Wednesday, November 7, 2007

न दोस्ती अच्छी, न दुशमनी उनकी


मच्छरों की भिन-भिनाहट और कौवों की कांव-कांव से तमाम शहर परेशान है। मार्केटिंग में दोनों इतने उस्ताद हैं कि किसी को किसी की सुनने ही नहीं देते। बात सुनने-सुनाने तक ही सीमित हो तो भी सब्र कर लिया जाए, मगर मोका पड़ते ही दोनों डंक मारने से भी नहीं चूकते। डंक भी ऐसा कि पीड़ित पानी न मांगे। बावजूद इसके देखिए कि आदमी जानते-बूझते भी न मच्छरों से पीछा छुटाना चाहता है और न ही कौवों से। मच्छरों को रक्त पिला-पिला कर पाले हुए है और कौवों को श्रद्धा के साथ श्राद्ध का हलवा-पूरी। विडंबना देखिए कि दुष्ट कौवों को इतना विश्वासपात्र और शुभ मान लिया जाता है कि प्रिय के आने का सगुन भी कौवों की कांव-कांव से ही मनाया जाता है।
आदमी की मजबूरी है, क्योंकि मच्छर पानी में पनपते हैं। अब पानी रोको तो मच्छर पनपने का खतरा और वह भी डेंगू जैसे खतरनाक किस्म का, ऊपर से म्यूनिसपैलिटि वालों के चालान का डर। पानी उतर जाए तो समाज में किरकिरी। एक बूंद पानी चेहरे से लुड़का नहीं कि सुनने को मिल जाएगा, 'अरे, पानी उतर चेहरा लिए फिरता है। आंखों का पानी सूख गया है।' अब कहने वालों को भला कौन समझाए कि आंख में पानी रुक गया तो मच्छर पैदा हो जाएंगे, म्यूनिसपैलिटि वाले चालान काट जाएंगे। म्यूनिसपैलिटि वालों की आंख हालांकि शुष्क होती हैं, यानी के पानी विहीन होती हैं, इसलिए सूक्ष्मदर्शी होती हैं। फिर भी खुदा-ना-खास्ता किसी की आंख का पानी उनसे चूक भी गया तो, जनाब डेंगू बुखार का खतरा और देर-सबेर आंख बंद हो जाने का शुभ अवसर पैदा होने का खतरा। अब कहने वालों को कौन समझाए कि भइया चेहरे का पानी उतारने की वजह कुछ और नहीं बस मच्छरों से बचाव है।
समझ नहीं आता कि रहीम दादा किन परिस्थितियों में कह गए, 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून। पानी गए न उबरे, मोती-मानस चून।' ऐसा लगता है कि रहीम दादा के जमाने में मच्छर नहीं होते होंगे। होते भी होंगे, तो डेंगू किस्म के कतई नहीं होंगे। अगर डेंगू मच्छर होते तो म्यूनिसपैलिटि वाले उन्हें देशद्रोह के आरोप में बंद कर देते। खैर रहीम के दिन अच्छे थे, क्योंकि मच्छरों के आतंक से बचे हुए थे। मच्छर यदि होते तो यह बात भी गारंटी के साथ कह सकता हूं कि रहीम दादा की गिनती अकबर के नवरत्‍‌नों में न होती। तब उनका समूचा भक्ति साहित्य किसी डेंगू-साहित्य के नाम से प्रसिद्ध हुआ होता।
आज परिस्थितियां भिन्न हैं। हालांकि पानी का संकट है, चेहरों का पानी उतर गया है, आंखों का सूख गया है, फिर भी चारों तरफ मच्छरों की भिन-भिनाहट है, अर्थात मच्छरों का साम्राज्य है। फण्डा बड़ा साफ है, पानी उतर रहा है, अत: कहीं न कहीं तो रुकेगा ही। रुकेगा वहां, झील होगी और जहां झील होगी मच्छर भी वहीं पनपेंगे। मगर यह मत समझ लेना कि पानी में पनपने वाले मच्छर खुद में पानीदार होते हैं, नहीं-नहीं पानीदार जीव की प्रवृत्ति दूसरे जीवों का रक्त पीने की नहीं होती। इसे इस तरह भी कहा जा सकता है कि परजीवी वही होता है, जो पानी विहीन होता है।
अब रही बात कौवों की बड़े ही उस्ताद किस्म की जीव होते हैं। कोयल जैसा सुर नहीं, हंस जैसी तासीर नहीं फिर भी हलवा-पूरी मारते हैं। माल खुद चट कर जाते हैं और फतवा यह कि पितरों तक पहुंचा रहे हैं। माल न मिले तो कांव-कांव। आदमी समझता है कि उसकी प्रशंसा में गीत गा रहा है, मगर काग साहब अपना उल्लू सीधा करने में जुटे हैं। उल्लू है तो कोई न कोई सीधा करेगा ही, मगर उल्लू सीधा करते-करते यदि घायल कर जाए तो? हां, काग वृत्ति का यही कमाल है। सीता जी समझती रहीं होंगी का काग देव चरण-वंदना करने आ रहे हैं और वे जनाब उनके चरण घायल कर गए। यही कुछ जरूर कृष्ण भगवान के साथ भी हुआ होगा। वे भी सोच रहें होंगे कि कौआ बेचारा श्रद्धावश उनके पास आ रहा है और वह उनके हाथ से ले उड़ा माखन-रोटी। अब सूरदासजी भले ही काग के भाग्य की सराहना करते रहें, मगर वह भाग्य नहीं काग वृत्ति का कमाल था। अत: हमारी यही सलाह है कि मच्छर व काग वृत्ति को समझों, उन से दूर रहो। उनकी न दोस्ती अच्छी है और न ही दुशमनी।
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