Wednesday, November 14, 2007

शहर में बंदर, चुनाव आ गए क्या?


चचा मुन्नालाल ने भड़भड़ाते हुए हमारे घर प्रवेश किया। चचा झक कुर्ता, पायजामा और गांधी टोपी में सुसज्जित थे। चचा की चाल लालूई, चेहरा कराती और चरित्र राहुली। खिचड़ी सरकार साक्षात मूर्ति! जिस घनत्व के साथ वे भड़भड़ा कर घर में घुसे, उनकी शक्ल-ओ सूरत देखकर उसी घनत्व में हम अचकचाए। चचा चुनाव के मौसम में ही इस बहुरूपिया रूप में प्रकट होते हैं। अत: हम सोचने लगे शरद ऋतु में यह बसंत बहार कैसी? हमने चचा से पूछा- क्यों, चुनाव आ गए क्या? चचा बोले- भतीजे हम यही बताने तो आए हैं।
चचा का जवाब सुनकर हमारी अचकचाहट वृद्धि को प्राप्त हुई। मन ही मन हम बोले- चुनाव? वामपंथी-लाली तो काफी हल्की हुई है, फिर अचानक चुनाव कैसे? दिल्ली के तो आसपास भी चुनाव की आहट नहीं! फिर चचा और चुनाव?
हमने पुन: अपने जहन पर जोर डाला और अनुमान लगाया कि कहीं चचा की सूरत-शीरत पाकिस्तान-राजनीति की समीक्षा तो नहीं कर रही है? हम अनुमान के आधार पर बोले- अच्छा-अच्छा मुशर्रफ साहब ने कपड़े पहनने का जो प्रयास किया है..!
हम अपना वक्तव्य पूरा भी न कर पाए थे कि चचा ने हमें बीच ही में लपक लिया- तुम्हारे भी सामान्य-ज्ञान का कमाल है, भतीजे! मुशर्रफ अभी तक वर्दी धारण किए हुए हैं और तुम दुबारा कपड़े पहना रहे हो। हमने चचा को समझाया- चचाजानी! पकिस्तान का अवाम वर्दी उतारने पर जोर दे रहा था। पाक दामन मुशर्रफ साहब ने कहा छोड़ो वर्दी का राग हम कपड़े ही उतार देते हैं। उन्होंने कपड़े अपने उतारे, आवाम को लगा मुशर्रफ साहब ने उनके उतार दिए। अवाम इमरजेंसी-इमरजेंसी चिल्लाने लगा। ताऊ बुश ने आंखें दिखाई, मुशर्रफ भाई ने फौरन कपड़े पहनने का ऐलान कर दिया। मगर चचा! चुनाव-चर्चा पाकिस्तान में हो रही है और रंग हिंदुस्तान की गिरगिट बदल रही है, भला क्यों?
चचा को हमारी गिरगिटिया समीक्षा कुछ तीखी-तीखी सी लगी। उन्होंने करेले सा कड़वा मुँह बनाया और बोले- भतीजे! पॉलटिक्स के ज्ञान में तुम कतई मनमोहन सिंह हो। अरे भतीजे पाकिस्तान की पॉलटिक्स से हमारा क्या मतलब! हम तो हिंदुस्तान की बात कर रहे हैं, राजधानी की बात कर रहे हैं।
हमारा सिर फिर चकराया। हम बोले- चचा तुम्हारी पॉलटिक्स हमारे जहन से बाहर की बात है। हिंदुस्तान में अभी चुनाव की आहट तक नहीं सुनाई दे रही है और तुम चुनाव चर्चा में मशगूल! अच्छा, चचा तुम्हीं बताओ, यह चुनाव बे-मौसम तुम्हारे जहन में कहां से आ टपका?
चचा ने कद्दू सा मुंह फुलाया और फिर जहानती अंदाज में बोले- भतीजे शहर की गलियों में बंदर नहीं दिखलाई दे रहे हैं, क्या? अभी किसी बंदर से साबि़का नहीं हुआ है, शायद? हमने पूछा- मगर शहर की गलियों में बंदर और चुनाव! इन दोनों के बीच कौन सी रिश्तेदारी है? थोड़ा खुल कर बताओ, चचा!
भतीजे! बंदर कल प्रियंका जी के बंगले तक भी पहुंच गए। फिर भी तुम्हें नहीं लगता चुनाव का मौसम आ गया है? हम झड़बेरी से झुंझलाए और फिर आत्मसमर्पण भाव से बोले- चचाजानी साफ-साफ कहो ना, क्यों परमाणु समझौते की तरह मामले को उलझाए जा रहे हो?
वामपंथी मुस्कराहट के साथ चचा बोले- इतना भी नहीं समझते भतीजे, बंदरों ने जन-संपर्क शुरू कर दिया है। आलाकमान की चौखट पर दस्तक देनी शुरू कर दी है। इतना कह कर चचा ने हमारे चेहरे की ओर देखा। हमारे चेहरे पर उन्होंने पूरे बारह बजे पाए। वे मुस्कराए और बोले- सुनो भतीजे! बंदरों के पास इतनी फुर्सत कहां कि वे बे-मतलब शहर गली-गली चक्कर लगाएं, जन-संपर्क कायम करें। जब-जब चुनाव आते हैं, तभी-तभी बंदर संसद के गलियारों से निकल कर शहर की गलियों के चक्कर लगाते हैं! अत: हमारी मानों देहली की देहरी पर चुनावी मौसम दस्तक दे रहा है। राजनीति के क्षितिज पर चुनावी बादल छाने लगे हैं। संसद की दीवार फांद कर बंदर शहर में आने लगे हैं!
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