Monday, September 16, 2013

मातमपुर्सी



                स्नेहिल नेत्रों से मैं  दीवार पर टंगे चित्र को निहार रहा हूँ। चित्र मेरी माँ का है। माँ थी! ..ऐसा ही कह रहे हैं, सभी लोग-माँ थी..! मेरा हृदय यह स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। भला माँ 'थी' कैसे हो सकती है! माँ तो माँ है, कल भी वह माँ थी आज भी माँ ही है। न जाने लोग क्यों, माँ को भी अतीत और वर्तमान के पैमाने से नापने लगते हैं? माँ ने शरीर-त्याग किया और वह वर्तमान से अतीत हो गई! ..'है' से 'थी' हो गई, आश्चर्य! ऐसा कैसे हो सकता है? ..माँ कोई शरीर तो नहीं। यदि माँ शरीर ही है, फिर शरीर तो कहीं नहीं गया था? शरीर तो हमारे सामने ही था। हम ही ने तो पँचभूत में विलीन किया था, उसे। ..क्यों किया था? माँ यदि शरीर है, तो फिर अपने ही हाथों हमने माँ को क्यों मार डाला? क्यों! ..हमने स्वयं ही कालातीत माँ को 'है' से 'थी' में परिवर्तित कर दिया? ..काल का सम्बन्ध उम्र से है और माँ की कोई उम्र नहीं होती। उम्र शरीर को होती है, इसलिए शरीर ही काल-सापेक्ष है, माँ नहीं! ..नहीं-नहीं! माँ शरीर नहीं, वह  तो एक अनुभूति है। अनुभूति का काल से क्या सम्बन्ध? अनुभति तो प्रत्येक काल में वर्तमान रहती है। ..हाँ! ..माँ शरीर नहीं है। शरीर तो केवल उनके लिए ही अनुभूति का आलम्बन हो सकता है, जिन्होंने माँ के यथार्थ-दर्शन नहीं किए।
           चित्र मुस्करा रहा है और मैं चित्र-दर्शन में तल्लीन हूँ। अपनी अनुभूति में गहरे डूबता जा रहा हूँ। ..कृष्ण भी तो यही कहते हैं-आत्मा अमर है, शरीर नश्वर। फिर माँ 'है' से 'थी' कैसे हो सकती है? शरीर त्याग के उपरान्त यदि माँ 'थी' हो गई तो क्या अब उससे रिश्ता बदल गए। अब वह माँ नहीं कुछ और हो गई अथवा कुछ भी नहीं रही? क्या वह पूर्व हो गई और वर्तमान में किसी अन्य शरीर के साथ माँ का रिश्ता जुड़ गया? ..नहीं-नहीं! कतई नहीं! आज माँ सपनों में आती है। रूई के फोया-सी नर्म हथेलियों से स्नेहिल थपकी देकर सुलाती है। कभी-कभी घृणा विहीन डाट की घुट्टी पिलाती है। कभी कभी कान पकड़कर सीधी राह दिखलाती है। वही सब कुछ तो करती है, जैसा कि शरीर त्याग से पूर्व जाग्रत अवस्था में करती थी। फिर कैसे मान लू ..! हाँ, अवस्थाओं के भेद के अलावा जाग्रत और स्वप्नावस्था में अन्तर भी क्या है! स्वप्नावस्था में भी तो वैसे ही सभी क्रिया-कलाप सम्पन्न होते हैं, जैसे और जो जाग्रत-अवस्था में सम्पन्न होते हैं। फिर किस आधार पर यह स्वीकार कर लूँ कि जाग्रत-अवस्था ही सत्य है और स्वप्न मिथ्या! ..नहीं! यदि जाग्रत-अवस्था सत्य है तो स्वप्नावस्था भी सत्य है। दोनों के अपने-अपने संसार हैं। माँ है, आज भी है। बस, जर्जर शरीर का त्याग कर वह अनन्त में लीन हो गई है। ज्योति, ज्योति-पुँज में लीन हो गई है! किन्तु शरीर के समान अस्तित्वहीन तो नहीं हुई है। सीमित अस्तित्व का त्याग कर उसने विराट अस्तीत्व  ग्रहण कर लिया है। न जाने क्यों लोग कह रहे हैं- माँ 'है' नहीं, 'थी'!  यह तो उनका भ्रम मात्र है! ..माँ तो कल भी अनुभूत थी, आज भी अनुभूत है।
          आज माँ की तेरहवीं है, अर्थात ब्रह्मभोज। घर के बाहर मातमपुर्सी के लिए आगन्तुकों की चहलकदमी बढ़ने लगी है। आहट से मेरा ध्यान भंग हो गया है। माँ के चित्र पर से दृष्टिं हट गई है। परिवार वालों ने आज ही शोकसभा का भी आयोजन किया है। मालूम नहीं शोक किसलिए और किसके लिए! मैं शोक का औचित्य समझ नहीं पा रहा हूँ! माँ तो कल भी थी आज भी है। क्या शोक उस शरीर के लिए जिसका त्याग कर माँ विराट में समा गई? यदि शरीर के लिए शोक तो फिर क्यों आपने ही हाथों से उसे पँचतत्व में विलीन कर दिया? ..सहेज कर क्यों नहीं रख लिया? शोक केवल इसलिए कि शरीर त्याग को जीवन-समाप्ति के रूप में स्वीकार कर मृतक के प्रति संवेदना व्यक्त करने की परम्परा है! प्रश्नों की इस श्रृंखला में एक प्रश्न यह भी है कि यदि माँ के प्रति संवेदना व्यक्त करने का प्रदर्शन आवश्यक ही था तो फिर तेरह दिन पूर्ण होने पर ही तेरहवीं क्यों नहीं? क्यों सात दिन पूर्ण होने पर ही तेरहवीं की औपचारिकता पूर्ण करने फैसला ले लिया? तेरहवीं कितने दिन पर की जाए, परिवार में इस विषय पर अच्छी-खासी चर्चा हुई थी। शायद इसलिए कि तेरह दिन तक शोक का नाटक करते रहना परिवार के लिए असहनीय था। पुरोहित ने जब बताया कि तेरह दिन पर तेहरवीं पुरुषों की होती है। महिलाओं के लिए शोककाल केवल ग्यारह दिन का होता है। पुरोहित के मुख से शास्त्र-व्यवस्था सुनकर परिवार को कुछ राहत मिली थी।  ऊंगलियों पर तिथियों की गणना करते हुए चाचा जी बोले, ''तो फिर ग्यारह दिन मतलब, कृष्णपक्ष की तृतीया की तेरहवीं पड़ी!''
  ''ग्यारह दिन! एक-दो दिन ओर फालतू लग जाएंगे! ..मतलब वही पंद्रह दिन के करीब! बीमारी की सुनकर दो दिन पहले ही आ गया था!'' पत्नी से सलाह-मश्विरा करने के बाद मन्द स्वर में भाई साहब बोले, ''..इसका मतलब छुट्टी बढ़ानी पड़ेगीं!''
  ''हाँ! तेरहवीं की रस्म तक तेरा रहना जरूरी है, रमेश। मातमपुर्सी के लिए लोग आएंगे उनके लिए बैठक में तेरा बैठना जरूरी है।'' भाई साहब की ओर मुख़्ातिब हो कर चाचाजी ने कहा।
  ''मगर चाचाजी! इस काम में तो कोई कीर्ति की आँख ना है! यह काम तो कंवल भी कर लेगा!'' बचाव की मुद्रा में भई साहब ने सुझाव दिया था।
  भाई साहब का सुझाव शास्त्रों के अनुकूल नहीं था। अत: चाचाजी  तत्काल ही बोले, ''नहीं-नहीं! कैसी बात करता है! रस्म पूरी होने तक दाग देने वाले को ही जमीन पर कपड़ा बिछाकर बैठना होता है! ..फिर, पगड़ी भी तो तेरे ही सिर बंधनी है, रमेश!''
  चाचाजी की व्यवस्था सुनकर भाई साहब ने ऐसे मुँह बना लिया था, जैसे किसी ने उन्हें नीम के पत्तों की चटनी चटा दी हो। लेकिन पगड़ी बंधने की बात में उन्हें कुछ वजन दिखाई दिया, इसलिए ही तो उन्होंने कहा था, ''पगड़ी.. ठीक है। कुछ करता हूँ!''
  तभी पुरोहित जी ने पत्रे पर से निगाह उठाई और बोले, ''मगर, जिजमान! इस बीच शरद पूर्णिमा भी तो है! ..कृष्णपक्ष की तृतीया की तेरहवीं करने पर पूर्णिमा की आन पड़ जाएगी। ..फिर कभी पूर्णिमा नहीं मना पाओगे जिजमान!''
  पुरोहित जी की बात सुनकर भाई साहब का जायका कुछ सुधरा था। और, चाचा जी को बोलने का मौका न देकर वे बोले, ''बात तो आपकी भी सही है, पंडिजी! ..फिर क्या किया जाए!''
  ''ब्रह्मंभोज के लिए चतुर्दशी का दिन भी शुभ है, जिजमान!''
  ''तब तो सात दिन की तेरहवीं हो जाएगी, पंडिजी!'' चाचाजी ने हिसाब लगा कर कहा था।
  ''कोई बात ना है! शुक्लपक्ष शुभ होता है, जिजमान! ..आजकल तो बरसी की रस्म भी तेरहवीं के दिन ही पूरी कर लेते हैं!''
  संवेदनशीलता के उत्कृष्ट मानदंडों का पालन करने वाले मेरे परिवार के लिए तेरह अथवा ग्यारह दिन तक पूर्ण शोक और एक वर्ष तक आंशिक शोक की वेदना झेलना असहनीय था। अत: पंडिजी की बात सहर्ष स्वीकार कर ली गई थी। माँ के प्रति परिवार की संवेदना और संवेदनशील उनकी भावनाओं पर विचार करते-करते मेरे चेहरे पर बरबस ही व्यंग्य भाव उतर आए हैं।
            परिवार की संवेदनशील भावनाओं पर विचार करते-करते माँ की जीवन-यात्रा के अन्तिम दिन चलचित्र की भांति एक-एक कर मेरे मस्तिष्क में उतरने लगे हैं। लगभग एक घण्टा पहले ही मैं पत्नी को माँ के पास छोड़कर अस्पताल से कार्यालय आया था। मैं कार्यालय में छोटे-छोटे किन्तु आवश्यक कार्य निपटाने में व्यस्त था। उसी दौरान भर्राई आवाज में पत्नी ने फोन पर बताया था- माँ! ..चली गई! भावुकतावश इतना कहने के बाद वह मौन हो गई थी। उस समय मेरे मुँह से 'अच्छा! ..मैं आता हूँ!' सहज भाव के साथ ऐसे निकला मानों कुछ हुआ ही नहीं, सभी कुछ सामान्य है! कार्यालय से अस्पताल की दूरी अधिक नहीं थी। अस्पताल तक जाते-जाते माँ के रहने न रहने से उत्पन्न भाव-अभाव मेरे मस्तिष्क में उतरने लगे थे और भाव-अभाव के ऊष्ण दबाव के कारण मेरे मन में विक्षोभ-सा उत्पन्न हो गया था। पत्नी के समक्ष पहुंचते-पहुंचते नेत्रों से पसीने की सी दो बूंद चेहर पर आकर रुक गई थी। मुझे देखकर रुंधे गले से पत्नी बोली, ''माँ जी चली गई! ..कुछ दिन और सेवा करने का मौका दे देती..!'' बस इतना कह कर पत्नी अन्दर ही अन्दर सुबकने लगी थी। माँ के वियोग से उत्पन्न अभावों के अपने और सेवा से प्राप्त होने वाले पुण्य सम्बन्धी पत्नी के स्वार्थ से मुझे अहसास हुआ कि प्रियजन की मृत्यु का समाचार प्राप्त होते ही नेत्र क्यों सजल नहीं होते हैं? हृदय-तल से हिचकियाँ क्यों नहीं उठती? आँखें नम होने के लिए एक क्षण ही सही, मगर समय क्यों लगता है? ..यथार्थ में आँखें प्रियजन-शोक में नहीं, उसके चले जाने से उत्पन्न अभावों के कारण नम होती हैं! स्वार्थ जितना गहरा होता है, हृदय-तल की उतनी ही गहराई और उतने ही वेग से शोक आसुओं में परिवर्तित हो कर नेत्रों की सीमाएं लांघता है।
        शरीर-त्याग से पंद्रह-सोलह दिन पहले ही की तो बात है। माँ का फोन आया था, ''सुन तेरा भाई बीमार है। उसे तुरत यहाँ से ले जा।'' मैं घबरा गया था। ऐसा क्या हो गया है, रवि को जो माँ इतनी परेशान है। पत्नी के साथ गाडं़ी उठाकर मैं तुरन्त ही गाँव के लिए रवाना हो गया था। गाँव पहुँच कर पाया, रवि तेज बुखार से तप रहा है। अगले दिन सुबह मैं भाई के साथ माँ को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हो गया था। पूरा रास्ता माँ के साथ बात करने में तय हुआ था, तुम्हारी तबियत कैसी है? ..अब चक्कर तो नहीं आते ? ..दवाई ले रही हो या नहीं? प्रत्येक प्रश्न का माँ के पास एक ही जवाब था, ''तू मेरी फिकर छोड़! पहले इसका इलाज करा, हर दूसरे दिन बुखार में तपने लगता है!'' कभी माँ से तो कभी रवि से बात करते-करते हम घर पहुँच गए थे। हाँ रास्ते में एक जगह हम सभी ने मलाई वाली कुलफी का स्वाद अवश्य लिया था। यह सोचकर कि कुलफी खाने से रवि के तपते बदन और रवि के ताप से संतप्त माँ के ताप में कुछ गिरावट आएगी और दोनों को ही कुछ सुकून प्राप्त होगा!
    दरअसल माँ को कुलफी पसन्द थी। हफ्ते में एक-दो बार गाँव में भी कुलफी बेचने वाला आया करता था। छोटी-सी चार पहियों की एक रेहड़ी में मटका रखा होता था। जिसमें नमक व बर्फ के मिश्रण के बीच टीन से बनी शंकु-आकृतियों दब रहती थी, जिन्हें कुलफी कहते थे। उन्हीं कुल्फियों में एक-दो पिस्ते के कतरों के साथ रबड़ी जमा कर बर्फ तैयार की जाती थी। क्योंकि कुल्फियों में बर्फ जमाई जाती थी। सम्भवतया  इसलिए ही रबड़ी वाली उस बर्फ का नाम भी  कुलफी ही पड़ गया होगा। और, क्योंकि कुलफी मटके में भरी होती थी, इसलिए उन्हें मटके वाली कुलफी कहने लगे थे।  घर के बाहर जैसे ही कुलफी वाला अपने विशिष्ट स्वर में आवाज लगाता-म-ट-केऽऽऽ वाऽऽऽ-ली, कु-ल-फीऽऽऽ! वैसे ही बच्चे अपनी-अपनी कमीज के पल्ले में अनाज भरकर उसके पास पहुंच जाते थे। हाँ, उस समय तक भारतीय मुद्रा के अतिरिक्त अनाज भी विनिमय का माध्यम था। कुलफी वाला हमारे घर के सामने अवश्य आवाज लगाता था, क्योंकि उसे मालूम था कि इस घर से तो खरीददारी होनी सुनिश्चित है।
     गाड़ी से उतरकर माँ आपने पाँव सही-सलामत सोफे पर जा कर बैठ गई थी।  चरण-स्पर्श कर पौत्र-वधू माँ के लिए पीने का पानी लेने चली गई। जबतक पानी लेकर लौटी, तबतक माँ कुछ निडाल-सी हो गई थी। बहू ने पानी पीने के लिए कहा, परन्तु माँ ने किसी भी प्रकार को कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। माँ निढाल हो चुकी थी। दरअसल माँ कोमा में चली गई थी और पंद्रह दिन बाद शरीर-त्याग कर कोमा से भी बाहर चली गई थी। रवि जिसका इलाज कराने दिल्ली लाया था, माँ की देखभाल के चक्कर में उसकी सुध ही नहीं रही और मामूली दवा-दारू से ही उसका बुखार उतर गया था और तब से आज तक उसका बदन कम से कम बुखार से तो नहीं तपा। माँ चली गई थी और रवि स्वस्थ हो गया था। सहसा ही मुझे बाबर के बीमार होने और हुमायूँ के स्वस्थ हो जाने की कहानी हकीकत-सी लगने लगी। कहते हैं कि मु़गल शहजादा हुमायूँ एक बार ला-इलाज बीमारी के चपेट में आ गया था। हकीम-हुकमरान सभी ने हाथ खड़े कर दिए। मु़गल-ख़्ानदान का चिराग बुझने के करीब था। उसी दौरान हुमायूँ के वालिद शहंशाह-ए-हिन्दोस्तान बाबर ने दुआ के लिए दोनो हाथ उठाकर अल्लाह से इल्तजा की, ''हे, परवदिगार मु़गल-ख़्ानदान का चिराग न बुझा। उसे रोशन कर, परवरदिगार! ..चाहे, उसके सारे मर्ज मुझे दे दे, मगर शहजादे की जान बख़्श दे।'' कहते हैं आहिस्ता-आहिस्ता शहंशाह बाबर बीमार पड़ने लगा और शहजादा हुमायुं स्वस्थ होने लगा।
   माँ की प्रबल इच्छा थी कि जब भी वह प्राण-त्याग करे अपने गाँव अपनी मिट्टी में ही करे। किन्तुविधि के विधान को कौन जान पाया है। क्योंकि, उसके विधान का कोई विशेषज्ञ नहीं है, इसलिए उसकी अपील भी कहीं नहीं है। महानगर की आबोहवा में उनका दम-सा घुटता था। गाँव से जब कभी उन्हें लेकर आया हफ्ता-दस दिन से ज़्यादा नहीं रहीं। कहती, ''तेरी दिल्ली में मेरा मन ना लगै है। दिन भर कमरा में बंद बैठे रहो। ..मेरा मन ना लगै!''  कभी बहाना बनाती, ''देख! ..झुम्मन जुलाहे की माँ पांच सौ रुपए उधार लेगी थी। अब की इकादशी कू देने थे। ना जाऊंगी तै रुपए मारे जावेंगे! तू छोड़ आ मुझे!'' जब कोई बहाना न चलता तो माँ बिना वजह बहू पर नाराज हो जाती। मैं समझ जाता अब माँ का मन उछट
गया है, गाँव जाने की इच्छा है। मैं कहता माँ चल कल तुझे गाँव छोड़ आऊं। माँ खुश हो जाती और मुझे लाख आशीष देती। महानगर के इस कृत्रिम समाज, कृत्रिम संस्कृति में माँ का मन लगता भी कैसे! गाँव में बिमला की बिब्बी, नरेश की माँ, राकेश की ताई, उर्मिला की चाची, हुसैनपुर वाली,
खरखोदे वाली, तलहैटा वाली आदि-आदि का एक स्वनिर्मित अपना समाज था। वहाँ एक-दूसरे के दुख-सुख की सुनने वाली देवरानी-जिठानियों का समूह था। बस बात-बात में यूं ही दिन, महीना, वर्ष और जीवन बीत जाता था। महानगर में मन लगता भी कैसे न देवरानी, न जेठानी बस दस नम्बर वाली, चार नम्बर वाली या बारह नम्बर वाली। माँ का भला इन नम्बरों से क्या वास्ता! नम्बर न सुख की कहें और न दुख की सुने! नम्बर तो बस नम्बर हैं। नम्बरों का क्या? नम्बर तो गूंगे-बहरे होते हैं!
           अतीत की विथिकाओं में विचरता, मैं विधि के विधान का संशलेषण-विश्लेषण कर रहा था। तभी रवि का आवाज मेरे कानों में पड़ी-भईया जैन साहब आए हैं! चाचाजी ऊंची आवज में कह रहे थे-मेहमान आ गए हैं, मिलने-जुलने वाले भी आने लगे हैं, बरखुरदार हैं कि नदारद! बैठे होंगे घर के किसी कोने में समाधी लगाए! माँ के चित्र को अकेला छोड़ मैं उस ओर चल दिया, जहाँ मातमपुर्सी के लिए सभी लोग इकटठा हो रहे थे। जैन साहब भी उन्हीं में से एक थे। पुरुषों के लिए दरवाजे के बाहर सड़क घेर कर शामियाना लगाया गया था। उसी के एक ओर ब्रह्मंभोज का तैयारी चल रही थी। घर के अन्दर हॉल में बैठी महिलाएं विलाप कर माँ के प्रति संवेदना व्यक्त कर रहीं थी। उनका विलाप धारावाहिक अनुशासन का पालन कर रहा था। विलाप माँ का स्मरण कर प्रारम्भ होता और एक क्षण के बाद ही माँ का विस्मरण कर अपने-अपने मृत परिजन का नाम लेकर विलाप करने लगती। कुछ देर बाद ही विलाप ऐसे थम जाता, जैसे किसी ने रिमोट का ऑफ बटन दबा दिया हो। एक ही घटना को लंबा खींचने से नाटक उबाऊ हो जाता है, अत: अच्छा नाटक वही है, जिसमें घटनाएं तेजी के साथ बदलती रहें।
   विलाप का दौर समाप्त हो जाने के उपरान्त सभी महिलाएं यथा-स्थिति में दो-दो, चार-चार के समूह में विभक्त होती और एक दूसरे के साथ पारिवारिक अपनी-अपनी वेदना साझा करने में व्यस्त हो जाती। उम्र और रिश्तों के हिसाब से सास-ससुर, देवर-देवरानी, जेठ-जिठानी, नन्द-नन्दाोई मसलन पारिवारिक सभी रिश्ते समीक्षा के विषय थे। उन्हीं में हमारी चाची रवि की पत्नी को समझा रही थी, ''बावली ना बन! ..बीवजी का गाँव में जितना पैसा है, उसे घर जाते ही अपनी गाँठ में लगा। बुढ़ापे में बीवजी की सेवा तूने ही तो की है। ..अर, सुन! बीवजी के हाथ में सोने की दो-दो चूड़िया भी तो थी! मुझै तो लगै है, बक्सर वाली दबा बैठी है। ..बावली क्यों बनै है, रसम पूरी होते ही अपना हिस्सा माँग लियौ!'' ताई मेरी पत्नी को समझा रहीं थी, ''दिके! रामपुर वाली ने गाँव में जितना पैसा चढ़ा रक्खा था, वो तो छोटी दबा कै बैठ जावेगी। ..उसके हाथ की चूड़ी तो उतार ली ना। उन्हें किसी कू मत दियो, हारी-बिमारी मैं तो तू ई काम आई, ना! माँगै तो कह दियो, पहलै गाँव के एक-एक पैसे की हिसाब दे ओ। ..तू बावली थोड़े ही है। आखरी बख्त में तो रामपुर वाली की सेवा तू ने ही करी है। ..तेरा हक पूरा बनै है!'' जब-जब कोई नई महिला मातमपुर्सी के लिए हॉल में प्रवेश करती धारावाहिक का अगला भाग प्रारम्भ हो जाता है। आगन्तुक महिला की उपस्थिति का भान कर उपस्थित सभी महिलाएं एक साथ उसी प्रकार पुन: विलाप करने लगती, जैसे बैंड मास्टर की ऊंगली हवा में उठते ही वादक अपने-अपने वाद्य यन्त्र बजाने लगते हैं।
       मैं ने जब बाहर लगेशामियाने में प्रवेश किया तब उपस्थित अधिसंख्य पुरुष अपनी-अपनी रुचि के मुताबिक गली-मोहल्ले, देश-विदेश की अर्थनीति, राजनीति, धर्मनीति की समीक्षा करने में व्यस्त थे। मेरे उपस्थिति की अहसास कर क्षणभर के लिए समीक्षा पर विराम-सा लग गया और चेहरों से वेदना के  स्वर टपकने लगे। मुझे देखकर परम्परागत मातमी आवरण धारण कर जैन साहब खड़े हुए और दोनों हाथ जोड़ कर नमस्कार किया। वेदना युक्त अभिवादन के उपरान्त जैन साहब मुँह मेरी कान के समीप लाकर बोले, ''क्या बात है, पिल्लू  नहीं दिखाई दे रहा है?'' पिल्लू हमारा पालतू कुत्ता था। बीमारी के कारण जिसकी मृत्यु हो गई थी। जैन साहब के प्रश्न को आकस्मात उत्पन्न किसी जिज्ञासा के रूप में लेते हुए मैं ने सहज भाव से उन्हें बताया, ''हाँ, पिल्लू मर गया है।'' मैंने सोचा जैन साहब की जिज्ञासा अब शान्त हो गई होगी। किन्तु मेरा अनुमान गलत निकला पिल्लू के बारे में जैन साहब की जिज्ञासा शान्त नहीं हुई, क्योंकि वह आकस्मिक नहीं, अपितु साभिप्राय थी। मेरा उत्तर सुनते ही उनके चेहरे पर व्याप्त वेदना की लकीरे माँ से पिल्लू के शोक में परिवर्तित हो कर ओर गहरी हो गई थी। और, वे पिल्लू का चरित्र-वर्णन करने में व्यस्त हो गए थे। उनके मुख से पिल्लू का चरित्र-वर्णन सुनने  के बाद मामतपुर्सी के लिए आए अन्य महानुभावों का ध्यान भी आकर्षित हुआ और पिल्लू-चरित्र-चालीसा विषय पर शुरू वार्ता कुत्तों की विभिन्न प्रजातियों व उनके चरित्र विषय पर विचार गोष्ठी में परिवर्तित गई थी। एक ओर पगड़ी रस्म के उपरान्त शोकसभा में वक्ता आत्मा की अमरता और दिवंगत आत्मा के सद्गुणों पर प्रकाश डालकर माँ को श्रद्धांजलि अर्पित करने की चेष्ठा कर रहे थे। दूसरी ओर कुत्ता-प्रेमी कुत्ता-विचार-गोष्ठी में व्यस्त थे। उनके लिए माँ और मातमपुर्सी कहीं नेपथ्य में चली गई थी! विचार गोष्ठी ब्रह्मंभोज प्रारम्भ होने तक जारी रही।
     किसके पुत्रों ने अपने पिता अथवा माता के ब्रह्मंभोज में स्वादिष्ट कितने व्यंजनों का भोज दिया, इसी विषय पर चर्चा करते-करते मातमपुर्सी-पुरुष और महिलाओं ने भोज का भोग कर अपनी-अपनी राह पकड़ी। बाहर खान-पान-सम्मान की औपचारिता पूरी की जा रही थी। घर के अन्दर माँ की बहुएं पगड़ी की रस्म में भाइयों की ससुराल से आए वस्त्र, नकदी और भोज से बच्चे लड्डूओं का बटवारा कर रहीं थी। बटवारे का दृश्य देखकर मुझे लगा की जाते-जाते माँ बंदरों के बीच गुड़ की भेली रख गई है।
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