रिमिक्स बन गया है। मैं उस दिन के इंतजार में हूं, जब इनसान कथित सभ्यता के आवरण से बाहर आएगा और इनसान का बच्चा कह लाएगा!
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