Thursday, January 3, 2008

माया महा ठगिनि हम जानी

'वत्स, क्या? ..वर्तमान संदर्भ में मायाऽऽऽ!' कर्णेन्द्रियों में माया शब्द के प्रवेश मात्र से ही आचार्य श्री का तन-मन ऐसे मुरझा गया, जैसे शिशिर ऋतु में सूखाग्रस्त क्षेत्र की लताएं अथवा किसी मनुवादी प्रमाणपत्र प्राप्त आईएएस अधिकारी!
विचलित मन के साथ भय के रथ पर सवार आचार्य श्री बोले, 'हे, पुत्र! माया तो पुरातन काल से ही विवादास्पद रही है। अब, मेरे मुख से टिप्पणी प्रसारित कराकर मुझे क्यों इस विवाद में घसीटता है। जाओ, धर्म-ग्रंथों का अध्ययन करो माया का रहस्य समझ आ जाएगा।'
आचार्य को ढांढस बंधाते हुए मुन्नालाल बोला, 'हे, जगद् गुरु! राजनीति की उर्वरा भूमि में गहराई तक धंसी आपकी जड़ों से मैं पूर्ण परिचित हूं। वोट बैंक पर लटका ताला तोड़ने में आपको महारथ हासिल है। राजनीति के इस हस्तिनापुर में आप भीष्म पितामह के समान है। राजनीतिज्ञों के लिए आप किसी कुशल व्यवसायी की काली पूंजी के समान हैं। फिर भला किसकी हिम्मत है कि कोई आपको विवाद के दलदल में घसीटने की चेष्टा करे। अत: निरर्थक भय का त्याग कर माया के रूप-स्वरुप का विस्तृत विवेचन करने की कृपा करें।'
मुन्नालाल के सत्यं प्रियम् वचन सुन आचार्य बोले, 'पुत्र! राजनीति का चरित्र बहुत विचित्र है। राजनीति वेश्या के समान है, जो नित्य बिस्तर बदलती रहती है। उसके लिए आज मैं उपयोगी हूं, कल अन्य कोई धर्म गुरु उपयोगी हो सकता है।'
रहस्यवाद और मजबूरीवाद का समानुपाती मिश्रण चेहरे पर पोत आचार्य आगे बोले, 'पुत्र! मेरा नाम राजर्षि सम्मान की सूची में प्रथम स्थान पर है, अत: मुझे माया जाल में उलझा कर उस सूची से मेरा नाम साफ कराने का प्रबंध न कर।'
आचार्य श्री की व्यथा-कथा सुन मुन्नालाल ने मक्खन की मात्रा में वृद्धि की और मालिश करते हुए बोला, 'हे, आचार्य! आप भी यदि 'माया' शब्द मात्र से व्यथित हो जाएंगे। आप ही यदि भयवश संयम का त्याग कर देंगे। तब इस देश की राजनीति कि दिशा-दशा क्या होगी, इसकी कल्पना मात्र से ही मेरा मन ऐसे कांपने लगता है, जैसे पवन वेग से पीपल के सूखे पात।'
त्वचा रोम के रास्ते मक्खन की चिकनाई आचार्य के अंतर्मन में प्रवेश हुई और शुष्क मन चिकनाई प्राप्त कर मुलायम हुआ। इस प्रकार मुन्नालाल का मक्खनी प्रयोग सफल हुआ। बगुले की भांति आचार्य श्री ने दाएं-बाएं गर्दन घुमाई और माया की दिशा में उड़ान भरी। 'प्रिय, पुत्र! तेरी बाल हट के सम्मुख मैं पराजित हुआ और निर्धारित विजन-मिशन को एक तरफ रख माया के रहस्य पर मद्धम-मद्धम प्रकाश डालता हूं। लेकिन मेरी नसीहत पर भी तू गंभीरता से विचार करना।'
''देवो न जानति कुतो मुनष्य:''
हे, प्रिय पुत्र! मनुष्य की तो औकात क्या मान्यवर राम जी भी अपनी माया का रहस्य नहीं जान पाए। रामजी की माया है, पुत्र!रामजी की माया। तू फिजूल ही क्यों इस लफड़े में पड़ता है।' 'पुत्र, बड़ी विचित्र है माया की 'माया'! पुत्र! क्षण-प्रतिक्षण रूप परिवर्तन करना उसकी प्रकृति है। पुरातन काल से ही ऋषि-मुनि मायाजाल से दूर रहने की नेक सलाह देते आए हैं। मगर मोह के वशीभूत मनुष्य उसके मायाजाल में उसी प्रकार फंसता चला जाता है, जैसे अन्न के दाने देखकर जाल में कबूतर। '
प्रिय पुत्र! शंकराचार्य ने माया को असत्य कहा, भ्रम कहा, रज्जू में सर्प के समान कहा और दादा कबीर ने उसे मोहिनी कहा। उसका मोहिनी रूप देखकर मनुष्य उसी प्रकार अपना कंट्रोल खो बैठता हैं, जिस प्रकार हल्दीराम की भुजिया का खुला पैकेट देखकर टीवी बाला। माया के मोहिनी रूप से आकर्षित मनुष्य उसके साथ गठजोड़ कर बैठता है और फिर मनु के वंशज का तमगा प्राप्त कर दर-दर भटकता फिरता है।'
'माया विषकन्या है, पुत्र! वह राजा को रंक बनाने की क्षमता रखती है। कल्याण की भावना से जंजाल में फंसे व्यक्ति को भी नहीं बख्शती। अच्छे-अच्छे तीसमारखाओं की तासीर बदल कर माया उन्हें मुलायम बनाने की क्षमता रखती है।'
'परम प्रिय मुन्नालाल! दादा कबीर भी माया के मोह में फंसे होंगे, उनके अनुभव से ऐसा ज्ञात होता है।'
''कबीरा खड़ा बजार में लिए लुकाठी हाथ। जो घर जारै आपना चलै हमारे साथ॥''
स्पष्ट है कि स्वार्थ का त्याग कर केवल कल्याण भावना के साथ ही दादा ने माया शिविर में प्रवेश किया होगा। मगर शिविर में प्रवेश पाते ही वह भी ठगे रह गए होंगे। अपने अनुभव के आधार पर तभी तो उन्होंने कहा, 'माया महा ठगिनि हम जानी। तिरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुर बानी॥''
'अंततोगत्वा दादा की स्थिति क्या हुई, ''कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी खैर। ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर॥'' 'प्रिय पुत्र माया की चपत लगने के बाद मनुष्य दादा कबीर की ही तरह निष्काम-प्रवृति का हो जाता है।'
'उस दिन से आज तक बाजार में खड़ा कबीर चिल्ला-चिल्लाकर मनुष्य को माया से दूर रहने की नसीहत दे रहा है। मगर मनुष्य अनसुनी कर केवल यही दोहरा रहा है, ''माया तेरे तीन नाम परसी, परसा, परसुराम'' और उसके जंजाल में फंसता चला जा रहा है। अत: हे, पुत्र! तू माया का मोह त्याग, अन्य कोई शिविर तलाश। दीमक के समान माया तेरा जनाधार चाटती जा रही है। व्यर्थ में ही क्यों अपना जनाधार नष्ट कर रहा है, कबीर की मान, 'माया को महा ठगिनि जान।'
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