Sunday, April 6, 2008

' पांव-पान-पूजा' सफलता प्राप्ति का सफल सूत्र

भाग्यं फलति सर्वत्र:
न च विद्या न पौरुष:।
'
कैरियर को लेकर चिंतित मुन्नालाल के ऐसे वचन सुन आचार्य श्री के साफ्टवेयर-हार्डवेयर एक साथ एक्टिव हो गए और एक-एक कर सद्ंविचार उनके मन रूपी मानीटर पर डिसप्ले होने लगे। उसकी दशा-दिशा देख आचार्य श्री को उस पर दया आ गई और रामकृष्ण परमहंस की तरह अपने विवेकानन्द के सिर पर हाथ रख कर वे बोले, 'पुत्र! तू विवेक न खो, धैर्य रख। चिंता चिता समान है।'
आचार्य श्री आज मैनेजमेंट कंसलटेंट की तर्ज पर प्रवचन देने के मूड में थे। शायद इसलिए कि विषय कैरियर से संबंधित था।
शून्य में हाथ-पांव लहराते हुए ओजस्वी वाणी में फिर वह बोले, 'पुत्र ! तेरा भाग्य तेरे हाथ में है। यह उचित है कि जीवन रूपी इस कुरुक्षेत्र में भाग्य का अपना महत्व है, परंतु भाग्य के सामने पौरुष व विद्या को अंडर एस्टिमेट न कर। मक्खन प्रधान वर्तमान युग में भी भाग्य निर्माण में पौरुष व विद्या की महत्वपूर्ण भूमिका है।'
मालपुए के समान नरम-गरम वचन सुन मुन्नालाल को लगा जैसे महंगाई के इस दौर में सस्ती दर पर दाल-चावल मिलने का आश्वासन मिल गया हो! उसने धैर्य का प्रदर्शन करते हुए कहा, 'आचार्य श्री यह कैसे? मेरे पुरुषार्थ में भी कहीं कोई कमी नहीं है और ज्ञान में भी नहीं, फिर..?'
आचार्य श्री ने अपने आर्द्र वचनों से मुन्नालाल के मुरझाए मन को तरोताजा रखने का प्रयास करते हुए बोले, 'पुत्र! जिस कर्म द्वारा लक्ष्य प्राप्ति हो जाए वही पुरुषार्थ है, वरन् व्यर्थ की कवायद। इसी प्रकार वही ज्ञान सद-विद्या है, जिससे अभीष्ट की प्राप्ति हो। जिस विद्या से अभीष्ट फल प्राप्त न हो वह तो कोरा अज्ञान है। तू उसे पुरुषार्थ व ज्ञान की संज्ञा से क्यों सुशोभित करता है?'
'तू आत्मावलोकन कर और देख कि तेरा पुरुषार्थ लक्ष्य प्राप्ति में सहायक सिद्ध क्यों नहीं हो रहा है? अज्ञान बन कर तेरी विद्या तेरा मार्ग क्यों अवरुद्ध कर रही है? अत: तू दशा-दिशा का यथार्थ ज्ञान कर उचित दिशा में सार्थक प्रयास कर, तेरा कल्याण होगा, वत्स।'
'हे, वत्स! विद्या के संदर्भ में भी तू भ्रमित सा दिखलाई पड़ रहा है। डार्विन के विकास का सिद्धांत अप्लाई कर यदि तू सूर्य की गति का आंकलन करेगा तो ऐसी ही दुर्गति होगी। प्रॉब्लम गति की है, तो न्यूटन के गति का फार्मूला अप्लाई कर, दुर्गति का नहीं। प्राब्लम ट्रिगनेमेटरी की और फार्मूला ज्योमैट्री का! फिर तू सफलता वरण कैसे कर पाएगा? पौरुष और विद्या को अंडर एस्टिमेट कर वक्त बरबाद न कर उसकी गति पहचान, उसकी नब्ज पहचान।'
'सुन, पुत्र! वक्त की नब्ज पहचानने वाले व्यक्ति ही सफलता प्राप्त करते हैं। वक्त परिवर्तनशील है और परिवर्तन के इस चक्र में जड़-चेतन, आचार-विचार सभी परिवर्तित हो रहे हैं। मूल्य परिवर्तित हो रहे हैं, मूल्यों की परिभाषाएं परिवर्तित हो रही हैं। पुरातन, पुरातन युग में ही भूत के साथ सुरक्षित हो गया है। अर्वाचीन का सामना अर्वाचीन के साथ कर। शील का त्याग कर परिवर्तन का स्वागत कर।'
आचार्य श्री ने प्रवचन जारी रखते हुए कहा, 'बदलते इस दौर को पहचान और कार्तिकेय का पुरुषार्थ त्याग गणेश की रीति-नीति पहचान। पृथ्वी की परिक्रमा कर क्यों व्यर्थ ही समय और पुरुषार्थ जाया करता है। गणेश के समान अपने बॉस की परिक्रमा कर, चूहे की चाल चल कर भी पृथ्वी परिक्रमा का पुण्य प्राप्त कर और प्रथम पूज्य कहला।'
आचार्य श्री ने अपनी स्याह दाढ़ी सहलायी और बोले, 'वत्स, मुन्नालाल! इस मक्खनी युग में कैरियर बनाने का एक रपटीला फार्मूला आज तेरे समक्ष उजागर करता हूं, जिसे प्राप्त करने के लिए नारद मुनि ने तीनों लोक की खाक छानी थी। तू ध्यान से सुन और उसे जीवन में उतार।
हे, मुन्नालाल! नारद मुनि एक दिन अपनी व्यथा लेकर विष्णु भगवान की शरण में गए और साष्टांग प्रणाम कर विनीत भाव से बोले, 'हे, देवाधिपति देव! मैं पूर्ण समर्पण भाव से जन कल्याण में संलग्न हूं। सभी देवी-देवताओं के साथ मेरे मधुर संबंध हैं। सभी के सुख-दुख में प्रथम भागीदार हूं। लक्ष्मी व पार्वती सहित सभी माताओं का मुझे आशीर्वाद प्राप्त है। फिर भी देवताओं की मेरिट में मुझे आज तक शामिल नहीं किया गया। मैं आज भी मुनि ही की पदवी प्राप्त हूं, ऐसा क्यों, भगवन? मुझ पर कृपा करो भगवन और वह मार्ग बताओ, जिस पर चल कर मैं भी देव की पदवी प्राप्त करने का पुण्य प्राप्त कर सकूं।'
नारद मुनि के ऐसे वचन सुन विष्णु भगवान के होठ कमल के समान खिल गए और फिर बोले, 'प्रिय पुत्र नारद! मैं तुम्हारी व्यथा समझता हूं। इसके लिए तुम्हें भगवान शंकर की शरण में जाना होगा। वे ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। एक बात और ध्यान रखना पुत्र, उनकी शरण में जाने से पूर्व यह भूल जाना कि माता पार्वती का तुम्हें आशीर्वाद प्राप्त है। वह तो तुम्हें है ही, परंतु भगवान शंकर का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए कुछ पत्रं-पुष्पं लेकर जाना। खाली हाथ मत चले जाना जैसे मेरे पास आए हो और अपनी व्यथा बाद में बताना पहले उनके चरणों में पत्र-पुष्प अर्पित कर देना।'
वीणा के तारों के साथ खेलते हुए नारद मुनि ने प्रसन्न भाव के साथ कैलाश पर्वत की ओर गमन किया। भगवान शंकर समाधिस्थ थे। उन्हें विष्णु भगवान का संदेश पूर्व ही प्राप्त हो गया था और नारद को देखते ही वे समाधिस्थ हो गये। विष्णु भगवान की शिक्षा का अक्षरश: पालन करते हुए नारद जी ने शंकर भगवान को मन ही मन प्रणाम किया और पत्र-पुष्प-फल उनके चरणों में अर्पित कर आदत के अनुसार अपनी उंगलियां वीणा के तारों पर फेरी। भगवान शंकर की समाधि टूटी और मुस्कुराते हुए बोले, 'वत्स! यहां आने के कष्ट का उद्देश्य..?' नारद जी ने क्षमा याचना करते हुए अपनी व्यथा शंकर भगवान के समक्ष प्रस्तुत की।
व्यथा सुन भगवान शंकर ने उन्हें इंद्र के पास जाने की सलाह दे डाली। सलाह की बूंदे कानों में पड़ते ही नारद जी असमंजस में पड़ गए और बोले, 'भगवन! इंद्र ही तो...।'
नारद जी के बात काटते हुए भगवान शंकर बोले, 'हां, पुत्र! में भलीभांति जानता हूं, पुलिस की तरह इंद्र ही ने तुम्हारे मार्ग में बैरिकेड किये हैं। वही तुम्हारे मिशन पर कुण्डली मारे बैठा है। परंतु जब तक बैरिकेड नहीं हटेंगे, तब तक गाड़ी आगे कैसे बढे़गी?'
हे, पुत्र नारद! काल की गति पहचानों और दुर्गति से बचो। स्वाभिमान प्रगति में बाधक है, अत: उसका त्याग कर उन्हीं की शरण में जाओ। उनके पास जब जाओ तो पत्र, पुष्प व फलों के वजन में वृद्धि कर के जाना। जिस तरह मेरे पास आए हो, उसी तरह मत चले जाना। जाकर उनके पांव छूना, पत्र, पुष्प व फल अर्पित करना और वीणा वादन नहीं, देवों के देव इंद्र की पूजा करना। जाओ वत्स, जाओ, इंद्र की शरण में जाओ तुम्हारा कल्याण होगा।'
इस प्रकार हे, वत्स मुन्नालाल! भगवान विष्णु और शंकर ने ''पांव-पान-पूजा'' का अमूल्य फार्मूला नारद मुनि को दिया और इस फार्मूले की ही सहायता से उन्होंने देव मुनि नारद का पद प्राप्त किया।
आदमी की तो बिसात क्या, पुत्र! देवताओं द्वारा आविष्कृत ''पांव पान पूजा'' के इस फार्मूले की हवा मात्र से पाषाण भी मक्खन समान चिकने व मुलायम बन जाते हैं। जो तेरे लक्ष्य पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठा है, उसके चरण स्पर्श करना अपना स्वभाव बना, पत्रम्-पुष्पम् भेंट कर और निर्धारित सभी कर्तव्य-कर्मो का त्याग कर इसे ही प्रधान व सर्वोत्तम कर्तव्य मानते हुए प्रात: व सांय काल उसकी आरती उतार।'
'तू ऐसा जान कि बॉस ही तेरी माता है, वही तेरा पिता है, वही गुरु है और तेरे लिए वही सर्वोच्च देवता है। हे, वत्स! जब बॉस का स्वभाव तेरे प्रति लिपलिपा होने लगे तेरे मोह में उसका मन जब भ्रमित होने लगे, तब उसके चरण स्पर्श करते-करते एक दिन उसकी टांग खींच ले। लैग पुलिंग तेरा मिशन होना चाहिए विजन स्वत: साकार हो जाएगा।
अत: हे मुन्नालाल! विद्या और पुरुषार्थ के अर्वाचीन मापदण्ड को पहचान और तू जा, बॉस की शरण में जा, 'बॉस शरणं गच्छामि' इसी में तेरा भविष्य निहित है, इसी में कैरियर। कल्याणं अस्तु-कल्याणं अस्तु।'
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