Monday, October 22, 2007

विजयदशमी पर भी राम उदास !



लंकेश और उसके बंधु-बंधवों के पुतले धू-धू कर जल रहे हैं। असत्य पर सत्य की विजय, बुराइयों पर अच्छाई की विजय और राम-नाम के जयघोष से चारों दिशाएं गूंज रही हैं। मंच के एक कोने में लक्ष्मण के साथ राम उदास बैठे हैं। लक्ष्मण आश्चर्य व्यक्त करते हुए भ्राता राम से प्रश्न करते हैं, ''भ्राता! लंकेश पर विजय प्राप्त करने के उपरांत भी यह उदासी! उदासी का कारण, भगवन?'' राम ने हताश नजरों से लक्ष्मण को निहारा और बोले, ''कब तक जारी रहेगा यह नाटक? लंकेश को जितनी बार जलाया, वह उतनी ही बार वह अधिक शक्तिशाली रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ। कभी-कभी मुझे लगता है कि विजयी हम नहीं, लंकेश हुआ है और हमारे भक्त प्रति वर्ष उसकी विजय का ही पर्व मनाते हैं। भ्राता लक्ष्मण यही मेरी उदासी का कारण है।''
श्रीराम और भ्राता लक्ष्मण के मध्य वार्ता चल ही रही थी, तभी लंकेश के पुतले से निकलते धुएं से अट्टहास की गूंजा सुनाई दी। राम-लक्ष्मण सहित सभी के आंख-कान उस ओर केंद्रित हो गए। एक क्षण के उपरांत लंकेश की आत्मा श्रीराम के सम्मुख उपस्थित थी। लंकेश ने श्रीराम को प्रणाम किया, लक्ष्मण को आशीर्वाद दिया और तत्पश्चात बोला, ''हे, अयोध्या पति राम! आपकी पीड़ा सार्थक है, किंतु उसके कारण आप और आपके भक्त स्वयं ही तो हैं। ..हे,राम! आत्मा अमर है। यह आप ही के द्वारा स्थापित सिद्धांत है! ..राम, आत्मा अमर है तो फिर आप मेरा अस्तित्व कैसे समाप्त कर सकते हो?'' लंकेश मुस्करा कर बोला, ''भगवन! वर्तमान नेताओं के समान, क्या आप भी अपने सिद्धांत की हत्या स्वयं ही करने की इच्छा रखते हो।''
लंकेश ने दया-भाव के साथ श्रीराम की ओर निहारा और फिर उसी भाव के साथ बोला, ''श्रद्धेय, राम! मैं कंचन-लंका का सम्राट हूं। जितनी बार जलाओगे उतनी ही बार कंचन के समान निखर कर आपके समक्ष उपस्थित हो जाऊंगा। देख नहीं रहे हो, श्रद्धेय राम! मेरा साम्राज्य अब लंका तक ही सीमित नहीं है! आपके आर्यावृत्त में भी मेरी ही टकसाल की स्वर्ण-मुद्राएं चलती हैं। चारों ओर राक्षस-संस्कृति का ही तो आधिपत्य है। आपका साम्राज्य सत्य और ईमानदारी के समान सीमित होता जा रहा है। असत्य और बेईमानी के समान मेरे साम्राज्य का विस्तार हो रहा है! .. इसके लिए मैं लंकेश नहीं, आप और आपके भक्त उत्तरदायी हैं, राम!'' भाव विह्वल हो कर लंकेश ने कहा, ''श्रद्धेय! त्रेता में भी आप मेरे लिए श्रद्धा के पत्र थे और आज भी पूजनीय हैं। आपके द्वारा मृत्यु प्राप्त कर मैं मुक्ति की इच्छा रखता था और अपने उद्देश्य में सफल भी हो गया था! किंतु, श्रद्धेय! मैं बार-बार पुनर्जीवित होता रहूं, यही आपके भक्तों के हित में है, अत: वे मुझे मुक्त नहीं होने देना चाहते!''
राम ने प्रथम लक्ष्मण को निहारा। लक्ष्मण मौन थे। इसके उपरांत निरीह भाव से उन्होंने लंकेश की ओर निहारा। लंकेश का मुख-मण्डल तेज, गौरव और गरिमा सहित सभी अलंकारों से सुसज्जित पाया। राम ने गर्दन झुकाई और मौन रह गए।
श्रीराम की ऐसी स्थिति देख लंकेश की विह्वलता में वृद्धि हो गई। उसके नेत्रों में खारा पानी छलक आया। नम आंखें पोंछते हुए वह बोला, ''नहीं-नहीं, श्रद्धेय! ..नहीं! आपका यह स्वरूप मेरे लिए असहनीय है, वेदना कारक है, राम! मैं आपकी त्रेता-युगीन-छवि के ही दर्शन करने की इच्छा रखता हूं।'' लंकेश ने अपने संवेगों पर नियंत्रण किया और बोला, ''श्रद्धेय! मेरा अस्तित्व किसी जर्जर ढांचे से नहीं जुड़ा है। मेरेअस्तित्व पर कभी कल्पना अथवा यथार्थ का प्रश्न-चिहन् भी नहीं लगा और न ही मेरी गरिमा पत्थरों से निर्मित किसी सेतु के आश्रय है। यह लंकेश का अहम् नहीं यथार्थ है!''
इतना कहने के उपरांत लंकेश ने वाणी को क्षणिक विराम दिया और तत्पश्चात बोला, ''श्रद्धेय! आपके भक्तों ने आपके अस्तित्व आपकी गरिमा को कितना सीमित कर दिया है, कितना निर्बल कर दिया है, सुन कर दुख होता है! ..आपके सर्वव्यापी अस्तित्व को जर्जर एक ढांचे के साथ संयुक्त कर दिया है। आपके व्यक्तित्व को मृत्यु-लोक के एक निर्बल शहंशाह के समकक्ष लाकर खड़ा कर दिया है, आपके भक्तों ने। ..जो राम रोम-रोम में व्याप्त है, एक साधारण ढांचे से उसके अस्तित्व को संबद्ध करना कितना हास्यास्पद सा लगता है! .. किसी जीवित व्यक्ति को यदि कोई मृत घोषित कर दे, तो क्या वह मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा, नहीं ना श्रद्धेय! फिर त्रुटिवश भी यदि किसी ने काल्पनिक कह कर आपके अस्तित्व को चुनौती देने की चेष्टा की तो भक्तों ने हाहाकार मचा दिया! आपका अस्तित्व जल में उत्पन्न बुलबुला तो नहीं कि हवा के साथ समाप्त हो जाए। ..जो राम कल्पनातीत है, उसके संबंध में कल्पना और यथार्थ जैसे सांसारिक प्रश्नों का औचित्य क्या?'' वाणी को विराम देकर लंकेश पुन: पूर्व भाव से बोला, ''हे, मर्यादा पुरुषोत्तम राम! लंका और आर्यवृत्त के मध्य आदर्श और मर्यादा के जिस सेतु का आपने निर्माण किया था, उसे भुलाकर भक्तों ने तेरी गरिमा एक तुच्छ सेतु से संबद्ध कर दी। जिस मर्यादा पुरुषोत्तम की गरिमा के प्रकाश से यह सृष्टिं प्रकाशित है, उसकी गरिमा का किसी सेतु से संबद्ध करने का औचित्य क्या?''
अंत में लंकेश बोला, ''श्रद्धेय! आपकी पीड़ा आपके ही भक्तों द्वारा जनित है और मेरा चिर-अस्तित्व भी उन्हीं भक्तों द्वारा प्रदत्त वरदान है। अत: मुझसे नहीं कलियुग के इस प्रपंच और प्रपंचकारियों से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय सोचो, भगवन! आप मुक्त हो जाओगे, तो मैं स्वमेव मुक्त हो जाऊंगा।'' इतना कह कर लंकेश आंसू पोंछता-पोंछता पुतलों से उठते धुएं में पुन: विलीन हो गया।