Wednesday, October 8, 2008

मर्यादा पुरुषोत्तम रावण!



मेरा मन अर्जुन की स्थिति को प्राप्त हो गया है। मैं इधर जाऊं या उधर जाऊं, किस तरफ जाऊं यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूं। मेरा मन बार-बार कृष्ण-कृष्ण का जाप करने लगता है। जहां तक उसकी पहुंच है, वह कृष्ण को खोजने लगता है। ताकि कहीं तो एक अदद कृष्ण मिल जाए और वैचारिक गाण्डीव खूंटी पर लटका कर वह उनसे साफ-साफ कह दे, ''हे, माधव! मैं निश्चय नहीं कर पा रहा हूं कि क्या उचित है, क्या अनुचित है! सत्य क्या है, असत्य क्या है और लाभप्रद क्या है, हानिप्रद क्या है! अत: माधव मैं शरणागत हूं। मुझे अपना शिष्य बना लीजिए और लाभ-हानि का पूर्ण लेखा-जोख समझा कर मुझे बताने की कृपा करें कि मैं किधर जाऊं? किसे अपनाऊं?'' किंतु मन निराश है, अर्जुन तो कदम-कदम पर लाइन लगाए खड़े हैं, किंतु कृष्ण खोजे नहीं मिल रहे हैं।
मैं निराश हूं और निराश व्यक्ति आत्ममंथन पर उतारू हो जाता है। मैं भी उसी दौर से गुजर रहा हूं। श्रवणेंद्रियों को वश में कर, मैं एकाग्र चित्त अंतरात्मा की आवाज सुनने की चेष्टा कर रहा हूं। मैं मन ही मन अंतरात्मा को जागृत करता हूं और विनय भाव के साथ कहता हूं, ''हे मार्ग संकेतनी, हे भवसागर पारिणी, हे परित्राणनी सत्ता प्रदायणी! तुम कानों में गूंजकर नेता को सत्ता की ओर जाने वाले मार्ग से परिचित करा देती हो। शुभ पर अशुभ और अच्छाई पर बुराई की विजय कराने में समर्थ हो। इस नाचीज के को भी संकेत करो कि मैं आदर्श के रूप में रावण-मार्ग का अनुसरण करूं अथवा राम के पद-चिन्ह की ही लकीर पीट-पीट कर फकीर बना रहूं अथवा रावण-मार्ग का अनुसरण कर मैं भी गणमान्य लोगों की श्रेणी में घुसपैठ कर जाऊं! हे, अंतर्यामी अंतरात्मा मुझे बताओ कि इस युग में श्रेष्ठ मार्ग कौन सा है, रावण मार्ग अथवा राम मार्ग?''
रामलीलाओं का मौसम आते-आते मेरे मन की गति हर वर्ष ही इधर जाऊं या उधर जाऊं की ऐसी ही दुर्गति को प्राप्त हो जाती है। हर वर्ष ही मैं रावण के ग्लैमर से आकर्षित होता हूं, मगर लोक- लिहाज वश राम-मार्ग के अनुसरण की घोषण कर देता हूं। अनुसरण करूं या न करूं, मगर घोषणा अवश्य मेरे मुख पर चस्पा रहती है। लेकिन मैं इस बार कुछ भी निश्चित नहीं कर पा रहा हूं।
मेरी अंतरात्मा कह रही है- अरे, मूर्ख! क्या प्राप्त हुआ तुझे राम-घोषणा से! राम दल ने तुझे चवन्नी-कार्यकत्र्ता के रूप में भी तो स्वीकार करना उचित नहीं समझा। चवन्नी का कार्यकत्र्ता भी तू यदि बन जाता, तो कम से कम रुपया, दो रुपए का तो आदमी बन जाता। फिर क्यों राम-राम कर वन-वन भटक रहा है! देख नहीं रहा है, राम भक्त भी राम नाम का दुशाला ओढ़, रावण-धर्म का अनुसरण कर ही भवसागर पार करने की इच्छा रखते हैं।
अंतरात्मा कहती है- रावण-वध राम का मुगालता है! राम भ्रम में हैं और स्वहित के कारण राम-भक्त उस भ्रम को सींच रहे हैं। यदि रावण वध हो जाता, तो प्रत्येक विजयादशमी पर पूर्व की अपेक्षा अधिक स्वस्थ, अधिक संपन्न होकर सामने आकर न खड़ा हो जाता। देख नहीं रहा तू रावण का कद प्रति वर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछली विजया दशमी को पैंतीस फुट का था, इस बार पचास का हो गया है। सुना है त्रेता में दस मुखी था। अब सहस्त्र मुखी हो गया है!
और राम का कद! रावणी-राजनीति के दुष्चक्र में घिस-घिस कर निरंतर लघुता को प्राप्त होता जा रहा है! चल तू ही बता, आज तक हुआ है कभी रावण के अस्तित्व पर विवाद! किसी ने दी है, रावण के अस्तित्व को चुनौती! कभी हुआ रावण के जन्म-स्थल पर विवाद और किसी ने कभी दी है, रावण के साम्राज्य लंका के अस्तित्व को चुनौती! नहीं, न! नित नए रावण-मंदिर प्रकाश में आ रहे हैं और राम! .. नए मंदिर प्रकाश में आना तो दूर राम के तो पुराने मंदिर भी विवाद की अंधी में ध्वस्त हो रहे हैं! राम के जन्म-स्थल पर विवाद, राम-सेतु पर विवाद, राम की अयोध्या विवादित, राम के अस्तित्व पर विवाद! जिस का मन करता है, वही रावण-मार्ग का अनुसरण कर राम को प्रश्न के घेरे में ला खड़ा करता है! फिर तू क्यों राम-राम की टेर लगाए है?
जरा, विचार कर मूर्ख! राम ने भले ही रावण पर विजय प्राप्त की हो, किंतु अंतिम शिक्षा राम ने भी मरणासन्न रावण से ही ग्रहण की थी। भले ही अनुज लक्ष्मण के माध्यम से ही सही! क्या इससे रावण के महत्व का पता नहीं लगता है! फिर तू क्यों गफलत में पल रहा है? अच्छा चल, बाकी सब छोड़! अंतत: एक बात बता, तू एक-मुखी राम-मुख से कितना खा लेगा! अरे, भावना का पल्ला छोड़ और एक मुख से नहीं दस मुख से खा! इस युग में यही धर्म है। यही धर्म मार्ग है, यही आदर्श है। राम नहीं, इस युग का रावण ही आदर्श-पुरुष है! रावण ही मर्यादा पुरुषोत्तम है!