Wednesday, December 26, 2007

कुछ नए मुहावरे गढ़ो

जमाना बदल गया है, चाल बदल गई। बहुत कुछ पुराना पड़ गया है। पुराना औचित्यहीन हो गया है। नया प्रासंगिक है। कुछ नए मुहावरे गढ़ो। पुराने मुहावरों की लकीर कब तक पीटते रहोगे। कब तक लकीर के फकीर बने रहोगे। पुराने मुहावरों से युक्त साहित्य बासी-बासी से लगता है। गरीबी रेखा के नीचे का बाशिंदा सा लगता है। साहित्य राजनीति नहीं है कि गरीब और गरीबी को हटाने का शोर तो मचाया जाए, मगर स्वहित के कारण उन्हें बरकरार रखा जाए।
राजनीति में गरीबी और गरीब की स्थिति वही है, जैसी मु़गले-आजम में बेचारी अनारकली की थी। किंग अकबर ने उसका जीना मुहाल कर दिया था और प्रिंस सलीम ने उसका मरना। बेचारी कनीज अनारकली जीवन और मृत्यु के बीच फुटबाल बनी रही और फिल्म दी एण्ड हो गई।
अकबर की तरह महंगाई गरीब का जीने नहीं दे रही है और राजनीति उसे मरने नहीं दे रही है, क्योंकि नेता प्रिंस सलीम की तरह गरीब से प्यार करते हैं, क्योंकि गरीब के बूते ही उनकी राजनीति चलता है। लेकिन साहित्य राजनीति नहीं है, अत: अप्रासंगिक गरीब मुहावरों से कैसा मोह। अत: नए मुहावरे गढ़ो साहित्य को गरीबी रेखा से ऊपर लाओ।
थोड़ा विचार कीजिए, 'पानी उतरे चेहरे' अथवा 'चेहरे का पानी उतर गया' जैसे घिसे-पिटे मुहावरों का अब औचित्य क्या? जब समूचा ब्रह्मंाण्ड जल संकट से जूझ रहा है। पृथ्वी के चेहरे से पानी उतर कर रसातल की और गमन कर रहा है। पानी को लेकर चौथे विश्व युद्ध की संभावनाएं व्यक्त की जारी हैं। संकट के ऐसे हालात में पानीदार चेहरों का मिलना, क्या रेगिस्तान में कमल खिलना सा नहीं लगता है?
खुदा-न-खास्ता कहीं पानीदार चेहरा मिल जाए तो उसको रोमन अंदाज में ममी बनाकर सुरक्षित रख देना चाहिए ताकि आने वाली शुष्क संतान देख सके कि कभी इनसानी चेहरे भी पानीदार हुआ करते थे। मेरा मानना है कि जल-संकट के इस जमाने में चेहरे पर पानी चढ़ा कर रखना जमाखोरी है, जन-विरोधी है। वैसे भी अब रहीम दास जी का जमाना तो रहा नहीं कि पानी बिना मोती, मानस, चून के उबरने पर सवालिया निशान लगा हो? इस जमाने में तो वे ही मानस तरक्की करते हैं, जिनके चेहरे पानी उतरे होते हैं। आज के जमाने में चेहरे का पानी तरक्की में बाधक है। फिर कोई क्यों चेहरा पानी से तर रखेगा। तब 'चेहरों का पानी उतरना' अथवा नकारात्मक दृष्टिं से 'पानी उतरे चेहरे' जैसे मुहावरों का औचित्य क्या?
जहाँ तक रही चून (आटा)की बात तो गरीबी में कौन कमबख्त आटा गीला करना चाहेगा? मोती भी अब मानस चेहरों की तरह कहां पानीदार मिलते हैं। नकली पानी चढ़े मोती ही अब सच्चे मोती कह लाते हैं!
मुहावरा 'शर्म से पानी-पानी होना' भी अब दकियानूसी लगता है। पानी-संकट के दौर में मामूली सी बात पर पानी-पानी होकर पानी जाया करने का औचित्य क्या? सीधी-सीधी राष्ट्रीय संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मामला सा लगता है। शर्म तरक्की में बाधक है। बिंदास होना प्रगति का सूचक है। बदले ऐसे हालत में पानीदार मुहावरों का त्यागना ही उचित है। मुहावरा 'चुल्लू भर पानी में डूबना' भी अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है। शर्म-हया से मुक्त बिंदास जमाने में चुल्लू भर पानी की आवश्यकता क्या रह गई है?
वृद्धि के संदर्भ में सुरसा जी का मुंह, हनुमान जी की पूंछ और द्रोपदी के चीर से संबद्ध मुहावरे मुझे प्राणी-अत्याचार से लगते हैं।
सुरसा जी ने अपने मुंह के विस्तार का कमाल हनुमान जी को समुद्र लांघने के दौरान केवल एक बार दिखलाया था। उसके बाद उसका मुंह फिर कभी वृद्धि को प्राप्त हुआ हो इसका संदर्भ कहीं नहीं मिलता। उसी प्रकार बेचारे हनुमान जी ने रावण दरबार में आसन न मिलने पर ही अपनी पूंछ का कमाल दिखलाया था।
द्रौपदी का चीर भी महंगाई की तरह वृद्धि को प्राप्त नहीं होता रहा था! चीरहरण के समय कृष्ण भगवान की कृपा से चीर का कमाल देखने में आया था। पता नहीं एकबार की घटना के आधार पर मुहावरे क्यों गढ़ दिए गए और तब से आज तक क्यों संदर्भ बे संदर्भ बार-बार उन्हें उछाल कर उन पर अत्याचार किया जा रहा है?
द्रौपदी के चीर का अब औचित्य क्या? आजकल की द्रौपदियों ने तो चीर की पीर का मर्म समझ कर चीर का परित्याग ही कर दिया है। चीर होगा तो चीर की पीर भी होगी! न चीर होगा और न ही किसी दुर्योधन-दु:शासन को चीरहरण करने का कष्ट करना पड़ेगा! जब चीर ही अपना अस्तित्व अपनी प्रासंगिकता खो चुका है, तब द्रौपदी के चीर की लकीर पीटने का औचित्य क्या? मुझे तो ऐसा लगता है कि दुर्योधन ने जिस सद्कार्य को एक बार किया था, आज के साहित्यकार इस मुहावरे का प्रयोग कर उस सद्कार्य को बार-बार दोहरा रहे हैं! इस मुहावरे को उछाल कर आधुनिक द्रौपदियों को पीर पहुंचाने का औचित्य क्या है?
सुरसा जी का मुंह, हनुमान जी की पूंछ और द्रौपदी का चीर एक बार वृद्धि को प्राप्त हुए थे। महंगाई निरंतर वृद्धि को प्राप्त हो रही है, तो क्यों न वृद्धि के संदर्भ में महंगाई को खींचा जाए!
'गधे के सिर से सींग का गायब होना!' भला कोई पूछे, जब गधे के सिर पर कभी सींग रही नहीं तो गायब होने का अर्थ क्या? बेमतलब बेचारे गधे को बदनाम किया जा रहा है। एक निरीह जीव पर अत्याचार किया जा रहा है। पता नहीं क्यों और किसने गायब होने के संदर्भ में औचित्यहीन मुहावरा गढ़ दिया? साहित्यकारों को चाहिए कि बेमतलब के ऐसे सभी मुहावरों के प्रयोग पर प्रतिबंध का फतवा जारी कर दें। उसके स्थान पर 'चोली से दामन गायब' मुहावरा प्रचलन में लाया जा सकता है।
दरअसल घनिष्ठ संबंध दर्शाने के लिए 'चोली दामन के संबंध' को मुहावरे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। जबकि पारदर्शी इस युग में चोली दामन के मध्य संबंध विच्छेद हो गया है! जब संपूर्ण तन-मन से ही दामन गायब है, तो मुहावरे के जरिए चोली के ऊपर दामन का बोझ डाल कर उसके प्रति यह हिंसा क्यों?
यूं तो चोली भी अब निरंतर संकुचन की दिशा में प्रगति पर है। चोली अब चोली नहीं रही और दामन भी बे-दम है, फिर मुहावरे के रूप में चोली-दामन के संबंध को बदनाम क्यों किया जाए?
गधे को मुक्ति प्रदान कर उसके स्थान पर 'चोली से दामन गायब' मुहावरा ही उचित रहेगा। ऐसा करने से साहित्य को एक नया मुहावरा भी मिल जाएगा और साहित्य में सौंदर्य भी बरकरार रहेगा!
मेरा सुझाव है कि घनिष्ठ संबंधों की व्याख्या करने के लिए 'राजनीति में भ्रष्टाचार' जैसे सटीक संबंधों को मुहावरों के रूप में प्रयुक्त किया जा सकता है। दूध-दूध नीं रहा पानी-संकट के कारण जनमानस त्राहिमान-त्राहिमान कर रहा है, फिर चोली-दामन के संबंध की तरह दूध में पानी का एकाकार औचित्यहीन हो गया है! दूध-पानी-मिश्रण के स्थान पर 'राजनीति में अपराध' के सुदृढ़ मिश्रण को मुहावरे के रूप में प्रयुक्त किया जाना चाहिए! उदाहरण के रूप में, ''आओ, प्रिय! हम-तुम राजनीति में भ्रष्टाचार'' अथवा ''राजनीति में अपराध की तरह'' एकाकार हो जाएं!
अब कोई साहित्यकारों से पूछे कि प्रियतमा के मुखड़ा चांद सा क्यों? उस चांद पर, जहां जीवन की संभावना तक नहीं! जब मैं कहता हूं, 'प्रिय तुम्हारा मुखड़ा चांद सा है!' तो लगता कि वह प्राण -प्रिय नहीं प्राण-प्यासी है! अरे, भाई! 'सेक्सी-सेक्सी' कोई जीवंत उपमा तलाश करो! उदाहरण के रूप में, ''प्रिय! तुम्हारा मुख प्रियंका चोपड़ा, मल्लिका सहरावत, बिपासा बसु, आदि-आदि के मुख जैसा सेक्सी सेक्सी है!'' प्रियतमा भी खुश और प्रियतम् भी!
बॉस के सभी इंक्रीमेंटी वायदे 'नेताई आश्वासन' निकले। कितना प्रगतिशील एवं आधुनिक मुहावरा हो सकता है। साहित्य से बासीपन समाप्त करो। कुछ-कुछ आधुनिक, कुछ प्रगतिशील मुहावरे खोजो। साहित्यकारों, भाषाविदों को मेरे सुझाव पर सहानुभूति पूर्वक विचार करना चाहिए और साहित्य को सेक्सी-सेक्सी बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देना चाहिए।
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