Saturday, June 14, 2008

मूछों से घुटनों पर उतरती राजनीति

ग्लोबल कोई समस्या हो अथवा राजनीति घुटनों पर ही वार करती है। अब महंगाई को ही लीजिए, कमबख्त जब से ग्लोबल हुई है, उसने जनता के घुटने तोड़ दिए हैं। हालांकि महंगाई जनता को परेशान तब भी करती थी, जब देसी थी, मगर तब बदन में खुजली-सी ही करके रह जाती थी। जनता को घुटनों के बल रेंगने के लिए मजबूर नहीं करती थी। अब ग्लोबल राजनीति को देखलें, पहले अफगानिस्तान में तालिबान के घुटने तोड़े, फिर ईराक में सद्दाम के। पाकिस्तान के घुटने भी सुरक्षित नहीं हैं, ग्लोबल राजनीति उसके घुटनों पर मीठी-मीठी मार कर उन्हें कमजोर करने में लगी है। मोटे तौर पर देख जाए, ग्लोबल राजनीति से प्रेरणा प्राप्त कर अपनी देसी राजनीति भी ग्लोबल ही हो गई है। और, स्वदेशी राजनीति डायनासॉर की गति को प्राप्त हो गई है।

दरअसल राजनीति अब मूंछों से उतर कर, घुटनों पर आ गई है। लड़ाई व्यक्तिगत स्तर पर हो अथवा दलीय स्तर पर निशाना घुटनों पर ही साधा जाता है। आजकल इसके लिए विपक्ष हथियार के रूप में महंगाई का बेहतर इस्तेमाल कर रहा है। महंगाई से सरकार के घुटनों पर वार कर रहा है। सरकार को घुटनों के बल रेंगने के लिए मजबूर कर रहा है। इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि पूर्व में लड़ाई भले ही मूंछों की रही हो, लेकिन घुटनों का महत्व दब भी कम नहीं था। उस समय भी प्रतिद्वंद्वी की मूंछें नीची करने की अपेक्षा उसे घुटने टेकने के लिए मजबूर करने पर ज्यादा जोर दिया जाता था। लेकिन अब तो हालात बिलकुल ही बदल गए हैं। राजनीति में अब मूंछें अल्पसंख्यक हो गई हैं। ग्लोबल राजनीति के जितने भी घुटने टिकाऊ राष्ट्राध्यक्ष हैं, वह चाहे अमेरिका का हो अथवा ब्रिटेन का या हो चीन का सभी मूंछ विहीन हैं। देसी राजनीति की तो बात ही अलग है। इतिहास गवाह है, भारतीय राजनीति में मूंछ-विहीन नेता ही सफलता को प्राप्त हुए हैं। कुछ नेताओं के अधरों पर अवश्य मूंछें दिखलाई दे जाती हैं, किंतु उन्हें मूंछ कहना मूंछों का अपमान है। दरअसल वे मूंछों के अवशेष हैं, जो भविष्य में मानवशास्त्रियों के लिए अध्ययन में सहायक सिद्ध होंगी।

मर्दो की शान कहे जाने वाली मूंछ-संस्कृति के पतन का आखिर कारण क्या है, विशेषरूप से राजनीति में? इस ज्वलंत विषय पर हमने गहन अध्ययन किया है। अध्ययन के उपरांत हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मूंछें प्रगति में बाधक हैं। व्यक्ति हो अथवा नेता वही तरक्की को प्राप्त हुआ है, जिसने मूंछों को प्रमुखता प्रदान नहीं की है। दरअसल मूंछें नाक का बाल बनने में अवरोध उत्पन्न करती हैं और तरक्की व्यक्तिगत जीवन में करनी हो अथवा सार्वजनिक जीवन में किसी की नाक का बाल बनना परमावश्यक है। राजनीति में तो नाक का बाल विशेष महत्व रखता है। मूंछ-संस्कृति के पतन का दूसरा प्रमुख कारण है, मूंछों का स्टिंग-ऑपरेशन में सहायक सिद्ध होना। दरअसल मुछंदर व्यक्ति जब कभी मलाई चाटता है, तो मूंछें चुगली कर देती हैं, गोपनीय तथ्य को उजागर कर देती हैं। नेताओं के लिए यह विकट समस्या है, क्योंकि मलाई चाटना उनकी आदत है। अत: मूंछें अनुपयोगी हैं और अनुपयोगी मूंछों के भार से अधरों को भार-संपन्न करने का औचित्य क्या?

घुटनों का महत्व भी यद्यपि पुरातन काल से ही है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता उन्हें एनडीए सरकार के समय प्राप्त हुई थी। उस समय सरकार के भाजपाई घुटने कुछ कमजोर पड़ गए थे, अत: पेंगुइन की चाल चलती-चलती सरकार सत्ता से बाहर हो गई। क्योंकि घुटने सरकार के थे, अत: राष्ट्रीय महत्व मिलना स्वाभाविक था। सुना है, अब भाजपा ने नए घुटने तलाश लिए हैं, देखना यह होगा कि नए घुटनों में कितनी जान है। एनडीए की सत्ता में वापसी करा पाते हैं, अथवा नहीं।

घुटनों के संबंध में प्रसिद्ध यह जुमला : 'गिरते हैं शह -सवार ही मैदान-ए-जंग में, वो क्या खाक जीएंगे जो घुटनों के बल चलते हैं।' भी घुटनों के महत्व को दर्शाता है, मगर अब स्थिति बदल गई है। अब वे ही लोग जीते हैं, जो अपने बॉस के सामने घुटनों के बल रेंगते हैं। सीधे घुटने वाले शख्स अक्सर गिरते देखे गए हैं। दरअसल घुटनों के बल रेंगना अब कला का रूप ले चुका है। आधुनिक युग में पांव-पान-पूजा की संस्कृति का महत्व भी बढ़ा है और उसमें भी घुटनों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। क्योंकि, पूजा वही उत्तम कह लाई जाती है, जो घुटनों के बल बैठकर की जाती है और पांव छूने के लिए भी घटने मोड़ने ही पड़ते हैं। अत: मूछों की अपेक्षा अब घुटनों की राजनीति का महत्व बढ़ता जा रहा है।

संपर्क ः 9717095225