Friday, October 12, 2007

आदमी से डर लगता है

राजेंद्र त्यागी

पिल्लू हमारा पालतू कुत्ता था। कुत्ता कहने में हम उसका अपमान और अपनी हिमाकत समझते थे। इसके विपरीत उसे पिल्लू कहलाना पसंद नहीं था, इसे वह अपना अपमान मानता था और कुत्ता कहलाने में गर्व। आजकल कुछ लोग भी आदमी बने रहने व कहलाने में शर्मिदगी महसूस करते हैं। जब उसका नामकरण पिल्लू किया गया, तो कमजोर देश की कमजोर सरकार की तरह उसने दांत निकाल कर विरोध दर्ज किया था। फिर भी अपने सुपीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स के कारण हम उसे पिल्लू ही कहकर पुकारते रहे और अंतत: कमजोर देश की समझौतावादी सरकार की तरह उसने भी हालात से समझौता कर लिया और पिल्लू नाम स्वीकार कर लिया। इसके अलावा, उसके पास और कोई रास्ता भी नहीं था, किंतु जीवन भर वह इस नाम को लेकर त्रस्त रहा। एक बार प्यार में हम उसे झिड़ककर बोले, 'अबे, आदमी हो जा आदमी!' इतना सुनकर वह हम पर गुर्राया, 'मेरी भी अपनी इज्जत है। आदमी कहकर मुझे अपमानित क्यों करते हो?' फिर उसने आदमी केंद्रित दर्शन झाड़ा, 'आदमी अब खुद ही आदमी नहीं रहा है। जब से आदमी के अंदर से आदमियत का लोप हुआ है, वह 'आदिम' से भी ज्यादा हिंसक हो गया है। पता नहीं क्यों आप मेरा आदमीकरण करने पर तुले हैं। हम आदमी से बेहतर हैं, इसलिए मैं जैसा भी हूं, वैसा ही ठीक हूं।' इतना कहकर वह शांत हो गया।

उसका दर्द मुझे जायज लगा। अलबत्ता आदमियों के कुछ गुण उसने अपने अंदर विकसित कर लिए थे। मसलन उसका पीआर व मार्केटिंग बहुत जबरदस्त था। हालांकि वह ऐसे आदमीय सद्गुणों को भी अपनी प्रजाति की ही देन मानता था। उसके पीआर व मार्केटिंग का ही परिणाम था कि हमारे घर जो भी आता, हमें छोड़ उसके प्रति स्नेह भाव प्रदर्शित करने लग जाता। जिस तरह के ऑफर के लिए हम आज तक तरस रहे हैं, ऐसे अनेक ऑफर उसे मिलते रहे। उनमें एक लाख रुपये के पैकेज वाले ऑफर भी थे और इससे ऊपर वाले भी।
यह उसकी मार्केटिंग का ही असर है कि स्वर्गवास के एक वर्ष बाद भी, हमारे घर आने वालों के मुंह से एक ही वाक्य प्राथमिकता के आधार पर निकलता है, 'पिल्लू के बिना घर सूना लगता है जी।' लोग हमारा हाल बाद में पूछते हैं, पहले पिल्लू को श्रद्धांजलि पेश करते हैं। हमारा व्यक्तित्व उसके सामने लोवोल्टेज हो गया है। उसके व्यक्तित्व के कायल लोग आज भी कहना नहीं भूलते, 'जनाब, पिल्लू का व्यक्तित्व बड़ा रोबदार था'। मानो पिल्लू न हुआ, मुगले आजम का शहंशाह हो गया।
पीआर और मार्केटिंग के विवादास्पद सद्गुणों को यदि दरकिनार कर दिया जाए तो बहुत सारे ऐसे आदमीय गुण हैं, जिन्हें उसने नहीं अपनाए। मसलन तलवे चाटना उसका जातीय गुण था, किंतु तलवे चाटते-चाटते काटना नहीं सीख पाया। आदमी ने यह कला विकसित कर ली है। 'भौंकने वाले काटते नहीं हैं', पिल्लू चाहकर भी अपने इस जातीय संस्कार से मुक्त नहीं हो पाया। वह भौंकता बहुत था, किंतु काटता किसी को नहीं था। आदमी के बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कहा जा सकता कि भौंकने वाला कटखना होता है अथवा मौन रहने वाला।
पिल्लू के चेहरे पर जो था, उसके दिल में भी वही था। यहां भी वह मार खा गया। जिस थाली में हम उसे भोजन परोसते थे, आज भी सुरक्षित है। कई बार उलट-पलट कर देखा, उसमें एक भी छेद नहीं दिखलाई पड़ा। पिल्लू जिसके टुकड़े तोड़ता रहा, उसके प्रति ही निष्ठावान बना रहा। टुकड़ों के साथ टुकड़ों-टुकड़ों में उसकी निष्ठा तो अवश्य तब्दील होती रही, किंतु टुकड़े किसी के निष्ठा किसी के प्रति, यह आदमीय सद्गुण भी उसने अपने अंदर विकसित नहीं किया। शायद ऐसे सभी सद्गुण उसे पसंद नहीं थे और संभवत: इसीलिए आदमी कहना उसे भद्दी गाली लगती थी।
उसके जीवनकाल में मैं उसे रूढि़वादी मानता रहा। मेरा मानना था कि आदमी की तरह प्रगतिशील रास्ता अपनाकर उसे अन्य आदमीय सद्गुणों के साथ आदमी बनना चाहिए था किंतु उसकी मृत्यु के उपरांत आज मुझे लगा कि पिल्लू ठीक था। हम ही गलत थे, क्योंकि अब मुझे भी आदमी से डर लगता है।