Thursday, May 8, 2025

ग़ज़ल

हिज्र की 'उम्र इतनी हो गई ,
ज़िंदगी बेकसी-सी हो गई।

याद उनकी अभी बाक़ी मगर,
याद करना ख़ता-सी हो गई।

मन में आया भुला दूं मैं उसे
नज़्म में वह नुमाई हो गई।

ख़्वाब था बस जरा सा, कुछ नहीं,
ख़्वाब वो ही हक़ीक़ी हो गई ।

बेगुनाही में क्या ही अब कहूँ,
भूल थी बस सहज ही हो गई।

राजेन्‍द्र त्‍यागी