Tuesday, April 29, 2008

बापू कैद में (व्यंग्य नाटक) -सात

गतांक से आगे...
दृश्य-पांच
(छाया मंच पर प्रकट होती है और फ्लैश लाइट उस पर केंद्रित हो जाती है)
छाया :
दोपहर होते-होते मैं समाधि स्थल पहुंच गया था, लेकिन बापू वहां नहीं थे। चिंताग्रस्त मैंने उन्हें इधर-उधर खोजा, मगर बापू का कहीं पता न था। आखिरकार समाधि स्थल पर ही बैठा-बैठा मैं उनका इंतजार करने लगा।
(मंच पर संध्याकालीन दृश्य, तभी लाठी टेकते-टेकते हारे थके से बापू का मंच पर प्रवेश)
मुन्नालाल (जिज्ञासा व चिंता भाव से) :
अरे! बापू कहां गायब हो गए थे।
बापू (बात टालने के उद्देश्य से) : कहीं... नहीं, बस यूं ही निकल गया था।
मुन्नालाल (झुंझलाहट में) : बापू...?
बापू (कृत्रिम क्रोध व्यक्त करते हुए) : मुन्नालाल...! जिद्द मत किया कर ...मुझे अकेला छोड़ दे।
मुन्नालाल (समझाने के भाव से) : बापू यह जिद्द नहीं है। ...बात समझ, चुनाव का दौर है, यूं ही तेरा अकेले कहीं जाना ठीक नहीं है।
बापू (कृत्रिम क्रोध व्यक्त करते हुए) : तू नहीं सुधरेगा!
मुन्नालाल (सहज भाव से) : ...बिलकुल नहीं, बापू!
(बापू मुन्नालाल को पूरे दिन की कहानी सुनाते हैं)
मुन्नालाल (चितिंत स्वर में) :
देख मैंने कहा था ना, अकेले कहीं मत जाना। ...जिद्द मैं नहीं तू करने लगा है, अब बापू! ठीक है बापू, जो हुआ सो ठीक है, अब चुनाव समाप्त होने तक बस समाधिस्थ ही रह। ...देख कहीं जाने का मन करे भी तो अकेले मत जाना।
बापू (आग्रह भाव से) : ...नहीं-नहीं पुत्र ..एक बार दूसरी पार्टी वालों के कार्यालय भी जाकर देख लूं।
मुन्नालाल (आदेशात्मक भाव से) : नहीं बापू ...बिलकुल नहीं, ...कहा ना चुनाव तक समाधिस्थ रहने में ही भलाई है...।
बापू (विनीत भाव से) : ...हर्ज क्या है, पुत्र! वे मेरे राम के भक्त हैं। हां, अब तो मुझे राष्ट्रपिता भी मानने लगे हैं। स्वदेशी के भी खूब नारे लगाते हैं। सुना है पुत्र मेरी लाठी भी उन्हीं के पास है। टोपी का भी सम्मान करते हैं...।
मुन्नालाल (झुंझलाते हुए) : हाँ, सफेद नहीं, बस काली...!
बापू (मुसकराते हुए) : ...इससे फर्क क्या पड़ता है, काली हो या सफेद। टोपी आखिर टोपी है, पुत्र।
मुन्नालाल (बापू की मंशा भांपते हुए) : ठीक है बापू, नहीं मानता तो ...मगर मैं साथ चलूंगा। कल सुबह जब तक मैं न आ जाऊं तब तक कहीं मत जाना।
बापू (सहज भाव से) : ठीक है, पुत्र!
मुन्नालाल : ...अच्छा, प्रणाम बापू , मैं चलता हूं। तू भी आराम करले। (चलते-चलते) ठीक है, मैं सुबह ही आ जाऊंगा!
(प्रात: मंच पर साउथ ब्लाक और नार्थ ब्लाक के मध्य राजपथ का दृश्य। सामने राष्ट्रपति भवन का विशाल द्वार। राजपथ पर लाठी के सहारे बापू अकेले ही धीरे-धीरे राष्ट्रपति भवन की ओर जा रहें हैं। राष्ट्रपति भवन के पास एक सिपाही उनका रास्ता रोकता है)
सिपाही (कड़क आवाज में) :
कौन है, बे। मूँ ठाए किंघह जारा?
बापू (विनम्र भाव से) : पुत्र, मैं बापू हूं...।
सिपाही (व्यंग्य भाव से ) : अच्छाऽऽऽ! ...ससुर, म्हारा बाप है। या ई त मुसीबत है, ससुर इस छेत्तर की डूटी में, इंघह जो भी आवै है, म्हारा बाप ही आवै। चल तू भी म्हारा बाप ही सही, पर जे तो बता तू है कौन, तेरा कुछ नाम पता भी है कि बस म्हारा बाप ही सै?
बापू (पूर्व भाव से) : ...पुत्र, पहचाना नहीं, मैं राष्ट्रपिता, गांधी...।
सिपाही (ठहाका लगाते हुए) : लै भाई, इब तै हद है गई। इब तक तै मेरा ई बाप बनै था। इबजा पूरे रास्टर का बाप बन गिया। बड़ा बेरूपिया लागै कोई!
बापू (पूर्व भाव से) : हाँ-हाँ, पुत्र राष्ट्रपिता!
सिपाही (हँसते हुए) : ...धत्, कैसा रास्टरपिता! औलाद लाल बत्तीन की गाड़ी मै हांडे अर बाप पाँव-पाँव ...ना बाबा ना नोकरी तो मैन्ने अपनी लुगाई तै भी जादा प्यारी लाग्गै। अग्गै जावै की इजजजत कतई ना दूँ! ...अच्छी तू खिसक यहां तै।
(बापू आगे की ओर पाँव बढ़ाते हैं)
सिपाही (कड़क आवाज में) :
अरे ओ म्हारे बाप, रास्टरपति भवन की ना, बापसी की बस पकड़ लै, बापसी की।
बापू (रुक कर विनीत भाव से) : मेरा यकीन कर पुत्र, मैं राष्ट्रपिता...!
सिपाही (दया भाव दिखलाते हुए) : ...चल ससुर तेरा अकीन करलूँ, तू रास्टरपिता ही सै, पर रास्टरपति तै ना। ...आज के जमानै में ससुर पतिन अर पतनियों के सामने पितान नै कौन पुच्छै? (डंडा हवा में घुमाते हुए) अच्छा तू जे बता, तेरे बरगी जनपथी जीव नै राजपथ पै एंटरी किस बवले ने दे-दी। (सिर खुजलाते हुए, धीरे से) जरूर कोई बावला दरोग्गा खड़ा होग्गा एंटरी पै, पर बावला तो कौना। जरूर पीसे ले कै एंटरी दी होग्गी।
बापू : नहीं, पुत्र मेरे पास पैसे कहाँ?
सिपाही (झिड़कते हुए) : मैं रिसवतखोर ना सै ...चल फूट इंघह ते। (बीड़ी में कश खींचते हुए) अच्छा सुन, तैनै नाम तो बाताया ही ना, नाम के है तेरा?
बापू (पुन: समझाते हुए) : ...पुत्र, मैं महात्मा गांधी ...मोहन दास वल्द करम चंद गांधी ...मोहन दास करम चंद गांधी।
सिपाही (क्रोध में) : सुबै-सुबै खोपड़ी खराब ना कर! ...इतने अच्छर तो अब हम भी बाँच लेवे हैं। (बीड़ी का लंबा एक कश खींचने के बाद ) हम कैह वै हैं ना, ससुर तू गांधी होत्ता तो भैं-भैं करती लालबत्ती की गाड़ी में ना आत्ता! (मुँह बिचकाते हुए) धत्त! तेरी नाक मै रस्सी!
बापू (आग्रह भाव से) : पुत्र मेरा यकीन कर मैं गांधी ही हूँ!
सिपाही (डंडे से सिर खुजलते हुए अपने-आप से) : ...हूँ, हुलिया तै गांध्धी जैस्सा ई, नाम भी वा ई बतावै। हो सकै, भाई वाई हो! ...चल कौना टैम तो पास कर ई लैं!
(सिपाही ने हाथ पकड़ बापू को नार्थ ब्लाक के चबूतरे पर बिठाया और दूसरी बीड़ी सुलगाई कुछ देर सोचने के बाद)
सिपाही (गंभीर मुद्रा में) :
...हुलिया तै तो तू असल मै गांध्धी सा ही लग्गै। पर पता है, जे राजपथ सै, राजपथ, इंघह गांध्धीगरदी मचाते खद्दरधारी बेरूपियां भी कम ना फिरैं। ...अर इंघह जौ भी आवै, ससुर अपने कू गांध्धी का सगा भतीज्जा ही बतावै। पर तू तो अपने को सीध्धे गांध्धी ही बता रिआ...! (बापू के चेहरे पर अपनी निगाह गड़ा कर) हांऽऽऽ लाग्गै खोपड़ी ठीक काम कर री सै, तू तै असली गांध्धी बाप्पू सा ही लाग्गै। (कुछ देर रुकने के बाद) अच्छा सच्ची-सच्ची बता गांध्धी ही सै?

बापू (गंभीर भाव से) : सत्य ही बोल रहा हूँ, मैं गांधी ही हूँ।
सिपाही (बीड़ी चबूतरे की मुंडेर से रगड़ विनम्र भाव से): ...चल मान लेंऊ तू गंध्धी ही सै। पर मेरी - तेरी कौन सुनै इस राज मै...? (कुछ देर चुप रहने के बाद पुन:) मेरे बाब्बा ने भी तेरे संग आजद्दी की जंग लड़ी थी। वा तेरी बहादुरी किस्से खूब सुनावै था। (गीली आँख पोंछते हुए) मैं भी तुझै खूब प्यार करूं! ...पर तू जे बता राजघट छोड़ इंघह क्यूं धख्खे खारा, भाई?
बापू (सहज भाव से) : चुनाव का टिकट लेने के लिए अशोक रोड़ के दफ्तर जा रहा था। रास्ता भटक गया इसलिए इधर निकल आया।
सिपाही (जोर का ठहाका लगाते हुए) : टिकस ...चुनाव...! ई का अंघाई सूज्जी, तैनै!
बापू (सहज भाव से) : हाँ, पुत्र चुनाव के लिए टिकट, मगर इसमें हँसने की क्या बात है?
सिपाही (भावुक होते हुए) : हूँ... हसूं ना तो के रोऊं ...मेरा बाप्पू टिकस माँगने चला! इबजा या उमर मै नेतागरदी...!
(आंखों में आया पानी फिर पोंछा) हूंऽऽऽ, टिकस! क्यूं बावला हो रिआ, बाप्पू? ...तेरा मारग अब कुर्सी तक तो के राजपथ तक भी ना ला सकै है। ...फिर, कौन ससुर तन्नै टिकस देग्गा?
(बापू बड़े ध्यान से बात सुनते-सुनते उसके चेहरे के भाव पढ़ रहे थे)
बापू (समझाने के लहजे में) :
ऐसा तो नहीं है, पुत्र! ...कि कोई भी टिकट ना दे...!
सिपाही (आसमान की ओर मुंह उठाकर कुछ सोचते हुए, मध्य ही में) : ...अच्छा तू बता, रास्टरपती भवन अर या संसद के आसपास तेरे नाम का कोई मारग है के...?
बापू : ...नहीं पुत्र!
सिपाही : ना है, ना! (लंबी सांस लेते हुए) तेरा मारग कुर्सी तक ले जात्ता तो नेड़े-धौरे की किसी सड़क पै तेरे नाम का पत्थर भी लगा होत्त, है ना? ...बाप्पू! (विराम) तेरा मारग इबजा सत्ता की ओर ना, दिल्ली सै बाहर की राह दिखवै। या ई लईयां तेरे नाम का मारग दिल्ली के बाहरी इलक्के मै सै, वाई पै तेरे नाम का पत्थर लगा सै। ...बस पड़ा रह इक तरफा, अर दिखाता रै जमना पार की राह!
बापू (सहज भाव से) : ...हाँ!
सिपाही (इंडिया गेट की और संकेत करते हुए) : ...अर हाँ, वो इंडिया गेट देखरा है ना!
बापू (इंडिया गेट की ओर देख कर) : हाँ...!
सिपाही (क्षुब्ध भाव से) : किसी बावले ने अंग्रेज का बुत हटा कै तेरा बुत लगाने की बात कर दी। पर साल्लों बीत गिए, तेरे चेल्लों ने लगनै ना दी..!
बापू (मध्य ही में) : ...क्यूं भाई?
सिपाही (क्षुब्ध भाव से) : ...या लई यां कि तुझे इंडिया गेट पै खड़ा कर दिया तै नवे गांध्धियों की बैल्यू घट जावैगी। ...फिर तुझे टिकस दे कै कौन ससुर अपने पांव मैं कुलाड़ी मारवा चावैगा! ...कतई ना होवै!
बापू (सफाई देते हुए) : टिकट लेने नहीं आया, टिकट के बहाने लोकतंत्र का हाल देखने आया था। अकबर रोड वाले तो कल देख लिए थे। सोचा आज अशोक रोड वालों को भी देख लूं। सुना है राष्ट्रवादी विचारधारा के हैं, मेरा भी बड़ा सम्मान करते हैं।
सिपाही (झुंझला कर) : ...के देख्खेगा? जैसे अकबर वाल्ले, वैसे ही अशोक वाल्ले! ...बस सकल-सूरत का अंतर सै!
बापू (विनय भाव से) : मगर एक बार देख लेने में हर्ज क्या है?
सिपाही (झुंझलाहट और दया के मिश्रित भाव से) : ...बे-बात अपने हाड़न नै मुसीबत मै क्यूं डाल्लै! ...ले इंघह बैठ्ठा-बैठ्ठा ई मैं तन्नै सब दिखा दूं। (एक लंबी सांस ली और प्यार से बापू का हाथ अपने हाथ में लेकर) ले तैन्नै असल बात बताऊं। ...बुरा मान्नै तै मान जाइओ! (रुक कर झटके के साथ) तेरा कोई सम्मान-वम्मान ना करै सै। सब के सब दुकानदार सै, दुकान चलांवै हैं। तेरे नाम की सकीम चला कै ससुर सब अपना-अपना सौद्द बेंचै हैं, ''गांध्धी छाप बीड़ी के बंडल के साथ इनामी कूपन मूफत में'' हां बिलकुल या ई तरज पै। ...तेरे नाम की सकीम अभी जनता में चल जावैं है ना, यां ई लई यां बखत-जरूरत पड़ने पै तेरा नाम ले ले वैं हैं। ...ना तै तेरे जैसे जनपथी जीव कू कोई राजपथी वाला ना पुच्छैं।
बापू : मगर पुत्र, सुना है अशोक रोड वालों ने मेरा स्वदेशी का सिद्धांत भी अपना लिया है...?
सिपाही (आंखें पोंछी, बीड़ी सुलगाई और खिन्न भाव से हंस कर बोला) : ...असोका रोड वालों की सुदेसी! कौन ससुर तेरी तरै ढाई गज की धोत्ती लपेट्टें फिरै है? ...कौन तेरी तरै टायर सोल की चप्पल पहन घूमता फिरै? (लंबी सांस खींचते हुए) अरे, बाप्पू! सब के सब खीमखाफ का सपारी सूट लटकाए फिरें हैं, रिबक के जूत्ते पहनै, अर विदेस्सी गाड़ी में घूम्में, अर बात करैं सुदेसी की। सब के सब ससुर बात्तन का खावैं हैं। ...कोरी बात्तन का। (चेहरें पर घृणा व रोष के भाव एक साथ लाते हुए) अकल मैं धंसी के होर बात बताऊं उनकी।
बापू : मगर पुत्र मेरे राम पर तो वे अपनी...?
सिपाही (ठहाके के साथ मध्य ही में) : ...राम- तेरा राम! ...या भी तू गलत ही सोच रा! ...राम भौत जपैं सै! कतई ना बगल मै छूरी ले कै राम-राम करैं सै ...तेरे नाम की तरै, ससुर राम के नाम की भी दुकानदारी चला रें सै। इनन नै भगवान कू भी ना बख्शा। वाए भी बेच लिया, तेरी के बिसात! (एक क्षण के मौन के बाद) बेचेंग्गे जब तक बिकेगा, बेचेंग्गे। जब ना बिकेगा तब तेरा अर तेरे राम का नाम फुट्टें मूं ते भी ना लें। ...अर एक बात होर सुनले, किसी भैकावे में ना रहिओ। तेरे अर तेरे भगवान के नाम की दुकनदारी जिस दिन बंद है जागी। दिके तेरे चेल्ले तुम दोनों की फोट्टो कच्ची दिवाल के आले में भी ना सजावैं, दिल की बात तो दूर की! ( बापू ने गौर से सिपाही को देखा। सिपाही ने बापू का हाथ सहलाया। जली बीड़ी फैंकी, नई बीड़ी अंगुलियों के बीच रगड़ता हुआ घृणा भाव से बोला) इबजा बता, वां जाक्कै करेग्गा आतमहतया। करनी है तो , जा चला जा ...! (सिपाही की आंखों का पानी सीमाएं लांघ चेहरे तक आ गया। उसने दोनों हाथों से आंख और चेहरे को रगड़ा और रुंधे गले से बोला।) जाऽऽऽ चला जा, देखिया! अकबर रोड ते तो परसाद ले लिया, इबजा असोक रोड तै भी लिया! ...कर ले आतमहतया, मेरा के है? मैं भी भीग्गी आंखान तै थाण्णें में एक पर्चा दाखल कर दूंगा। अगियात एक फकीर ने आतमहतया कर ली।
(सिपाही के भाव देख बापू की आंखें भी नम हो गई। दोनों ने एक-दूजे को निरीह भाव से निहारा। एक मौन अंतराल के बाद मुसकराने का प्रयास किया) मैं समझ गिया रे बापू, राजघाट ते तेरा मन उचाट हो गिया। ...या ई लई यां तुझ्झै टिकस ले वै का उदमाद सुझ्झा। ...हां, इंसान कब तलक अकेला पड़ा रह सकै। (रुक-रुक कर) को ना, चल तू मेरी गैल म्हारे घर चल। ...मुझे लागेगा जैसे मेरा बाब्बा जिंदा है गिया। जात्तकों के साथ खेल्लेगा, तो मन बहल जावेगा। ...जात्ताकों नै आजाद्दी के किस्से सुनाइयों। कहवैं हैं ना, जात्तक का मन कौरी सलेट होवै है। हो सकै है, तेरी बात उनकी सलेट पे उतर जावै। ...अर आज ना सही, कल उनमें तैं कोई सच्चा रास्टरवाद्दी बन जावै। आज ना सही देस का कल सुधर जावै। (बापू का हाथ पकड़ अधिकार पूर्ण आग्रह के साथ) रंज ना कर, चल उठ मेरे साथ चल।
बापू (विनीत भाव से) : नहीं पुत्र, आज नहीं, आऊंगा एक दिन तेरे घर अवश्य आऊंगा।
(लाठी टेकते हुए बापू विजय चौक की तरफ चलने लगे)
सिपाही (बापू की मंशा भांपते हुए) :
ठीक है बाप्पू, जैसी तेरी इछ्छा। ...चल तुझे जनपथ तक तै छोड़ आऊं। रास्ते में कहीं लोकतंतर का असली पहरेदार मिल गिया तो अबैध हथियार रखने के जुरम में अंदर कर देग्गा। चल, पर दिके इक बार म्हारे जैसेन के घर जरूर आईओ...।
(बापू का हाथ पकड़ कर सिपाही उन्हें जनपथ की ओर ले जाता है)
(कल : बापू कैद ...जारी)