Wednesday, November 4, 2015

मूंग की दाल


 
बॉस की झाड़ और राह की धूल, दोनों झाड़ने के बाद मुन्नालाल खाना खाने बैठ गया। रोटी का टुकड़ा तोड़ा और सब्जी की कटोरी में भिगोया। टुकड़ा कटोरी में ऐसे डूब गया जैसे बिना पतवार की नाव नदी में। मुन्नालाल का जायका बे-जायका हो गया। उसने चिल्लाकर पत्नी से पूछा, ''भागवान! आज यह क्या बना लाई?''
पत्नी ने रसोई से ही सहज भाव से जवाब दिया, ''दाल!''
पत्नी का जवाब सुन मुन्नालाल आसन से खड़े हो कर बदन के कपड़े उतारने लगा। तभी दूसरी रोटी लेकर पत्नी रसोई से बाहर आई और पति की हरकत देख अवाक रह गई। आश्चर्य व्यक्त करते हुए उसने पूछा, ''क्यों जी! खाना खाते-खाते यह क्या?''
मुन्नालाल ने जवाब दिया, ''कुछ नहीं! बस कपड़े उतार कर कटोरी में डुबकी लगाने की सोच रहा हूँ।''
पत्नी ने पूछा, ''क्यूं जी?''
मुन्नालाल ने जवाब दिया, ''कुछ नहीं! तुम्हारी बनाई दाल में दाल के दाने खोजने के लिए।'' 
पत्नी पहले तो खिल-खिला कर हँस दी और फिर खिन्न भाव से बोली, ''दस हजार रुपल्ली की तनख्वाह में दाल मक्खनी के ख्वाब देखते हो!'' 
निरीह भाव से मुन्नालाल बोला, ''मक्खनी दाल मैने कब माँगी है। मूंग-मसूर जिसकी भी दाल बनानी थी, दो-चार दाल के दाने तो गरम पानी में डाल देती।''
महंगाई की तरह पत्नी ने नाक-भौं सिकोड़ी और फिर कटाक्ष किया, ''यह मुंह और मसूर की दाल। महंगाई के आइने में थोपड़ा देखे कितने दिन हो गए हैं? कभी-कभी घर के पिछवाड़े जाकर दुकानदार का आइना भी झाँक आया करो। पता है, मूंग की दाल भी अंतरिक्ष की सैर पर निकली है। दाल के दो-चार दाने ही डिब्बे में बचे हैं, उन्हें हारी-बिमारी में खिचड़ी बनाने के लिए बचा कर रखा हैं।'' 
झड़-बेरी के बेर की तरह मुन्नालाल का चेहरा महंगाई पुराण की कथा सुन सिकुड़ कर रह गया। बदन के कपड़ों पर से पकड़ ढीली पड़ गई। वह अनमने मन से रोटी का टुकड़ा सटकने बैठ गया। तभी पत्नी ने फिर कटाक्ष किया, ''जल्दी करो, कहीं म्यूनिसपैल्टी ने भी पानी के दाम बढ़ा दिए तो सूखी कटोरी से ही टुकड़ा रगड़ना पड़ जाएगा।''
टुकड़े सटकते-सटकते वह सोचने लगा, 'कैसा जमाना आ गया है, टमाटर गरीब के पथरी करने लगा है। गरीब की रोटी छोड़ प्याज राजनीति में चला गया है। उसकी रुचि सरकार गिराने बनाने में है। नेताओं की तरह गरीब की थाली में कभी-कभी दिखलाई पड़ती है। एक बचा था आलू, उसे भी अब सब्जियों का राजा होने का अहसास हो गया है। उसने भी आम आदमी से मुंह फेर लिया है। शुक्र है! जैसी भी है, हथेली पर रोटी बरकरार है। पता नहीं कितने दिन।'' उसने फटाफट वजन पेट में डाला और चारपाई पकड़ ली। आँख लगी ही थी कि सपने में एक सुंदरी ने प्रवेश किया। मंद-मंद मुसकराते हुए उसने अपने मुख पर हाथ फेरा और उसकी तुलना मसूर की दाल से करते हुए पूछा, ''भद्रे! आप कौन हैं? कौन सी दाल का प्रतिनिधित्व करती हैं?'' 
सुंदरी मुसकरा कर बोली, ''प्रिय मुन्नालाल, ठीक पहचाना! मैं दाल ही हूँ, मगर मूंग की दाल..।'' मुन्नालाल बीच ही में बोला, '' ..किंतु, भद्रे! तुम्हें तो पत्नी ने हारी-बीमारी में खिचड़ी के लिए डिब्बे में बंद कर रखा है!'' 
''चिंता मत करो, प्रिय! भोग के लिए मैं यहाँ उपस्थित नहीं हुई हूँ। जब तुम बीमार पड़ोगे तो खिचड़ी में अवश्य दर्शन दूंगी!''
''.. फिर अब यहाँ क्यों?'' ''तुम्हारी चिंता, तुम्हारी शंका निवारण करने के लिए उपस्थित हुई हूँ, प्रिय!'' 
''कहो, शीघ्र कहो, जो भी कहना है! देश के कर्णधारों को यदि पता चल गया कि तुम मुन्नालाल के सपनों में आती हो तो उस पर भी पाबंदी लगा देंगे।'' 
''चिंता न करो, प्रिय! दिवास्वप्न पर पाबंदी लग सकती है। रात्रि-स्वप्न देखने से तुम्हें कोई वंचित नहीं कर पाएगा।''
स्‍वप्‍न-सुंदरी का चेहरा ठण्डे पानी में भीगी दाल की तरह यकायक सिकुड़ गया और ठिठुरे मुंह से वह आगे बोली, ''प्रिय! सरकार ने तुम्हें गरीबी रेखा से ऊपर खींचने का भरसक प्रयास किया, किंतु तुम फैवीकोल के जोड़ की तरह वहीं चिपके रहे। जब अहसास हुआ कि लक्ष्मण रेखा पार न करने के लिए तुम प्रतिज्ञाबद्ध हो, तो सरकार ने लक्ष्मण रेखा का दायरा सीमित करने का प्रयास किया, किंतु खेद कि तुम फिर भी सीमा रेखा से बाहर नहीं आए। सरकार दिन-रात तुम्हारी ही बेहतरी की चिंता में दुबली हो रही है। जब भी अवसर प्राप्त होता है, अच्‍छे दिन आएं या न आएं किंतु तुम्हें अच्‍छे दिन' का अहसास करने के प्रयास में लगी रहती है, किंतु खेद कि तुम्हारे भाग्य का सूर्य हमेशा बादलों में ही छिपा रहता है,चमक ही नहीं पाता।''
सुंदरी ने ठिठुरे अपने चेहरे पर हाथ फेर कर झुर्रीयां मिटाने का प्रयास किया और फिर आगे बोली, ''बताओ, प्रिय तुम्ही बताओ! मैं या प्याज, आलू या टमाटर, कब तक तुम्हारे साथ चिपके रहते। अपना-अपना मुकद्दर प्रिय! तुम गरीबी की लक्ष्मण रेखा लांघ न सके, इंतजार के बाद हम रेखा लांघ ऊपर वालों की जमात में शामिल हो गए। प्रिय! मैं भी कब तक घर की मुर्गी के भाव तुलती रहती, आखिर मेरे भी तो अपने अरमान है, सपने हैं।''
इतना कह कर मूंग की दाल मुन्नालाल के सपने से भी गायब हो गई। उसने करवट बदली और गहरी नींद लेने का महंगा प्रयास किया। तभी दूसरा सपने ने उसे आ घेरा, ''घास की रोटी का एक टुकड़ा उसके हाथ में था, जिसे वह डिब्बे में छिपाने जा रहा था, तभी एक ऊदबिलाऊ उसकी ओर झपटा और उसके हाथ से टुकड़ा छीन कर भाग गया!''
भयभीत मुन्नालाल के मुंह से चीख निकली। चीख सुनकर उसकी पत्नी भी जाग गई। सपने की बात उसने पत्नी को बताई। पत्नी ने उसे सांत्वना दी, ''डरो मत, सो जाओ। ऊदबिलाऊ नहीं था, महंगाई थी।''

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4 comments:

  1. http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AE%E0%A5%82%E0%A4%82%E0%A4%97_%E0%A4%95%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B2_/_%E0%A4%93%E0%A4%B6%E0%A5%8B

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  2. बहुत ही सार्थक और सुंदर व्यंग्य की प्रस्तुति। विषय आैर शैली बहुत ही अच्छी है।

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