Friday, December 14, 2007

गुड डील नहीं गुड फील चाहिए

''अमेरिका के साथ परमाणु-डील किसी भी दृष्टिंकोण से व्यावहारिक नहीं है। न पार्टी हित में है, न सरकार हित में और न ही बैसाखी-दलों के हित में। जहाँ तक प्रधानमंत्री जी का सवाल है, इस डील के बाद से मोहनी सूरत पर व्याप्त उदासी चिल्ला-चिल्ला कर हाल-ए-दिल खुद-ब-खुद ही बयान कर रही है। बेचारे अपना डील-डोल भुला डील कर बैठे।'' राजनीति के मर्मज्ञ लाल बुझक्कड़ जी परमाणु डील पर अपना व्याख्यान झाड़ रहे थे। हम अपना राष्ट्रवादी-चिंतन लिए जनता की तरह चुप सुन रहे थे। हमारे राष्ट्रवाद ने मौसमी अंगड़ाई ली और हम बोले- मगर राष्ट्र-हित में तो है! लाल बुझक्कड़ खिलखिला कर बोले- कैसी दकियानूसी बातें करते हो! राष्ट्र को गुडफील चाहिए, गुड डील नहीं! राष्ट्रहित में होता, तो वामपंथी क्यों विलाप करते। कहीं तुम्हें उनके राष्ट्रवादी होने पर शक तो नहीं? अंगरेजी राज से लेकर आज तक उनसे बड़ा, क्या कोई राष्ट्रवादी हुआ है? ..कोई नहीं, इतिहास गवाह है!
वे आगे बोले- सुनों बरखुरदार! प्रधानमंत्री अल्पमत में बहुमत के ख्वाब देख बैठे। डील करने से पहले कनस्तर के दाने तो गिन लेते। ''घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने'' वाली कहावत चरितार्थ कर दी, तुम्हारे प्रधानमंत्री ने। जब दाने ही नहीं थे, तो भड़भूजा क्या अम्मा का सिर भूने। प्रधानमंत्री जी जब जानते हैं कि जनता ने पार्टी को खण्डित जनादेश दिया है, फिर कुलांचे भरने की क्या जरूरत थी। अरे, भाई बैसाखियों के सहारे कुलांचे भरोगे, तो गिरोगे ही। उन्हें ''जैसा तेरा नाचना-गाना, वैसा मेरा वार-फेर'' के सिद्धांत का पालन करना चाहिए था। ऐसा करते तो कम से कम पांच वर्ष सुखी जीवन व्यतीत कर लेते। जनता ने उन्हें सत्ता-सुख भोगने का आदेश दिया था। वे काम में वक्त जाया करने लगे। बरखुरदार! हमारी धर्म-संस्कृति में 'काम' से दूर रहने की हिदायत दी गई है। काम में लिप्त हो जाओगे तो पतन निश्चित है।
हमें लगा चचा लाल बुझक्कड़ के सामने तर्क पेश करना, वामपंथियों के साथ सिर खपाने के समान है, अत: हम मौन बने रहे।
चचा ने मुख पर कुछ इस प्रकार गंभीर भाव उतारे मानों किसी रहस्य पर से परदा उठा रहे हों। फिर बोले- गठबंधन सरकारें काम करने के लिए नहीं, काम का शोर मचाने के लिए हुआ करती हैं। गुड़ भले ही न दे, मगर गुड़ जैसी बात करने के लिए होती हैं। इन्हें भी गुड़ बांटे बिना गुड़ का अहसास कराना चाहिए था। बातों ही बातों में जनता को गुडफील कराना चाहिए था। अब देखो न! अपने बाजपेयी जी कविता सुना-सुना कर मस्ती में पांच साल काट गए। उनका अनुसरण करते तो रात के अंधेरे में भी सन-साइन का अहसास होता। बैठे-बिठाए दिन में तारे न गिनने पड़ते। जनता को गुडफील कराने के लिए देश में मुद्दों की कमी थोड़े ही है। अरे, भाई कुछ न मिला था, तो गरीबी हटाने के परंपरागत मुद्दे को ही उठा लेते। टका एक खर्च न करते, बस शोर मचाते। वोटर खुश हो जाता, मुद्दा ज्यों का त्यों बचा रह जाता, अगली बार फिर काम आ जाता। गरीबी से रंजिश थी तो प्याज को ही मुद्दा बना लेते। लालकिले से प्याज के दाम घटाने की घोषणा कर देते। सीधा जनता-जनार्दन से जड़ा मुद्दा था। सरकारों को जब कुछ नहीं मिलता, तो महंगाई बढ़ा कर, महंगाई का ही मुद्दा उठा लेती हैं। चार आने बढ़ाती है, एक आना कम कर देती है। चारों ओर गुडफील-गुडफील हो जाती है। महंगाई को तो सत्ता के भवसागर से पार उतरने के लिए गाय की पूंछ समझो।
बस और कुछ भी नहीं एक अनुभव का टोटा है। व्यक्ति वही जीनियस कहलाता है, जो दूसरों को ठोकर खिलाकर खुद अनुभव का लाभ उठाले। कोई नहीं मिला था, तो राव साहब के अनुभव से सीख ले सकते थे। न डील, न फील मौनी बाबा बनकर ही पूरे पांच साल सरकार चला गए। उनमें समर्पण-अर्पण दोनों भाव थे। देश और जनता के प्रति समर्पित और सहयोगियों के प्रति अर्पित। कहने वाले घोटाले-बाज कहते रहे। वे गए तो क्लीन चिट लेकर गए। समर्पण-अर्पण का भाव उनसे सीख लेते तो आज संघी भाइयों के कटाक्ष न सुनने पड़ते। वामपंथियों के नखरे न सहने पड़ते। अमेरिका के साथ डील करनी ही, तो भइया ब्ल्यू-लाइन डील कर लेते। डील की फील भी हो जाती और वामपंथी भी जुबान न खोलते।

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