Wednesday, August 14, 2013

मुक्ति बोध


भाग्यहीन है, वह!
जिंदा है, मगर मरी समान!
कुछ लोग तो सब्र कर ही बैठ गए, वह किसी आतंकवादी की गोली की शिकार हो गई होगी अथवा उसका अपहरण कर लिया गया होगा!
सही सलामत होती, तो आशीर्वाद जरूर मिलता, उसका ! किसी एक की पूंजी नहीं है, वह ! वह तो जन-जन की मां है। सब की दुलारी है
किंतु, कमबख्त है, वह!
कुछ लोग उसकी उम्र का घटा जोड़ लगाने लगे हैं! रोज पैदा करते और रोज मारने लगे हैं, उसे!
उसके दत्तक पुत्रों का कहना है कि अब तो पैंसठ पूरे कर छीयासठ में पांव रख लिया है, उसने!
आम आदमी त्रस्त है, घटा जोड़ के इस अंक गणित से।
वह त्रस्त है, क्योंकि दिन, मास और वर्ष की सीमाओं में कैद कर लिया गया है, उसे!
मॉं की भी कोई उम्र होती है? क्या मॉं भी कभी बचपन, जवानी और बुढ़ापे में कदम रखती है?
इस तरह तो वह एक दिन मर भी जाएगी!
मॉं तो मॉं है!
शरीर तो नहीं कि रोज-रोज पैदा हो और रोज-रोज मरे
कितना स्वार्थी हो गया है, आदमी! वस्तु की तरह उपभोग कर रहा है, उसका!
और, जो नि:स्वार्थ सान्निध्य चाहता है, उसका।
जिसके लिए ही धरा पर अवतरण हुआ उसका। वही युगों-युगों से वंचित है। केवल उसके लिए ही वह जन्म मृत्यु से परे है!
अभागिन है वह...!
दुर्भाग्य! कि वह कुछ लोगों की ही क्रीत दासी बन का रह गई !
वह क्या बनी ताकतवर कुछ लोगों ने उसे कभी आजाद होने ही नहीं दिया!
जब से सभ्यता नाम की महामारी ने आदमी के झुंड में प्रवेश किया है ! 
ताकतवर चंद लोगों ने उस पर कब्जा कर लिया है !
कितना अच्छा होता यदि आदमी सभ्य न होता !
तब वह भी सर्व-सुलभ होती!
आदिम काल में जीता था, जब आदमी। वह भी आजाद थी और आदमी भी। आदमी ने जब से कथित सभ्यता का लबादा ओढ़ा है। आदमी सेवक से सामंत बन गया। न वह आजाद रही और न ही आदमी।
आजाद रहा तो केवल सामंत। लड़ते रहे आपस में उसके लिए। 
जो जीता वही आजाद!  जो हारा वही गुलाम!
गुलाम के लिए वह मर गई और जीतने वाले ने उसकी उम्र की गणना शुरू कर दी एक-दो-तीन।
गोरे आए, शरीर व बुद्धि दोनों में ताकतवर थे। सामंतों से छीन कब्जा जमा बैठे उस पर। कुछ के लिए एक बार फिर उसका देहावसान हो गया और कुछ के लिए पुनर्जन्म। गोरो ने भी उसकी उम्र का हिसाब किताब लगाया। वह पूरे डेढ़ सो वर्ष जिंदा रही उनके लिए। 
बांझ नहीं है, वह…!
भरा-पूरे परिवार है उसका! … पिता भी पति भी ! …पुत्र भी।
मगर कुलक्षणी रही वह!
एक दिन सरफरोशी की तमन्ना जगी, सिरफिरे उसके पुत्रों के दिल में। टक्कर ले बैठे हुक्मरानों से! जज्बा था उनके दिल में उसे गोरों के चंगुल से मुक्त कराएंगे।
मुक्ति के नाम पर एक-एक कर एक हजार एक पुत्र होम कर दिये उसने!
सबेरा हुआ एक दिन।
चारो तरफ शोर मचा- आजादी मुक्त हो गई!
हम भी आजाद हो गए!
राम राज्य स्थापित हो गया!
मगर यह क्या! सब कुछ दिवास्वप्न था! कुछ लोगों के लिए वह जरूर फिर से पैदा हुई!  मगर आम आदमी के लिए दोपहर आते-आते फिर मर गई!
मुक्ति कहां मिली, उसे! अपने होम हो गए और दत्तक पुत्र काबिज!
करमजली है वह…!
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को।
कि सभ्य समाज में मुक्ति शब्द ही अर्थहीन है।
मुक्ति स्वयं ही मुक्त नहीं है।
मुक्ति यदि मुक्त हो गई तो फिर बंधन का क्या होगा!
सदियों से चली आ रही दासता क्या होगा!
किसी की दासता, सामंतों के लिए मुक्ति!  
और उनकी मुक्ति, सामंतों के लिए दासता।
नहीं, समझाया उसने अपने पुत्रों को!
बदनसीब थी वह़...!
न वह आजाद हुई और न ही आदमी ! हुआ था बस एक हस्तांतरण !  
गोरों के चंगुल से मुक्त हुई थी वह, मगर कालों ने झपट लिया उसे। आम आदमी पहले भी गुलाम था आज भी गुलाम है।
पहले पर-अधीन थे! अब स्व-अधीन हैं!
अब तो सुना है सिर पीट-पीट कर उसने भी दम तोड़ दिया है और दत्तक पुत्रों ने उसकी लाश भी टुकड़े-टुकड़ों में बांट ली है। जिसके हाथ उसकी दौलत लगी, उसने कहा आर्थिक आजादी मिल गई! जिसके हाथ राज-काज लगा, उसने कहा राजनैतिक आजादी मिल गई!  तीसरे टुकड़े को लेकर दोनों के बीच समझौता हुआ और उसके साथ ही घोषणा कर दी गई-'अब सामाजिक आजादी भी हमारी दासी हो गई!'
अच्छा होता वह किसी किसान की कुटिया की स्वामिनी होती !
हलवा-पूरी न सही मगर दासी तो न कहलाती।
किसान कुछ अपनी कहता कुछ उसकी सुनता, यूं घुट-घुट कर तो न मरती!
अच्छा होता यदि वह किसी मजदूर का वरण कर लेती!
मजदूरिन कहलाती, मगर बंधुआ तो नहीं! दिन भर मजदूरी करते रात को एक दूजे का दुख-सुख बांटते!
तब पुत्रवती हो कर भी कम से कम निपूती तो न कह लाती।
वह बंधक है, मुक्त नहीं!
मुक्त रहना उसकी नियति नहीं!
वह अजन्मा है, इसलिए मरी नहीं!
मरना उसकी प्रकृति नहीं!
आदमी मूर्ख है,
खोजता है, उसे राजपथ पर!
लाल किले की प्राचीर पर!

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