Wednesday, January 30, 2008

गांधी की प्रासंगिकता


दिनांक 30 जनवरी, रात्रि के ठीक 12 बजे,
मुन्ना लाल ने जा जगाया बापू को।
बापू! ओ-बापू, नेक करवट तो बदल, बापू! मुन्नालाल ने टेर दी।
बापू ने आंखों पर से पलकों का परदा उठाया। खकारा और जीर्ण-शीर्ण धोती का पल्लू संभाला।
फिर बोला- पुत्र! इस वक्त?
मुन्नालाल फुसफुसाया- आज तुम्हारा श्राद्ध है, बापू।
इसमें नया क्या है? हर रोज ही तो मनाया जाता है! कुत्ते हलवा-पूरी खा रहे हैं। मेरे श्राद्ध के नाम पर ही तो। ..बेमतलब की बात! जगा तो ऐसे दिया, मानो आधी रात को फिर कोई 'बुद्ध' मुस्करा दिया हो! बापू ने झुंझलाते हुए कहा।
नहीं बापू! ऐसा नहीं है। बापू के तेवर भांप मुन्नालाल ने सुर नीचा किया और फिर बोला-मैंने सोचा था सुबह होते-होते तो तेरे भक्त आ घेरेंगे तुझे, इसलिए यही वक्त उचित लगा मन-तन की दो बातें करने के लिए।
बापू ने कहा, हूं! तो आ बैठ।
बापू के चरणों में बैठ मुन्नालाल बोला, 'क्यों बापू! क्या लोकतंत्र की पुनर्समीक्षा..?'
मुन्नालाल अपनी बात पूरी कर पाता तभी खड़ा हो स्साले! की आवाज के साथ रायफल की बट उसकी कमर पर पड़ी। मुन्नालाल बिलबिला उठा। तब तक बापू भी अपनी धोती संभाल सावधान की मुद्रा में आ चुका था।
मुन्नालाल की चीख और संविधान में प्रदत्त मौलिक अधिकार वाले अनुच्छेद में निहित भाषा सुन बापू फौरन भांप गया, 'लोकतंत्र का कोई प्रहरी आ धमका है।'
मुन्नालाल का पक्ष लेते हुए बापू बोला-महाशय! यह मेरा अनुचर है। मुझ से दो बातें करने आया था, श्रद्धांजलि के रूप में सरकारी संपत्ति नष्ट करना का इरादा नहीं है, इसका। मुझे भी कोई खतरा नहीं है इससे, आप निश्चिंत रहे।
मूछों पर हाथ फेर सिपाही बोला- अच्छा एक नहीं दो-दो, तू कौन है बे!
मैं-मैं ऽऽऽऽ! मुझे नहीं पहचाना? बापू ने रिरयाते हुए कहा।
सिपाही बोला, 'हां! तू त्तो ऐसे ही गांधी का सगा भतिज्जा से? अरे, चूक है गई तुझे ना पिछान्ना। चलो सोहरों, दोन्नों दरोग्गा जी के पास चलो, भूल सुधार वां ही हो जाग्गी।'
बापू ने विनय भाव से फिर कहा, जनाब मेरी बात मानो, यकीन करो मैं ही तो गांधी हूं, महात्मा गांधी!
सिपाही बोला- हां, स्साला! इस देश का तो हर तीसरा आदमी गांधी है या फिर गांधी का चेल्ला। हवालात में एक रात काटेगा, बस गांधी बनने का सारा भूत उतर जागा।
सिपाही ने दोनो की कलाई थामी और जा पहुंचा थाने।
कुर्सी पर पद्मासन लगाए दरोगा निर्लिप्त भाव से गांधी छाप नोटों पर उंगलियां चलाने में मगन था। सिपाही ने दरोगा के हुजूर में सलाम ठोका। समाधिस्थ दरोगा का ध्यान भंग हुआ।
मौलिक अधिकार की भाषा का सटीक इस्तेमाल करता हुआ दरोगा सिपाही पर चिल्लाया- अबे ओ भूतनी के, किन कंगालों को पकड़ लाया?
मंजन के विज्ञापन की तरह दांत निपोरता सिपाही बोला, साहब ये दोनो गांधी समाधि से पकड़े हैं। बूढ़ा अपने आप को गांधी बताता है!
दरोगा ने गांधी छाप टकसाल जेब में ठूंसी और गधे की तरह आसमान की तरफ मुंह फाड़ते हुए बोला, सालो पर रख दे देसी कट्टा, ठूंस दे हवालात में। सुबह खबर लेंगे।
बापू ने अंतिम प्रयास किया- जनाब जरूर कोई गलत फहमी हुई है। मैं गांधी ही हूं, जनाब, मोहन दास वल्द करम चंद। जनाब, वही गांधी जिसकी हत्या गोडसे ने की थी। चाहे तो दीवार पर टंगे फोटो से मेरी शक्ल का मिलान कर लो।
दरोगा बोला, ठीक है! मान लेता हूं, तू ही गांधी है। मगर किस ने सलाह दी थी दीवार से उतर कर जमीन पर आने की। दीवार से उतरने की हिमाकत की है तो सजा भी भुगत और कुछ नहीं तो अपना वायदा ही पूरा कर।
बापू बोला- कैसा वायदा, जनाब?
भूल गया! दरोगा आगे बोला- दीवार पर टंगा फोटो यदि तेरा ही है तो फोटो में पंजा भी तेरा ही होगा?
बापू बोला हां, जनाब!
दरोगा ने हाथ फैलाते हुए कहा- ठीक है तो फिर ला! हाथ पर अपने फोटो वाला नोट रख। तेरा वायदा भी पूरा हो जाएगा, नोट जेब में रहेगा तो तेरी शक्ल भी याद रहेगी।
बापू बोला- मगर जनाब! मैने तो जीते जी भी कभी नोटों के हाथ नहीं लगाए, अब तो बात ही अलग है।
दार्शनिक अंदाज में दरोगा बोला- यही तो तेरी भूल थी। अपने भक्तों की तरह यदि तू भी आजादी को कैश करता तो कोई भी गोडसे तेरी हत्या न करता! मरने के बाद तेरी आत्मा नीलाम न होती और न ही इस तरह रात हवालात में काटनी पड़ती। पकड़ा जाता भी यदि कभी तो नोट दे कर छूट जाता। अपने भक्तों की तरह एक के बाद एक घोटाले करने पर भी ईमानदार कहलाता। नोट नहीं तो कोई बात नहीं हवालात में रह, सुरक्षित रहेगा। यहां कोई भी गोडसे तुझे घायल तक नहीं कर पाएगा।
दरोगा ने इशारा किया। सिपाही ने हुकुम बजाया और दोनो को हवालात में डाल दिया। गांधी और गांधी के अनुचर ने पूरी रात हरि कीर्तन कर गुजारी।
भोर हो चुकी थी। गांधी की आत्मा हवालात में कैद थी और आत्मविहीन समाधि पर देश के कर्णधार श्रद्धासुमन अर्पित कर रहे थे।
थाने में बैठा दरोगा गांधी की प्रासंगिकता पर मंथन कर रहा था। 'एक भी नोट नहीं कमबख्त की जेब में। जमानत के लिए भी कोई नहीं आया। कितना अप्रासंगिक हो गया है, बेचारा।'
दूसरी तरफ नेता भाषण झाड़ रहा था- बापू आज भी प्रासंगिक है। उसका सिक्का आज भी लुढ़क रहा है। लाठी में आज भी दम है उसकी। बकरी भी जवान है। दूध भी उसका सूखा नहीं। क्योंकि बापू आज भी प्रासंगिक है!
भाषण समाप्त हुआ नेता घर पहुंचा। घर पर दरोगा मिला। पालतू कुत्ते की तरह दुम हिलाते हुए दरोगा बोला, सरकार गलती हो गई। आज नौकरी बचा लो माई-बाप।
नेता बोला अबे, रिरयाता ही रहेगा या कुछ बकेगा भी, चोट्टी के।
सरकार वचन दो नौकरी नहीं जाने दोगे! दरोगा ने कहा।
नेता बोला- ठीक है, ठीक है बक तो सही।
जनाब गलती हो गई, वो है ना कमबख्त सिपाही राम सिंह, बापू और उसके चेले को पकड़ लाया। मेरी आंख पर भी पट्टी बंधी थी।
वक्त खराब था सरकार, बापू को हवालात में डाल दिया। सरकार गलती हो गई।
दरोगा की बात सुन नेताजी अवाक रह गए। कड़कती ठंड में भी गंजी चांद पसीना-पसीना हो गई। पसीना पोंछा, फिर कुछ सोचा और उछल पड़ा, अंधे के हाथ बटेर लग गई हो जैसे।
फटे होंठ कान तक खींच कर बोला- अरे दरोगा कमाल कर दिया, तूने। तेरा तो मुंह चूमने को मन करता है।
पतझड़ की सी लता की तरह दरोगा हवा में झोंके खाने लगा।
नेताजी ने दरोगा को तसल्ली दी। घबरा मत तेरी नौकरी नहीं तुझे तो पद्मश्री दिलाऊंगा हां, पद्मश्री। मगर कुछ ऐसा करना, रिहा न हो पाए बापू।
बात दरोगा के सिर से ऐसे गुजर गई जैसे भारत के नागरिक के सिर पर से देसी नेता का अंग्रेजी भाषण।
नेताजी ने दरोगा को फिर तसल्ली दी ठीक कह रहा हूं मैं। रिहा मत करना बापू को। बहुत सम्मान है, उसका हमारे मन में। देख, किसी तरह की तकलीफ न हो उसको। मगर रिहा मत करना। रिहा हो गया तो सत्ता खतरे में पड़ जाएगी। बकरी का दूध सूख जाएगा, नीलामी बंद हो जाएगी।
बापू कैद है! ..कैद ही रहने दे! ..क्योंकि बापू आज भी प्रासंगिक है!
बापू तब से कैद ही है! नेता स्वराज का सुख भोग रहा है और दरोगा पद्मश्री का!